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इश्क़ इसको कहूँ तो

इश्क़ इसको कहूँ तो

भाग 1

“रमताSSS ओ रमता! यार घर की सारी खिड़कियाँ खोल दे। हवा में ज़ाफ़रान की ख़ुशबू आने लगी है। लगता है पामपोर का दामन ज़ाफ़रान के फूलों से भर गया है।” मलिक साहब ने आवाज़ दी। मलिक साहब ऐसे ही आशिक़ मिजाज़ इंसान थे। शौकिया तौर पर बच्चों को पढ़ाते थे। घाटी में ऐसा समझदार आदमी मिलना मुश्किल था ऊपर से आप ज़्यादातर मुफ़्त ही पढ़ाते थे। वैसे भी तब काश्मीर में इतने स्कूल भी कहाँ थे? इसलिए घर में दिन भर हर तपके, हर कौम के बच्चों का तांता लगा रहता था। मगर पढ़ाते अपने मूड से थे। पिताजी आपके लिए अच्छी-ख़ासी दौलत छोड़ गए थे, कुछ यहाँ काश्मीर में और कुछ जम्मू में। उन सब मकानों से मोटी रकम किराए की शक्ल में आ जाती थी। इसलिए कमाई की कोई फ़िक्र नहीं थी। ऐसा नहीं कि मलिक साहब कंजूस थे पर उनको ज़्यादा भीड़भाड़ और ठाठ पसंद नहीं थे। इसलिए कमाई से लेकर ख़ुद मलिक साहब तक हर चीज़ का ख़याल रखने की ज़िम्मेदारी मुझ अकेले की थी। हालातन हर काम के लिए मलिक साहब को बस एक ही नाम सूझता था “रमता”। हम दोनों ही अपना पूरा परिवार थे। मुझे वहाँ कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं नौकर हूँ।

उस दिन ज़ाफ़रान की ख़ुशबू वाक़ई पामपोर से श्रीनगर तक आती महसूस होती थी। मलिक साहब की आवाज़ में एक अजीब सी बेक़रारी थी। कहने लगे, “रमता चल आज शंकराचार्य मंदिर चलते हैं। आज घाटी की हरियाली में ख़ुद को खो देने का जी है।” हमने घर के बाहर बच्चों के लिए छुट्टी की तख़्ती लगाई और मश्क़ में पानी भर के दोनों चल दिए। हम अकसर यूं घर से घूमने निकल जाते और घण्टों श्रीनगर और आसपास घूमते, पेड़ों से फल खाते। श्रीनगर की श्री का लुत्फ़ लेते। मलिक साहब के रसूक की वजह से हमे कभी किसी बाग खेत में जाने के लिए इजाज़त की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। उस दिन भी मैंने ऐसा ही कुछ सोचा था। पर मलिक साहब के मिजाज़ की बेक़रारी का तब तक मुझे अंदाज़ा नहीं था। आमतौर पर शंकराचार्य मंदिर की पहाड़ी तक चढ़ने में हमे एक डेढ़ घंटे का वक़्त लगता था। रास्ते में हम ख़ान के बाग़ से कुछ फल तोड़कर साथ ले जाया करते थे। पर उस दिन तो मलिक साहब ने अजब रफ़्तार पकड़ी न ख़ुद रुके और ना ही मेरे फल तोड़ लेने का इंतज़ार किया और कोई पौन घंटे में ही मंदिर तक पहुँच गए। हमेशा मंदिर में दर्शन करने के बाद मलिक साहब प्रांगण में बैठ कर पूरे श्रीनगर का नज़ारा किया करते थे। कुछ देर बाद जब मैं फलों से भरी गाँठ ले कर मंदिर में पहुँचा तो एक और अटपटी बात देखने को मिली। मलिक साहब मंदिर के प्रांगण में टहल रहे थे। मैंने उनकी इस बात को नज़र अंदाज़ किया और उनकी पनसंदीदा जगह पर बैठ कर फलों की गाँठ खोल कर आवाज़ लगाई। पर जैसे मेरी आवाज़ उनके कानो तक पहुँची ही नहीं। या शायद पहुँच गयी पर उनके ज़हन तक नहीं गई। मैंने फिर आवाज़ दी। पर अब भी वो अपनी ही धुन में टहल रहे थे। जैसे किसी सफर पर हैं। मैंने उठ कर उनका रास्ता रोका तो उनका ध्यान मेरी तरफ गया। “रमता आज कुछ अजब सी बेक़रारी महसूस हो रही है।” ... कह कर मलिक साहब मेरी बगल से निकाल कर फिर टहलने लगे। मैंने पूछा, “कोई बात हुई है? “ मलिक साहब ने रुक कर घाटी की तरफ देखते हुए कहा,”कुछ भी नहीं।”

मैंने पूछा, “फिर?”

“वैसे तो इसको बेकरारी भी नहीं कह सकता... ऐसा लगता है कुछ मुझे अपनी तरफ खींच रहा है।... क्या?... कहाँ? ये समझ नहीं आता। उस ओर खिंचते जाने की ख़ुशी भी है... पर किस तरफ? ये सोच कर बेचैनी भी हो रही है।”

“तो एक काम कीजे जिस तरफ दिल कहे चल दीजे। वो अपने आप अपनी मंज़िल और उसका रास्ता ढूंढ़ लेगा। आप बस उसकी सुनते जाईए।” मैंने सलाह दी।

कुछ पल सोचने के बाद मलिक साहब ने मंदिर के बाहर से ही हाथ जोड़े और तेज़ी से मंदिर के बाहर निकल कर पहाड़ी के दूसरी तरफ उतरने लगे। मुझे दो पल के लिए तो समझ ही नहीं आया वो आख़िर कर क्या रहे हैं? फिर मैंने झट से फलों की गाँठ उठाई और उनके पीछे दौड़ा। “कहाँ चले?”, मैंने पूछा। मलिक साहब ने एक पल को पलट के देखा और कहा,”मन के पीछे।”

कुछ देर हम यूं ही पहाड़ी उतरते रहे। चुपचाप। फिर अचानक एक जगह भेड़ों का एक झुण्ड घास चरता दिखाई दिया। मलिक साहब की रफ़्तार एकाएक और तेज़ हो गई और आँखें जैसे कुछ ढूँढ़ने दौड़ पड़ीं। कुछ ही पल में मलिक साहब ने पूरा इलाका नज़र ही नज़र में तलाश डाला। फिर अचानक वो एक पेड़ के नीचे जा कर रुक गए। जैसे वो भूल ही गए कि पीछे मैं भी आ रहा हूँ। मैं उनसे कुछ कदम की दूरी पर ठहर गया। कुछ रुक कर मैं उनके पास गया। मुझे देखते ही जैसे एक दम मेरे पास चले आए और मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, “रमता क्या एक मौसम में उगी ज़ाफ़रान की कली अगले मौसम में उग सकती है?” मैं शायर तो नहीं हूँ पर मलिक साहब के साथ रहते रहते ऐसे बातों के मतलब कुछ कुछ समझने लगा था। उनकी ये एक बात ऐसी ही थी जैसे कोई बिजली सी कौंधी हो और पूरा आकाश, पूरी ज़मीन एक साथ दिखाई दे गई हो। मुझे मलिक साहब की बेक़रारी का कारण, उनके सवाल का मतलब सब समझ आ गया था।

दरअसल गए साल इन्ही दिनों यहाँ बकरवालों का एक झुण्ड ठहरा हुआ था। उस झुण्ड में एक लड़की भी थी, पूणिम। बिल्कुल अपने नाम की तरह पूनम की रात की तरह रौशन। एक रोज़ यूं ही सैर करते हुए इत्तेफाक़न मलिक साहब की उससे मुलाक़ात हो गई। मलिक साहब मैदान मैं बैठे किताब पढ़ रहे दे, अचानक उनको कुछ पन्ने फटने की आवाज़ सुनाई दी। पलट कर देखा तो एक भेड़ उनकी किताब चर रही थी। बस आदतन लगे मुझे आवाज़ देने। फिर जैसे ही उनको याद आया कि मुझे तो उन्होंने फल तोड़ने भेजा है वो खुद उठ कर भेड़ के पीछे भाग पड़े। भेड़ डर के भागी। अभी उन्होंने भेड़ को मारने के लिए पत्थर उठाया ही था के किसी ने उनको आवाज़ दे कर रोक लिया। वो पूणिम थी। उस एक नज़र ने मलिक साहब पर जाने क्या जादू किया वो अपनी किताब, हाथ का पत्थर हर चीज़ का ख़याल भूल गए। उसके बाद जाने दोनों में क्या बात हुई ये बात मलिक साहब ने कभी नहीं बताई। पर उसके बाद मलिक साहब की और पूणिम की चार-पाँच मुलाक़ातें और हुई होंगी। पूणिम के झुण्ड में कोई बीमार पड़ गया था, शायद पूणिम का बाप, उसको ही दवाई देने के बहाने मलिक साहब की पूणिम से मुलाकातें हुईं थीं।

कुछ रोज़ में उसका बाप ठीक हो गया और वो बकरवालों का झुण्ड वहाँ से चला गया। उन कुछ मुलाकातों में उस झुण्ड के लोग मलिक साहब से काफी हिलमिल गए थे। पर उनका अचानक बिना कुछ कहे उन बकरवालों का वहाँ से चले जाना मलिक साहब को बड़ा अटपटा लगा। दो-तीन रोज़ मलिक साहब कुछ उदास से भी रहे पर फिर सब पहले जैसा हो गया। आज एक साल बाद जब मलिक साहब ने ये सवाल मुझसे किया तो मुझे समझ आया कि पूणिम का ख़याल उनके दिल से अभी गया नहीं है। और उससे मिलने की क़शिश ही उन्हें यहाँ खींच लाई है।

मैंने जवाब दिया, “कली का तो नहीं पता पर जब भी ये मौसम आता है घाटी में ज़ाफ़रान की ख़ुशबू लौट के ज़रूर आती है।” मलिक साहब मेरी तरफ देख कर धीमा मुस्कुरा दिए। जैसे कह रहे हों के रमता अगर तू मेरे सवाल का मतलब समझ गया है तो मैं भी तेरे जवाब का मतलब समझ गया हूँ। उनको चलने का इशारा करते हुए मैं चलने लगा। वो भी मेरे पीछे चलने लगे। पर अब उनकी चाल में वो फुर्ती नहीं थी। हर कदम उनको जैसे पीछे खींच रहा था। पर लौटने के सिवा हमारे पास कोई चारा नहीं था।

आज हम पहली बार शाम से पहले ही घर लौट रहे थे। पर वो हर कदम ऐसे रख रहे थे जैसे काली रात में रास्ता ढूंढ़ते आगे बड़ रहे हों। तभी अचानक किसी के जानवर को हाँकने की आवाज़ आई। उस आवाज़ को सुनते ही मलिक साहब के चेहरे रौनक लौट आई। जैसे अँधेरी रात में पूनम का चाँद निकल आया हो। मलिक साहब के चेहरे की रौनक से मुझे पता लग गया हो न हो ये आवाज़ पूणिम की है। मलिक साहब उस आवाज़ की दिशा में दौड़ पड़े। कुछ पल बाद वो आवाज़ शांत हो गई। मैंने पास के एक पेड़ की छाँव में बैठ कर फलों की गाँठ खोली और अपने पेट की आग बुझाने में लग गया। इंतज़ार मेरी उम्मीद से लम्बा हो गया। मैं फल खा के कब सो गया मुझे याद नहीं। मेरी नींद मलिक साहब की आवाज़ से खुली। धूप उतरने लगी थी। पर मलिक साहब का चेहरा दमक रहा था। साफ ज़ाहिर था वो बहुत ख़ुश थे। ज़रूर वो पूणिम की ही आवाज़ थी और उसने कुछ मलिक साहब के मन मुआफिक़ बात की थी। मैंने पूछ लिया, “तो आख़िर ज़ाफ़रान किस ख़ुशबू मौसम के साथ लौट आई।” मलिक साहब ने कुछ जवाब नहीं दिया बस मुस्कुरा कर मुझे वापिस चलने का इशारा किया और घर की तरफ चल दिये।

सैर से लौट कर मलिक साहब सबसे पहले घर के बाहर लगी तख़्ती हटाया करते थे। पर आज न सिर्फ़ उन्होंने तख़्ती लगी छोड़ दी बल्कि मुझे भी तख़्ती न हटाने को कह कर अंदर चले गए। पहले पहल तो मुझे लगा शायद उनके चेहरे पर ख़ुशी मेरी आँखों का धोखा है पर जब उन्होंने मुझे झट से खाना पकाने को कहा और साथ ही सुबहा जल्दी घूमने चलने को कहा तो मैं समझ गया मेरा शुबा सही है। खाने के वक़्त भी मलिक साहब की बातों में एक अजीब सी मस्ती थी। “कभी कभी ऐसा लगता है जैसे अब मेरा श्रीनगर से नाता गहराने लगा है।” मलिक साहब खाना खाते खाते बोले। “इतने बरसों से मैं बस यहाँ रह रहा था। पर न इस ज़मीन ने मुझे अपनाया था न मैंने इसे। यहाँ के लोग भले ही मुझे चाहने लगें हों पर... इस मिट्टी की ख़ुशबू अभी मेरी साँसों में घुलनी बाकी थी।” मलिक साहब बोलते जा रहे दे और मैं मुस्कुराता हुआ उनको सुन रहा था। पर जैसे वो मुझसे बात ही नहीं कर रहे थे। मेरी किसी भी हरकत पर उनका ध्यान नहीं था। आख़िर मैंने कहा, “एक पहर रात बीत चुकी है अगर अभी न सोए तो सुबहा वक़्त पर घर से नहीं निकल पाएंगे।” एक पहर रात सुन कर वो ऐसे चौंके कर उठे जैसे सपने में कोई खुद को गिरता देख ले और हड़बड़ा कर उठे। “एक पहर रात गुज़र गई और तूने मुझे बातों में ही उलझा रखा है। चल जल्दी सो जा और सोने दे सुबहा देर हो गई तो...।” कह कर वो चुप हो गए और उठ कर तेज़ी से अपने कमरे को चले गए।

अगले दिन तड़के ही हम शंकराचार्य मंदिर की पहाड़ी के पीछे की तरफ चल दिये। मलिक साहब की रफ़्तार देख कर ऐसा लगता था जैसे सूरज के पहाड़ी पर चढ़ने से पहले ये पहाड़ी पर चढ़ जाएंगे। आज भी हमने न फल तोड़े न आराम किया और सीधा कल वाले ठिकाने पर जा कर रुके। मलिक साहब मुझे एक पेड़ के नीचे बैठा कर ऐसे गायब हुए जैसे कोई अपने लेनदार से पीछा छुड़ा कर भागा हो। वो शाम को लौटे। आज रात घर आकर उन्होंने खाने का ज़िक्र भी नहीं छेड़ा। अपनी आराम कुर्सी पर बैठे और मुझे बुला कर पूछा, “रमता तुझे मेरा यूं इंतज़ार करना बुरा लगा?” मैंने नहीं में जवाब दिया तो मलिक साहब बोले, “मैं जानता हूँ लगा तो होगा पर तू बोलेगा नहीं। मुझे भी तुझको यूँ छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लगा। कल तू मत चलना मैं अकेला ही हो आऊँगा। तू घर रह कर आराम करना।” मैं समझ गया के मलिक साहब और पूणिम की मुलाकातों का सिलसिला फिर चल निकला है। “तो क्या आप कल भी जाएंगे?” मैंने पूछा। मेरे सवाल से मलिक साहब ज़रा शर्मा सा गए। मैंने उनके चेहरे पर ये रंग पहले कभी नहीं देखा था। “अ... हाँ... हाँ यार, अभी कुछ दिन काम और है। और मैं नहीं चाहता रोज़ तुझे यूं जहमत दूँ। तू घर पर आराम कर। मैं अकेला ही हो आया करूंगा। और पानी की मश्क़ की भी ज़रूरत नहीं होगी।” ज़रा झेंपते हुए उन्होंने जवाब दिया। अब उनको अपनी मुलाकातों में कोई देरी, कोई ख़लल नहीं चाहिए था। मैंने हामी में सिर हिला दिया। मेरे जवाब से जैसे उनके दिल का आधा बोझ उतर गया। वो एक दम जोश में आ गए या शायद मुझे दिलासा देने की उनको ज़रूरत महसूस हुई। वो बोले, “जा जल्दी से यक़्नि बनाने की तैयारी कर। आज हम दोनों की पसंद का खाना खाते हैं।” मैं रसोई में चला गया।

मुलाकातों का सिलसिला दो-चार रोज़ से चल रहा था। एक शाम वो घर आए तो उनका चेहरा ज़रा संजीदा था। मैंने पानी पूछा, खाने का पूछा पर उन्होंने मेरे किसी सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। बस जा कर अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गए और सोच में डूब गए। कुछ देर बाद मैंने जा कर फिर खाने का पूछा। मलिक साहब ने मुझे पास आकर बैठने का इशारा किया। मैं उनके पास की कुर्सी पर बैठ गया। “रमता अगर मैं शादी कर लूँ तो...”, किसी सोच में डूबे ही उन्होंने मुझसे कहा। “तो ये बड़ी ख़ुशी का सबब होगा।” मैंने एक दम से जवाब दिया। मलिक साहब की ख़ामोश आँखों में जैसे एक सवाल सा था। फिर उस सवाल ने लफ़्ज़ों की शक्ल ली। “रमता अगर मैं पूणिम से शादी कर लूँ तो...”, कह कर मलिक साहब ने फिर मेरी तरफ देखा। हालांकि मलिक साहब और पूणिम के बीच जो चल रहा था वो मैं समझता था पर वो मेलजोल ये शक़्ल इख़्तियार करेगा वो भी इतनी जल्दी, ये मैंने नहीं सोचा था। मुझे मलिक साहब के सवाल पर हैरानी हुई। पर इतनी नहीं। मैं बिना कुछ ज़ाहिर किए पूछा, “क्या पूणिम का बाप राज़ी होगा।”

“मुश्किल है पर ऐसा भी नामुमकिन नहीं। और उसकी मुझे ऐसी कोई फिक़्र भी नहीं।”, मलिक साहब बोले।

“फिर किस बात की फिक़्र है आपको?” मैंने पूछा।

“यही मैं भी ठीक ठीक समझ नहीं पा रहा हूँ।”

“तपके का ख़याल रोकता है या ज़ात बिरादरी की सोचते हैं?” मैंने फिर सवाल किया।

“तपके वपके की कोई फिक़्र होती तो मैं अपने कदम पहले ही रोक लेता। ज़ात-पात से तो तू जनता ही है मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। रही बात बिरदारी की तो यहाँ मेरा है ही कौन? ... एक तेरे सिवा।”

“तो क्या आप मेरी वजह से...”, मैंने धीमे से पूछा।

“ऐसा नहीं है कि तेरी वजह से। पर सोचता हूँ तुझे कैसा लगेगा। मैंने कभी भी तुझे अपने छोटे भाई के सिवा कुछ नहीं समझा। मुझे डर है मेरे फैंसले से तेरा दिल न दुखे।” कह कर मलिक साहब फिर चुप हो गए और मेरी तरफ देखने लगे।

उनकी बात सुनकर मेरा जी हुआ उनके पैरों में सिर रख दूँ और फूट के रोऊँ। जब उस दिन उन्होंने मुझे पहली बार घर रुकने को कहा तो मुझे लगा था आख़िर हूँ तो मैं नौकर ही। आज समझ आया उनके उस दिन के रवैये में रोब नहीं हमारे रिश्ते की शर्म थी। मेरी आँखों में आँसू आ ही गए थे पर मैंने खुद को सम्भाल कर जवाब दिया। “मुझे... मुझे क्यों बुरा लगेगा। बल्कि आपके इस फैंसले से तो ये दीवारें भी घर बन जाएँगी। मैं तो कहूँगा ये नेक काम आप कल के करते आज ही कर डालिए।” मेरा जवाब सुन कर जैसे मलिक साहब के सिर से एक बोझ उतर गया। उनकी ख़ुशी उनके लफ़्ज़ों से साफ ज़ाहिर थी, “तू सच कह रहा है न?” कुर्सी से उठ कर उन्होंने मुझे कंधों से पकड़ कर उठा लिया। वो मुझे गले लगाने को ही थे, मैंने एक सवाल पूछा, “क्या पूणिम का बाप राज़ी हो गया।” “उसकी तू चिंता मत कर।” कह कर मलिक साहब ने मुझे गले लगा लिया। मुझे आज तक यक़ीन नहीं होता मेरी उनकी ज़िंदगी में इतनी एहमियत थी।

अगले दो दिन तक मलिक साहब पहले की तरह सुबहा जाते और शाम को देर से लौट कर आते। पर जब लौट के आते तो कोई बात न करते, खाना भी न के बराबर खाते और सो जाते। इनदिनों उन्होंने पढ़ने आने वाले बच्चों के बारे में भी कोई बात नहीं की। तीसरे दिन वो लौटे तो बहुत ख़ुश थे आते बोले, “रमताSSS ओ रमताSSS… कहाँ है आलसी।” मैं दौड़ के आया। “कहाँ सोया रहता है?” उनकी आवाज़ में शरारत और ख़ुशी दोनों थीं। “सुन... देख कमाल हो गया... दो दिन बाद मेरी और पूणिम की शादी है। मेरी तरफ से तू, हकीम साहब, विनोद जी और दो-तीन अज़ीज़ और होंगे। उधर पूणिम का पूरा कुनबा। पर शादी से पहले बहुत काम है। पूरे घर का नक़्शा बदलना है। घर में दुल्हन आने वाली है। तू घर के सामान की ख़रीदारी करेगा और मैं शादी के सामान की। देख घर सजाने सुधारने में कोई कमी मत छोड़ना।” मैं सोच रहा था कब मलिक साहब सांस लें और मैं कुछ पूछूँ।

“मतलब सब रजामंदी से तय हो गया?” मैंने जैसे गले में अटकी हुई सांस छोड़ी।

“हाँ भाई सब राज़ी हो गए। सब तय हो गया। अब बस काम को सिरे चढ़ाना है।”

“पर मैं घर को पूणिम... भाभी के हिसाब से कैसे सजाऊँगा।”

“उसकी चिंता तू मत कर। अभी विनोद जी भाभी के साथ आते ही होंगे। भाभी ने मुझे यक़ीन दिलाया है कि दो दिन में वो सब तैयारी करवा देंगी।”

“और आप जनाना कपड़े कैसे ख़रीदेंगे?”

“उसके लिए वालि साहब और उनकी पत्नी को बाज़ार ले जाऊंगा। अब तू सवाल ही दागता रहेगा या खाने की तैयारी भी करेगा? विनोद जी और भाभी आते ही होंगे। उनको मैंने रोटी पर बुला लिया है।”

मैं हंस के रसोई में चला गया।

वो दो दिन सचमुच बड़ी भाग दौड़ के थे। पर उस भागदौड़ में एक मस्ती थी। एक ताज़गी थी। हालांकि घर में सब कुछ था पर एक तरतीब की कमी थी और जो छोटी-मोटी कमी ख़रीदारी की थी वो सिद्धि जी, विनोद जी की पत्नी, ने पूरी करवा दी। शादी का वक़्त आ गया पर इतनी भागदौड़ के बाद भी कोई थकावट महसूस नहीं होती थी। इस रिश्ते को परवान चढ़ाने के लिए शंकराचार्य के मंदिर से अच्छी जगह दूसरी हो ही नहीं सकती थी। शादी के लिए हम सब वहीं इकट्ठा हुए थे। पूणिम के बाप ने अपनी तौफ़ीक़ के मुताबिक हर चीज़ का बड़ा आला इंतजाम किया था। सबसे यादगार तो वो काश्मीरी गाने थे जो पूणिम की बीरादरी वालों ने गाए थे। मैं काश्मीरी इतनी तो नहीं समझता पर उन लोगों की मस्ती भरी धुन से जी को मस्ती सूझती थी और दुख की धुन सुन कर जी रोने को चाहता था। हर लम्हा दिल पर एक छाप सी छोड़ता गया।

मलिक साहब और पूणिम की शादी को कुछ दिन ही बीते थे कि घर के हालात में फ़र्क नज़र आने लगे। मुझे खाना बनाने के काम से लगभग छुट्टी सी मिल गई। बच्चों के घर आने का वक़्त तय हो गया। हमको खाना वक़्त पर मिल जाता। घर में रौनक सी आ गई थी। पूणिम के आने के बाद ही हमको एहसास हुआ कि घर में क्या कमी थी। अब कोई भी समान मलिक साहब को बेतरतीब रखने की इजाज़त नहीं थी। और अगर वो रख भी दें तो उनको रमता को आवाज़ देने की ज़हमत नहीं करनी पड़ती। सबसे दिलकश बात ये थी कि पूणिम से भी मुझे वही इज़्ज़त और अपनापन मिला जो आज तक मलिक साहब से मिलता आया था। कई बार मैं भूल जाया करता कि मैं उनके घर नौकर था। उन दोनों को देख के ख़याल आता था की अगर इश्क़ की कोई शक़्ल होती तो वो इन दोनों में से किसी जैसा ही दिखता। या शायद दोनों का कोई मिलाजुला रूप होता। ज़िंदगी बहुत ख़ुशहाल बीतने लगी।

नदी कभी बहुत देर तक ख़ामोश नहीं बहती। ज़िंदगी भी बहुत देर तक चुपचाप नहीं चलती। शादी को दो-ढाई महीने बीते होंगे। बर्फ का मौसम आ गया था। हम तीनों खाना खा कर आग ताप रहे थे कि अचानक पूणिम बेहोश हो कर गिर पड़ी। मलिक साहब और मैं घबरा गए। ऐसा लगा जैसे सिर पर किसी ने आसमान मारा हो। बमुश्किल मैंने खुद को सम्भाला और उनको ज़रा हिम्मत बंधाई। मैंने उनको समझाया कि चिंता न करें काम के बोझ से शायद थकावट हो गई होगी या ठण्ड लगी होगी। मलिक साहब ने खुद को सम्भाला। हम दोनों पूणिम को उठा कर उनके कमरे तक ले गए। मलिक साहब पूणिम के सिर की मालिश करने लगे और मैं परों की तलियों को झसने लगा। कुछ देर बाद पूणिम की बेहोशी टूटने लगी। मैंने झट से रसोई से कहवा बना लाया।

मैं जब तक कहवा लाया पूणिम कुछ सम्भल गई थी। मेरे हाथ से कहवा लेते हुए पूणिम ने कहा, “आज खाना खा कर कहवा नहीं पिया इसलिए शायद ठण्ड लग गई है। आप ख्वाम्खाह इनता परेशान हो रहे हैं।” पूणिम ने अपनी तरफ से मलिक साहब को हौंसला बांधने की कोशिश की। पर मलिक साहब को तस्सल्ली नहीं हुई। “पूणिम तुमको कुछ परेशान कर रहा है? कोई कमी महसूस हो रही है? बापू की याद आती हो तो भी बताओ।” मलिक साहब ने पूछा। पूणिम ने हँस के जवाब दिया, “ऐसा कुछ भी नहीं है। और अगर हो भी तो मेरे बापू का कोई घर तो है नहीं जो उनसे जा कर मिल आऊँ। अब तो जब वो मौसम के साथ लौटेंगे तभी मुलाक़ात होगी उनसे। वैसे ऐसा कुछ भी नहीं है आप बिलावजह परेशान हो रहे हैं। देख लीजिए अब मैं बिल्कुल आराम से बात कर रही हूँ। रमता के हाथ के केहवे में जादू है।” मलिक साहब मुझ से मुख़ातिब हुए, “रमता अब आज से रात को हम तीनों को कहवा बनाना तेरी ज़िम्मेदारी है”, मलिक साहब ने कहा और फिर पूणिम की ख़िदमत में लग गए। मैंने भी हाँ में जवाब देकर उनके कमरे से इजाज़त ली।

अगले दिन सुबहा फिर पूणिम पहले की तरह थी। एकदम चुस्त दुरुस्त। पर ये चुस्ती ज़्यादा देर न रही एक रोज़ बाद दोपहर को पूणिम फिर चक्कर खा कर गिर पड़ी। इस बार मलिक साहब और मैं पहले से भी ज़्यादा घबरा गए। जैसे तैसे हमने हिम्मत जुटा कर पूणिम को बिस्तर पर लिटाया और फिर मैं जल्दी से हक़ीम साहब को लिवा लाने दौड़ा। हक़ीम साहब को लाने में मुझे ज़्यादा वक़्त न लगा होगा लेकिन जब मैं लौटा तो मलिक साहब के चेहरे से ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि उस वक़्त का हर लम्हा उन्होंने कैसे बिताया होगा। हक़ीम साहब ने कुछ देर अच्छे से पूणिम की नब्ज़, आँखें हर चीज़ की जाँच पड़ताल की। “कुछ नहीं ज़रा थकावट सी लगती है और कुछ ठण्ड लग गई है। आप फ़िक़्र न करें मैं रमता के हाथ दवाई भेज दूंगा। दो-एक रोज़ में इनकी तबीयत सुधर जाएगी। बस इनके आराम का ख़याल रखें और आगे कामकाज में इनका हाथ बटाने को दो एक आदमी रख दीजे।” कह कर हक़ीम साहब चले गए। मुझे उन्होंने कुछ पुड़ियाँ दवाई की बाँध दीं। पूणिम ने दवाई भी खाई और आराम भी किया पर उसको कुछ ऐसा ख़ास आराम नहीं पड़ा। मैं दो दिन बाद हक़ीम साहब से फिर दो दिन की दवाई ले आया। हालात में कुछ खास सुधार नहीं आया। इधर पूणिम की तबीयत बिगड़ती जाती थी उधर मलिक साहब की बेचैनी बड़ती जाती थी।

दो दिन और बीत गए आख़िर मैंने और मलिक साहब ने तय किया कि विलायती डॉक्टर को बुलाया जाए। मलिक साहब के दोस्त का छोटा भाई डॉक्टरी की पढ़ाई कर के आया था। और उसकी गिनती जम्मू-काश्मीर के अच्छे डॉक्टरों में होती थी। उसी को बुलाने का विचार हुआ। लड़का ज़हीन था। मैं तड़के उसे लेने गया और वो उसी वक़्त मेरे साथ आ गया। उसने भी अच्छे से पूणिम को जाँचा। बहुत देर वो हमको समझाता रहा कि ये थकावट और ठण्ड की सिवा कुछ नहीं है। पूणिम भी आधे होश में हमारी बातें सुन रही थी। “डॉक्टर साहब कुछ जानलेवा है तो बता दीजिए। मुझे ऐसी बातों से कोई डर नहीं लगता”, पूणिम की बात सुन कर मलिक साहब का रंग फक पड़ गया। सहमी सी नज़र से उन्होंने डॉक्टर का मुँह देखा। डॉक्टर ने हँस के जवाब दिया, “ऐसी कोई बात नहीं है। आपको ऐसा कोई मर्ज़ नहीं। बल्कि आपको तो कोई मर्ज़ ही नहीं। हाँ कोई वहम ज़रूर हो गया लगता है। वैसे आपको ज़रूरत नहीं है पर फिर भी आपकी कमज़ोरी की दवाई मैं लिखे देता हूँ। पर वहम की इलाज आपको खुद करना होगा।” हमारी तस्सल्ली को उनसे दो दवाईयाँ सुझा दीं। “ये एक नई दवाई आई है। बाहर की है। मैं अभी अपने लड़के के हाथ भिजवा दूँगा। चार ख़ुराक में आराम आ जाएगा”, कह कर डॉक्टर ने हमसे इजाज़त ली।

चार दिन डॉक्टर की दवा भी चलती रही। पर पूणिम की तबीयत में कोई फर्क़ नहीं पड़ा। मलिक साहब भी अब रात-रात जागते। एक दिन वालि साहब और उनकी पत्नी त्रिशला, पूणिम का हाल पूछने घर आई। “मुझे माजरा कुछ और ही लगता है मलिक भाई। ये बुख़ार वुखार नहीं है।” वालि साहब की पत्नी ने कहा। साथ ही उन्होंने सुझाया कि मलिक साहब को किसी फ़क़ीर से सलाह करनी चाहिए। मलिक साहब ने कुछ हिचकिचाहट ज़ाहीर की। उसका कोई मज़हबी कारण नहीं था बस मलिक साहब ऐसी बातों पर ज़रा कम ही यक़ीन रखते थे। वैसे मैंने और मलिक साहब ने श्रीनगर और आसपास के सभी धार्मिक स्थल देखे थे। पर वो बस घूमे थे कहीं जाने के पीछे कोई श्रद्धा नहीं थी। हाँ! मलिक साहब को शंकराचार्य मंदिर में कुछ आस्था थी। या यूं कहूँ के शिवजी में कुछ आस्था थी तो शायद ज़्यादा ठीक हो। “देखिए भाई साहब आप बस यूं ही हिचकते हैं। एक आध बार किसी फ़क़ीर के पास जाने से हमारा शिव उपासकों के कुल से होना कुछ बदल तो नहीं जाता। और वो तो शिव हैं वो हर जगह हैं। आप बेहिचक चलिए। वैसे भी आदमी अपनी ज़रूरत को दस जगह जाता ही है। इसमें हर्ज़ क्या है?” वालि साहब ने समझाया। कुछ देर वालि साहब के समझाने पर वालि साहब के बताए फ़क़ीर साहब के पास जाने को तैयार हुए।

फ़क़ीर साहब हज़रतबल के पास ही रहते थे। मलिक साहब ने मुझे और त्रिशला जी को पूणिम की निगरानी के लिए घर पर छोड़ा और वालि साहब के साथ फ़क़ीर साहब पास हो आए। फ़क़ीर साहब ने एक धागा पूणिम के गले में बांधने को दिया। सो मलिक साहब ने घर आते ही सबसे पहले वो धागा पूणिम के गले में बाँध दिया। “अब देखना कैसे दो ही दिन में सब तक्लीफ़ हवा होती है। ये फ़क़ीर साहब बड़े पहुँचे हुए हैं। हमने भी अपनी दुकान के लिए इनसे धागा लिया था। और काम की बरकत आपके सामने है।” त्रिशला जी ने कहा। मलिक साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस मुस्कुरा दिये।

दो की जगह चार दिन बीत गए पूणिम की तबीयत में कोई सुधार नहीं आया। सारा दिन थकी सी रहती। थोड़ी-थोड़ी देर में उसको चक्कर आते। पूणिम की आँखों के नीचे अमावस की सी कालिख दिखने लगी थी। उसका चेहरा बिल्कुल ढल गया था। उसकी हालत देख कर मलिक साहब का हाल भी ख़राब था। वो भी दिन भर उदास रहते पूणिम को खाना खिलाते वक़्त जो कुछ निवाले खा लेते बस वही खाते। उसके बाद दिन भर बस परेशान घूमते रहते। एक दिन उनके जी में शंकराचार्य मंदिर जाने का ख़याल आया। मुझे पूणिम की देख-रेख को कह कर वो मंदिर चले गए। जब वो घर लौटे तो उनके चेहरे पर थकान की जगह कुछ उम्मीद थी। जैसे शंकर जी ने उनको कोई इच्छित वर दे दिया हो। उस दिन मलिक साहब कुछ ख़ुश थे। उनको उम्मीद हो चली थी की पूणिम ठीक हो जाएगी। पर ये उम्मीद भी ज़्यादा नहीं टिकी। अब मलिक साहब पहले से भी ज़्यादा उदास रहने लगे।

अभी शंकराचार्य मंदिर हो कर आए कुछ ही दिन बीते थे। मलिक साहब की आस्था के पौधे पर नया फूल लगा। उनको मटन मंदिर जाने का ख़याल किया। अगले दिन वो छठी पतशाही गए। फिर ईसा की मज़ार और इसी तरह जाने कहाँ कहाँ माथा टेक कर आए। श्रीनगर के आसपास शायद ही ऐसा कोई ऐसा धार्मिक स्थल हो जहाँ मलिक साहब ने माथा न टेका हो। जितनी जगह मलिक साहब माथा टेक कर आते उतनी ही उनकी हिम्मत और उम्मीद पस्त होती जाती। जाने मलिक साहब की दुआ किसी भगवान किसी खुदा तक नहीं पहुँच रही थी। याँ सब मिल कर मलिक साहब की हिम्मत आज़मा रहे थे। पूणिम की बीमारी का सिलसिला कई महीनों यूँ ही चलता रहा। अभी इन दोनों की शादी को साल भी न हुआ था और घर में ऐसी वीरानी सी गूँजती थी जैसी शायद तब भी न सुनाई देती होगी जब ये घर बंद रहता होगा।