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काले कवर की डायरी और एक नाम

काले कवर की डायरी और एक नाम

प्रियंका गुप्ता

हम उसी शाम मिले थे...। बहुत सारी उदास शामों की तरह वो भी तो एक अटपटी सी शाम थी...और पता नहीं क्यों उस दिन लाल बाग जाने का इरादा त्याग कर मैं सैंकी टैंक आ गया था...। वहाँ किनारे लगी बेन्चों पर बैठ के अपनी तरह उदास झील को ताकते रहना मुझे बेहद पसन्द था...। सच कहूँ तो अकेले होकर भी वहाँ अकेलापन नहीं लगता था...।

उस रोज भी मैं बेवजह झील के किनारे लगी रेलिंग पर हल्का झुका हाथों में वहीं से बटोरे गए कंकड़ों को एक-एक करके झील में फेंकता जा रहा था, कि तभी पीछे से वो आ गई,"एक्सक्यूज़ मी...क्या आप मेरी एक पिक खींच देंगे...?"

आवाज़ मेरे अ्केलेपन की तरह ही कुछ उदास सी थी...। पलट कर देखा तो पच्चीसेक साल की एक लड़की बड़ी उम्मीद से अपना मोबाइल मेरी ओर बढ़ाए खड़ी हुई थी...। भूरे-ललछौंहे बालों का बना ऊँचा पोनीटेल...माथे के ऊपर सिर पर फँसा गॉगल...सफ़ेद टीशर्ट के नीचे लाल रंग की स्किन-फ़िट जीन्स...। जींस नहीं, शायद पैन्ट थी...। पैरों में रीबॉक के स्पोर्ट्स शूज़...। कुल मिला कर कुछ खोये चेहरे वाला आकर्षक व्यक्तित्व...और उसकी आँखें...? उनकी ओर तो मैंने पहले ध्यान ही नहीं दिया...। नीली आँखें...खिला नीलापन लिए...। झील सी गहरी नहीं कहूँगा क्योंकि एक सीमा के बाद तो झील की गहराई नापी भी जा सकती है, पर उन आँखों की गहराई तो किसी सीमा में बँधी लग ही नहीं रही थी...। तो उनकी तुलना किससे करूँ...? आसमान से...? हाँ, आसमान ही सही उपमा होगी उन आँखों के लिए...बादलों सी तिरती कुछ नमी-सी भी तो थी उनमें...।

मैं किसी बदतमीज़ इंसान की तरह उसे ताके जा रहा था कि अचानक उसने फिर मुझे टोंक दिया,"एनी प्रॉब्लम...? नेवर माइंड...आई विल आस्क समबडी एल्स...।"

मैं झेंप गया था...। क्या करने लगता हूँ मैं भी अक्सर...। यूँ किसी को कोई घूरता है भला...? झट से हाथ बढ़ा कर उसका मोबाइल पकड़ लिया," नो मैम...कोई प्रॉब्लम नहीं...। आपने इतनी अचानक पूछ लिया न तो थोड़ा कन्फ़्यूज़ हो गया...।"

वो मेरे बगल से निकल कर खुद भी रेलिंग पर टेक लग कर खड़ी हो गई...। थोड़ी बेफ़िक्र सी...गॉगल सिर से उतार कर आँखों पर लगा लिया और फिर कहीं दूर देखती हुई इशारे से मुझसे पूछा...गुड न...? मैंने भी अँगूठा दिखा कर परफ़ेक्ट का इशारा किया और अगले दस मिनट तक अहलदा पोज़ में उसका फोटो सेशन करता रहा...।

अलग-अलग एंगिल से फोटो शूट करवा कर वो बहुत संतुष्ट नज़र आ रही थी...। आँखों में भी अब वो तिरते बादलों की जगह धूप की सी चमक दिखने लगी थी...। शायद झील का असर था...। जाने क्यों मुझे अक्सर लगता था कि इस झील पर धूप का जो टुकड़ा कभी यहाँ तो कभी वहाँ आराम करता रहता है, वो इस रेलिंग पर टिक कर खड़े होने वालों को अपनी रोशनी बड़ी खुशी से बाँट देता है...। उस पल में मेरा ये अहसास यक़ीन में बदल गया था...।

मोबाइल वापस लेकर सारी फोटो देखती हुई वो मेरे बेहद क़रीब खड़ी थी...। इतने क़रीब कि उसके बदन से आती भीनी महक मुझे अपने में सराबोर करने लगी थी...। मुझे फ़ोरम मॉल की अपनी पसन्दीदा परफ़्यूम की शॉप याद आने लगी...। कितना सकून मिलता था उसके पास से गुज़रते हुए...। बहुत बार तो मैं सिर्फ़ उसकी खुश्बू पीने के मकसद से उसकी दीवार से टिक कर मोबाइल में कुछ-कुछ देखने लगता था...। जानता था कि मॉल कल्चर में कोई किसी को कहीं भी खड़े होकर कुछ भी करने के लिए नहीं टोकता, पर फिर भी मुझे हमेशा ही लगता था कि किसी दिन उस शॉप के मालिक को मेरी जेब की असली हालत पता चल जाएगी और वो मुझे किसी भिखारी की तरह वहाँ से भगा देगा...।

"थैंक्स...," उसने कहा तो मैं फिर वर्तमान में आ गया। वो मेरी ओर देख कर मुस्करा रही थी। पल भर मैं दुविधा में रहा, पूछूँ या नहीं...? पर फिर रहा नहीं गया तो पूछ ही लिया,"अगर बुरा न माने तो एक बात बोलूँ...?" उसने उसी तरह मुस्कराते हुए हामी भरी तो मैं बोल पड़ा,"आपकी आँखें बहुत खूबसूरत हैं...। मैंने नीली आँख तो पहले भी देखी है, पर कुछ मटमैली सी...। लेकिन आपकी तरह इतनी ब्राइट आँखें...फ़र्स्ट टाइम एवर...।"

अपनी तारीफ़ सुन कर वो किसी बच्चे की तरह खिल गई तो मैं भी थोड़ा ढीठ हो गया,"बस इतना बता दीजिए...आपकी आँखें सच में नीली हैं या लेंस हैं...?"

सवाल सुन कर वो कुछ अनमनी हो गई थी। मुझे लगा, शायद किसी लड़की से इस तरह पूछना सभ्यता के दायरे से बाहर माना जाता हो...। मैं तुरन्त माफ़ी माँगने पर आ गया तो जैसे उसको भी अहसास हुआ कि उसका अनमनापन मुझसे छुपा नहीं था...। तभी तो उसने अपनी अधमुँदी आँखों से मुझे आश्वस्त करने की कोशिश की,"इट्स ओके...। ज़िन्दगी में हम नकलीपन के इतने आदी हो गए हैं कि असली चीज़ों में भी हमको बनावट का शक़ होता है...। एनीवे...नथिंग आर्टीफ़िशियल...आई हैव गॉट रीयल ब्लू आइज़...।"

"रीयल रॉयल ब्लू..." मैंने माहौल को हल्का करने की कोशिश करते हुए कहा तो वो भी एक फीकी हँसी हँस दी...। मुझे गिल्ट होने लगा...अच्छी भली धूप ने अपनी चमक उसके चेहरे पर मली थी, मैने वहाँ बारिश बिछा दी...। कुछ पल हम दोनों ही झील को निरुद्देश्य देखते रहे, फिर वो ही बोली थी,"उधर किसी बेंच पर बैठें क्या...?"

मैं अचकचा गया था....। कुछ मिनटों पहले तक अनजान एक शख्स से कितनी सहजता से उसने कहीं साथ बैठने को कह दिया...। बेवजह ही माँ की सहेजी बातें याद आने लगी...‘इतने बड़े शहर जा रहे, आसानी से किसी का भी भरोसा न कर लेना...। लड़कियों से तो और भी सावधान रहना...। जाने कब ब्लैकमेल करने के लिए...लूटने के लिए क्या इल्ज़ाम लगा दें...। बहुत सारे गैंग होते हैं इन शहरों में, बच के रहना...।’

माँ की बात ध्यान में रखते हुए मैं मना तो करना चाहता था, पर जाने कैसा खिंचाव था उसमें...मैं ‘हाँ’ बोल गया...। उसके पीछे चलते हुए अपनी इस बदहवासी पर खुद को हज़ार गालियाँ दे रहा था। कोई सुनता तो कहता...दूध पीते बच्चे हो या पूरी तरह से ‘ममाज़ बॉय’...माँ ने डर दिखाया और इतना बड़ा होकर डर भी गया...। पर मैं ऐसा ही था...औरों से अलग...। माँ गर्व से सारे रिश्तेदारों से कहती...मेरे घर तो पुराने ज़माने का लड़का पैदा हो गया है...। न छल-कपट जाने, न दुनिया की रीत समझे...। बस ऐसा सीधा लड़का कभी किसी से धोखा न खाए, इसी बात से डरती हूँ...।

माँ का यह डर मेरे अन्दर भी आ गया था। ऐसा नहीं था कि मुझे दुनिया की समझ नहीं थी या फिर मैं अपने आसपास के घिनौनेपन से अन्जान था...। सही-ग़लत की पहचान भी थी और निर्णय करने की क्षमता भी...पर फिर भी कभी कभी खुद को कितना अकेला महसूस करता था मैं...। कितनी घुटन होती थी मुझे...।

ये घुटन ही तो थी जिसके चलते मैने इतने दोस्त बना लिए थे कि सबके नाम की पर्ची लिखूँ तो पूरी एक बोरी भर जाए...पर इन सबके बावजूद मेरी सबसे गहरी दोस्ती तो मेरी तन्हाई से ही हुई...। शायराना अन्दाज़ में कहूँ तो अक्सर मैं और मेरी तन्हाई ही होते थे एक दूसरे का साथ देने को...या फिर ये झील...।

अगर आप कभी सैंकी टैंक गए हैं तो आपको तो पता ही होगा कि वहाँ हर बेंच इस तरह से लगी है कि आप किसी पर भी बैठ जाइए, सारी झील अपने पूरेपन के साथ आपकी नज़रों की जद में होगी...। कभी बिल्कुल शान्त, तो कभी अपने ही किसी ख़्याल से चौंक कर सिहरते हुए...। इस लिए कुछ कदम चल कर हम दोनो एक खाली बेंच पर बैठ गए...। बैठने से पहले उसने जेब से एक रूमाल निकाल कर उससे अपने हिस्से की बेंच को झाड़ दिया। मुझे खुद पर शर्म आई...। मैं देखो कैसे झट से बैठ गया। मैं अक्सर कहीं भी ऐसे ही बैठ जाता हूँ...। तब तक झाड़ने की ज़हमत नहीं उठाता, जब तक वहाँ धूल साफ़ तौर पर नज़र न आ रही हो...। इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि मैं सफ़ाई-पसन्द नहीं हूँ या गन्दा-सन्दा रहना मेरी आदत है कोई...। मेरा कमरा बेहद साफ़-सुथरा...चाक-चौबन्द रहता है हमेशा...। पर पता नहीं क्यों, जब बाहर निकलता हूँ तो घर कहीं पीछे छूट जाता है...।

धूल साफ़ करके रुमाल वापस जेब में रखते हुए उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गई...कुछ शर्मीली सी, "मैं बाहर निकलते समय एक रफ़ रूमाल हमेशा अपनी जेब में रख लेती हूँ...। इससे मैं हाथ-मुँह नहीं पोंछती...। उसके लिए तो पर्स में एक अलग नैपकिन रखती हूँ...सॉफ़्ट टॉवेल वाला...।" मैं समझ नहीं पाया, वह मुझे क्यों इस बात की सफ़ाई दे रही थी?

मुझे लगा था, बैठ कर वो कुछ बातें करेगी...। कुछ पूछेगी, तो कुछ बताएगी...पर वो तो झील हो गई थी...। कभी एकदम स्थिर...और अगले ही पल दूर तैरती किसी बत्तख के ‘क्वैक’ की एक आवाज़ पर चौंकती हुई...। मैं बीच-बीच में कनखियों से उसे ताक ले रहा था...। उसकी नीली आँखें झील और आकाश के बीच चक्कर लगा रही थी, मानो तौल रही हो कि उसका मुकाबला किससे टक्कर का होगा...। फिर मानो उसने मेरी ही बात मान ली हो...आसमान से उसकी तुलना की थी न मैने...सो वो भी आसमान के मुकाबले ही जा डटी...।

मुझे अब थोड़ा अजीब लगने लगा था...। ये क्या बात हुई, किसी को यूँ अपने पास बिठा लो और फिर ख़ामोशी में उसे घोंट कर मार दो...।

"अच्छाऽऽऽ...तो मैं चलूँ...?" मैने उठने का उपक्रम करते हुए कहा तो जैसे वो भी नींद से जागी,"ओह! सॉरी...। मैने ये ध्यान ही नहीं दिया कि आपको कुछ अपना काम भी होगा...। नो प्रॉब्लम...। मैं तो अभी कुछ देर यहीं बैठूँगी...आप चलिए...। एण्ड बाइ द वे...थैंक्स अगेन...।" उसने खड़े होकर मेरी ओर अपना हाथ बढ़ा दिया तो एक बार फिर बिना कुछ सोचे बोल गया,"नाऽऽऽ...काम तो कुछ नहीं फ़िलहाल...। यहाँ आता हूँ तो घण्टों बिता कर ही वापस लौटता हूँ...। पर मुझे लगा, आप शायद खुद के साथ कुछ वक़्त बिताना चाहती हों और मैं बेमतलब आपके अकेलेपन में ख़लल डाल रहा हूँ...।"

अब झेंपने की बारी उसकी थी। पर एक तरह से ये अच्छा ही हुआ...। उसके चेहरे पर एक बार फिर धूप का असर हो गया था और अनमनेपन की बर्फ़ अब वहाँ पिघल गई थी...। अब मैं खुल कर उसके चेहरे की ओर देख रहा था...। अभी वह सहज और खुश दिख रही थी तो कैसे गुलाबी सी रंगत लगने लगी थी...वरना पहले...? उदासी के भी अपने रंग होते हैं...कभी स्याह, तो कभी सफ़ेद...। उसी तरह जैसे हर ख़ामोशी की अपनी अलग भाषा होती है...।

"तुम यहाँ अक्सर आते हो...?" उसने अपनी नीली आँखें उत्सुकतापूर्वक मेरे चेहरे पर टाँक दी थी।

"हाँ...जब भी अकेला होता हूँ और किसी मॉल की भीड़ में भी नहीं रहना चाहता, तो ऐसी जगहें ही चला जाता हूँ...। सारी जगहों में से ये मेरी सबसे पसन्दीदा जगह है...। बिल्कुल शान्त...ख़ामोश...। तीन महीने हो गए मुझे बैंगलोर आए हुए, तब से यह ख़ामोशी की भाषा ही तो मुझे सब से ज़्यादा पहचानी लगने लगी है...। भीड़ में तन्हाई का अलग आलम होता है...और यहाँ का सकून अलग...।"

बोलते-बोलते सहसा मैं चुप हो अपने में ही और सिमट के बैठ गया...। पहले ‘आप’ से शुरुआत करके साथ बिठाया और अब एकदम से ‘तुम’ पर आ गई...। अब यहाँ से उसके गाड़ी जाने किस स्टेशन पर जाकर रुके, कौन जाने...?

‘बड़े शहरों की लड़कियाँ बड़ी तेज़-तर्रार होती हैं बेटा...। सम्हल के रहना...।’ माँ की बातें फिर दिमाग़ के पिछले हिस्से में दस्तक दे रहीं थीं...। मैने एक बार फिर ग़ौर से उसकी ओर देखा...। कहीं से कुछ भी ऐसा नज़र नहीं आ रहा था जिससे खतरे की घण्टी बजती सुनाई दे...। मेरे सामने तो एक बेहद प्यारे चेहरे वाली...खुद में गुमशुदा एक लड़की बैठी थी...। मेरी बातें सुन कर वो फिर दूर कहीं खो सी गई थी...।

"आप ऐसे ही चुप रहती हैं...?" उसने मुझे ‘तुम’ कह कर पुकारा था, पर मैं चाह कर भी उसे ‘आप’ के दायरे से बाहर नहीं ला पाया था। कुछ तो जाना-पहचाना था उसमें, पर क्या...? ये मुझे समझ नहीं आ रहा था...। दिल कर रहा था, वो खूब बोले...इतना, कि अपरिचय की दीवार हमारी बातों की धार में बह जाए...। पर वो मेरी बातों से अपनी बात का एक सिरा पकड़ती और इससे पहले कि वह उसमें उलझ जाए, एक हिचकिचाहट उसे झट इन सबसे दूर कर देती...।

मेरे बात का उसने कोई उत्तर नहीं दिया, बस चेहरा मेरी ओर घुमा अपलक मुझे निहारती रही...। मैं असहज होने लगा। एक सुन्दर लड़की जब इतने करीब से आपको पढ़ने की कोशिश करे, तो आप कब तक सहज रहेंगे भला...? मेरी असहजता भाँप पता नहीं उसे क्या हुआ, वो एकदम से खिलखिला पड़ी,"बहुत डरते हो न तुम...? देखो तो...कैसा फीका हो गया तुम्हारे चेहरे का रंग...। जैसे मैं कोई बाज हूँ और तुम कोई नन्हीं गौरैया...। मौका मिला नहीं कि मैं तुम्हें खा जाऊँगी...। है न...?"

कहते हुए वो हँसती जा रही थी और मैं सचमुच डर गया था। ये लड़की पागल तो नहीं...? साइको या मेण्टली डिस्टर्ब्ड...? हँसी थमी तो उसकी आँखों में आँसू थे...शायद खुशी के, या फिर हँसने की अधिकता से जब आँखें भर आती हैं, ये वही आँसू थे...।

"यू नो...आज ज़माने बाद इतना हँसी हूँ...। सॉरी, नथिंग ऑफ़ेन्सिव...पर तुम्हारे चेहरे पर ऐसी बुद्धूपने वाली मासूमियत थी न कि मुझे बस हँसी आ गई...। जानती हूँ, बदतमीज़ी है ऐसे किसी के मुँह पर हँसना...और वो भी एक अजनबी के मुँह पर...पर मुझसे रोका ही नहीं गया खुद को...।"

इतनी देर से जिस दीवार के ढहने की प्रतीक्षा कर रहा था, लगा उसकी इस हँसी की बाढ़ में एक झटके से बह गई...। वो बोल रही थी...या कहूँ, वो अचानक से बोलने लगी थी...। जैसे कोई मासूम कली भोर की पहली किरन के स्पर्श से पलकें खोले और फिर एक झटके से खिलती चली जाए...फूल बनने को आतुर...। या फिर निर्बाध गति से बहता कलकल का शोर मचाता कोई झरना...। झरने को कब परवाह होती है कि कोई उसकी कलकल को समझता भी या नहीं...उसी तरह उसे भी जैसे इस बात से कोई मतलब ही नहीं था कि मैं उसकी बात सुन-समझ रहा हूँ भी या नहीं...। पर मैं ऐसा तो नहीं हूँ न...? मुझे तो झील की ख़ामोशी से लेकर चिड़ियों की चहचहाहट तक में उनकी सब बातें सुनाई भी पड़ती हैं और मैं समझ भी जाता हूँ सब...तो ये तो हाड़-माँस की बनी मेरी जैसी ही एक इंसान थी...।

हाल में ही उसका अपने प्रेमी, जो जल्दी ही उसका पति बनने की राह पर था, से ब्रेक‍अप हो चुका था...। सब कुछ अच्छा चल रहा था उनकी ज़िन्दगी में कि उसके प्रेमी को कोई और भा गई...। शायद उससे ज़्यादा बेहतर...। जब वो ये सब बोल रही थी, मैं बिना किसी संकोच के एकटक उसका चेहरा ताक रहा था...। कहीं कोई ग़म, किसी दुःख की छाया दिखे तो मैं उसे पोंछ दूँ...। पर ऐसा बिल्कुल नहीं था। वह अपनी कहानी से भी इतनी अछूती लग रही थी, मानो यह उसकी ज़िन्दगी की दास्तान न होकर किसी किताब का कोई अनसुना हिस्सा हो...।

"वो ' मैं' को हम बोलता था...। पर जाने क्यों , उसके हर 'हम' में मैं खुद को शामिल कर लेती थी। कभी सोचा ही नहीं कि कोई 'हम' इतना सिंगुलर भी हो सकता है...।" बोलते हुए वह कभी भी मेरी ओर नहीं देखती थी...। किसी सुदूर कोने में यूँ ताकने लगती, मानो अपनी कोई खोई हुई चीज़ उसे वहाँ दिख गई हो और अब अगले ही पल वह वहाँ, उस कोने तक दौड़ के जाएगी और वह चीज़ अपनी मुट्ठी में जकड़ वापस भाग आएगी...।

"मैं उसके घर में रहती थी...। उसके घर...उसके कमरे...उसके बिस्तर और सोफ़े पर समय बिताते हुए सोचती थी, वो मेरा भी है...। हमेशा यही समझती रही कि हम साथ हैं, पर असल में सिर्फ़ मैं ही थी उसके साथ...। वो तो कभी मेरे पास...मेरे साथ रहा ही नहीं...। उसके बिस्तर के बगल में रखी उसकी फ़ेवरेट किताबों की तरह मैं भी बस उसकी फ़ेवरेट ही थी...। किताब पूरी पढ़ ली तो कौन याद रखता है, किस कोने में अकेली पड़ी वह धूल खा रही होगी...।"

कुछ देर के लिए वह फिर ख़ामोश हो गई,"यू नो...वह मुझे कभी किसी से मिलवाता नहीं था। घर आए अजनबियों से तो बिल्कुल नहीं...। जब उसके अपने आने वाले होते, वह मुझे मेरे घर भेज देता...। मेरे माँ-बाप के पास...जिन्हें मेरे आने की खुशी से ज़्यादा मेरे लाए गिफ़्ट्स देखने की ललक होती थी...। मुझसे विदा होते वक़्त उनके चेहरे पर जुदाई का दुःख कम और मेरे थमाए गए ढेर सारे पैसों का सन्तोष अक्सर अन्दर तक तोड़ देता था मुझे...। फिर आदत पड़ती गई...।" उसने रुक कर विचित्र नज़रों से मुझे देखा,"तुम भी सोच रहे होगे न, कैसी अजीब लड़की है ये...? और उतनी ही अजीब उसकी कहानी...। तुम्हें जो भी सोचना हो, सोच सकते हो...। हू केयर्स...?" उपेक्षा से अपने कंधे उचका वो फिर उसी सुदूर कोने की ओर ताकने लगी थी,"कभी-कभी मुझे लगता था, उसने मुझे दराज़ों में बाँट रखा है...। दराज़ समझते हो न तुम...? ड्रॉवर्स...। किसी दराज़ में मैं उसकी माँ-बहन जैसी थी...उसकी देखभाल करने वाली...। किसी दूसरी दराज़ में मैं उसकी प्रेमिका थी...सिर्फ़ उसकी...। ये तो बहुत बाद में समझ आया कि उसने मुझे सिर्फ़ एक ही दराज़ में रखा था...जहाँ उसके ज़रूरी, लेकिन यूज़ एण्ड थ्रो आइटम्स रखे होते थे...।"

जाने थकान से या फिर किसी अनदेखी वजह से उसने अपने बैग से वो नैपकीन वाला तौलिया निकाला और उससे अपना पूरा चेहरा रगड़ लिया...। तौलिया वापस रख उसने उसी बैग से एक डायरी निकाल ली...। काले कवर पर सुनहरे रंग से बने दिल वाली डायरी...। बड़े एहतियात से उसने डयरी के बीच से एक सूखा गुलाब निकाला,"तुमको अगर ये गुलाब दिखा के मैं कहूँ कि यह वही गुलाब है जो उसने हमारी पहली डेट पर मुझे दिया था, और जिसे इतने सालों तक मैने सहेज कर रखा है, तो तुम क्या कहोगे...? कोरी भावुकता...? और मुझे क्या समझोगे...इमोशनल फ़ूल ही न...? मेरे सो-कॉल्ड अपनों ने भी यही कहा...। पर मैं ऐसी हूँ ही तो क्या करूँ...?" उसके चेहरे पर फिर बादल घिरने लगे थे। मुझे डर लगा, कहीं बारिश हो गई तो...? पर किसी आवरा बादल की तरह वे भी कुछ पल में ही तितर-बितर हो गए...।

कुछ देर उस सूखे गुलाब को अपनी उँगली और अँगूठे के बीच में दबा वह यूँ ही घुमाती रही। फिर एकदम से आँख मूँदते हुए उसने उस गुलाब की खुशबू को एक लम्बी साँस के साथ अपने अन्दर तक भरने की असफ़ल कोशिश की...। आँखें खोल कर इस बार जब उसने मेरी ओर देखा तो वहाँ मुझे एक अलग ही तरह का खालीपन नज़र आया। जैसे किसी के सुरुचिपूर्ण सजाए गए कमरे में ढेर सारे सामानों के बीच भी आपको अपने लिए एक सकूनदायक कोना मिल जाए और आप वहाँ शान्तिपूर्वक पसर जाएँ...।

"अब इसमें कुछ नहीं बचा...न रंग, न खुशबू...।" उसने कहा और गुलाब को पूरी ताक़त से अपने से दूर फेंक दिया। पर ढीठ गुलाब भी हवा की उँगली थाम बेशर्मी से उसके कदमों पर ही आ गिरा...।

"तो अब मैं चलूँ...?" वो एक झटके से उठ खड़ी हुई...। फिर जैसे कोई बहुत ज़रूरी बात याद आई हो, उसने डायरी मेरी ओर बढ़ा दी,"ये मेरी खुशियों की डायरी है...। जिनके साथ ने मुझे खुशी दी है, मैं उनके नाम इसमें लिख लेती हूँ...। बाई द वे...आय एम सॉरी...मैं तुम्हारा नाम भूल गई...। लिख दोगे प्लीज़...?" अपना नाम लिखते हुए मैं उससे कह ही नहीं पाया कि जब हम दोनों ने एक-दूसरे का नाम पूछा ही नहीं था, तो भूलने का सवाल ही कहाँ था...।

डायरी बैग में वापस रख उसने पहले तो विदा का हाथ मिलाया, फिर अप्रत्याशित रूप से मुझे गले लगा लिया...। बहुत हल्के से...पर गहरे दोस्ताने अहसास के साथ...। हर क़दम पर मुझसे दूर जाती उस लड़की ने ओझल होने तक एक बार भी पीछे मुड़ के नहीं देखा...।

मैं भी उसका नाम पूछना चाहता था...पर कुछ चेहरों को नाम की ज़रूरत होती ही कहाँ है...?

(प्रियंका गुप्ता)