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विद्रोहिणी - 11

विद्रोहिणी

(11)

फ्रीस्टाइल कुश्ति

उन दिनों शहर में कुश्ति प्रतियोगिता का आयोजन होता रहता था जिसमें देशभर के पहलवान हिस्सा लेते थें। यह प्रतियोगिता शहर से दूर बने एक बउ़े स्टेडियम में हुआ करती थी।

मैदान के चारों ओर अस्थाई पतरे लगाये जाते थे। जो लोग टिकिट लेने में असमर्थ रहते वे उंचे वृक्ष पर चढ़कर या पतरो के नीचे से घुसकर मुफ्त में खेल का मजा लेते।

शहर में कुछ नए ओपन एयर सिनेमाघर खुले थे जिनके चारों ओर मोटे कपड़े लगे थे। अंदर चल रही फिल्म का मजा मुफ्तखोर लड़के पर्दों के नीचे से घुसकर लेते रहते। एक चैाकीदार इन शरारती तत्वों केा भगाने का प्रयास करता लेकिन कुछ समय बाद वह स्वयं फिल्म देखने में इतना मशगूल रहता कि बेटिकिट लोग बड़े मजे में फिल्म देखते रहते।

ऐक बार शहर में ऐक फ्रीस्टाइल दंगल का आयोजन हुआ। उसमें देश विदेश के नामी पहलवानों ने हिस्सा लिया। उस दंगल में मुख्य कुश्ति दारासिंग व किंगकांग के बीच होना थी। उस दंगल में एक नकाबपोश पहलवान भी था जिसने यह शर्त रखी थी कि उसे हराने पर ही नकाब हटेगी। प्रारंभ में अनेक कुश्तिया हुई । नकाबपोश को न कोई हरा पाया न उसका नकाब हटा। अंत में किंगकांग एरिना में उतरा। वह बहुत लंबा चैाड़ा व मोटा व्यक्ति था। वह हाथी के समान बलशाली दिखाई देता था।

उसने दारासिंग को अनेक गालियां दी व चींटी के समान मसल देने की चेतावनी दी।

दारासिंग जनता जनार्दन का आदेश लेकर बड़ी विनम्रता से अखाडे में उतरा।

प्रारंभ में वह अनेक राउंड में किंगकांग के हाथों पिटता गया किन्तु अंतिम राउंड में उसने किंगकांग को दोनों हाथों से उपर उठाकर बड़ी देर तक घुमाकर एरिना के बाहर फेंक दिया। रेफरी द्वारा दस की गिनती गिनने तक किंगकांगअंदर नहीं आ पाया I दारासिंग को विजयी घोषित कर दिया गया।

नकाबपोश पहलवान का नकाब कोई्र भी नहीं हटवा पाया । बाद में मालूम हुआ कि वह नकाबपोश दारासिंग का छोटा भाई था ।

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हिंदु मुस्लिम दंगे

भारत की स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन हुआ। लाखों निर्दोष स्त्री पुरूश व बच्चे जालिम उन्मादी भीड़ के हाथों कत्ल कर दिए गए। अनेक हिन्दुओं को अपना घरबार व प्रापर्टी पाकिस्तान मे छोड़कर सिंधी शरणार्थी के रूप में भारत आना पड़ा।

ये शरणार्थी बड़े अध्यवसायी मेहनती कौम है। इन्होंने मेहनत से व्यापार करके आज देश में आर्थिक सामाजिक रूप से बड़ा मुकाम हांसिल कर लिया है। समय समय पर देश के मुसलमानों व सिंधियों के बीच जातीय दंगे भड़क उठते थे। सिंधी कौम व्यापार प्रधान होने से इन दंगों में कमजोर पड़ जाती थी किन्तु यह अवसर हिन्दु व मुस्लिम पहलवानों के बीच जोर आजमाइश का बड़ा सुनहरा मौका सिद्ध होता था जिसका वे भरपूर उपयोग अपना वर्चस्व स्थापित करने में करते थे । अपना डंका मनवाने के लिए वे जबरन आते जाते साधारण लोगों को अपना शिकार बनाते। जबकि साधारण हिन्दु या मुसलमान का इन दंगों से कोई वास्ता नहीं होता।

दंगों के दिनों में किसी चैाराहे पर एक हिन्दु पहलवान अपने पट्ठों के साथ डटा होता व किसी खतरे से अनजान मुसलमान के निकलने पर वे सब उस पर टूट पड़ते I पट्ठे अखाड़े के दाव पेंच लगाकर उसे तरह तरह से पटकने देकर मारते। बेचारा वह व्यक्ति किसी तरह उनके चंगुल से निकल भागता व अपनी जाति के अन्य लोगों को उस खतरे के प्रति सचेत करता।

मुसलमान बहुल इलाके में खतरे से अनजान किसी हिन्दु के साथ भी यही वाकया कुछ अधिक क्रूरता से होता। मुस्लिम गुंडे सीधे चाकू से वार कर हिन्दू को बुरी तरह घायल कर देते। यह अवसर गुंडों बदमाशों को अपना सिक्का मनवाने का शानदार अवसर देता । पुलिस के आने की पूर्व सूचना मिलते ही ये पहलवान व गुंडे गली कोनों मे गायब हो जाते।

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ब्लेकमार्केट

मुकदमेबाजी के कारण श्यामा की आर्थिक स्थिति बहुत खराब होगई । बच्चों को पहनने के लिए कपड़े नहीं थे। उनके पैरों में जूते नहीं थे, स्कूल की फीस नही थी।

कुमार अब कुछ समझदार हो चला था। उसने पैसा कमाने का विचार किया। उसका ऐक मित्र श्रीचंद था। वह सिंधी था। ये लोग व्यापार में बडे कुशल होते हैं। कुमार ने अपनी समस्या उसके सामने रखी।

श्रीचंद ने कहा ‘ पैसा कमाना बड़ा सरल कार्य है। बशर्ते तुम परिश्रम करने व कुछ खतरा उठाने के लिए तैयार हो। ’

कुमार ने कहा ‘ मैं दिनरात परिश्रम कर सकता हूं। ’

श्रीचंद दूसरी सुबह कुमार को समीप के एक सिनेमाघर में ले गया।

उस टाकीज में प्रसिद्ध अभिनेता राजकपूर की एक नई फिल्म लगी थी। उस दिन फिल्म का पहला शो था। वह शहर का ऐक बड़ा टाकीज था। वे दोनो सुबह से ही टिकिट के लिए नंबर लगा कर लाइन मे लग गए थे। शो का समय सायं चार बजे से था। दो बजे सिनेमाघर के ग्राउंड में इतनी भीड़ हो गई कि वहां पैर रखने को जगह नहीं थी। टिकिट लेने के लिए इतनी लंबी लाइन लग गई कि टाकिज के बाहर सड़क तक अनेक लोग लाइन लगाए खड़े थे। लोग भारी धक्कामुक्की कर रह थे। टिकट बटने के ठीक पूर्व वहा कुछ दादा टाइप गुंडे आ धमके व लाइन में लगे अन्य लोगो को जबरन पीछे धक्का देकर पहले टिकट पाने का प्रयास करने लगे I इस प्रतिस्पर्धा में उनके बीच चाकू चलने लगे I सभी लोग भयभीत हो गए I किसी तरह सिनेमा मालिक व पुलिस की सहायता से समझौता कराया गया व गुंडों को अलग से कुछ टिकेट दिए गए I

टिकिट खिड़की खुली। श्रीचंद व कुमार ने पचास पैसे वाले दो दो टिकिट खरीदे। कुछ देर बाद ही टिकिट मिलने बंद हो गए। वहां बड़ी रेलमपेल व धक्कामुक्की मचती रही I ऐक बड़ी भीड़ किसी भी कीमत पर टिकिट खरीदने को तैयार थी।

वे दोनों उस भीड़ में आवाज लगा रहे थे ‘ आठ आने वाला दो रूपये में। ’

दोनों ने अपना ऐक टिकिट ब्लेक में बेचकर डेढ़ रूपये कमा लिए, उन्होंने फ्री में पिक्चर भी देखा व डेढ़ रूपये की बचत की सो अलग।

घर आकर कुमार ने मां को डेढ़ रूपया दिया। मां खुशी से उछल पड़ी।

उसने कहा ‘बेटा ! यह रूपये कहां से लाया ?’

कुमार ने कहा ‘मां मैने अपने मित्र के साथ ऐक धंधा शुरू किया है, उसमे खूब कमाई होगी । उनके घर में बहुत दिनों बाद मानो दीवाली का त्यौहार आ गया था। उनके दिन फिरने लगे।

किन्तु ऐक समस्या थी कि यह धंधा कुछ दिन ही चलता था क्योंकि एक सप्ताह बाद फिल्म पुरानी होने पर थियेटर में भीड़ पड़ना बंद हो जाती और ब्लेक के टिकिट बिकने बंद हो जाते। तब वे किसी अन्य नई फिल्म का इंतजार करते व चार पांच दिनों तक धंधा फिर चल निकलता।
कुछ दिन बाद,

उन्होने टाकीज के मेनेजर व टिकिट बांटने वाले को कमीशन बांध दिया जिससे वे एक से अधिक टिकिट बिना लाइन में लगे खिड़की घर के पिछले दरवाजे से ले लेते I उनके श्रम की भी बचत हेाते लगी व कमाई भी बढ़ गई।

किन्तु तभी एक भयानक समस्या आ खड़ी हुई। अनेक बार पुलिस वाले उन्हे पकड़कर सारे टिकिट छीन लेते और पैसे भी लूट लेते। उन्हें कई बार डंडे खाने पड़ते। उन्होंने अधिकांश पुलिसवालों की कमीशन बेसिस पर सेटिंग करली किन्तु फिर भी कुछ दुष्ट पुलिस वाले उनसे टिकिट व धन दोनो छीन लेते। डंडे से पीटते सो अलग।

आखिर में उन्हे यह धंधा छोड़ना पड़ा। पुलिस के दुर्व्यवहार के कारण अनेक छुटपुट गरीबों को फांकाकशी की नौबत आ जाती हे। कई लोगों के छोटे धंधे सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं।

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ओपन ऐअर थियेटर

शहर मे दो ओपन ऐयर सिनेमाघर प्रारंभ हुऐ थे । इनमें चारों ओर मोटे कपड़े की बाउंड्री खड़ी की गई थी ।

टिकिट दर बहुत सस्ती थी किंतु मुफ्तखोरों की भी कमी नहीं थी जो पर्दो के नीचे की गेप से फिल्म का मजा लेते रहते । इसी गेप के नीचे से युवक रेंगकर चैाकीदार की आंख बचाते हुऐ अंदा प्रवेश कर बड़े मजे में कुर्सी पर शान से बैठकर फिल्म का मजा लेते रहते ।

कुछ दिन बाद कुमार ने अखबार बेचने का बिजनेस शुरू किया । वह किसी होलसेलर से उधार अखबार खरीदता व पूरे शहर में किसी हाट न्यूज के शीर्षक को जोरों से दोहराता हुबा “पेपर, पेपर “चिल्लाता हुआ अखबार बेचता I उसने पहले दिन की कमाई ऐक स्पया मां के हाथों में दी I मां की आंखें खुशी से चमक उठी ।

शहर में पहली बार बिजली व पेट्रोल गाड़ी

उन दिनों शहर में बिजली नहीं आई थी। रात को अंधेरा होने पर हर गली व सड़क के चैाराहे पर ऐक ऊँचे लकड़ी के खंभे पर लेम्प जलाया जाता था। यह लेम्प केरोसिन से जलाया जाता था।

तब ऐक दिन शहर में बिजली आगई । किन्तु बिजली का कनेक्शन लेने के लिए रूपये लगते थे। बिजली सिर्फ अमीरों के उपभोग की वस्तु मानी जाती थी। शाम होते ही सड़क पर बिजली के लट्टू जलने लगते। श्यामा ऐक दिन केरोसिन से जलने वाला ऐक बड़ा लेम्प खरीद कर लाई। उसकी रौशनी अधिक थी। बच्चे उसे देख खुशी से चिल्लाने लगे ‘ हमारे घर में बिजली आ गई। ’

उन दिनों शहर में खूब तांगे दौड़ते थे। अधिकांश तांगों में मरियल घोड़े जुते होते। जबकि कुछ तांगे बड़े सजे धजे हुए होते। उनमें बड़े बलिष्ट घोड़े जुते रहते। वे चाबुक खाने पर हवा से बातें करते। उनका किराया भी अधिक था। कुछ वर्ष बाद शहर में एक सिटी बस दौड़ने लगी जो कम किराये में बहुत दूर तथा कम समय में ले जाने लगी i सभी तांगे वालों ने एकजुट होकर बस का विरोध किया I उनके धंदे मंदे हो चले थे I

कुछ माह बाद एक टेम्पो चल निकला जो बहुत कम दम में अधिक वेग से बहुत से यात्रियो को भर भरकर एकसाथ ले जाने लगा I फिर तो तांगे वालो का धंधा ठप ही पड़ गया I अनेक तांगे वालों ने अपना धंधा छोड़कर दूसरा धंधा अपना लिया I

लगभग 1957 के ऐक दिन सड़क पर पेट्रोल से चलने वाली एक गाड़ी दौड़ पड़ी। उसे ऑटो बाइसिकल कहते थे । समूचे शहर के लोग बड़ी उत्सुकता से इस अपने आप चलने वाली गाड़ी को देखने सड़क के दोनो ओर जमा हो गऐ । एक अमीर सेठ उस गाड़ी को इटली से खरीद कर लाया था। वह बड़ी अजीब वस्तु थी।

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अख़बार बेचना

कुछ दिन बाद कुमार स्टेशन पर पहुंचकर पेपर बेचने लगा। यात्रि लोग उसके अखबार हाथों हाथ खरीद लेते। मात्र ऐक घंटे में वह पूरे अखबार बेच देता। धीरे धीरे अनेक लोगों ने उससे रोज अखबार खरीदने की बंदी लगा ली। इस तरह अनेक लोग उसके डेली बेसिस पर ग्राहक बन गए। इससे उसका धंधा बिना अधिक मेहनत के चल निकला।

कमाई भी बढ़ गई । ऐक ग्राहक जो सटोरिया था, उसका अंक जिस दिन खुल जाता ;वह कुमार को अपने जेब में रखे सारे रूपये निकल कर लेने को कहता । उस गरीब परिवार के दिन फिरने लगे। मोहन ने भी गोली बेचने का धंधा छोड़कर अखबार बेचने का काम अपना लिया जो अधिक मुनाफे का धंधा था।

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