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ओ नैन्सी... ओ!

क्षितिज के उस पार, उगते सूरज की स्वर्णिम किरणों को देखने का रोमांच बहुत ही ख़ास होता है. अस्त होते प्रकाश-पुंज से भी अधिक! क्योंकि तब वह अपनी ऊर्जा को चुका कर विदा लेता है, पर अल्लसुबह सूर्य का उदय होना, अंधेरों का हरण कर, अपने प्रकाश-पुंजों से इस धरती की चमक को बनाये रखना एक बेहद खूबसूरत प्रक्रिया है. तब लगता है कि सूर्य ही जीवन है. शेष समय लगता कि मानों जीवन अपनी धीमी गति से बस धीमे-धीमे चले जा रहा है.

हर दिन की तरह आज भी शाम ढ़लते ही सूरज का लालित्य युक्त गोला दूर-- दूर समुद्र के छोर पर शनैः शनैः डूबता दिखाई देता है. हमारे धर्म ग्रन्थों में अस्त होने को कमजोर ग्रह का लक्षण माना जाता है, पर इसी सूरज को ड़ूबते देखने के लिए ही गोवा के अंजुना समुद्र तट या बीच पर देशी-विदेशी सैलानियों की चहल-पहल अपेक्षाकृत अधिक होती है. फिज़ा में भी एक अजीब खुशनुमाई आ जाती है. क्रिसमस के मौसम में, यानि २० से छबीस दिसम्बर और फिर इकतीस दिसंबर तथा नववर्ष को तो इन तटों पर प्रकृति का सौन्दर्य और भी निखर उठता है.

गोवा के तट पर अरब सागर की लहरों और थपेड़ों से विचलित हुए बिना सुरक्षित बना रहता है एक सुरम्य छोटा समुद्र गांव. अधिक पुरानी बात नहीं है. सन १९६० के उत्तरार्ध में फूलों की प्रजातियों को ढूंढते-ढूंढते बच्चों द्वारा खोजा गया यह स्थल आज गोवा के रेव दृश्य की राजधानी है. इसके रंगीन अतीत और जीवंत उपस्थिति ने इस समुद्र तट को अलग ही सौन्दर्य दिया है, इसीलिये यह पार्टियों के लिए ‘मोस्ट हैपीनिंग प्लेस’ के रूप में माना जाता है. यूँ अंजुना इतना पास भी नहीं है. गोवा की राजधानी पणजी से कोई अट्ठारह किलोमीटर दूर उत्तर बार्डेज़ तालुका में स्थित है यह.

आज बुधवार भी था. यानि वह दिन जब यहाँ लगने वाले ‘बुध बाजार' के रंग जिन्दगी को और भी जीवंत बनाते हैं. पर, विक्टर और नैन्सी को उससे ज्यादा कुछ सरोकार नहीं था जिसमें तिब्बती, कश्मीरी और लामानी महिलाएं जो सभी प्रकार के ट्रिन्केट्स और कपड़े सैलानियों को बेचा करती हैं. तमाम अस्थायी सोवेनियर्स शॉप भी होती उस दिन यहां.

“ले लो साब, फिर कब आने को मिलता इधर तुमको!”

या फिर,

“खुद के लिए नहीं तो घर पर में साहिब के लिए ले लो ये गोवा का ख़ास शाल… या फिर ये जैकेट… खूब जमेगी मैडम!”

ऐसा कहकर वह महिलायें अपनी दुकानदारी के पांसे फेंकती. हालांकि वह कपड़े मुंबई के थोक बाजार से लाये गये होते, जिनका न तो गोवा की मूल संस्कृति से कोई सरोकार होता न वहां के फैशन को वह दर्शाते होते. पर हर रोज़ सैंकड़ों सैलानी, जो पंजाब, गुजरात, हरियाणा-उत्तर प्रदेश या तमिलनाडु और केरल जैसे सूदूर प्रदेशों से भी गोवा दर्शन को आते, उनसे काफी कुछ खरीद ही ले जाते… ‘क्या फर्क पड़ता है’ स्टाइल में!

एक आध बार नैन्सी ने भी सोचा… कि ऐसा ही कुछ जमाते हैं. अच्छा तो है यह धंधा भी. पर विक्टर को बिलकुल पसंद नहीं. एक बार बोला तो जवाब था,

“ओ नैन्सी …”,

मतलब, ‘रहने दे…’ या ‘यह मुझे कतई नापसंद है, ...‘मेरे-तेरे स्तर का नहीं है’. फिर, ‘एक दो मच्छी कम खा लेंगे, थोड़ा ताड़ी कम पी लेंगे, पर उन सैलानियों की जेब क्यों लूटना, जो न जाने कितनी हसरतों को लेकर हमारे इलाके में आते हैं… क्या-क्या सपने लेकर… किस तरह से जोड़ते होंगे, यहाँ आने के लिए पैसे!’ और फिर उसका दिल भी विक्टर से सहमत होकर मान जाता.

सैलानियों की तरह उन दोनों को भी समुद्र में डॉलफिन की कलाबाजियों को देखने में आनंद जरूर आता था. इस आनंद के लिए वे समुद्र तट की और यूँ ही कभी भी चले जाते थे, अपने मन के मालिक बनकर. होटलों के काॅटेजों से निकल कर आते हुए बहुत से स्वच्छंद जोड़े भी दिखते थे जो पहली बार के इस रोमांच से और भी अधिक अभिभूत होते. वाइन की बोतलें तट के किनारे बेतरतीब लुढकी पड़ी रहती, सस्ती जो है वहां! कुछ लोग जो शराब से नफरत करते वे कहीं-कहीं नारियल पानी पी रहे दिखते. यही पर्यटन, समुद्र तट और उससे जुडी मस्तियाँ-- खाना-पीना, शराब और घुम्मकड़ी ही गोवन लोगों की रोजी-रोटी का ज़रिया है. सैलानी लोग सागर में डूबते सूरज की पल-प्रतिपल की तस्वीरें अपने कैमरों में क़ैद करने के लिए उचित स्थान की तलाश करने में लगे होते. उन्हें बेहतर जगह या एंगल समझा रहे रहे होते गोवा के उनके कोई मित्र या गाइड.

समुद्र तट के एक किनारे पर बैठे अचानक नैन्सी का ध्यान प्रेमी जोडों की अठखेलियों पर गया. उसके मन में फ्लैश बैक चलने लगा, अपने अतीत के बारे में. अच्छी तरह से याद है उसे कि अब से लगभग छियालीस साल पहले विक्टर से उसकी यहीं मुलाकात हुई थी. लगता था जैसे कल की ही बात हो.

नैन्सी कुछ पलों के लिये धीरे-धीरे यादों के समंदर में डूबने-उतराने लगी थी. तब विक्टर भी कम उम्र का, गोरा और छरहरे बदन का स्मार्ट लडका हुआ करता था. उसके हाथ में तब भी गिटार थी. गिटार और फोटोग्राफी-- बस दो ही शौक थे उसके. साथ में उसका दोस्त जैकब भी हुआ करता था. तीनों ही अच्छे दोस्त बन गये थे. अब वह उसके लिए अक्सर नयी धुन तैयार करके आता और वह घंटों सुनती रहती. समय का पता ही नहीं चलता. मन ही मन वह उसे पसंद करने लगी और विक्टर की आँखों में भी उसे अपने लिए चमक को पहचानने लगी थी.

वह दिन भी अप्रत्याशित रूप से जल्दी ही आ गया था जब विक्टर ने घुटनों के बल बैठ कर उसको प्रपोज करते हुए कहा था,

“विल यू मैरी मी... नैन्सी!”

और नैन्सी?

जिन शब्दों को सुनने के लिए वह न जाने कब से तरस रही थी, उनको यूँ एक शाम… समुद्र तट पर, कुछ शांत, और कुछ खेलती-इठलाती तूफानी लहरों के शोर और बहाव के बीच जब उसने सुना, तो वह तेजी से भाग आई थी. तब वह हाँफते-हाँफते अपने घर पर ही आकर रुकी थी… जैसे समुद्र की लहरें उसका पीछा कर रही हों, और अपने तेज प्रवाह से भिगो ही डाला हो.

पर विक्टर उसकी ‘हाँ’ को समझ गया था, बिना नैन्सी के हाँ बोले. यही तो उनकी केमिस्ट्री थी-- अनकहा प्यार, जो पनप रहा था, आँखों-आँखों में.

आज, इतने सालों बाद फिर विक्टर और नैन्सी भी सूरज की अंतिम किरण का अनंत में विलीन होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं. विक्टर ने अपने ओठों में सिगार दबा रखा है और दायें कंधे पर लटका है गिटार. साथ ही एक बड़ी सी मच्छी हाथ में पकड़े हुए है, जो उसकी अनुभवी नजरों ने एक प्रयास से ही कांटे में फंसा ली थी. दोनों सूरज के ड़ूबते ही तेज कदमों से घर की ओर चल पड़े. घर पहुँचते ही विक्टर ने मच्छी एक किनारे रखी और कहा,

"नैन्सी, जल्दी से मच्छी-राइस बना लो. मैं तुम्हें आज गिटार पर एक नई धुन सुनाने वाला हूँ."

नैन्सी को बचपन से ही यह मछली और समुद्र दोनों ही बेहद पसंद हैं. एक लम्बे अरसे से जब भी मौक़ा मिलता, इसी सागर तट पर वह विक्टर के साथ बैठ कर लहरों की अठखेलियों को निहारती. उसे समुद्र तट पर पानी में पैरों को डाल लहरों का साथ बनाये रखना पसंद है लेकिन जब वह उसके क़रीब होती तो अकसर लहरों की अनायास होने वाली उछाल की भीषण गर्जनाओं से घबरा उठती. फिर भी, वह जानती है कि यह घबराहट, यह आशंका क्षणिक ही है, क्योंकि उन्हें फिर से दूर चले जाना है. जो भी हो, सागर उसके जीवन का एक हिस्सा है, वह इसे अपनी अंतिम श्वांस तक कभी भी नहीं छोड़ सकती!

नैन्सी ने एक मुस्कुराहट विक्टर की तरफ फेंकी, और स्वतः स्फूर्त-सी बोली,

“यूँ ही मच्छी थोड़े ही खाने को मिलेगी डिअर…”

विक्टर ने आगे बोलने का अवसर ही नहीं दिया, हल्की मुस्कुराहट होंठों में छिपाकर बोला,

“कहो तो अभी सुनाऊं… पर हर अच्छी चीज के लिए इंतज़ार करना पड़ता है. धुन भी तब तक पक जायेगी, जब तक तुम्हारी मच्छी पर रंग चढ़ेगा नैन्सी !”

इतना सुनते ही उसने तपाक से कहा,

"देखती हूँ मैन",

और मच्छी लेकर सीधे किचेन की ओर मुड़ गई.

विक्टर नौकरी से अवकाश ले चुका था. अपनी आर्थिक तंगी का कोई असर उसने अपने दोनों बच्चों की परवरिश और पढ़ाई पर नहीं आने दिया था. बेटे रॉनित जोजफ ने न्यूजीलैंड से इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की पढ़ाई पूरी की थी. बेटी एल्विना एक इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनेल में फिलहाल इजराइल में रिपोर्टिंग ड्यूटी पर थी. बेटा पढ़ कर न्यूजीलैंड में ही एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजिनियर के रूप में पोस्टेड था. यानि वे दोनों बाहर थे, और ये दोनों गोवा में, अपने छोटे-से घर की चारदीवारियों में.

परिवार विक्टर के लिए सब कुछ था. उनसे खुशियाँ बांटने के लिए छोटा-सा खूबसूरत घर बनवाया था… न जाने कितनी मुश्किलों से! कितने तरह के जुगाड़ और जोड़-तोड़ करनी पड़ी थी उसे इस कोकोनट ट्री के बगीचे वाले घर को बनाने, और फिर संजोने में.

नैन्सी हमेशा विक्टर का पसंदीदा सी-फूड तैयार करती थी. जब इस घर में उसके दोनों बच्चे भी थे तो पूरे घर में भरपूर रौनक रहती थी. घर का हर कोना खुशियों से महकता होता. ऐसा भी नहीं कि उन दिनों आर्थिक स्थिति कोई विशेष सुदृढ़ हो… पर हाँ, खुशियों का खजाना था उस समय. वह घर खिलखिलाहटों से भरा रहता था तब!

खैर. नैन्सी विक्टर की पसंद-नापसंद इतने वर्षों में अच्छी तरह से समझ चुकी है. नैन्सी ने नुकीले धार वाला चाकू उठाया. वह अपने ही आजमाए तरीके से मछली के पंखों को साफ करके उसके छोटे-छोटे टुकड़े करने लगी.

“उफ्फ…!”,

और अचानक उसकी एक उंगली रक्त रंजित हो गई क्योंकि उसका ध्यान विक्टर की तेज़ खांसी की से निकली आवाजों के दौरे में भटक गया था.

काफी समय से विक्टर अस्वस्थ चल रहा था. उसे क्रोनिक अस्थमा था. अपने घर… अपनी दुनिया की चिंता करते-करते वह खुद की चिंता करना भूल ही गया था पर मौसम उसे दुखी करना नहीं भूलता था. बदलते मौसम में समुद्र की लहरों की भयावहता तथा उससे उत्पन्न ह्यूमिडिटी उसके रोग को खतरनाक सीमा तक बढ़ा देती थी. एक वह था कि अपने स्वास्थ्य के प्रति लगातार लापरवाही कर रहा था. इसलिए आज नैन्सी जोसेफ के स्वास्थ्य और अभी सुनाई देने वाली बेदम खांसी को लेकर काफी चिंतित और बेचैन हो चली थी.

“आती हूँ बाबा…”,

तब तक नैन्सी ने रक्त से भीगी अंगुली के इस भाग को एक कपड़े के टुकड़े से कस कर रोक लिया था ताकि रक्त का प्रवाह रुक जाए. वह किचेन में मच्छी को यूँ ही छोड़ कर जल्दी से बेडरूम की ड्राअर से इन्हेलर लेकर उसके पास गई. विक्टर ने हांफते हुए एक पफ लिया. उसने विक्टर को सहारा देकर बेड के किनारे टिकाया, और हाथों से धीमे-धीमे उसकी पीठ सहलाई.

विक्टर अब कुछ बेहतर महसूस कर रहा था. तब तक नैन्सी गुनगुना पानी भी ले आई थी, जिससे गला तर कर उसे इस अस्थमा के दौरे से थोडा आराम मिलता था. उसने घूंट-घूंट पानी पिया. बाद में उसने नैन्सी का हाथ पकड कर उसे पास ही बैठने का आग्रह किया. किचेन में मच्छी, उसके बचे-खुचे टुकड़े, कुछ बर्तन और मसाले फैले होने के बावजूद वह मुस्कुरा कर जोसेफ के पास बैठ गई. यूँ तो वह पत्नी थी उसकी, पर ऐसे कुछ लम्हों में वह रिश्ता कुछ बदल जाता था. तब उसे विक्टर एक बाल-सुलभ अबोध बच्चा लगता, जिसे अभी भी एक वात्सल्यमयी-प्रेम की बहुत अधिक जरूरत होती. और तब, नैन्सी भी उसकी इन भावनाओं से इतर खुद को नहीं देख पाती.

“और सुनो! आज से… यानि अभी से यह सिगार इस घर में, और तुम्हारे होंठों पर नहीं रहेगा. अच्छे से समझ लो!”,

नैन्सी की आवाज में उसी माँ-तुल्य स्नेह और दृढ़ता-मिश्रित अधिकार के भाव उभर आये थे.

“अब ठीक हूँ बाबा… छोड़ो, कहो तो एक बाजी जमा लूँ आज, बहुत दिन हुए न?”,


“तुम भी मैन...जैसे शतरंज की बाजी नहीं खेलेगा तो कल की सुबह ही नहीं होगी!”,


नैन्सी ने उसे झिड़का, पर बच्चे-सरीखे अनुनय को कैसे मना करे नैन्सी, और वह भी तब जबकि विक्टर एक-एक लम्हे को जीने को इच्छुक हो, समय की चाल के विपरीत.


“ऐसा करो, थोड़ा आराम कर लो… तब तक मच्छी भी पक जायेगी. फिर खेलेंगे क्यूँ नहीं विक्टर...”,


नैन्सी की आँखों में आंसू छलक आये थे, पर वह देख पाता, इससे पहले ही नैन्सी अपना मुंह दूसरी ओर कर बेड को व्यवस्थित करने में लग गई थी.


वह जानती थी कि विक्टर अस्थमा के साथ एक ख़ास किस्म के कैंसर से भी युद्धरत है, और डॉक्टर्स के अनुसार उसकी जिंदगी में अधिकतम अगले दो साल ही शेष बचे हैं. बच्चे? हाँ, वह अपनी-अपनी जिंदगियों में अपने हिस्सों का संघर्ष कर रहे हैं. बेटी की याद आती तो खुद ही कॉल करना होता, क्योंकि उसकी जिन्दगी की घड़ियों की सुईयां बहुत तेज़ भाग रही होती, और वह शायद उससे भी तेज़. पल में यहाँ, पल में वहां. दोनों में से कोई भी अगर बोलता, कि मिल जाए आकर, तो उसका एक ही जवाब होता,


“बस कुछ दिन और … जब आऊंगी तो पूरे साउथ-ईस्ट एशिया की चैनल हेड बन कर ही आऊंगी… क्यूँ छोटा-मोटा रिपोर्टर बना रहना देना चाहते हो आप लोग मुझे”,


और फिर खिलखिलाहट के साथ “बाय”, बोलकर न्यूज़ रूम या रिपोर्टिंग बीट में गुम हो जाती. उधर बेटे की जिन्दगी लैपटॉप या डेस्कटॉप और क्लाउड कंप्यूटिंग के बीच झूल रही होती. उसका समय इंडियन टाइम से मुश्किल से ही मैच करता, या वह फ्री होता तो गहरी नींद में सो रहा होता. उनींदा सा बोलता,


“थोड़ी देर में करता हूँ कॉल मॉम…”,


पर, वह थोड़ी देर शायद कभी नहीं आती. यूं ही महीनों बीत जाते. और अब तो उन्हें स्कूल की फीस, होस्टल के किराए या जेब खर्च की भी जरूरत नहीं थी. सयाने हो चले थे दोनों. नैन्सी जब भी इस मुद्दे पर गम्भीर होती, तब विक्टर ठहाका लगाता. और कहता,

“अरे ओ नैन्सी..., जी लेने दो उन्हें अपनी जिन्दगी..!”


पर नैन्सी कभी समझ नहीं पाई कि विक्टर वाकई हंस रहा होता, या यह उसके अवसाद का उफान होता!

अब विक्टर के चेहरे पर फिर से हल्की-सी मुस्कुराहट आ गई थी. उसने पास रखे सिगार को उठाया, और धीमे-धीमे ऐश-ट्रे में रगड-रगड कर नष्ट कर दिया. सोच रहा था कि शायद इस सिगार को कुछ सालों पहले नष्ट किया होता तो जिन्दगी कुछ मुहब्बत के लम्हे, और नैन्सी का थोड़ा साथ और दे सकती थी. पर दिल जैसे कहना कुछ और चाहता हो--

‘अरे, ओ नैन्सी..., जी लेने दो मुझे मेरी जिन्दगी’, या ऐसा ही कुछ.


टेबल के एक कोने पर विक्टर के लिए लिखा डॉक्टर का प्रिस्क्रिप्शन और मेडिकल रिपोर्ट्स उसे मुंह चिढा रही थी. उसकी जिन्दगी का कुल डेढ़-महीना के आसपास शेष बचा था. कैंसर का दानव उसको जकड़ता चला आ रहा था. उसी अनुपात में उसके असहनीय दर्द की पीड़ा विक्टर के शरीर और मन, दोनों को व्यथित करने लगी थी. नैन्सी का मन करता था कि उसे भी साथ ले चले कैंसर का यह राक्षस, और फिर अगले जन्म में फिर विक्टर से अंजुना बीच पर ही मुलाक़ात हो, ताकि गिटार की धुनों पर सम्मोहित करते-करते वह फिर एक दिन बोल दे…


‘ओ नैन्सी .. विल यू मैरी मी!’


... और वह फिर से मुंह छिपा कर भाग जाए! अपने घर! फिर से विक्टर की जिन्दगी में आने के लिए!


ठीक इसी समय कहीं दूर पार्श्व से गीत के बोल गिटार की धुन पर बजते हुए मन को झंकृत कर रहे थे,


“...छू कर मेरे मन को... किया तूने क्या इशारा..!”


प्रेशर कुकर की सेफ्टी वाल्व की तेज़ सीटी ने नैन्सी की तन्द्रा भंग कर दी थी. वह ईजी चेयर से उठ कर किचेन की और दौड़ पड़ी. आज मच्छी बेहतर बननी जरूरी थी. फिर भला विक्टर ऐसे कैसे जा सकता था उसे अकेला छोड़ कर!


संपर्क:

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परिचय:


पत्रकारिता तथा इतिहास में स्नातकोत्तर शिक्षा. केंद्र एवं उत्तर प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में प्रकाशन, प्रचार और जनसंपर्क के क्षेत्र में जिम्मेदार वरिष्ठ पदों पर कार्य करने का अनुभव.

पांच वर्ष तक उत्तर प्रदेश सरकार की मासिक साहित्यिक पत्रिका “उत्तर प्रदेश” का सम्पादन. भारत सरकार के स्वास्थ्य तथा उद्योग मंत्रालय में भी पत्रिकाओं का सम्पादन.

वर्तमान में आगरा, उत्तर प्रदेश में निवासरत, विभिन्न राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन और प्रकाशन तथा सम्पादन का वृहद अनुभव. कविता, कहानी तथा ऐतिहासिक व अन्य विषयों पर लेखन. हाल ही में ‘मेरी सहेली’, ‘कथाबिम्ब’, ‘सामयिक सरस्वती’, ‘परिकथा’, ‘गर्भनाल’, ‘वीणा’, ‘देस हरियाणा’, ‘अभिनव इमरोज’ आदि में कहानियां, लेख व कवितायें आदि प्रकाशित.