Sakhi holi aa rahi hai books and stories free download online pdf in Hindi

सखी होली आ रही है

सखी होली आने वाली है


बसंत पंचमी आ चुकी है . बसंत यानि उमंग .बसंत यानि तरंग . एक विभोर, एक हिलौर ,एक हलक, एक हुलस का पर्व . मन में तन में आस-पास के वातावरण में रंग ही रंग का पर्व . आसमान में उडती रंग बिरंगी पतंगों की जादुई दुनिया . कहीं ढील तो कहीं कसाव . उपर से वो मारा वो कटी का शोर .एक एक पेंच पर ललकारे और जयकारे . गिरती पतंग की लूट और पा जाने का विजयी भाव .
पतंग कहीं कहीं अब भी उड़ाई जाती है त्यौहार के शगुन के तौर पर . छुट्टी सेलिब्रेट करने को पर विदेशी डोर में बंधी गुड्डी ही उडती है वो भी डी जे के कान फोडू शोर में . वह भी कुछ पलों के लिए .टी वी के प्रोग्राम छुट रहे हैं भाई . सो इस नई पीढ़ी की नजर कर रही हूँ फाग का पुराना राग .
बसंत यानी आम की बौर ढूढ़ कर उसे और आम के नव पल्लव घर लाने का दिन .काम और रति की आराधना कर सुखी गृहस्थी बसती रहे कि प्रार्थना का दिन .
बालकों को माँ सरस्वती और पुस्तको से मिलाने का दिन . आज के ही शुभ दिन शिक्षा का प्रारम्भ होता था न हमारे जमाने में .
टेसू पलाश और गेंदा के फूल इकट्ठे करने की शुरुआत का दिन . होड़ लगती कौन कितने ज्यादा चुन कर ला पाटा है फूल झोली भर भर लाये जाते .छतों पर , चारपाइयों के नीचे सूखने के लिए बिखेरे जाते . पूरा घर महक महक जाता . हाथो में महक रच बस जाती . केसरी जर्दा पुलाव, केसरी हलवा . केसरी लड्डू बनते तो महकता सारा मौहल्ला . दुपट्टे और रुमाल रंगे जाते और फैलाए जाते रस्सियों पर . दूर दूर तक सब बसंती ही बसंती
बाहर बैठक में महफिल जमती कबीर से शुरू होकर फाग के राग गाते गाते विदेसिया और निर्गुण पर बैठकी खत्म होती .
मलकिन अंदर से खाली टिन के कनस्तर निकाल ढक्कन लगवाने भिजवाती किसी को. भाई होली आ रही है पकवान बनेंगे के नहीं सहेज कर रखने हैं के नहीं . इस बार त्यागियों के घर नई बहु आई है . फाग का असली रंग तो वहीँ जमेगा सो बुलौवा आ गया है सारी लडकियों के लिए . पकवान बनवानेँ का भी और रात में फाग गाने का भी . सब जोश में भर गई हैं एक से एक सज धज सब तैयार हैं पूरे जोश से .नन्द भाभी सब पहुच गई हैं आंगन में जहाँ बड़े बड़े चूल्हे बना गई है सीतो कुम्हारिन .
आटा छन रहा है मैदा बनेगा . गेहू भूना जा रहा है सूजी भी तो चाहिए . मौयन तैयार हो रहा है गुझिया छन रही है .सक्कर पारे , नमक पारे , मट्ठियाँ , सेव उतर उतर कर परातों में धरे जा रहे है अभी पापड़ी और गोलगप्पे भी बनने बाकी है बालूशाही में थोडा घी बढाओ छोटी खस्ता बनेंगी . मटर की आंच धीमी करो भई करारे चहियें . बडकी भौजी कांजी के लिए काली गाजर छील रही हैं . कांजी डलेगी . जलजीरा भी बनेगा और इमली की सौंठ भी . अरे कोई मेवा ही कतर लो . प्लेट भर भर बैठक में पकवान भेजे जा रहे है . बताओ जी शक्करपारे पर शक्कर ठीक चड़ी न .बालूशाही खस्ता है . एक बच्चा आकर सूचना देता है .- सारे बाबा और ताऊ जी तो होली जलाने वाली जगह ढूढने गए" . अंदर काम करने वालियां किलक गई है उठाओ रे ढोलक बजाओ चाची .' कोरे कोरे कलश मंगाए उनमे घोला रंग " से शुरू होकर चन्द्र सखी भज बाल कृष्ण छबी के सारे गीत मनुहार कर कर के गाये सुने जाते कोई ठुमका लगाती -जोगी हम तो लुट गए तेरे प्यार में जाने तुझ को खबर कब होगी " तुरंत कमेन्ट मिलता -वाह बहु ,ये पतुरियों वाले लटके झटके , वाह जभी मै कहूं देवर जी बिन मोल गुलाम क्यूँ बने रहते है . बहुरिया आंचल की ओट से शर्माती सकुचाती भीतर से खुश होती कहती _ " कहाँ जीजी वे आपके लाडले है आप ही की गुलामी करते हैं " हंसी ठिठोली में कब काम संवर जाता पता ही नहीं चलता .टोली एक दूसरे से विदा लेती इस आश्वासन के साथ कि रात का भोजन जल्दी निपटाना है फाग जो गाने है रात को .
उधर बच्चों का टोला निकल पड़ा है कांटा खरीदने .खरीद कर सब छिप गए हैं छत पर आज किसी की टोपी सुरक्षित नहीं जो भी नीचे से निकलेगा उसी की टोपी उपर खींच ली जायेगी सब बच्चे सांस रोक कर बैठे है . और ये मिश्रा जी की टोपी गई उपर . मिश्र जी गरिया रहे है - " सूअर के बच्चो दो टोपी “ . बच्चे टोपी दिखा दिखा कर शोर कर रहे है . इतने में घर की मालकिन दिखाई दी . मिश्र जी मनुहार भरे सुर में शिकायत कर रहे है - भाभी हमाई टोपी " भाभी पहली भाषा सुन रखे हैं .नहले पे दहला आता है - लला आप ही के बच्चे हैं आप खुदै सम्भालो .हम बीच में न पडीहे . मिश्र फिर बच्चों से सौदे पर उतर आते है दो रूपये देकर टोपी मिलती है . मिश्रा टोपी पहनते कहता है बच्चो अभी पांडे को इधर भेजता हूँ पांच रूपये लिए बिना टोपी मत देना . बच्चे मिश्र चाचा के नाम का नारा लगाते है . चलो बोहनी अच्छी हो गई . ये खेल होली से एक दिन पहले तक चलेगा . गीले रंगों के लिए फूल और नीम की पतियाँ चुननी हैं इकट्ठा करनी हैं सुखानी है और सूखे रंगों के लिए चाचा ताऊ की जेब से पैसे निकलवाने हैं . होली का हुडदंग तभी तो जमेगा .
बड़े बुजुर्गों ने होली दहन का स्थान चुन लिया है निशानी के लिए हर घर से आया एक उपला जमा कर उपले रख दिए है . अब अगली तैयारी शुरू करनी है होली का सांस्कृतिक कार्यक्रम , कवी दरबार महा मूर्ख सम्मेलन, गधे की सवारी सब की तैयारी होनी है योजनायें बन रही हैं .
इस बीच पतंग बन रही हैं . मांजे सूते जा रहे है . पतंगें उड़ रही हैं . पेंच लड़े जा रहे है . पतंगें कट रही हैं . लूटी जा रही हैं . लुटाई जा रही हैं . केसरिया लड्डू खाए और खिलाये जा रहे हैं पूरी जिन्दादिली के साथ . पूरे सामजिक सरोकार के साथ . पूरी खिलखिलाहट और जीवन्तता के साथ .
आज का बसंत तो शायद शहरों की भीड़ में कहीं खो गया है . किसी जाम में फंस गया है जिस बसंत को आज नई पीढ़ी देख रही है - शायद ये उस बसंत का सोशल मिडिया वर्जन है जिस पर बात तो की जा सकती है .पर गले मिल कर खुशामदीद कैसे कहेंगे .या फिर बसंत कोई धारावाहिक हो गया है जिसे दो फीट की दूरी से देखा जा सकता है पर उसके केसरी रंग में भीगना तो रघुबीर और कान्हा के भाग्य में ही था आज कल के चिंटू पिंटू औए रिंकू तो बेचारे फेसबुक पर ही हैपी हो लेते है और टी वी पर नाचते देख कर ही नाच में शामिल हो लेते हैं .वो चाचा काका बाबा वो दादी ताई बुआ तो इनके पास हैं ही नहीं . भाई बहन की सम्भावनाये भी न के बराबर .
एकला चालो रे गाते आभासी दुनिया में जीते इन युवाओं के जीवन में भी बसंत आये यही मंगल कामना है आओ बसंत बसंती रंग बिखेरते फिर से आओ .