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भूख

भूख

देश में बढ़ रही असहिष्णुता को लेकर चल रही बहस व पुरस्कार वापसी की चर्चा से आजकल खबरों का बाजार बेहद गर्म है। ये शोर जैसे ही थोडा मंद पडने लगता है, योजनाबद्ध ढंग से कोई न कोई नामचीन हस्ती इसके समर्थन में आकर इस आग को संजीवनी प्रदान कर देती है। निरन्तर खिंचते जा रहे इस प्रकरण पर जब-जब ध्यान जाता है, तो अनायास ही नसरीन बी का भूख से कुम्हलाया बीमार चेहरा आंखों के आगे घूम जाता है। समाज में व्याप्त धार्मिक कट्टरता के घृणित व स्याह चेहरे को करीब से देखने का वो मेरा पहला अवसर था। अब उस घटना को दस वर्ष बीत चुके है, पर किशोरावस्था की वो कटु स्मृतियां मस्तिष्क में अभी तक तरोताजा है। लगता है जैसे बस कुछ दिन पहले की ही बात हो.... अलीजान पुरवा मोहल्ला। नाम के अनुरूप मुस्लिम बहुल बस्ती। हिन्दुओं की आबादी न के बराबर। अशिक्षा, गरीबी, गंदगी, बीमार महिलाओं के जत्थे व कुपोषित बच्चो की फौज से हमेशा आबाद वाला। न बदलने की जिद पर अडे इस मोहल्ले में यदि कुछ झटपट बदलता है, तो वो है-‘ईद-बकरीद-बारावफात‘ की दिली मुबारकबाद देते नेताओं के बडे-बडे कट आउट ! एक ऐसी जगह जहां कुछ घरों में ऐन त्योहार के दिन भी फांके की नौबत रहती है..... ये कटआउट बधाई देते कम, उन लोगो की बेबसी का मजाक उडाते ज्यादा दिखते है। ‘ तुम्हारी फाइलो मे गांव का मौसम गुलाबी है....‘ की तर्ज पर सराकार द्वारा गरीबो के लिए चलाई जा रही राहत योजनाये कागज पर तो खूब सरपट दौडती है, पर वास्तव मे जस्रतमंदो के पास फटकने नहीं पाती।

इसी मोहल्ले मे रहती थी नसरीन बी। गोरा रंग, औसत कद, झुर्रियों से भरा चेहरा। उम्र की मार से कमर थोडी झुक गयी थी, इसलिए वह डंडे का सहारा लेकर चलती थी। चलना ही कितना होता था उन्हें.... मियां की दौड़ मस्जिद तक। सुबह-शाम कुल मिलाकर आठ-दस दरवाजो तक जाती थी वह। टैक्सी ड्राइवरी का पेशा करने वाला उनका नशेडी पति जुम्मन दशकों पहले मर चुका था। बाल-बच्चे न थे। अकेली जान नसरीन बी का ठिकाना मस्जिद की ठीक बगल वाली झोपड़ी मे था। उनके शरीर मे जब तक ताकत थी, वह मेहनत-मजदूरी कर पेट पालती थी। तत्पश्चात मोहल्लेवालो की रहम पर जीना उनकी नियति बन गया। लगभग चार हजार की आबादी वाली इस बस्ती मे नसरीन बी भीख मांग कर किसी तरह अपना गुजारा करती थी। उनकी झोपडी के पास ही मेरे दोस्त सुलेमान का आलीशान मकान था। उसके पिला शहर के नामी वकील थे। मै अक्सर सुलेमान से मिलने जाता, तो नसरीन बीप र नजर पड़ जाती। मुझे ताकता देख वह हौले से मुस्करा देती। एक आत्मीय मुस्कान। हम दोनो के बीच परिचय का दायरा बस इतना भर ही था। हाईस्कूल की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ, तो मुझे विघालय में सर्वाधिक अंक मिले। इस खुशी मे सुलेमान के लिए मिठाई खरीदी, तो एक डिब्बे मे कुछ लड्डू नसरीन बी के लिए भी रखवा लिये। मुझे मिठाई के डिब्बे के साथ सामने पाकर वह पहले तो कुछ हड़बड़ायी और फिर जैसे निहाल हो उठी।

......पढ़ लिख कय बहोत बड़का हाकिम होय जाव.....जुग-जुग जियव बेटा.....खुब नाव कमाव....῎ उनके पोपले मुंह से झर रहे अनगिनत आर्शीवचनो के समक्ष मुझे अपना डिब्बा एकबारगी बहुत हल्का लगने लगा।

नसरीन बी के जीवन की गाड़ी किसी तरह घिसट-घिसट कर चल रही थी कि ‘गरीबी मे आटा गीला होने‘ की कहावत एक दिन उन पर चरितार्थ हो गयी....उस दिन नगर मे पूर्वांचल के एक बहुचर्चित धर्माचार्य का कार्यक्रम आयोजित था। स्थानीय हनुमानगढ़ी मन्दिर ट्रस्ट के आर्थिक सहयोग से बने श्रीराम जानकी सभागार के उद्घाटन समारोह में वह बतौर मुख्य अतिथि पधारने वाले थे। नगर की संवेदनशीलता को देखते प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद था। सुरक्षा व्यवस्था चाक चैबन्द थी। धर्माचार्य का शहर में प्रथम आगमन था। मुख्य मार्ग पर कई ऊंचे व भव्य तोरणद्वार बनाये गये थे। भगवा झंडियो से पूरे रास्ते को सजाया गया था। कार्यकर्ताओं का उत्साह उनके चरम पर था। निर्धारित समय से कोई एक घण्टा विलम्ब से उनका आगमन हुआ। तेज सायरन बजाती पुलिस गाड़ी और उसके पीछे सांय सांय कर भागती दर्जनों लग्जरी गाडियों का काफिला आयोजन स्थल पर पहुंचा, तो उसे देख आस पास खडी भीड मे से कई लोग आन्दोलित हो उठे। हर-हर महादेव...… जय श्री राम..... देखो-देखो कौन आया....पूर्वांचल का शेर आया....जैसे गगन भेदी जयघोषो व नारो से वातावरण गूंज उठा। दर्जनो सशस्त्र सुरक्षाकर्मियों से घिरे गेरूआ वस्त्रधारी धर्माचार्य जब गाड़ी से बाहर निकले और हाथ हिलाकर लोगो का अभिवादन स्वीकार किया, तो ‘जाकी रही भावना जैसी....‘ की तर्ज पर किसी को उनके चैडे माथे पर दुर्लभ ईश्वरीय तेज दिखा, तो किसी को उनकी आंखों में उन्माद की खतरनाक चमक !

धर्माचार्य के प्रति श्रद्धा का आलम ये था कि जब वह नवनिर्मित सभागार के प्रवेश द्वार की सीढियां चढ रहे थे, तो वहां तैनात एक अधेड़ पुलिस अधिकारी ने आगे बढ कर उनके चरण छू लिए... कुछ पल को कर्तव्य श्रद्धा के समक्ष नतमस्तक हो गया था।

कार्यक्रम की समाप्ति पर शहर के एक नामी रेस्टोरेन्ट से मंगवाये गये लन्च पैकेट उपस्थित कार्यकर्ताओं में बडी उदारता से वितरित किये जा रहे थे। नसरीन बी सरकारी अस्पताल से लौट रही थी। दो घण्टे लाइन में लगने के बाद उन्हें दवा मिली थी। पिछले कई दिनों से घुटनो का दर्द उन्हें बेहाल किये था। मन्दिर के पास इतनी भीड-भाड व चहल-पहल देख वह ठिठक गयी। पैकेट बांट रहे आयोजको मे से एक अति उत्साहित टीकाधारी युवक की निगाह नसरीन बी पर पड़ी, तो उसके भीतर बुढ़िया के प्रति दया भाव उमड़ आया। आगे बढ़कर एक पैकेट उसने उनकी ओर बढा दिया, ῎अम्मा… लेव परसाद..῎ नसरीन बी ने फुर्ती से पैकेट पकड़ लिया और ये सोचकर चैन की सांस ली कि घर पहुंचकर तुरन्त चूल्हा फेंकने से मुक्ति मिली। सवेरे नौ बजे से वह अस्पताल के लिए निकली थी और इस समय दोपहर के दो बज रहे थे। उन्हें जोरो की भूख लगी थी। बडे कौतूहल व आत्मीयता से उन्होंने पैकेट को निहारा। पेट की भूख जैसे आंखें मे उतर आयी थी। उन्होंने लंच पैकेट को खोलकर देखा.....पूडियां, सब्जियां, अचार, सलाद के टुकडे और एक बड़ा सा रसगुल्ला। रसगुल्ले को देखते ही नसरीन बी की भूख और भड़क गयी थी। जीभ की असंख्य कलिकाएं उसका स्वाद लेने को उतावली हो रही थी। उस समय उनकी सारी दुनिया बस उस पैकेट तक सिमट कर रह गयी थी। उनके समक्ष एक मात्र शाश्वत सत्य था- भूख ! बाकी सब कुछ वह भूल चुकी थी। नगर, देश, दुनिया....यहां तक कि अपनी जाति और धर्म भी। इससे पहले कि वह पैकेट मे से कुछ उठाती। अपने बढ़े हाथ को तेजी से उन्होने पीछे खीच लिया। बिजली की फुर्ती से उन्होने पैकेट फेक दिया और एक झटके मे वह पास की मस्जिद की ओर मुड गयी। हकबकाई सी। चंद कदम चलकर चोर नजरो से उन्होने एक बार नुक्कड़ की ओर देखा। वहां पान की दुकान पर खडे इमाम की आंखे उन्हे अब भी घूर रही थी। उन आंखों से निकल रहे नफरत के अंगारो मे नसरीन बी की भूख जलकर खाक हो गयी थी। उन्होने वहां से निकल लेने मे ही अपनी भलाई समझी। नसरीन बी झोपड़ी तक पहुची तो तेज चलने से उनकी सांसे फूल रही थी। वह कई घण्टे खाट पर निढ़ाल पडी रही। भूख तो मर चुकी थी, पर मन के कोने मे किसी अनहोनी की आशंका रह रहकर सिर उठा रही थी। धूप ढले शाम को जब वह भीख मांगने मोहल्ले से निकली, तो लगा जैसे किसी अजनबी जगह आ गयी हो। जिसके पास पह ठिठकती, वो उन्हें देख आंखे फेर लेता या खिसक लेता। जिस दरवाजे पर पहुंचती वह भडाक से बन्द हो जाता। नसरीन बी ने जिन आंखे मे हमेशा अपने लिए सहानुभूति देखी थी, उनमे आज आक्रोश था। थकीहारी वह झोपडी में वापस लौट आयी। उनके बूढे बीमार शरीर की थकान पर आज मन की टूटन बडी भारी पड़ रही थी।

झोपड़ी मे हताश बैठी नसरीन बी के आगे चालीस वर्ष पूर्व का कालखण्ड घूमने लगा। दो-तीन साल पहले उनका विवाह हुआ था और उनका पति जुम्मन अति सम्पन्न ज़मीरदार घराने से सम्बन्ध रखने वाले नामी ठेकेदार अखिलेश तिवारी की जीप चलाता था। दोनो पति पत्नी उनकी कोठी के पिछवाडे मेब ने एक कमरे मे रहते थे। उस समय तिवारी जी के नौकरो की फौज मे सभी हिन्दू थे, पर धार्मिक आधार पर उनके साथ कभी किसी ने कोई भेदभाव किया हो, याद नही पड़ता। हां, तिवारी जी के सिख ट्रक ड्राइवर हरप्रीति की सभी खूब खिचाई करते थे। जवाब मे मस्तमौला हरिप्रीति बस मुस्कराता रहता। अपने हर तीज त्योहार मे तिवारी परिवार उन्हे बुलाकर शामिल करता और ईद के दिन तो नसरीन बी का सारा संकोच तब धरा रह जाता, जब तिवारी जी के संयुक्त परिवार के दसो किशोर उनके कमरे पर सवेरे-सवेरे सिवई खाने आ धमकते। यदि सिवई बन रही होती तो, वो सब घण्टो बैठकर जुम्मन से गप्पे लड़ाते और सिवई के पकने का इंतजार करते। भारतीय संस्कृति के प्रति गर्व भाव से भर देने वाले उस पावन पल को नसरीन बी भला कैसे भूल सकती है, जब एक दिन जुम्मन ने बातचीत मे उन्हे बताया कि तिवारी जी (कोठी के अहाते मेब ने शिव मंदिर मे दो घण्टे पूजन करना जिनकी दिनचर्या का आवश्यक अंग था) घर आते-जाते समय रास्ते मे पड़ने वाले पीर की मजार पर उतने ही आदर भाव से माथा नवाते, जितनी श्रद्धा से वह हनुमानगढ़ी मन्दिर के सामने से गुजरते हुए अपना शीश झुकाते है।

.....नसरीन बी के चिन्तन के क्रम को तोडा उनके घुटने के दर्द ने। घुटने का दर्द जब बहुत बढ़ गया, तो अचानक उन्हे अस्पताल से लायी दवा का ध्यान आया। दवा खाने से उन्हे कुछ देर मे आराम मिला, तो आंख लग गयी।नीद के घुप्प अंधेरे के बीच मे से धीरे-धीरे एक जोडी आंखे उभरती है। नसरीन बी तुरन्त पहचान जाती है......ये आंखे उस युवक की थी जो उन्हे ‘अम्मा‘ सम्बोधित कर खाने का पैकेट पकड़ा रहा था। कितनी करूणा, कितनी सहानुभूति भरी थी उन दो आंखो में। भीख देते वक्त लोगो की आंखो मे दंभ व अहंकार के साथ-साथ मांगने वाले के प्रति नितान्त तुच्छता का भाव ही तो हमेशा देखा था नसरीन बी ने। उनके लिए उस युवक का व्यवहार एक नये अनुभव सरीखा था। सब कुछ बहुत भला-भला सा लग रहा था उन्हें कि तभी स्याह अंधेरे का एक झोंका निकल लेता है उन आंखो को। उनकी जगह फिर से प्रकट होती है दो खूंखार आंखे जिन्हे देख नसरीन बी के शरीर मे सरसरी भर जाती है। ये आंखे है इमाम की, जिनमे घृणा विद्वेष लबालब भरा है। एक झटके मे उनकी आंखे खुल गयी और वह उठ कर बैठ गयी। उनका पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया था।

नसरीन बी पर जारी अत्याचार का सिलसिला जब कई दिनो तक चलता रहा, तो वह निराश हो गयी। घर मे रखा थेडा सा राशन खत्म हो गया था। पानी पी-पी कर पेट भरने के सिवा कोई चारा न था। वह भुखमरी की कगार पर पहुंच गयी थी। जो उनके साथ हो रहा था, एक लोकतांत्रिक देश मे ऐसे कृत्य का कोई स्थान नही होता। पर आश्चर्य कि हर जुबान खामोश थी। मोहल्ले भर के लिए इमाम का आदेश पत्थर की लकीर बन चुका था, जिसके खिलाफ कोई चूं तक करने को तैयार न था। सुलेमान के साथ मिलकर रात के अंधेरे मे उनकी कुछ मदद करने की योजना हमने जरूर बनायी थी। पर धर्म के ठेकेदारों की कठोर चैकसी की दीवार से टकरा कर हमारे मासूम हौसले कुछ पल मे ही पस्त हो गये। मोहल्ले के इंसानो पर से नसरीन बी का भरोसा उठ चुका था, पर खुदा पर यकीन अब भी बरकरार था। अगले दिन दोपहर की जुमे की नमाज के साथ जब मस्जिद मे बहुत भीड़ होती थी, वह अपना दामन फैलाकर मस्जिद के प्रवेश द्वार पर बैठ गयी। चुपचाप। नमाज खत्म हुई, तो लोग बाहर निकलने लगे। वह आस भरी नजरो से सबको देख रही थी। एक नमाजी उनके पास पहुचकर झुका, तो एक पल को उन्हे लगा कि वह उनके फैले दामन मे कुछ डालने जा रहा है। पर दूसरे ही पल उनका भ्रम टूट गया। वह अपने जूते उठाने के लिए झुका था। आखिरी नमाजी तक का वह इन्तजार करती रही, पर एक सिक्का तक उनके दामन मे न आया। पहली बार उन्होने महसूस किया कि अब इस जगह से उनका दाना पानी उठ चुका है।

एक सुबह जब मस्जिद से लाउडस्पीकर पर फज़र के नमाज की अजान गूंज रही थी, पास की झोपडी मे रोजमर्रा की खटर-पटर से परे निशब्दता पसरी थी। पलायन के बाद का मातमी सन्नाटा ! नीमअंधेरे मे ही नसरीन बी इस ठिकाने को छोड़कर निकल चुकी थी..… अपनी अन्तहीन यात्रा पर.... एक ऐसे संसार की तलाश मे, जहां कम से कम रोटियो का कोई धर्म न हो।

-प्रदीप मिश्र