Aag me garmi kam kyo hai ? books and stories free download online pdf in Hindi

आग में गर्मी कम क्यों है ?

आग में गर्मी कम क्यों है ?

सुधा ओम ढींगरा

अंत्येष्टि गृह के कोने में फ़र्श पर वह दीवार के सहारे बैठी अपनी हथेलियों को देख रही है...

हर सुबह यही तो होता है....... बचपन में माँ ने कहा था कि सुबह उठते ही दोनों हाथों को जोड़ कर अपनी हथेलियाँ देखा कर, भाग्य उदय होता है।तब से वह रोज़ ऐसा करती है और हाथों की लकीरों को देखने की उसे आदत सी हो गई है। उन पर विश्वास करने लगी है। घटती- बढ़ती लकीरों के साथ जीवन के उतार-चढ़ाव को वह पहचानने लगी है।हथेलियों पर अचानक कई नई उभरी लकीरों को उसने देखा था और उसके जीवन में अकस्मात् कई नए मोड़ भी आए थे।

आज वह ग़ौर से उस लकीर को ढूँढ रही है जिसने उसके भाग्य को अस्त कर दिया।हथेलियाँ उसे धुँधली-धुँधली दिखाई दे रही हैं..लकीरें साफ़ नज़र नहीं आ रहीं। दाईं तरफ उसका सात वर्षीय बेटा सोनू उससे चिपक कर बैठा है और आते-जाते लोगों को देख रहा है। बाईं ओर पाँच वर्षीय बेटा जय उसकी गोद में पड़ी चार माह की बेटी के मुँह में चूसनी डालने की कोशिश कर रहा है। हालाँकि वह चुप है, रो नहीं रही, वह तब भी उसके मुँह में चूसनी डाल रहा है.... कहीं वह रो ना पड़े।

वातावरण की गंभीरता को वह समझ रहा है। नहीं चाहता कि बहन रोए और सब का ध्यान भंग हो। भारतीय समुदाय के लोग एक कोने में इकट्ठे होने शुरू हो गए हैं। उसकी सहेली मीनल मोबाईल पर पंडित जी से बात कर रही है। फ़ोन को कान से लगाए ही वह हैण्ड बैग और फूलों की टोकरी को दूसरे कमरे में रखने चली जाती है। मीनल का पति सम्पत पॉल बड़ी देर से अंत्येष्टि गृह की एक महिला के साथ बातें कर रहा है। सोनू और जय, सम्पत अंकल को बड़े गौर से देख रहे हैं। उस महिला के साथ बात करते हुए सम्पत अंकल उनकी और फ़र्श पर रखे बैग की ओर इशारा कर कुछ कह रहे हैं।
वह एकटक सामने रखे प्लास्टिक के बैग को देख रही है..बैग में उसके पति की लाश पड़ी है। अभी -अभी हस्पताल से लाई गई है। भावहीन चेहरे से वह उसे देखती जा रही है।आँखें सूनी हैं..... नमीं उसके भीतर गहरे में फैलती जा रही है....पर आँखों से बाहर का रास्ता ढूँढ नहीं पाई है। प्रश्नों ने तनाव के साथ मिल कर नया मोर्चा खोल उसके मस्तिष्क को बेकाबू कर दिया है। वह इस दुर्घटना को रोक सकती थी....पर कैसे ? उसका पति उसे कभी कुछ नहीं बताता था। बच्चों के अतिरिक्त और क्या साझा रह गया था उनमें ? वह कितनी दूर चला गया था..अँधेरे की परछाईं बन गया था। उसके हर प्रश्न को वह मुस्करा कर टाल जाता था।

प्लास्टिक बैग में पड़ा हुआ भी वह ज़रूर मुस्करा रहा होगा। शरीर रेल गाड़ी से कट गया..आत्महत्या की है उसने। वह तो सोया हुआ भी मुस्कराता रहता था और वह सोचती थी कि सोए हुए इंसान के चेहरे पर इतनी शांत मुस्कुराहट कैसे हो सकती है ?उसके पति की यही मुस्कराहट उसके साँवले रंग और उसकी आँखों में एक खूबसूरत चमक भर कर उसके व्यक्तित्व में चुम्बकीय आकर्षण पैदा कर देती थी।

उसकी नज़रों में कशिश थी। वह अनचाहे ही उसकी जकड़ में आ गई थी। कई चेहरे मोहिनी बूटी से होते हैं बस मोह लेते हैं। उसकी नटखट मुस्कान उसके भीतर-बाहर रोमांच का बसन्त खिला गई थी। उसे दुनिया बहुत खूबसूरत और रंग- बिरंगी लगने लगी थी। परी उसकी प्रिय सखी थी। उसी की शादी में वह उससे मिली थी। वह परी की बुआ का बेटा शेखर था।

निम्न मध्य वर्गीय परिवार के माता- पिता उसकी शादी के लिए काफी चिंतित थे। उन्हें जब पता चला कि परी का परिवार उसका रिश्ता शेखर के लिए चाह रहा है, साथ ही शादी का सारा खर्चा भी वे स्वयं उठाने के लिए तैयार हैं। पेशकश राहत भत्ता सी लगी और सोचने में उन्होंने ज़्यादा देर नहीं लगाई। शेखर अमेरिका की सिस्को सिस्टम कम्पनी में सॉफ्ट वेयर इंजनीयर था। परी की शादी में वह और शेखर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान कर चुके थे। वह इसे संयोग और हाथों की लकीरों का खेल मानती रही। परी की शादी के एकदम बाद उसकी शादी हो गई। दो सप्ताह के भीतर वह नए देश और अजनबी लोगों में नव जीवन के स्वप्न व कुछ डर ले कर अमेरिका आ गई।
आज उसके सारे सपने ढह चुके हैं। परदेस में अपनों से दूर, उदास, परेशान, चर्च में अकेली बैठी पति की अंतिम बिदाई की प्रतीक्षा कर रही है। वहाँ के शांत वातावरण में कई क़दमों की आहट सुनाई दी।

भारतीय समुदाय की कुछ महिलाएँ चर्च के उसी कमरे में आ गईं, जहाँ वह शेखर पर आँखें टिकाए स्थिर बैठी है। ऐसा लग रहा है जैसे वह उस के चेहरे में कुछ ढूँढ रही है।एक बज़ुर्ग औरत ने उसके सिर पर सहानुभूति से हाथ फेरा। वह उसी तरह बिना हिले- डुले बैठी रही।महिलाएँ कुछ बोलीं नहीं, उसकी तरफ देखती हुईं बस चुपचाप साथ की दीवार से सटी हुई कुर्सियों पर बैठ गईं। पारुल, साक्षी की कुलीग ने, उसकी गोद से बच्ची को ले कर अपनी बाँहों में उठा लिया। मीनल सोनू और जय को दूसरे कमरे में ले गई। उसने पालथी हटाकर अपने घुटनों को समेट लिया। दोनों बाज़ुओं से कस कर उन्हें पकड़ लिया और अपना चेहरा उस पर टिका दिया।

दीवार के साथ लगी कुर्सियों पर बैठी महिलाओं ने धीमी आवाज़ में बातचीत शुरू की-

''साक्षी रो नहीं रही, इसे रुलाओ....नहीं तो शरीर रोने लगेगा। डर लगता है इसे कहीं कुछ हो ना जाए।''

''शेखर इसे जिस हालात में छोड़ गया है , रोना तो इसने अब सारी उम्र है। ''

''बेचारी किस्मत की मारी, अभी नौ साल ही तो शादी को हुए हैं। तीन छोटे -छोटे बच्चे...भरी जवानी..हाय... इसे इस तरह देख कर दिल रो रहा है।''

कई महिलाओं ने रुमाल से नाक सुड़के और आँखों से निकल आए खरे पानी को सोखा।

''शेखर ने जो किया ऐसा तो अवसाद ग्रस्त लोग करते हैं, भारी निराशा में ...।''

''बाहर से कितना सभ्य- सुसंस्कृत लगता था..हँसता मुस्कराता...।''

''अरे पति -पत्नी ही एक दूसरे के बारे में बता सकते हैं कि वे कैसे हैं...? यूँ तो सब शालीन लगते हैं।''

''सुना है, एक चिट्ठी कार से मिली है और कार रेलवे फाटक के पास ही पार्क की हुई थी।''

''दैनिक न्यूज़ एण्ड ओब्ज़र्बर में लिखा था कि गाड़ी को आते देख कर वह पटरी पर खड़ा हो गया था, ड्राईवर ने जब देखा तो गाड़ी की स्पीड कम करने में उसे समय लगा और तब तक वह टकरा गया।''

''मालगाड़ी थी। उसकी गति धीमी होती है। तेज़ रफ्तार वाली यात्री गाड़ी होती तो शरीर के चीथड़े उड़ जाते।''

''भई वहाँ से तो एक ही लम्बी सी मालगाड़ी निकलती है। "

''हाँ... उसी से तो टकराया।''

''पता नहीं कितने दिनों से योजना बना रहा था। गाड़ी के समय को निश्चित कर रहा था। ''

''जान लेते समय बच्चों का भी नहीं सोचा...साक्षी तो हर रोज़ परीक्षा देती थी।''

''क्या कह रहीं हैं आप मिसिज़ पांडये ?..''

''अरे आप लोगों को नहीं पता, अब तो तक़रीबन सब को मालूम है। ''

सब ने अपनी -अपनी कुर्सियाँ दीवार से हटा कर गोल घेरे में कर लीं ताकि बात को करीब से सुन सकें।

''क्यों ?'' सब की आँखें प्रश्न वाचक थीं।

''शेखर के किसी जेम्ज़ के साथ सम्बन्ध थे।"

''क्या ..?'' सब के मुँह से यह शब्द निकला पर बड़ी दबी ज़ुबान में।

''ठीक है अगर पुरुष का साथ पसंद था तो साक्षी से शादी क्यों की...?''

''अब किस से और कौन पूछे ?''

''और साक्षी को पता कैसे नहीं चला ..?''
''तीन बच्चे साक्षी ने ऐसे आदमी के साथ कैसे पैदा कर लिए ..?''

''यह समय इन बातों का नहीं। साक्षी को हमारे साथ की ज़रुरत है। तीन बच्चों के साथ वह अकेली हो गई है इस देश में।'' पारुल ने एक तरह से सब को चुप कराते हुए कहा।

''सही कहा तुमने...।औरत पर क्या गुज़रती है, सिर्फ वही जानती है और कोई नहीं।'' मिसिज़ भास्कर ने लम्बी साँस लेते हुए कहा।

''पारुल तुम साक्षी की सहेली हो..सच्चाई से बेख़बर नहीं...आत्महत्या का कोई तो कारण होगा।" मिसिज़ ताम्बे पारुल की ओर देखते हुए बोलीं।

''आंटी, सिवाए साक्षी के सच्चाई कोई नहीं जानता। जेम्ज़ की बात भी पता नहीं कैसे लोगों तक पहुँच गई।''

''मुझे तो इतना पता है कि साक्षी ने पुलिस को पोलाईट रिक्वेस्ट की थी कि पत्र में लिखा हुआ अगर सार्वजनिक ना किया जाए तो वह आभारी होगी। पुलिस ने उसे मान लिया और निजता तथा पारिवारिक सुरक्षा के अंतर्गत उसे फाईल में रख कर सील कर दिया।''

''अमरीका में क्या- क्या देखने- सुनने को मिलता है ..रौंगटे खड़े हो जाते हैं ..'' मीनल की सास बोलीं।

''आंटी, होता भारत में भी सब कुछ है, बस ढक लिया जाता है। औरत ही कई बार अपने लिए खड़ी नहीं होती। '' पारुल रूखी सी बोली।

''ख़ैर अब तो वहाँ भी बहुत कुछ सामने आने लगा है।'' मिनल ने सास को कहा।

''ओह ! गॉड। साक्षी के चेहरे की ओर देखा नहीं जा रहा।''

''पुअर साक्षी।''

''बड़ी संस्कारी है, किसी को पता नहीं चलने दिया कि उस पर क्या बीत रही है...।'' कई लोग बड़े विचित्र तरीके से संवेदनाएँ व्यक्त करते हैं, यहाँ भी वही हो रहा है।

फ्यूनरल होम के एकान्त, शान्त माहौल में धीमी आवाज़ में की गई बातें भी साक्षी तक पहुँच रही हैं। उसे तो स्वयं भी जय के पैदा होने तक पता नहीं चला कि शेखर क्या करता है, क्या सोचता है...। जो घाव वह उसे दे गया है, उससे उठ रही टीस तेज़ दर्द बन कर अथाह पीड़ा दे रही है। इस समय वह क्या महसूस कर रही है...उसके एहसासों को कोई नहीं समझ सकता। बच्चों को क्या बताएगी...कि उनके डैड ने ऐसा क्यों किया ...? जो लोग आज हमदर्दी दिखा रहे हैं कल वही बातें बनाएँगे। उसके माँ -बाप पर क्या बीतेगी...बहनों की अभी शादी होनी है।

पंडित डॉ. गंगाधर शर्मा व उनकी पत्नी सरोज शर्मा अंत्येष्टि के लिए आ गए। कार से उनका सामान उठा कर भीतर लाया गया। सम्पत पॉल पानी की बाल्टी, कुछ तौलिये और शेखर के लिए नए कपड़े ले कर आया। पंडित जी की पत्नी सरोज शर्मा ने साक्षी के सिर और पीठ को बड़े स्नेह से सहलाया। घुटनों पर टिका उसका सिर उठाया। उसका माथा चूमा--'' तुम क्यों मुँह छिपाती हो, तुम्हारा क्या कसूर है ?''..और उसका चेहरा देखते ही ज़रा ऊँची आवाज़ में बोलीं-'' अरे कोई इसे पानी दो, इसका गला सूख रहा है। यह तो बावली हो रही है, चेहरे और आँखों में कोई भाव नहीं, नज़र कैसे ठहर गई है।'' कुछ घंटों में ही साक्षी का शरीर जड़हीन सूखे तने सा ढहने को तैयार लगने लगा।

मीनल दौड़ कर पानी का गिलास लाई, साक्षी ने एक घूँट ही पानी का पिया। बच्ची ज़ोर से रो पड़ी। पारुल जिसकी गोद में बच्ची थी उसने उसे साक्षी की गोद में डालते हुए कहा-- '' इसे भूख लगी है, दूध पिला दे।'' सरोज शर्मा (जिन्हें सभी आंटी जी कह कर बुलाते हैं) ने साक्षी को घूम कर बैठने को कहा जिससे उसकी पीठ लोगों की ओर हो गई और मुँह फ्यूनरल होम की दीवार की तरफ। उन्होंने उसकी कमीज़ ऊपर उठाने की कोशिश की। साक्षी ने यंत्रवत अपनी कमीज़ ऊपर उठा ली और वक्ष बच्ची की ओर दूध पीने के लिए बढ़ा दिया।

सम्पत पॉल के साथ राम सेठ , परिमल दास , नरेन शाह ने प्लास्टिक का बैग खोला और शेखर का बदन गीले तौलिये से पौंछने लगे। उसका कटा बदन जगह -जगह से टांके लगा कर सिल दिया गया था। सारी औरतें पहले ही वहाँ से उठ कर दूसरे कमरे में जा चुकी थीं। अब उसे नए कपड़े पहनाए जाने थे। फ्यूनरल होम वाले ताबूत ले आए। शेखर को साफ - सुथरा करके, नए कपड़े पहना कर उसे फ्यूनरल होम वालों को सौंप दिया जायेगा ताकि वे उसे अंतिम यात्रा के लिए तैयार कर दें। अमेरिका के लोग तो लाश का पूरा मेकअप तक करवाते हैं ताकि अंतिम यात्रा में वे सुन्दर दिखें। उस ताबूत को अंत्येष्टि गृह के बड़े हॉल में रख दिया जाएगा श्रद्धांजलि पुष्प अर्पित करने के लिए।

साक्षी बच्ची को दूध पिलाती हुई सामने वाली सफ़ेद, ख़ाली दीवार की ओर देख रही है, जिस पर कोई चित्र नहीं टंगा हुआ। उसका जीवन भी इसी की तरह सूना हो गया है...शायद उसके जीवन में तो पहले से ही कुछ नहीं था, वह उसे स्वीकार नहीं कर रही थी, अब अस्वीकार का विकल्प नहीं रहा....।
'जेम्ज़'...किसी ने आवाज़ दी। साक्षी का दिल दहल गया। वह यहाँ भी आ गया। उसका दिल धौंकनी की तरह धड़कने लगा। उसने चेहरे और पीठ को घुमा कर पीछे देखा। वहीं का कोई कर्मचारी था। शेखर का जेम्ज़ नहीं था। इस प्रक्रिया में बच्ची के मुँह से उसका वक्ष छूट गया वह रोने लगी। अपने -आप को सम्भाल कर उसने उसे दूसरी तरफ किया और दूसरी छाती से दूध पिलाने लगी। दूध पीती बच्ची को देखते हुए उसके भीतर कसक उठी, इसके होश सँभालने पर वह इसे इसके बाप के बारे में क्या कहेगी ..? वह जेम्ज़ और शेखर की बनाई हुई अस्थिर और चुरमुरी छत के नीचे बच्चों को कैसे पालेगी?वह उस छत को बहुत मज़बूत समझती थी, जिसके साये तले शादी के कई वर्ष पलों में बीत गए थे। शेखर का प्यार, पार्टियाँ, बेहिसाब सुख। निम्न मध्यवर्गीय परिवार की साक्षी के लिए यह सब अद्भुत था। सोनू और जय के जन्म के समय उसके माँ -बाप और सास - ससुर दोनों आ गए थे। शेखर ने उन पर प्यार और उपहारों की बारिश कर दी थी। उसकी मुस्कराहट ने सब को सम्मोहित कर लिया था। साक्षी के माँ -बाप बेटी को खुश और सुखी देख कर भारत लौट गए पर उसके सास -ससुर एक साल उनके पास रहे। शेखर अक्सर देर से घर आता था।

शादी के उपरांत कुछ वर्षों तक साक्षी उसके देर से घर आने के प्रति लापरवाह रही। अब शेखर का देर से आना उसे खलने लगा। आस -पास के मर्द दिन भर बाहर रह कर शाम को घर लौट आते और अपने परिवार के साथ समय बिताते। साक्षी पड़ोस के परिवारों को सड़क पर सैर करते देखती। उसके दिल में हूक सी उठती। उसे शेखर के साथ ऐसा सुख कभी नहीं मिला था। सहनशीलता किसी दिन उसका साथ छोड़ जाती और वह उसके घर आते ही भड़क उठती।

वह हमेशा मुस्करा कर कह देता..'' प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है, सब लोग बैठे थे, मैं कैसे उठ कर आता। ऐसे में देर तो हो ही जाती है।''

सास -ससुर भी साक्षी को समझाने लगते -'' बहु सुबह का गया वह शाम को थका-हारा घर आया है। किसके लिए इतनी जान मार रहा है..तुम्हारे और बच्चों के लिए। तुम प्यार देने की बजाए गुस्सा होती हो।'' साक्षी शांत हो जाती। वह उनकी बहुत इज़्ज़त करती है। उन्हीं की प्रेरणा से, उसने अमेरिका में पढ़ाने का डिप्लोमा ले लिया था। वे बच्चे संभाल लेते और वह कॉलेज चली जाती। डिप्लोमा के बिना अमेरिका में पढ़ाया नहीं जा सकता। भारत से उसने फ़िज़िक्स में एम.एस.सी की हुई है।

जय एक साल का था जब शेखर के माता -पिता वापिस चले गए। उनके जाने के बाद साक्षी बहुत अकेलापन महसूस करने लगी। शेखर काम के सिलसिले में शहर से बाहर अधिक जाने लगा था। शहर में होता तो भी देर से घर आता। घर-बाहर के सब काम करते, बच्चों को पालते-पोसते वह थक जाती। शेखर का उसे कोई सहारा नहीं था। जब भी वह उससे नाराज़ होती तो वह मुस्कराता हुआ बाँहें फैला देता, उसकी मुस्कराहट देख, उसकी बलिष्ट बाँहों के घेरे में, उसके चौड़े सीने के साथ लग कर वह सब कुछ भूल जाती थी। वह उसे दुलारता- -'' जानू, तुम्हारे लिए ही तो सब कुछ कर रहा हूँ, तुम्हारे और बच्चों के अतिरिक्त मेरा कौन है यहाँ ...तुम्हें अकेले छोड़ कर काम करने का मेरा भी तो दिल नहीं करता, पर क्या करूँ, नौकरी है। अच्छा मैं तुम्हारे लिए एक मेड का इंतज़ाम कर देता हूँ। काम में मदद हो जायेगी। '' और ... वह पिघल जाती।

दूसरे दिन वह फिर अकेली माँ (सिंगल मदर) की तरह सब काम करती। उसे अपने सम्बन्धों में कुछ घटता महसूस होने लगा था..क्या कम हो रहा था वह समझ नहीं पा रही थी। रिश्तों के ढोस धरातल में छेद हो गया था ...जैसे कुछ रिस रहा था वहाँ से, वह उसे ढूँढ नहीं पा रही थी। शेखर के प्यार में वह कर्त्तव्य अधिक और मादकता कम पाती थी।

जिस शेखर से उसने नाता जोड़ा था, वह बदलता जा रहा था। समुद्र का उफ़ान किनारे की बालू को साथ बहा ले जाता है, यहाँ उफ़ान तो आता पर बालू साथ न बह पाती। वह इस बदलाव के बारे में बहुत सोचती। स्वयं को ही दोषी मानती, दोनों बच्चों और सास -ससुर के साथ वह इतनी व्यस्त हो गई थी कि शेखर की ओर ध्यान नहीं दे सकी। तभी वह उखड़ा -उखड़ा रहता है।

कभी -कभी उसके भीतर अपनी सोच को लेकर द्वंद्व चलता। वह सोच को तराज़ू बना लेती , स्वयं और शेखर को अलग -अलग पलड़ों में डाल कर सम्बन्धों के पलों को तोलती। शेखर ने अपने कर्त्तव्य में कभी कमी नहीं की, उसे भरपूर आर्थिक सुरक्षा दी। क्रेडिट कार्ड था उसके पास, वह जितना चाहे ख़र्च करती, वह चुपचाप बिल दे देता। घर के काम- काज और बच्चों की देखभाल के लिए वह समय नहीं दे पाता था, पर उसे कभी पूछता भी नहीं था कि दिन भर उसने क्या किया.. कहाँ गई ? उसे यह सब समान्य नहीं लगता था, कोई पति अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति इतना निर्लिप्त कैसे हो सकता है ? परिवार के लिए उसकी नीरसता उसे चुभने लगी थी।

रात दस बजे के करीब वह घर आता। बच्चे आठ बजे सो जाते थे। वे उन्हें सोये हुए ही देख पाता। रात तक वह भी उसका इंतज़ार कर रही होती। दिन भर की बहुत सी बातें वह उसके साथ साझा करना चाहती। उसे बच्चों की अठखेलियाँ, शरारतें, उनके मुँह से निकले छोटे -छोटे वाक्य बताना चाहती। पर वह थकी, ऊंघती आँखों को ज़बरदस्ती खोलता हुआ, अनमने मन से मुँह में कौर डालता। साक्षी महसूस करती कि उसे उसकी बातों में कोई रूचि नहीं होती थी। रोज़ -रोज़ की इस बेरुखी से वह उकता गई थी। वह भी दिन -भर की दौड़ -धूप से थकी होती पर रात को उसी के लिए बन सँवर कर तरो -ताज़ा रहती।

कई बार वह चिढ़ कर झगड़ पड़ती --'' कम्पनी बदल लें। किसी ऐसी कम्पनी में जाएँ, जहाँ समय पर घर तो आ सकें। प्रोजेक्ट तो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेते। '' वह उसे कुछ नहीं कहता था, नाराज़गी से भरी बातों को मुस्करा कर टाल जाता और उसे बाँहों में भर कर बिस्तर पर आ जाता और आँखें मूँद लेता। जानता था कि अब वह बोलेगी नहीं।

उसकी बाँहों के घेरे से मुक्त हो कर, वह अचंभित होती और साथ ही चिंता का नाग उसे डस जाता .... शेखर कभी कुछ कहता क्यों नहीं..वह झगड़े भी तो किस से ? हर समय मुस्कराता रहता है। जय के पैदा होने के बाद से वह अन्तर्मुखी हो गया है। घर में सब के साथ होते हुए भी वह अपने में खोया रहता है। शादी के बाद का उन्माद, रोमांस उनके जीवन से लुप्त हो गया, कहाँ गुम हो गया है ......।शेखर एक चंचल प्रेमी था। प्यार करने के उसके नए -नए तरीके होते थे। वह उसे भिन्न- भिन्न अदाओं से लुभाता था। स्वयं को कई तर्कों से समझाती --'' शादी के कुछ वर्षों बाद रिश्तों में गर्माहट नहीं रहती होगी। प्यार में स्थिरता आ जाती होगी। शायद उसकी ही चाहतों ने अधिक पाँव पसार लिए हैं।'' हर तरह से स्वयं को शांत कर सोने की कोशिश करती। बगल में लेटे मुस्करा रहे शेखर को देख कर तरल हो जाती -'' काम का बोझ बहुत बढ़ गया है , तरक्की जो मिली है। इसलिए इतना थका रहता है। मेरा शेखर है बड़ा प्यारा।'' कहते हुए उसकी मुस्कराहट चूम लेती।

सुबह उठ कर, कुछ देर के लिए वह बच्चों के साथ खेलता। वह अपने नकारात्मक विचारों को छिटक कर उमंग और उत्साह से भर जाती।

कुछ दिनों बाद वह फिर अकेलेपन के चक्रव्यूह में फँस जाती और उससे आए शून्य से घिर जाती। शेखर की बाँहों के घेरे में उसे पहले सी गर्माहट नहीं मिलती थी। ठंडापन महसूस होता। संसर्ग में भावनाओं का संवेग न होता। सहवास में शेखर की उसे अपने प्रति औपचारिकता की अभिव्यक्ति अधिक मिलती। कोमल क्षणों में भी वह कहीं खोया रहता। हर बार उसका शरीर चुगली काटता कि शेखर का दिल कहीं और था, वह उसके साथ होता हुआ भी उसके साथ नहीं था। वह तृप्त हो कर भी अतृप्त रहती।

उसे महसूस होने लगा था कि वह मानसिक संतुलन खो रही है. ..। शारीरिक रसायन अनियंत्रित हो रहे हैं। उसने अपनी डाक्टर से बात की। उसने उसके खून से लेकर सभी तरह के टेस्ट किए और साक्षी को सलाह दी कि वह नौकरी करे या अपने -आप को घर से बाहर कहीं व्यस्त रखे। उसके भीतर फैलता शून्य सकारात्मक सोच और शरीर में अच्छे रसायन का निकास कर नकारात्मक ऊर्जा का विकास कर रहा था। इस ऊर्जा को अगर समाप्त नहीं किया गया तो अवसाद उसे घेर लेगा। इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका डाक्टर ने उसे यही सुझाया था कि अपने इर्द -गिर्द के वातावरण से कुछ घंटों के लिए दूर हो जाए। उसने नौकरी ढूँढने के लिए अंतरजाल का सहारा लिया और कई रिक्त स्थानों के लिए निवेदन पत्र भर दिये।

वेकटैक कम्युनिटी कॉलेज में दो सप्ताह के भीतर उसे फ़िज़िक्स पढ़ाने की नौकरी मिल गई। इंटरव्यू के बाद उसे उसी समय नियुक्ति पत्र पकड़ा दिया गया।

रात्रि भोजन के समय उसने बड़े उत्साह के साथ शेखर से अपनी ख़ुशी बांटी -- '' यह देखिये मेरा नियुक्ति पत्र। मुझे नौकरी मिल गई है। शाम की क्लासें मिली हैं, सोचती हूँ, मना कर दूँ, बच्चों को किस के पास छोड़ कर जाऊँ।''
शेखर ने उमंग के साथ कहा था -'' मेरे पास।''

''आप घर पर होते ही कहाँ हैं ..? ''

''मेरी जानू को कैरियर बनाने का मौका मिला है तो इसे हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। मैं जो काम शाम को कम्पनी में बैठ कर करता हूँ वह घर से कर लिया करूंगा। हाँ अपने प्रोजेक्ट लीडर जेम्ज़ को घर बुलाना पड़ेगा। वह यहाँ आ कर मेरे साथ काम कर लेगा। हम दोनों मिल कर बच्चों की देख- भाल भी कर लेंगे। जेम्ज़ बच्चों का बहुत शौकीन है। '' उसने पहली बार जेम्ज़ का नाम सुना था।

बच्ची दूध पी कर सो गई थी, उसने अपने अंग ढक लिए। दोनों बेटे साथ वाले कमरे से निकल कर पीछे से आकर उससे लिपट गए। इसी तरह बच्चे उससे लिपट कर जेम्ज़ अंकल की तारीफों के पुल बांधा करते थे। उसे विश्वास नहीं था कि शेखर बच्चों को संभाल सकेगा। लेकिन जेम्ज़ से मिलने के बाद वह निश्चिन्त हो कर कॉलेज जाने लगी थी। पहले दिन जब वह जेम्ज़ से मिली थी तो किसी मैगज़ीन के पृष्टों के विज्ञापनों से निकला चेहरा लगा था। पुष्ट देह। नीली आँखें। भूरे बाल। शिष्ट और शर्मिला। व्यवहार में सभ्य। बच्चों को मिलते ही वह उनका दोस्त बन गया था। कुछ दिनों में वह भी उसकी प्रशंसिका हो गई थी।

मीनल ने सोनू , जय और उसे वहाँ से उठने के लिए कहा। बच्ची को उसकी गोद से अपनी गोद में लिया। उसे साथ वाले हॉल में चलने का इशारा किया। दोपहर के तीन बज चुके थे। पाँच बजे शेखर की मृतक देह को श्रद्धांजलि अर्पित कर अंत्येष्ठी की रस्में पूरी करनी हैं।

सरोज शर्मा आंटी ने साक्षी की ओर देखते हुए मीनल को धीमी आवाज़ में कहा -'' मीनल, इसे शौचालय ले जाओ, पानी-वानी पिलाओ। जाने वाला चला गया इसका ख़याल तो रखो ..वे जब बोलती हैं तो बोलती चली जाती हैं ...रो नहीं पा रही इसे शॉक लगा है। अभी इसे कुछ समझ नहीं आ रहा। जब समझ में आया तो आँसुओं को रोक नहीं पाएगी। जिस झटके से और जिस दौर से गुज़र रही है, उस से पानी की कमी हो सकती है, बेटी ध्यान दो इसकी ओर, अभी इसकी बच्ची दूध पीती है।''

''अच्छा आंटी '' कह कर मीनल साक्षी को शौचालय की ओर ले गई। वह कटपुतली सी उसके पीछे चल पड़ी। मीनल उसे वाशरूम में छोड़ कर हॉल में लौट आई। कमोड पर बैठते ही उसके पेट में मरोड़ उठने लगे। वह पेट पकड़ कर बैठ गई।

ऐसे ही मरोड़ उस दिन उठे थे, जब वह चार माह की गर्भवती थी और कॉलेज से उत्साहित घर आई थी। उस दिन क्लास केंसिल हो गई थी। वह बच्चों को सरप्राईज़ देना चाहती थी। वह दबे पाँव घर में घुसी थी। बच्चों की आवाज़ नहीं आ रही थी। घर में सन्नाटा था। उसके मास्टर बेडरूम से जेम्ज़ और शेखर की फुसफुसाहट और हल्की हँसी की आवाज़ें आ रही थीं। उसने सोचा बच्चों के साथ खेल रहे होंगे।

ज्योंही उसने दरवाज़ा खोला बिस्तर पर जेम्ज़ और शेखर अन्तरंग क्रियाओं में लीन थे। वह दृश्य उसके अन्दर की औरत को झकझोर कर, उसके अस्तित्व को जड़ों से उखाड़ गया। उसके पेट में उथल -पुथल हुई, घबरा गई वह, मरोड़ उठा था और मतली आ गई थी। वह तेज़ी से वाशरूम की तरफ भागी वर्ना वहीं कारपेट पर उल्ट देती। उसे अपने बदन से बदबू आने लगी थी। उसने बच्चों के कमरे में जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया था। पूरे शरीर का पानी आँखों और रोम -रोम से बह निकला था। उसे अपनी त्वचा और अंगों से दुर्गन्ध आने लगी और वह गर्म पानी के शावर में खड़ी हो कर साबुन से रगड़ -रगड़ कर बदन धोने लगी।

शेखर का धोखा उसके अंग -अंग को बींध गया था। पूरा शरीर पीड़ा से कराह रहा था। पिछले कई दिनों से उसका अंतर्ज्ञान उसे रिश्तों में आ रही दूरियों से परिचित करवा रहा था पर वह उसे अपना मानसिक विकार और शारीरिक रसायनों के अनुपात का जमा -घटाव समझती रही, वह सोचती रही कि उसके कैमिकल्स का संतुलन बिगड़ गया है। जेम्ज़ से रत्यात्मकता के बाद वह उसे स्पर्श करता रहा... उस एहसास से ही उसे फिर मतली आ गई। उसका रोष गुस्से में बदल गया, वह शेखर को लताड़ना चाहती थी, नहीं कर सकी, बच्चे सो रहे थे। शेखर अपनी मुस्कराहट में अपना दुष्कर्म छिपाता रहा। वह उसके नाजायज़ सम्बन्धों को दुष्कर्म ही कहेगी। निम्न मध्यवर्गीय संस्कारों से जकड़ा उसका मन शेखर के प्रति आक्रोश से भर गया। उसका पोर -पोर वेदना से पीड़ित था। वह किसे अपना दर्द बताए। बहते पानी के साथ वह उसे बहाने की कोशिश कर रही थी।

अमेरिका में कमरे अन्दर से बंद भी कर लो तो बाहर से एक मोटी सूई जैसी चाबी से खोले जा सकते हैं। शेखर बच्चों के कमरे को खोल कर भीतर आ गया था। उसने बाथरूम का दरवाज़ा खटखटाया --''साक्षी, बहुत देर से नहा रही हो, पानी की आवाज़ बच्चों की नींद तोड़ रही है। वे बिस्तर पर करवटें बदल रहे हैं। नीचे लिविंग रूम में आ जाओ, मुझे तुमसे बात करनी है। मैं इंतज़ार कर रहा हूँ।'' विनम्रता से शेखर बोला था। बच्चों का नाम सुनते ही वह संयत हो गई थी। शावर लेते हुए ही उसने कहा था --'' इस समय नहीं, मैं सुबह बात करूंगी। अभी चले जाओ प्लीज़।'' वह उसी समय वहाँ से चला गया।

शावर बंद करके, बदन पौंछ कर, नाईटी पहन कर वह बाहर आ गई, बच्चों को देखने लगी। वे मासूम, भोले -भाले, गोल -मटोल दुनिया से बेख़बर गहरी नींद में सो रहे थे।

उसके पेट में हौल पड़ रहे थे और आँखें बहती जा रही थीं। शेखर की बेवफाई , धोखा उसे तार -तार कर रहा था। अगर उसने भारत फ़ोन किया तो दोनों के माँ -बाप को इस उम्र में गहरी चोट लगेगी। उसके इर्द- गिर्द के लोग, रिश्तेदारों की सोच उदारवादी नहीं, बेहद संकीर्ण है। शादी से इतर किसी और स्त्री के साथ सम्बन्धों को वे स्वीकार कर सकते हैं पर पुरुष के साथ नहीं। इस बात को वे नज़रंदाज़ नहीं कर सकेंगे। परिवारों का जीना वहाँ दूभर हो जायेगा। उसकी बहनों को शादी के लिए लड़के मिलने मुश्किल हो जाएँगे।

आधुनिक भारत में अभी भी बहुत से लोग हैं, जो इन सम्बन्धों को स्वीकार नहीं कर पाएँगे। शेखर के यथार्थ का ठोस धरातल उनके पाँव ज़ख्मीं कर देगा। उसने किसी को भी बताना उचित नहीं समझा।

उदास, थकी, परेशान वह दोनों बच्चों के मध्य में लेट गई। दोनों ने अपनी बांहें उसके गले में डाल दीं और उस निर्मल सुख से उसकी आँखें मुंद गईं। कहीं खटका हुआ, उसकी नींद टूट गई। शायद शेखर चाय बना रहा था।

वह धीरे से उठी ताकि बच्चें जाग ना जाएँ और उसने खिड़की पर से पर्दा हटा दिया। साफ़ -सुथरा खुला आकाश...देखते ही आँखों को चैन मिला। पूरे आसमान पर केवल एक तारा चमक रहा था। भूले- भटकों को राह दिखाने वाला। वह खिड़की के पास हो ली। शायद उसे भी राह दिखा दे। टिकटिकी बाँध कर वह उसे देखने लगी। तारे की रोशनी उसकी आँखों की ओर बढ़ने लगी। रोशनी उसकी आँखों तक पहुँचते ही तारा गायब हो गया। उसने आँखों को झपकाया। तारा वहाँ नहीं था। उसकी बेचैनी मिट गई थी। वह उसी समय लिविंग रूम में गई। शेखर कुर्सी पर बैठा चाय पी रहा था, वह सारी रात सोया नहीं था।

उसे देखते ही वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बोला--जानू ...
साक्षी ने उसे वहीं रोक दिया --मैं जानू हूँ तो जेम्ज़ को क्या कहते हैं आप ?
''साक्षी आई ऍम सॉरी वैरी -वैरी सॉरी .. मैं नहीं चाहता था कि तुम्हें मेरे इस सम्बन्ध का इस तरह पता चले। मैं स्वयं तुम्हें बताना चाहता था। ''
''फिर बताया क्यों नहीं ?''
''बस बता नहीं पाया। सही समय की तलाश करता रहा।''

''सही समय की तलाश में मेरी भावनाओं से खिलवाड़ करते रहे। अगर आपकी शारीरिक और मानसिक ज़रुरत 'स्त्री' नहीं 'पुरुष' था तो मुझ से शादी क्यों की ?''

''साक्षी मैं क़सम खाकर कहता हूँ अपनी इस शारीरिक ज़रुरत, अपनी रूचि और संवेगों का मुझे भी पता नहीं था। मैं तो लड़कियों की ओर बहुत आकर्षित होता था। तभी तो तुम्हारे साथ शादी की थी। जय के जन्म तक मैं अपने आप से अनभिज्ञ था, अपने शरीर, इसकी संरचना और इसकी इच्छाओं से अनजान था। उन्हीं दिनों जेम्ज़ मेरा प्रोजेक्ट लीडर बन कर आया था, उसे देखते ही पता नहीं मुझे क्या हुआ और बहुत कुछ होता चला गया। मैं उस बहाव में बह निकला।''

''और मैं अपने- आप को दोषी मानती रही। मेरे अंदर की औरत रोज़ टूटती और बिखरती रही। तुम क्यों मुझे समझना नहीं चाहते थे यह मैं अब जान पाईं हूँ। मैं तुम्हारी व्यस्तता के आवर्ण में अपनी ख्वाहिशों, अपने जज़्बात को ढकती रही। मर्द हो ना, सिर्फ अपने बारे में सोचते रहे, अपनी चाहतें पूरी करने में लगे रहे। मैं तो सिर्फ औरत हूँ, मेरी औक़ात, मेरा वजूद ही क्या है ?''

''ऐसी बात नहीं साक्षी, मैं अपराध बोध से ग्रस्त हो गया था, तुम्हारे प्रति स्वयं को दोषी समझता था। तभी तुम्हें कुछ कहता नहीं था। अपनी इस कुण्ठा को लेकर मैं मनोविशेषज्ञ से कई बार मिला हूँ। उसी की सहायता से अपने- आप को समझ पाया हूँ। मेरी शारीरिक संरचना ऐसी है कि मैं दोनों लिंगों के प्रति आकर्षित हो सकता हूँ।''

''यह तो आप को पहले से पता था कि आप को दोनों लिंग आकर्षित करते हैं। आप उसे झुठला रहे थे ताकि परिवार और समाज में आपकी छवि न बिगड़े। अचानक ऐसे कैसे हो गया कि जेम्ज़ सामने आ गया तो आप बह गए ...व्हट ए लोजिक ...साईंस पढ़ी है, अनपढ़ नहीं हूँ।''

''सच कहता हूँ मुझे पता नहीं था अपने इस एहसास का, कभी किसी पुरुष को देख कर कुछ नहीं हुआ था। कल ही तुम्हारी मुलाकात डॉ. किम्रली वेंज़रोफ्फ़ जो टॉप की मनोविशेषज्ञ है, उससे करवाता हूँ, वही तुम्हारी इस शंका को दूर कर सकती है। उसी ने मेरी काउंसलिंग की है, तभी मैं जान पाया कि प्यार -मोहब्बत, समलिंग- विपरीतलिंग आकर्षण सब केमिकल्स का खेल है।''शेखर ने सामने पड़ी मेज़ से चाय का प्याला उठाया और अपनी बात जारी रखी--

''अभी नए शोध से पता चला है कि पुरुषों में भी मेनोपाज़ होता है जिसे एनड्रोपाज़ कहते हैं और उनमें धीरे -धीरे शारीरिक परिवर्तन होते हैं, महिलाओं की तरह एकदम नहीं। बाई सेक्सुअल इंसान उम्र के किसी भी हिस्से में, स्त्री-पुरुष, दोनों की तरफ आकर्षित हो सकता है और मेरी बदकिस्मती है कि मैं बाई सेक्सुअल हूँ। ''

''आकर्षित जितना भी हो लें पर रहेंगे एक के साथ।'' शेखर को होंठों से लगा गर्म प्याला आईस टी सा लगा।

''मैं वैज्ञानिक हूँ, हारमोंज़ के अनुपात की मात्रा के गणित को समझती हूँ... और आप की इस शारीरिक संरचना को स्वीकार करती हूँ। बता देते तो शायद इतनी चोट ना पहुँचती।'' व्यथा दोनों के मध्य बैठी थी।

''आप से प्यार किया है, विश्वास किया होता मुझ पर। आपकी इस शारीरिक प्रक्रिया से मैं बेख़बर थी। आप इतने दिन दो रिश्तों में पिसते रहे। जिसे प्यार किया जाता है, उसे तकलीफ़ में देखना प्यार करने वाले के लिए कष्टकारी होता है.......मुझे तो आपके बिना, गृह -कार्य और बच्चों को सँभालने की आदत हो चुकी है।'' शेखर आँखें मूँद कर सुन रहा था।

''अच्छा, एक विकल्प दे रही हूँ कि बच्चों के थोड़ा बड़ा होने तक जिस तरह से जीवन चल रहा है, अगर चला सकें तो हम सब के लिए बेहतर होगा।''

''कल ही मैंने समाचार पत्र में पढ़ा था कि कैलिफोर्निया के पब्लिक स्कूलों के कोर्स में लिंग और सेक्स से जुड़ा हर नया शोध पढ़ाया जायेगा ताकि युवा पीढ़ी को इसका सही ज्ञान हो। पर हमारे बच्चे अभी बहुत छोटे हैं, उन्हें स्त्री -पुरुष सम्बन्धों की जटिलताओं का पता नहीं और मैं बताना भी नहीं चाहती। यह भी नहीं चाहती कि लोगों को इस समय आप के इस सम्बन्ध का पता चले और बच्चों तक बात पहुँचे। हम दोनों के माँ -बाप इस सदमें को सह नहीं सकेंगे। जेम्ज़ के लिए मैं आप को अपने बन्धन से मुक्त करती हूँ। हाँ, अब आप हमारे बेडरूम में नहीं, अलग कमरे में सोएँगे।'' दृढ़ता से कह कर वह उठ गई, बच्चों के रोने की आवाज़ आ गई थी।

शेखर हारे हुए राजनीतिज्ञ सा बैठा रह गया, जिसे वह आज तक भावनात्मक स्तर पर एक कमज़ोर औरत समझता था और कुछ भी बताने से कतराता था। डरता था कि जब भी वह उसे अपने और जेम्ज़ के बारे में बताएगा, वह रोएगी, गिड़गिड़ाएगी, लड़ेगी, झगड़ेगी और उसे कई तरह की दुहाई दे कर विचलित करेगी। अपनी दृढ़ता से वह उसे स्तब्ध और बेज़ुबान कर गई। उसके व्यक्तित्व के इस पहलू से वह परिचित नहीं था।वह स्वयं भी अपने इस रूप से परिचित हो रही थी। विकट और कठिन घड़ियों में उसका स्वाभिमान और कर्मठता जाग उठी थी।

आज़ाद हो कर शेखर घर से बेपरवाह, अपनी और जेम्ज़ की दुनिया में खो गया था। साक्षी और बच्चे गौण हो गए थे उसके लिए। उसकी बात का मान रखने के लिए वह कई -कई दिनों बाद बच्चों और उसे सूरत दिखा कर बस सामाजिक और पारिवारिक मर्यादायों के लिए घर में उपस्थिति दर्ज करवा जाता।

साक्षी ने स्थिति स्वीकार कर ली थी। उसने मीनल और पारुल की सहायता से बच्ची को जन्म दिया। वे ही उसे हस्पताल लेकर गईं और उसका ध्यान रखा। शेखर को बच्ची के बारे में एक सप्ताह बाद पता चला। उस दिन वह उसके कमरे में आया था। वह बहुत उदास, परेशान, खोया -खोया सा था। वह बच्चों में व्यस्त थी। बच्ची के जन्म के बाद वह पूरी तरह से स्वस्थ भी नहीं हो पाई थी कि उसे सब ज़िम्मेदारियाँ संभालनी पड़ीं। नौकरी से उसे छुट्टी मिली हुई थी। शेखर क्यों परेशान है, वह उससे पूछ नहीं पाई थी।

उस दिन के बाद उसने उसे मुस्कराते नहीं देखा। घर वह जल्दी आने लगा था पर अधिकतर समय अपने कमरे में बिताता। बच्चों के साथ खेलता हुआ भी वह गुमसुम ही रहता। उसने उससे एक दो बार पूछा पर वह थकान का बहाना बना कर बात को टाल गया। साक्षी ने अधिक नहीं पूछा, वह अपनी ही व्यस्तताओं में उलझी हुई थी। बच्ची की डलिवरी के समय उसने जान -बूझ कर अपने सास -ससुर को नहीं बुलाया था, घर का पर्दा उठ जाता।

पर्दा तो शेखर स्वयं ही उठा गया, उसके और पुलिस के नाम पत्र लिख कर। काश ! उसने ज़ोर डाल कर पूछा होता कि उसे परेशानी क्या थी ? शायद वह उसे बचा लेती। दुर्घटना रुक जाती.. सोचों के भंवर में वह धंसने लगी... वह उसे रोकती भी तो किस अधिकार पर , सारे अधिकार तो उसने जेम्ज़ को दे दिये थे। घर में शेखर दोस्त की तरह नहीं, अजनबी की तरह व्यवहार करता था। जबकि वह उसकी दोस्त बन गई थी। उसे उसकी चिंता होती थी।

तभी मीनल ने ज़ोर -ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया --'' साक्षी तुम ठीक तो हो ? कब से वाशरूम में बैठी हो।'' साक्षी ने मीनल की आवाज़ सुन कर स्वयं को सम्भाला, फ्लश का बटन दबाया और दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गई। वाश-बेसिन पर हाथ- मुँह धोने लगी।

''मैंने सोचा थोड़ी देर तुम्हें अकेला छोड़ दूँ। इसलिए हॉल में चली गई थी। पर तुमने तो बहुत देर लगा दी। अब मैं शंकित हो गई थी कि कहीं तुम्हारी तबियत तो नहीं बिगड़ गई।''

साक्षी चुपचाप मुँह धोती रही.....

''पंडित जी ने अंतिम संस्कार के लिए तुम्हें बुलाया है, तुम्हारा इंतज़ार हो रहा है।''

साक्षी चुपचाप हॉल की ओर बढ़ गई। भारतीय समुदाय के लोगों ने अपने -अपने दोस्तों को ईमेल भेज कर इसकी सूचना दे दी थी। लोग बेंचों पर बैठ चुके थे। वह बच्चों को लेकर आगे की सीट पर बैठ गई। गीता का पाठ और महामृत्युंजय मन्त्रों की स्वर लहरी धीमें स्वर में सुनाई दे रही है। उसके बैठते ही पंडित जी ने गीता के कुछ श्लोक पढ़े और शरीर की नश्वरता पर बोलना शुरू किया। वहाँ बैठे सभी लोग कुछ क्षणों के लिए इस संसारिक मोह माया से दूर चले गए। सब को अपना शरीर नश्वर लगने लगा। कुछ लोगों को अपने याद आने लगे, जो उन्हें छोड़ गए थे।उनकी आँखों में पानी तैरने लगा। कई महिलाओं की दबी -घुटी सिसकियाँ, सुबकियाँ वहाँ सुनाई देने लगीं।

साक्षी अचम्भित है कि उसके भीतर तो बरसात हो रही है और उसकी आँखें सूखे की लपेट में आ चुकीं हैं। उसकी भावनाएँ, उसके संवेग किस गुफा में समा गए हैं, जहाँ से उन्हें उस तक पहुँचने का रास्ता नहीं मिल रहा। वह शेखर से प्यार करती थी। फिर वह इतनी रूखी क्यों है ? कहतें हैं जब तक मुर्दे को जलाया नहीं जाता आत्मा वहीं अपनों के आस -पास रहती है। शेखर की आत्मा भी सब देख रही है। वह उसे उसके प्रति विमुख देख कर दु:खी होगा। वह इस संसार से दु:खी गया है, वह उसकी आत्मा को शन्ति देना चाहती है।

वह निर्मम नहीं थी, फिर वह भावनारहित क्यों हो गई है...उसे लगने लगा कि शायद वह स्वयं भी जिंदा नहीं, तभी तो इतनी रूखी- सूखी और निर्लज्ज हो गई है, जिसने अपने पति के मरने पर एक आँसू नहीं बहाया। वह महसूसने लगी ... कि वह अपनी आत्मा से यह सब देख रही है। उसने आपने आप को चुटकी काटी। आउच..दर्द हुआ। वह ज़िंदा है।पंडित जी का प्रवचन बंद हुआ। उन्होंने कहना शुरू किया -'' अब मृत शरीर को अंतिम यात्रा पर भेजने का समय आ गया है ... शेखर को सजा- धजा कर जिस ताबूत में लिटाया हुआ था, उसकी परिक्रमा करने के लिए उन्होंने साक्षी और बच्चों को फूल दिये। परिक्रमा कर बच्चों ने शेखर के पाँव छूकर फूल चढ़ाये।

साक्षी वहीं खड़ी हो गई, एक बेजान मूर्ति सी। उसका अस्तित्व शेखर का पत्र पढ़ कर चूर- चूर हो चुका था, जो पुलिस ने उसे दिया था, जिसमें उसने लिखा था--''जेम्ज़ उसे किसी और के लिए छोड़ गया, वह उसका अलगाव सह नहीं सका। वह जेम्ज़ को बहुत प्यार करता था, अब उसके जीवन का कोई अर्थ व औचित्य नहीं रहा ऐसे जीवन को समाप्त करना उसने बेहतर समझा।''

ताबूत में पड़े उस इन्सान की मुस्कराहट को उसने अंतिम बार आँखों से अलविदा कहा, जिसके जीवन में उसका और बच्चों का कोई स्थान नहीं था, पर उसने उससे प्यार किया था और वह उसके बच्चों का बाप था। लोग पंक्तिबद्ध परिक्रमा कर शेखर पर फूल चढ़ाने लगे।

एक स्वर में लोगों ने राम नाम सत्य कहना शुरू कर दिया और ताबूत को पहियों पर चला कर एक बड़ी सी गाड़ी के साथ जोड़ दिया गया। सम्पत पॉल ने सोनू और जय का हाथ थाम कर कार में बिठा दिया, मीनल बच्ची को उठा कर साक्षी के साथ कार में बैठ गई। पुलिस की गाड़ियों के पीछे कारों की कतार और शेखर के शव को लिए बड़ी गाड़ी फ्यूनरल होम के उस हिस्से की ओर धीमी गति से चल पड़ी, जहाँ बिजली का बटन दबा कर दाह- संस्कार किया जाता है।

वहाँ से बाहर निकलते ही साक्षी ने जेम्ज़ को सिर झुकाए खड़े देखा।

आँखों में उतर आई नमी को अन्दर गटक लिया और होंठ भींच गए....न...अभी बहुत कुछ करना है......

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