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जाको राखे रब

जा को राखे रब

मैं सुन रहँटा और वह बता रहा था। “हमारा घर गहराई मे आ गया तो तोड़ कर दोबारा बनाने की योजना बनाई और पुराने घर की दीवारें ऐसे तोड़ी कि सभी ईंटे साबूत निकल आयें जिससे नया मकान बनाने के लिए पुरानी ईंटों का प्रयोग किया जा सके और नई ईंटें कम से कम खरीदी जाएँ। घर की पुरानी दीवारों से ईंटें निकालने का काम सभी घरवाले आपस में मिलकर स्वयं ही कर रहे थे क्योंकि इससे दो लाभ हो रहे थे, एक तो किसी दूसरे को मजदूरी नहीं देनी पड़ेगी और दूसरे यह कि घर वाले ज्यादा से ज्यादा साबूत ईंटें निकाल कर आराम से रख देते थे। घर वालों का ईंटें निकालने का कोई निश्चित समय भी नहीं था, सुबह, शाम, दोपहर मे जैसे ही जिसको भी सम य मिलता वह कर लेता था। दीवारें हटाने के बाद नींव में से ईंटें निकलनी थी और नींव थी भी सात फुट गहरी, काफी ईंटें लगी थी इसलिए उनको वहीं जमीन मे छोड़ भी नहीं सकते थे।

उस दिन पिताजी और ताऊ जी खेत में जाते समय मुझे बोल गए, “अमरेश नींव की ईंटें निकाल लेना।” उस दिन मैं घर पर ही था, छोटा भाई भी स्कूल चला गया था, स्कूल जाने से पहले उसने थोड़ी देर मेरी सहायता की थी। मैं एक एक ईंट निकाल कर बाहर फेंक रहा था तो गहराई में जाता जा रहा था। मोबाइल में गाने लगाकर मैंने किनारे पर रख दिया था, गाने सुनते हुए अपने काम में व्यस्त मैं देख ही नहीं पाया कि जैसे जैसे ईंटें निकलती जा रही थी तो नींव के बराबर की मिट्टी में एक बड़ी दरार आ गयी थी। मैं अकेला था और मुझे इस बात का जरा भी भान नहीं था कि इस तरह ईंटें निकालने से जो जगह खाली हो रही थी उसमे बराबर से आकर मिट्टी भी गिर सकती है। सात फीट गहराई में से ईंटें निकाल कर बाहर फेंकना थोड़ा मुश्किल लगा तो मैंने ईंटें वहीं पीछे इकठ्ठा करना शुरू कर दिया एवं वहीं गड्ढे में एक कट्टा बिछाकर उस पर बैठकर काम करने लगा क्योंकि खड़े खड़े और झुककर काम करते हुए मैं थक गया था।

हमारे सामने वाले घर की दो छोटी बच्चियाँ ऊपर किनारे पर खड़ी होकर मुझे काम करते हुए देख रही थीं और मैं नीचे गहरे गड्ढे में आगे को मुंह करके पैरों के बल बैठ कर अपना काम कर रहा था, तभी अचानक किनारे से मिट्टी का एक बड़ा सा ढेर कट कर मेरे ऊपर आकर गिर गया, मैं मिट्टी के एक भारी बोझ तले दब गया, चूंकि पूरा मिट्टी का ढेर मेरी कमर व आस पास मे गिरा था तो मेरे मुंह के सामने की जगह खाली रह गयी और मैंने ज़ोर ज़ोर से घर वालों को आवाज लगाई जो उन तक नहीं पहुँच सकी। मेरा मोबाइल भी मिट्टी के ढेर में दब कर बंद हो गया था। जब मैं मिट्टी में दबा तो वो दोनों बच्चियाँ बुरी तरह घबरा गईं एवं ज़ोर ज़ोर से रोने लगीं, उनके रोने की आवाज मुझे थोड़ी थोड़ी सुनाई पड़ रही थी फिर वे दोनों वहाँ से डरकर भाग गईं, लेकिन मुझे लगा कि शायद ये बच्चियाँ घर पर जाकर बताएँगी और मुझे इस मिट्टी के ढेर में से निकाल लिया जाएगा। मैं स्वयं भी अपनी पूरी ताकत लगाकर आवाज लगा रहा था कि कोई मेरी आवाज सुनकर यहाँ आएगा और मुझे निकाल लेगा। धीरे धीरे मेरी हिम्मत भी जवाब देने लगी, गड्ढे मे ऑक्सीज़न भी कम होती जा रही थी और अब मुझे लगने लगा था कि बस अब मैं यहाँ इस मिट्टी के ढेर में ही दब कर मर जाऊंगा। मैंने पूरा ज़ोर लगाकर मिट्टी के ढेर से बाहर आने की कोशिश की लेकिन इतने भारी बोझ के नीचे दबा हुआ मेरा शरीर मेरी पूरी ताकत से भी नहीं हिल पाया। मैंने पूरे ज़ोर लगाकर आवाज लगाई और आवाज लगाते लगाते ही मैं बेहोश हो गया।

बेहोशी में मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे पैरों में रस्सी बांध रखी है और मुझे जमीन पर लिटा कर गली में खींच कर ले जा रहा है, मेरा सिर कभी गली के इस तरफ वाले मकानों में लगता है और कभी गली के उस किनारे वाले मकानों में लगता है। खींचने वाले को मैं देख नहीं पा रहा हूँ लेकिन हाँ, ऐसे जैसे हम बच्चे एक छोटी सी गाड़ी का खिलौना रस्सी बांध कर गली के ऊबड़ खाबड़ रास्तों में खींचते थे ठीक वैसे ही वह मुझे खींच कर लिए जा रहा है, इस सब से बेखबर कि मैं कोई निर्जीव बच्चों की गाड़ी नहीं एक जीता जागता बच्चा ही हूँ, बच्चे से थोड़ा बड़ा। मुझे खींच कर ले जाते हुए वह गली के मोड पर पहुँच गया और वहीं मोड पर वह मुझे छोड़ कर भाग गया, मैं अपने पैर खोलने के लिए उठने की कोशिश करने लगा तो मुझे होश आ गया स्वयं को घर के बिस्तर पर लेटा पाया। सभी लोग मेरे पास खड़े थे, माँ पंखे से हवा कर रही थी और पिताजी मेरे सिर पर हाथ फिरा रहे थे। मेरा छोटा भाई मेरे पैरों के तालुवों की मालिश कर रहा था, यानि कि सभी मुझे होश में लाने की कोशिश कर रहे थे।

मेरे होश में आते ही सभी के चहरे खिल गए और मेरी माँ तो मुझसे लिपट कर सुबक सुबक कर रोने लगी। मुझे हल्दी वाला दूध पिलाया, और बाद में सब शांति से मेरी बात सुनने लगे। मैंने पूछा कि वो दोनों लड़कियां वहाँ से रोकर भागी थी तो मैंने सोचा था कि ये किसी न किसी को तो बता देंगी और मुझे निकाल लिया जाएगा। तब चाची ने बताया, “ये दोनों तो इतना डरी हुई थीं कि कुछ बोल ही नहीं रहीं थी बस रोये रोये जा रहीं थी। और बीच बीच में कहे जा रही थी कि अमरेश भैया तो दब गया। जब मैंने इनको चुप कराकर आराम से पूछा तब इन्होने बताया कि अमरेश भैया तो मिट्टी मे दाब गए तो मेरे पैरों के नीचे से तो जमीन ही सरक गयी और मैं दौड़ कर तुम्हारे घर आई, दीदी को बताया तब सब लोग दौड़ पड़े तुम्हें निकालने के लिए।” पिताजी ने बताया, “अमरेश वह 200 लिटर वाला पानी का ड्रम मिट्टी के किनारे ही रखा था और तिरछा भी हो गया था, अगर थोड़ा और तिरछा हो गया होता तो सारा पानी भी तेरे ऊपर वाली मिट्टी में ही भर जाता और फिर कुछ नहीं कर सकते थे।“ छोटा भाई बोला, “अमरेश भईया, मैंने आपको पहले ही कहा था कि स्कूल चलते हैं लेकिन आपने कह दिया कि जा तू ही चला जा स्कूल, मैं तो आज इस नींव की सारी ईंटें निकाल कर ही दम लूँगा।” तब मैंने छोटे को समझाते हुए बस इतना ही कहा, “भाई, जो होना होता है वह तो होकर ही रहता है और जाको रखें साइयाँ मार सके न कोय। मृत्यु, जो मुझे घसीट कर लिए जा रही थी तुम सब से डरकर मुझे छोड़ कर भाग गयी और मैं बच गया।” मैंने सोचा, “वास्तव में यह सच ही है कि जाको राखे रब उसको बचा ही लेते हैं सब”