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आघात - 17

आघात

डॉ. कविता त्यागी

17

पूजा सोचने लगी -

माँ की कहानियाँ स्त्री को अबला बनाती हैं और उसको व्यवस्था से सामंजस्य करना सिखाती हैं ! वे कहानियाँ स्त्री को अपनी शोचनीय दशा में सुधार करने के लिए संघर्ष करना नहीं सिखाती ! उसकी शोचनीय दशा का सबसे बड़ा कारण उसका आर्थिक परावलम्बन है ! यदि स्त्री आर्थिक स्वावलम्बन प्राप्त कर ले, तो उसकी इस दशा में अवश्य ही कुछ सुधार सम्भव है । विचार-मन्थन की इस अवस्था में उसने निश्चय किया कि अपनी इस विषम परिस्थिति से निकलने के लिए वह सर्वप्रथम आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने का प्रयास करेगी ! लेकिन कैसे ? क्या मेरे लिए आज यह लक्ष्य प्राप्त करना सम्भव है ? शायद अभी नहीं... !

इन्हीं संकल्पों-विकल्पों के बीच विचरती पूजा को मायके में आये हुए तीन महीने बीत गये, किन्तु अभी तक अपनी समस्या से बाहर निकलने का उसको कोई यथोचित मार्ग नहीं सूझा था । इस अन्तराल में यश ने अनेक बार पूजा को परामर्श दिया कि वह रणवीर से विवाह-विच्छेद करके पुनर्विवाह कर ले ! उसके परामर्शनुसार पूजा न तो तलाक के लिए तैयार थी और न ही पुनः किसी अन्य पुरुष के साथ परिणय-सूत्र में बंधने के लिए तैयार थी । वह अपना सारा जीवन अपने बेटे प्रियांश के सहारे व्यतीत कर देना चाहती थी । जो असम्भव न सही, कठिन अवश्य था । शीघ्र ही पूजा को भी यह अनुभव होने लगा कि प्रियांश के सहारे जीवन व्यतीत करने का निर्णय उसके जीवन को न तो उचित दिशा की ओर ले जाता है और न ही उसकी पूर्णता की ओर । अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए स्वावलम्बी बनकर पहले उसको स्वयं प्रियांश का सहारा बनना होगा ! उसको अनुभव होने लगा था कि आर्थिक-स्वावलम्बन ही उसके स्वाभिमान को सुरक्षित रखते हुए उसके आत्मविश्वास में वृद्धि करेगा और सुख-सुविधा सम्पन्न जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करेगा । तब वह किसी पर भार बनकर नहीं रहेगी !

सभी प्रकार से विचार-मन्थन करने के पश्चात् पूजा ने अपने पिता के समक्ष यह विचार प्रकट किया.कि वह आत्मनिर्भर बनने के लिऐ कोई नौकरी या व्यवसाय करना चाहती है । वे पहले तो बेटी की बातों को सुनकर हल्के से मुस्कुराये । कुछ क्षणोपरान्त उनके चेहरे पर ऐसी भाव-रेखाएँ बनने लगी, जैसे कि उन्हें पूजा की बातों से बहुत कष्ट हुआ है । उन्होंने पूजा से कहा -

‘‘बिटिया मुझे यह देखकर बड़ा अच्छा लगा कि तुम स्वाभिमान और आत्मविश्वास से परिपूर्ण संघर्षशील लड़की हो ! मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम विषम से विषमतर, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हार नहीं मानोगी ! यह सभी बातें ठीक हैं, परन्तु अपने पिता के जीवित रहते हुए तुम्हें यह सब सोचने-करने की आवश्यकता नहीं है ! बेटी, जितना स्नेह तुम अपने बेटे प्रियांश से करती हो, उतना ही मैं अपनी लाड़ली बेटी से करता हूँ ! उस बेटी से जिसने इस दुनिया में आँखें खोलते ही... !’’ कहते-कहते कौशिक जी का स्वर पीड़ा से भर्राये हुए गले में अटक गया और आँखों में आँसू छलक आये ।

‘‘लेकिन, पिताजी !’’

‘‘बस, बेटी ! अब आगे एक भी शब्द नही ! जिस प्रकार यश इस घर का उत्तराधिकारी है, उसी प्रकार तुम भी हो ! कभी भी यह बात अपने चित्त में मत लाना कि विवाह के पश्चात् यह घर तुम्हारे लिए पराया हो गया है और तुम इस घर में बोझ बनकर रह रही हो !’’

पिता की स्नेह से पगी हुई वाणी ने पूजा के अन्दर की सारी निराशा और हीन-भावना को समाप्त कर दिया । उसे अपने विवाह पूर्व का-सा भावात्मक सम्बल अनुभव होने लगा और आँखों से आँसू टकपने लगे । उन आँसुओं में पूजा का स्वावलम्बन का स्वप्न और संकल्प सब बह गया । अब उसके मन में मात्र गृहक्लेश की चिन्ता थी कि पिता की इन बातों से कहीं रेशमा की उद्विग्नता न बढ़ जाए ! उसकी उद्विग्नता बढ़ने से घर में विग्रह अवश्यम्भावी था । अतः पूजा सारा दिन रेशमा के सद्ज्ञान के लिए प्रार्थना करती हुई ईश्वर का नाम-स्मरण करती रही । ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन भी ली ।

शाम के लगभग पाँच बजे थे । अचानक बाहर से डाकिया के पुकारने का स्वर वातावरण में गूँजा -

‘‘पूजा ! कौशिक जी ! कौशिक जी ! पूजा बिटिया का मनीआर्डर आया है ! उसके नाम का एक रजिस्टर्ड पत्र भी है ।’’ डाकिया के शब्दों को सुनकर सभी के मनःमस्तिष्क में बिजली-सी कौंध गयी । जब से पूजा अपने मायके में आयी थी, तब से आज तक एक बार भी उसकी ससुराल वालों ने औपचारिक या अनौपचारिक रूप से यह जानने के लिए सम्पर्क नहीं किया था कि वह मायके में आयी भी है या नहीं ? ये सभी बातें परिवार के प्रत्येक सदस्य के मस्तिष्क में हलचल उत्पन्न कर रही थी और प्रश्न उठ रहा था कि आज अचानक रणवीर ने मनीआर्डर और पत्र क्यों भेजा है ?

कौशिक जी ने बाहर जाकर मनीआर्डर और पत्र प्राप्त किये और अन्दर आकर पूजा के हाथ में थमा दिये । पूजा ने पत्र पढ़कर बताया कि कुछ विशेष नहीं, केवल इतना लिखा है कि प्रियांश का तथा अपने स्वास्थ्य का ठीक प्रकार से ध्यान रखें ! पत्र के अन्त में रणवीर ने लिखा था, वह शीघ्र ही पूजा और प्रियांश को अपने घर लिवा ले जाने के लिए आयेगा । यह सूचना सभी के लिए महत्त्वपूर्ण थी ।

रणवीर के लिखे हुए पत्र की अन्तिम सूचना को पढ़ते ही पूजा के मुखमंडल पर एक शान्त, सिनग्ध् आभा खिल उठी । पिता के वात्सल्य और उनके द्वारा दिये गये आर्थिक अवलम्ब सम्बन्धी आश्वासन ने उसको एक सीमा तक निश्चिन्त कर दिया था, किन्तु उसके चित्त को पूर्ण शान्ति रणवीर के पत्र से ही मिली थी । पूजा की माँ पर रणवीर के पत्र की सूचना का एकदम विपरीत प्रभाव पड़ा था । सूचना को सुनते ही रमा का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया । रमा ने आवेशित स्वर में घोषणा करते हुए कहा -

‘‘किसी भी शर्त पर पूजा को रणवीर के साथ नहीं भेजा जाएगा ! तीन-चार महीने तक रणवीर तथा उसकी माँ को एक बार भी यह सुध नहीं आयी कि घर की बहू कहाँ है ? वह जीवित भी है या नहीं ? भला हो उस अविनाश का जिसने पूजा को सकुशल घर तक पहुँचा दिया ! वह समय पर वहाँ न पहुँचा होता, तो ईश्वर ही जाने क्या होता ! उन्हें लगता है, कि आज दो हजार रुपये भेजकर उनके वे सारे अपराध क्षमा हो जाएँगें, जो उन्होंने पूजा पर अत्याचार करके किये हैं ।’’

कई घंटों तक पूजा को उसकी ससुराल भेजने या न भेजने के विषय में चर्चा चलती रही । सभी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से टीका-टिप्पणी करते हुए पूजा को ससुराल न भेजने के रमा के मत का समर्थन किया । रेशमा अपनी सास के मत से सहमत नहीं थी, यह उसके हाव-भाव बता रहे थे, परन्तु अपने आन्तरिक भाव उसने शब्दों में प्रकट नहीं किये । कौशिक जी ने अपनी ओर से कोई टिप्पणी नहीं की । वे मौन रहकर सबकी टिप्पणी सुनते रहे । वे पूजा का मत जानने की प्रतीक्षा कर रहे थे । पूजा अपनी माँ के विरुद्ध जाकर अपनी बात कहना उचित नहीं मानती थी, इसलिए मूक बनी बैठी रही । वैसे भी, उस समय उसका मत जानने-सुनने का वहाँ पर किसी को अवकाश नहीं था और न ही उसके मत की महत्ता का किसी को एहसास ही था ।

अगले दिन जब कौशिक जी अपने कमरे में अकेले बैठे हुए किसी गम्भीर विषय पर चिन्तनमग्न थे, पूजा ने उनके पास जाकर कहा -

‘‘पिताजी, मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ !’’

‘‘कहो बेटी ! निःसंकोच कहो, जो कुछ कहना चाहती हो !’’

‘‘जो कुछ मैं कहना चाहती हूँ, शायद वह आपको अच्छा न लगे !’’ पूजा ने विनम्र मुद्रा में कहा ।

‘‘बिटिया हमें तुम्हारी कोई भी बात बुरी नहीं लग सकती, क्योंकि हम तुम्हारी सोच से भली-भाँति परिचित हैं ! हम जानते हैं कि तुम वही सोचोगी और करोगी, जो सभी के हित में होगा ! बताओ, तुम क्या कहना चाहती हो ?’’

‘‘पिताजी, मैं चाहती हूँ, जब रणवीर मुझे लिवाकर ले जाने के लिये आएँ, मैं उनके साथ वापिस ससुराल चली जाऊँ !’’

‘‘बेटी, वे लोग फिर तुम पर अत्याचार करेंगे ! इन तीन-चार महीनों में उन्हांने एक बार भी तुम्हारी कुशल-क्षेम के बारे में जानने के प्रयास नहीं किया । उनके इस प्रकार के उत्तरदायित्वविहीन व्यवहार ने मुझे यह सोचने के लिये विवश कर दिया है कि वहाँ पर तुम्हारा जीवन सुरक्षित भी है या नहीं ?’’

‘‘पर, मैं प्रियांश को उसके पिता के स्नेह से वंचित नहीं करना चाहती!’’

‘‘ठीक है, लेकिन, इस विषय में तुम्हें निर्णय लेने के लिये इतनी उतावली नहीं होना चाहिये ! तुम्हारे पास अभी समय है, इस विषय में तुम भली-भाँति चिन्तन-मनन कर लो !’’

‘‘जी, पिताजी !’’

अपने पिता से बातें करके पूजा उनके कमरे से बाहर जाने के लिये मुड़ी, तो दरवाजे पर उसकी माँ रमा खड़ी हुई तीक्ष्ण दृष्टि से उसको घूर रही थी । उनकी कठोर मुख मुद्रा देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि उन्होने पूजा और कौशिक जी के बीच होने वाली सारी बातें सुन ली हैं । दया मिश्रित कठोर मुद्रा में वे पूजा से बोली -

‘‘चार महीने से जिसने तेरे जीने-मरने की खबर तक नहीं ली, तू अब भी उसके साथ जाना चाहती है ? अरी, तेरी क्या, उसने तो अपने बच्चे की भी कुशल-क्षेम लेने की आवश्यकता नहीं समझी ! उन माँ-बेटों के सीने में दिल नहीं पत्थर है । देख बेटी, यदि तूने रणवीर के साथ जाने की जिद्द नहीं छोड़ी, तो ... !’’

रमा अपना वाक्य पूरा कर पाती, इससे पहले ही कौशिक जी बोल पड़े -

‘‘अब बस करो रमा ! तुम यह क्यों नहीं समझती - बिंध गया सो मोती, रह गया सो पत्थर ! वह जैसा भी है, हमारी बेटी का पति है ! हमारी बेटी उसको प्राणों से अधिक और हृदय की अतल गहराईयों से प्रेम करती है !’’

‘‘ठीक है ! आप दोनों बाप-बेटी को जो भी अच्छा लगता है, करो !’’ रमा ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए क्रोध की मुद्रा में कहा ।

चार-पाँच दिन पश्चात् पूजा को लिवाकर ले जाने के लिए रणवीर आ पहुँचा। रणवीर के आने पर आतिथ्य-सत्कार के अनुरूप औपचारिक अभिवादन और यथोचित स्वागत-सम्मान हुआ । पिछली घटनाओं के सन्दर्भ में कोई अप्रिय वार्तालाप नहीं किया गया । पूजा अभी तक रणवीर की दृष्टि से ओझल थी । उसको यह विशेष निर्देश मिला था कि वह उस स्थान पर कदापि नहीं आएगी, जहाँ रणवीर के साथ बातचीत होगी और न ही प्रियांश को वहाँ पर आने देगी ! कौशिक जी ने कठोर शब्दों में कहा था कि जो व्यक्ति अपने बेटे और पत्नी के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह नहीं कर सकता, उसे कोई अधिकार नहीं है कि वह उनका स्वामी बनने का दावा करें । काफी समय तक घर में निःशब्दता का साम्राज्य बना रहा ।पर्याप्त समय के पश्चात् रणवीर ने नीरवता भंग करते हुए कहा -

‘‘मैं पूजा से मिलकर अकेले में उससे कुछ बातें करना चाहता हूँ !’

‘‘नहीं ! तुम्हें जो भी कहना है, हमसे कहना होगा !’’ रणवीर की बात का नकारात्मक उत्तर देते हुए कौशिकजी ने कहा ।

‘‘क्यों कहना होगा आपसे ? पूजा मेरी पत्नी है, आप मुझे उससे मिलने से नहीं रोक सकते !’’ रणवीर ने कौशिक जी की अवमानना करते हुए कहा, तो कौशिक जी के स्वर में भी बेटी के पिता की-सी गुरुता आ गयी -

‘‘रणवीर बाबू ! हम तुम्हें पूजा से मिलने से रोक सकते हैं ! वह हमारी बेटी है ! हम उसकी व्यथा को भली-भाँति अनुभव कर सकते हैं ! तुमने उसका पति होकर एक पति के दायित्व का निर्वाह कभी नहीं किया ! इसके विपरीत तुमने अपनी माँ और बहन-भाइयों के साथ मिलकर अपनी पत्नी के साथ पशुवत् आचरण किया । इसलिए जब तक हम जीवित हैं, तब तक तुम्हें उसके साथ अत्याचार और दुर्व्यवहार करने की छूट नहीं मिल सकती !’’

‘‘आप मुझमें और मेरे परिवार में दोष देख रहे हैं ! आपको अपनी बेटी का दोष नहीं दिखाई देता, जो घर में किसी को बताये बिना चोरों की तरह रात में घर से भागकर आयी थी ! न ही आपको अपने दोष दिखाई देते हैं, बेटी ससुराल से अकेले भागकर आयी और आपने बडे़ प्यार से उसको यहाँ रख लिया ! मुझे तो उसके और आपके विरुद्ध थाने में शिकायत लिखानी चाहिए थी कि वह उस घर से रात में हमारे बहुमूल्य आभूषण और बड़ी धनराशि लेकर भागी थी ! मेरा आभार मानिये, मैनें ऐसा नही किया ! मुझे अपने परिवार के मान- सम्मान का ध्यान था, इसलिये मैंने इस बात को वहीं पर दबा दिया, वरना... !’’

‘‘वरना क्या ? रणवीर बाबू ! पूजा रात में नहीं आती, तो क्या करती ? कब तक आपके अत्याचार सहन करती रहती वह ?’’ रणवीर ने कौशिक जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया और दृष्टि नीचे करके चुप बैठा रहा । तब कौशिक जी ने अपनी उग्रता कम करते हुए कहा -

‘‘हमारी बेटी आपके परिवार के प्रत्येक सदस्य को सम्मान देती है, स्नेह देती है, सबकी सेवा करती है, पर आप क्या करते हैं ? आप सब उसके साथ दुव्यर्वहार करते हैं । सबकी बात छोडिये, आप स्वयं अपने व्यवहारों का विश्लेषण कीजिए, सोचिए, क्या आपने कभी पूजा के साथ ऐसा व्यवहार किया है कि एक पत्नी के रूप में वह आपके साथ सन्तुष्ट और प्रसन्नचित्त रह पाती ? अरे, आप तो उसके साथ प्रेम के दो शब्द बोलने में भी अपनी कृपणता का परिचय देते है ! ’’

‘‘मुझे मेरे अनुचित व्यवहारों का एहसास हो गया है ! मैं अब अपनी भूल को सुधरना चाहता हूँ । इसलिये मैं पूजा और प्रियांश को लेने के लिये यहाँ आया हूँ !’’

‘‘आपको लगता है कि पूजा आपके साथ जाने के लिए तैयार होगी ?’’

"लगता ही नहीं है, मुझे पूर्ण विश्वास है ! पूजा मेरे साथ जाएगी ! वह जानती है कि मैं उसको तथा प्रियांश को बहुत प्रेम करता हूँ !’’

रणवीर का उत्तर सुनकर कौशिक जी को चार-पाँच दिन पूर्व कहे गये पूजा के उन शब्दों का स्मरण हो आया, जिनमें उसने रणवीर के साथ जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी । कुछ क्षण तक वे मौन होकर सोचते रहे । तदुपरांत उन्हांने रणवीर को पूजा से मिलने की अनुमति प्रदान कर दी, क्योंकि रणवीर की भाँति उन्हें भी विश्वास था कि पूजा रणवीर के साथ चलने के लिए शत-प्रतिशत तैयार हो जायेगी । लगभग आधा घंटा बाद रणवीर ने आकर कौशिक जी से कहा -

‘‘पूजा मेरे साथ जाने के लिये तैयार है ! अब केवल आपकी आज्ञा चाहिये !’’

‘‘एक बार पूजा से बात करके हम संतुष्ट हो जाएँ कि तुम्हारे साथ जाने का निर्णय उसने किसी प्रकार के दवाब में आकर तो नहीं लिया है ! हम तुम्हें अपना निर्णय कुछ ही समय में बता देंगे, तब तक तुम विश्राम करो !’’

यद्यपि कौशिक जी पूजा की इच्छा से पहले ही परिचित थे और उसके ससुराल जाने के औचित्यपूर्ण तर्क से पूर्णतः, सहमत भी थे, तथापि रणवीर को विश्राम करने के लिए कहकर वे पूजा से बातें करने के लिये चले गये । अपनी बेटी से बातें करके कौशिक जी ने रमा को भी सहमत किया कि बेटी को उसकी ससुराल भेजना ही अपेक्षाकृत अधिक उचित है । सभी ने पूजा की इच्छा और परिस्थिति की विषमता को देखते हुए पूजा को ससुराल भेजने की तैयारी आरम्भ कर दी ।

कुछ ही घंटों में तैयारियाँ पूर्ण करके उसी दिन पूजा को विदा कर दिया गया । बेटी को विदा करके रमा अत्यन्त दुःखी थी । वह अपने आँसुओं को रोकने का असफल प्रयत्न कर रही थी । दूसरी ओर पूजा के जाने से रेशमा अत्यन्त प्रसन्न थी । लेकिन, एक अच्छी बहू होने का प्रदर्शन करने के कारण वह अपनी प्रसन्नता प्रकट नहीं कर पा रही थी । वह जानती थी कि उस समय एक आदर्श बहू बनने के लिए सास के साथ सहानुभूति प्रकट करना आवश्यक है, जबकि प्रसन्नता को प्रकट करने की अपेक्षा उसको मन में संजोकर रखना अध्कि अच्छा है । मन की प्रसन्नता से अनायास ही उसके होंठ बडबडाने लगे - ‘‘बला टली, अब लाखों पाये । अब तो प्रसन्न ही रहना है, दिखाना क्या !’’

परन्तु, ईश्वर को यह स्वीकार नही था कि पूजा उस घर से दूर अपनी ससुराल में अधिक दिन तक सुख-शान्तिपूर्वक रह सके और रेशमा की प्रसन्नता चिरकाल तक स्थायी रह सके ।

डॉ. कविता त्यागी

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