Kaksha - 6 books and stories free download online pdf in Hindi

कक्षा - ६

कक्षा ६ :

मेरी उम्र तब लगभग ग्यारह वर्ष होगी।साल १९६५। ननिहाल पढ़ने गया था, कक्षा ६ में। पहले पहल घर से बाहर। जब बड़े भाई साहब छोड़ने गये थे तो खुश था लेकिन जब वे मुझे छोड़कर वापिस जा रहे थे, मेरी आँखें डबडबाने लगीं। अक्टूबर की छुट्टियों में घर आया था। तब बचपन में पढ़ने की रुचि कम ही हुआ करती थी। दस पास करना बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। गणित और अंग्रेजी बहुतों को फेल करने के कारण होते थे। छुट्टियाँ समाप्त हुयीं और ईजा (माँ) ने सामान तैयार कर रवाना कर दिया।बहुत बुरा लग रहा था बीता बचपन छोड़ने में। चौखुटिया पहुँचा और सोचा द्वाराहाट के रास्ते जाऊँ। बस का टिकट लिया, तब साठ पैसे का टिकट हुआ करता था। द्वाराहाट में भाई साहब पढ़ते थे। वहाँ चला गया। वे स्वयं ही खाना बनाते थे। उस दिन जिस बर्तन में चावल बना रहे थे वह उल्ट गयी।लकड़ी का चूल्हा था,वह बुझ गया। अत: जो बना था वही खाये।उनके स्कूल में हड़ताल चल रही थी। एक रात वहाँ रूक कर दूसरे दिन ननिहाल की ओर चल पड़ा। चलते-चलते दिमाग दौड़ने लगा।रास्ते में एक प्राथमिक विद्यालय आया। विद्यालय के चारों ओर चारागाह था जिसमें गायें चर रही थीं।मैंने प्राथमिक विद्यालय की ओर देखा। दिमाग चल रहा था।पढ़ने में, मैं अच्छा था पर उसके महत्व को नहीं समझता था।कक्षा ५ में अपने केन्द्र में मेरा स्थान प्रथम था। उधर गायें चर रही थीं, प्राथमिक विद्यालय ऊँची जगह पर था। मैं सोच रहा था क्यों न अपने स्कूल में भी काल्पनिक हड़ताल करा दी जाय। हड़ताल घोषित कर दी मन ही मन। और आगे जाने की जगह पीछे मुड़ लिया।कदम बहुत तेजी से बढ़ने लगे।दौड़ से कुछ कम। द्वाराहाट बस स्टेशन पहुँचा और बस में बैठकर चौखुटिया पहुँच गया। चौखुटिया पहुँचते- पहुँचते शाम हो गयी थी। वहाँ हमारे गाँव के एक दुकानदार थे। रात उनके यहाँ बीतायी। जो सामान ईजा ने भेजा था, उसे उनके यहाँ रख दिया। उन्हें पूरी कहानी बतायी और उन्होंने विश्वास कर लिया। घर को रवाना हुआ और नदी के किनारे आराम से चला जा रहा था। एक जगह मछली पकड़ने को मन हुआ तो मछली पकड़ने के लिए नदी पर गया। काफी कोशिश की पर असफल रहा। शाम को घर पहुँचा। बोला स्कूल में अनिश्चितकालीन हड़ताल हो गयी है। कब खुलेंगे पता नहीं। घरवाले भी मान लिये। भला, इतना छोटा बच्चा इतना बड़ा बहाना कैसे बना सकता है? वैसे भी आदि काल से ही बोला गया है," सत्यमेव जयते।" इसका मतलब झूठ की बहुतायत हमेशा रही है, इसलिए कहना पड़ा ," सत्यमेव जयते।" ईजा ने पूछा," तेरी अम्मा क्या कह रही थी? मैंने कहा," कुछ नहीं। " मन ही मन सोच रहा था, जब वहाँ गया ही नहीं तो क्या कहेगी। फिर बोली खबरबात कैसी है वहाँ की? मैं बोला,"सब ठीक है।" सब कुछ एक माह तक ठीक ठाक चला। खूब खेला कूदा। बीच बीच में बात उठती यह कैसी हड़ताल है जो टूटती नहीं। मैं चुप रहता। एक दिन ईजा खबर लायी कि ये तो वहाँ गया ही नहीं। हड़ताल -वड़ताल कुछ नहीं हो रखी है। आधे रास्ते से लौट आया था। खबरची मेरे ताऊ का बेटा था। उनका ससुराल वहाँ था। वे वहाँ गये थे तो उनको सब पता चल गया। अब मैं घर की अदालत में बिना वकील के खड़ा था। मुझे फिर से ननिहाल भेज दिया गया। रहने की जगह ननिहाल की जगह ताऊ जी के बेटे के यहाँ कर दी गयी।वे बहुत अच्छे लोग थे। उनका कहना था जब उस इलाके का सांसद वहाँ आता है तो उन्हीं के यहाँ रूकता है,बारखामू के उनके दुकान के ऊपर बने आवास पर।बारखामू के विषय में एक किंवदंती है कि," वहाँ पर बारह खम्भे थे जो रात में सोने की तरह चमकते थे। एक बार रात में चोर आया और उसने एक खम्भे को उखाड़ कर अपनी पीठ पर बाँधा और सोना समझ कर उसे ले गया। तीन किलोमीटर जाकर सुबह हुयी तो उसने विश्राम करने के लिये उसे नीचे रखा ।उसने देखा कि खम्भा पत्थर का है। और वह उसे वहीं छोड़ कर चला गया। तब से शेष ग्यारह खम्भे भी पत्थर के बन गये और रात में उनका चमकना भी बन्द हो गया।" उनका काफी लम्बा-चौड़ा बगीचा था।उस समय पानी के नौले बहुत होते थे।आम के वृक्षों के नीचे खेलना-कूदना आम बात थी।गिर(हाकी से मिलता-जुलता) खेल भी आम था। वहाँ से विद्यालय जाना नियमित हो गया। नहीं तो पहले कभी-कभार देर होने पर स्कूल न जा कर ,मडुवे के खेत में बैठ कर तीन-चार घंटे बीता लेते थे। पढ़ना-लिखना जो होता था, वह केवल स्कूल में होता था। घर पर उस साल बिल्कुल नहीं पढ़ा। हमारे अंग्रेजी के अध्यापक जब हमें पढ़ाते थे तो उनके मुँह से छर्रेदार थूक निकलता था। अत: कक्षा में जब नजदीक आते थे तो सजग होना पड़ता था नहीं तो थूक मुँह पर गिरने की पूरी संभावना रहती थी।ननिहाल में बीड़ी,सिगरेट और तम्बाकू पीने का शौक पैदा हो गया था।जो केवल एक साल तक रहा। स्कूल मिडिल स्कूल कहलाता था जहाँ कक्षा ६,७ और ८ की शिक्षा दी जाती थी। उस समय की सामाजिक स्थिति में लड़कियों की शिक्षा का महत्व बहुत कम था। हमारे विद्यालय में उन दिनों एक भी लड़की नहीं थी। लड़कियों को कक्षा ५ तक ही पढ़ाया जाता था या पढ़ाया ही नहीं जाता था। घर का काम ही उनके हिस्से आता था। हालांकि, साक्षरता प्रतिशत उस समय लगभग तीस प्रतिशत के आसपास रहा होगा। गर्मियों में सुबह का स्कूल हुआ करता था। एक बजे जब छुट्टी होती थी हम पास बहती नदी में नहाने जाते थे। पानी में पिताड़ ( जोंक की एक प्रजाति) होते थे जो शरीर पर ऐसे चिपक जाते थे कि निकालना कठिन हो जाता था। पास ही शिवालय भी था। वहाँ पर एक घट(पनचक्की या घराट ) था, कुछ दूरी पर श्मशान। घट जब आते थे तो बहुत साथियों और लोगों से भेंट होती थी। लेकिन जब सूर्यास्त होने लगता तो श्मशान का डर मन में आने लगता था। मानो कि भूतों का साम्राज्य आने वाला है। क्योंकि उन दिनों रात में रामायण, महाभारत से ली गयी कथाओं के साथ-साथ भूतों की कहानियां भी रोमांचक ढंग से कही जाती थीं।
फिर एक विचार आता है-
मेरी छाया कब लम्बी हुयी
और कब छोटी
पता ही नहीं चला,
जब तुम्हारे सामने चुप बैठा था
तब भी बहुत कह रहा था,
जैसे मूक वृक्ष कहते हैं
फल-फूलों के बारे में,
मूक मिट्टी कहती है
अन्न के विषय में,
मूक राहें कहती हैं
यात्राओं के बारे में।

***महेश रौतेला