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मणि

कहानी मणि
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हिमालय की चोटियों पर बसा छोटा सा गांव था 'चंपा वाड़ी'। जिसकी एक तरफ चीड़ के लंबे, घने वृक्ष थे, तो दूसरी तरफ सांप की तरह घुमावदार नहर। जो दूर से देखने दूर से देखने पर ऐसी प्रतीत होती, कि जैसे उस नहर ने स्वेच्छा से चंपा वाड़ी को अपनी गोद में उठा रखा हो। लकड़ी के बने हुए छोटे- छोटे मकान और छोटा सा बाजार बस यही था, प्रीतमपुर का पूरा विवरण।
यहां आकर ऐसा लगता मानो जिंदगी बीस- पच्चीस बरस पीछे छूट गई हो। आधुनिकता के नाम पर इक्का -दुक्का टेलीविजन जरुर थे। गांव के सीधे -साधे, भोले -भाले लोगों ने मिलकर नहर के ऊपर एक अस्थाई पुल बना लिया था। ताकि मुख्य सड़क तक पहुंचना आसान हो जाए। वरना तो सड़क तक पहुंचने में बीस से तीस मिनट लग जाते थे।
गांव के बाहर मुख्य सड़क के निचली ढलानों पर दो चार, बांस बल्लियों के होटल नुमा रेस्तरां बने हुए थे। जहां अक्सर आने- जाने वाले थकान उतारने के लिए, कुछ पल सुस्ता लिया करते थे। उसमें से एक रेस्तरां बंसी का भी था। बंसी के हाथ की मसाले वाली चाय दूर-दूर तक मशहूर थी। लोग विशेषत: उसकी चाय पीने ही वहां रुका करते थे। अगर किसी को पहाड़ों की सैर करनी हो, तो उसकी व्यवस्था भी बंसी के पास थी।
उसकी एक बेटी थी मणि। जो बहुत ही खूबसूरत थी। दूध की तरह सफेद रंग और गुलाबी गालों के ऊपरी हिस्से से झांकती छोटी -छोटी आंखें। लंबे घने और जल भरे मेघों की तरह काले बाल। कद तो सामान्य ही था। आमतौर पर पहाड़ी क्षेत्रों पर बसने वाले लोगों का कद अपेक्षाकृत कम ही होता है। इन खूबियों के चलते जो एक बड़ी विशेषता थी वह ये, कि उसमें स्वाभिमान कूट-कूट के भरा था।
मेहनती तो वो थी ही, साथ ही अल्हड़ और चंचल भी थी। कमी थी तो बस ये कि, उसका दिल दर्पण की तरह स्वच्छ था। हलांकि गाँव के सभी लोग छल-कपट से दूर थे फिर भी वो उन सब से अलग थी।
पहाड़ और आसपास के गहन इलाकों से वह अच्छी तरह परिचित थी। वहां का चप्पा-चप्पा उसे पहचानता था। उसकी पायल की झंकार को सुनकर रास्ते मुस्कुरा उठते। भँवरे और तितलियां उसके इर्द-गिर्द मँडराने लगते। पेड़- पौधे और चोंटियाँ मणि के गहरे मित्र थे। वो उनसे ढेरों बाते करती।
शाम हो चुकी थी। कूदती, फाँदती,इतराती मणि, पिता के पास उसके रेस्तरां आ पहुँची। रेस्तरां के सामने ही एक बड़ी लारी सामान से भरी खड़ी थी। उसे समझते देर नहीं लगी, कि पिताजी के पास के पास कुछ नए राहगीर आए हैं। जिन्हें अभी तक उसने नहीं देखा है। लारी भी जानी पहचानी नहीं है। नहीं तो ज्यादातर गाड़ियों को वह पहचानती थी सो दुपट्टे को हाथ से मरोड़ती हुई, दरवाजे की ओट में जा खड़ी हुई और मन ही मन सोचने लगी। 'क्या पता इसे सैर को जाना हो.? हे पहाड़ा माई! अगर ये सैर पर गया तो उस पैसे से मैं, चैत के मेले से कानों के लटकन खरीदूँगी। बल्लो को देखो कितना इतराती है, अपने बुन्दे दिखा कर। मेरा भी कितना मन करता है..? जब भी बापू से कहो 'अब की दिला दूँगा ' और अब तक ना दिलाये। इस बार तो मैं लेकर ही रहूँगी।
वह भी सोच रही थी। कि अंदर से किसी की आवाज आई- "ऐ लड़की जरा अंदर आ----"सुनकर वह चौक गई। और अंदर जाते ही बोली- "मेरा नाम मणि है।" उसे.. ऐ लड़की कहकर पुकारना बुरा लगा था। बंसी ने झेपते हुए बात को संभाला- " बाबूजी मेरी बेटी है मणि बड़ी शरारती है। कहीं भी कुछ भी बोल देती है।"
"पर इसमें तो कुछ बोला ही नहीं" कह कर उस गाड़ी का ड्राइवर राजवीर उसके रूप लावण्य को निहारने लगा। अपनी ओर घूरती हुई नजरों से मणि में खुद को असहज सा महसूस किया फिर बंसी को संबोधित करते हुए बोली- "बापू रोटी लाई हूं, खा लेना मैं जा रही हूं ।" कहकर वह बगैर जवाब की प्रतीक्षा किए आनन-फानन में वहां से भाग गई। वहां से कुछ ही दूर एक पेड़ के नीचे रुक कर फूली हुई सांसो को नियंत्रित करने लगी।
" हे पहाड़ा माई! कैसे घूर घूर के देख रहा था वह। हमारी तो जान ही निकल गई थी। 'ऐ लड़की इधर आना' कैसे बोल रहा था? पागल कहीं का।" उसकी सुडौल और सुंदर नाक पर बड़ा सा गुस्सा झलक रहा था। जिसने उसकी खूबसूरती को और भी बढ़ा दिया था।
राजवीर मणि को देखता ही रह गया था। वह अभी भी उसके ख्यालों में खोया हुआ था। उसने बंसी से पूछ ही लिया ही लिया-" यह तुम्हारी बेटी थी बंसी ?" "हां बाबू साहब, ये मेरी एकलौती बेटी है। बड़ी शरारती है। पर दिल की एक दम सच्ची है। मुसाफिरों को पहाड़ों की सैर कराती है। यहां का चप्पा-चप्पा इसे पहचानता है। आपको सैर पर जाना हो तो बता देना।"
"बिल्कुल जाऊँगा। इस लारी के सामान को ऊपर पहुचाँ दूँ।जल्दी लौटूँगा। तब रुकूँगा और सैर भी करुँगा।"
कह कर राजवीर लारी लेकर निकल गया था। लेकिन मणि की तस्वीर उसके जहन में ऐसी बस गई थी, कि जैसे गुलाब की पंखुड़ियों में इत्र।
शाम को घर आकर, बंसी ने खुश होकर उसे बताया - "अरे मणि बिटिया सुन, वो बड़ी लारी वाला साहब दो दिन बाद वापस आएगा। तू उसे खूब अच्छे से पहाड़ों की सैर करवा देना और देख रे मणि, हम छोटे लोग हैं जरा- जरा सी बात पर यूं मुंह ना फुलाया कर समझी।"
"हां समझ गई हूं बाबू और यह भी समझ गई हूं कि उसे पहाड़ों की सैर करानी है।" कहकर मणि मुट्ठी में जुगनुओं को पकड़ने में तल्लीन हो गई। बापू की बात को नजरअंदाज कर मन -ही -मन योजना बनाने लगी। " अब की बार उसने 'ऐ लड़की' कहा तो ऐसा सबक सिखाऊंगी कि याद रखेगा।"
उस बड़ी लारी का ड्राइवर राजवीर, राजवीर दो दिन बाद वापस लौटा। बंसी के रेस्तरां में मसाले वाली चाय पीना तो एक बहाना था। इस बार वो मणि को ढूंढ रहा था। "अरे बंसी, तेरी बेटी आज दिखाई नहीं दे रही ?" " हां साहब अभी आप आराम करो। वो शाम को खाना लेकर आती होगी। सुबह -सुबह सैर पर निकलना है। वह अपने खच्चर को खाना पानी- खिला रही होगी।" राजवीर को आज तक किसी भी लड़की ने इतना प्रभावित नहीं किया था। उसके सौंदर्य से ज्यादा आत्म सम्मान के लिए जिस वेबाकी और भोलेपन से उस ने नाराजगी जताई थी वह उसके सौंदर्य की पराकाष्ठा थी। जो उसकी दिलों जहन में बस गई थी। मणि के आने का इंतजार वह बेसब्री से कर रहा था। शाम का झुटपुटा शुरु हो चुका था। राजवीर ने रोजाना की तरह थोड़ी सी दारू चढ़ा ली थी। इसके बगैर नींद आना बहुत मुश्किल था। वैसे भी लारी का ड्राइवर और दारू ना पिए यह बड़ी बात है।
बेशक राजवीर भी दारू पीता था। मगर पीकर हमेशा होश में ही रहा।
छम -छम दूर से आती हुई पायल की मधुर ध्वनि ऐसी लग रही थी जैसे प्रकृति साँझ का उत्सव मना रही हो। लंबे -चौड़े जिस्म से दो-चार को पटखनी देने वाले राजवीर का दिल धड़क उठा। उसने बाँस की खपच्चियों में से देखने की कोशिश की। एक हाथ में रोटी का डब्बा लिए मणि यूं चल रही थी मानो लंगड़ी टांग खेल रही हो। उसकी इस शरारत को देखकर राजवीर मुस्करा उठा। उसे ऐसा लगा, जैसे किसी ने उसके कान की लौ को तपा दिया हो। वह चुपचाप उसका उसका इंतजार करने लगा तभी उसके कानों में मणि की आवाज टकराई- " बापू.... बापू.. कहां हो ?" मणि ने घुसते ही बंसी को पुकारा। "अभी तो यही थे। यही होंगे" राजवीर ने उसको एकटक देखते हुए कहा।
"हां तो मैं कब कह रही हूं कि वह घर चले गए..? वह आज यही रुकेंगे। जब भी कोई मेहमान आता है तो वह उसकी देखभाल के लिए यही रुकते हैं। इसलिए तो मैं रोटी लेकर आई हूं। "अच्छा तो ढूंढ लो अपने बापू को" राजवीर ने उसको छेड़ते हुए कहा। जवाब मे मणि मुंह विचका कर अपने होठों की कोर को कान तक ले गई ।
"अच्छा सुन, बैठ जा थोड़ी देर..."राजवीर ने बड़ी उम्मीद से कहा।
"नहीं साहब, सुबह जल्दी निकलना है सैर पर, और वो मेरा राजा है ना, मेरा इन्तजार कर रहा होगा।"
"कौन राजा...?"
"अरे साहब, इसे अपने राजा से बहुत लगाव है। बिल्कुल बच्चे की तरह प्यार करती है। वो इसका खच्चर नही इसका दोस्त है।" बंसी ने पीछे से कहा।
बंसी की आवाज सुन कर दोनों चौंक गये।
"अच्छा बापू मैं चलती हूँ।, बाबू को भी रोटी खिला देना।" कह कर वो तेजी से भाग गई ।
राजवीर के लिये सुबह कि इन्तजार बहुत भारी था। बंसी बैठा -बैठा उसे अपने गाँव और आस-पास की जानकारी सुनाता रहा।जब तक राजवीर को उवासी नही आ गई ।
भोर होते ही मणि अपने खच्चर के साथ आ पहुँची।
"चलो बाबू मैं तैयार हूँ।" मणि ने चहकते हुये कहा। राजवीर उसे देखता ही रह गया। आज उसने लाल बड़े-बड़े फूलों वाला ढीला सा कुर्ता और सफेद सलबार पहनी थी। लम्बे बालों की दो चोटिओं को गूँथ कर ऊपर मोड़ लिया था। दूधिया मुखड़े पर छोटी-छोटी आँखों में मोटा सा काजल और टमाटर की तरह लाल-लाल गाल। पहाड़ी क्षेत्रों का प्रकृति सौन्दर्य तो उसने कई बार देखा था पर स्त्री सौन्दर्य उसने पहली बार देखा था ।
मणि तो जैसे निर्मल, स्वच्छ और पवित्र जल की तरह प्रतीत हो रही थी। एक ऐसी नदी जो उसकी आँखों से उतर कर आत्मा तक बहने लगी थी। कितना आकर्षण था उसके रुप में.? उसकी बातों में..?
सैर के बहाने आज पूरा दिन मणि उसके साथ रहेगी, यही सोच-सोच कर वो रोमान्चित हो रहा था। ना जाने कौन सा चुम्बकीय आकर्षण था, जो उसे उसकी ओर खीच रहा था ।।
राजवीर ने चाय का गिलास लकड़ी की तिपाई पर रखा और बंसी से बोला -"मैं चलता हूँ बंसी "
"ठीक है साहब, आराम से जाओ। मणि आपको कोई तकलीफ नही होने देगी ।"
ऊबड़ -खाबड़ रास्तों और घने जंगल से गुजरते हुये, कई बार राजवीर ने मणि को ध्यान से देखा। वो उसे हर रास्ते, जंगल, पेड़, पंक्षीयों के बारे में रोचक किस्से सुना रही थी। इस बात से बेखबर कि कोई उसकी खूबसूरती को निहार रहा है।
बेशक राजवीर उसको देख रहा था मगर लेशमात्र भी चरित्र हीनता नही थी। उसका दिल भी मणि की तरह ही पवित्र था।
झरना देख कर उन्होंने पानी पिया और राजा को भी थोड़ी देर घास खाने के लिये छोड़ दिया। मणि एक पत्थर पर बैठ गयी और वो दूसरे पर।
यूँ तो मणि ने भी अभी तक बहुत सारे आगन्तुकों को सैर कराई थी। मगर आज उसे एक अलग सा सुखद अनुभव हो रहा था।उसका भी जी कर रहा था कि वो राजवीर से ढेर सारी बातें करे।खास कर शहर के बारे में। क्यो कि वो एक ही बार वहाँ गयी थी वो भी काफी पहले, इसलिये शहर को लेकर उसकी जानकारी उतनी पुख्ता नही थी, जितनी होनी चाहिये। राज ने उसके सभी प्रश्नों का संतोष जनक जवाब दिया। साथ ही बातों ही बातों में, ये भी बताया कि वो कितनी खूबसूरत है। शहर की लड़कियों में ये बात नही। सुन कर वो शर्म से लाल हो गयी और पैर के अगूँठे से माटी को कुरेदने लगी।
राज उसके नजदीक आ गया। वो अनायास ही उसे इतना पास देख कर डर गयी। राज ने कहा-"मुझसे दोस्ती करोगी..?" उसे उससे ऐसे प्रश्न की उम्मीद नही थी और ना ही उसके गांव में किसी ने ऐसा किया था। मर्द की मर्द से दोस्ती उसने ऐसा ही देखा था। टेलीविजन पर उसने मर्द के साथ औरत की दोस्ती को देखा जरूर था, पर खुद करने की हिम्मत जुटा पाना आसान नहीं था। वह चुप हो गई। चपड़- चपड़ बोलने वाली मणि की खामोशी को देखकर राजवीर को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने माहौल को बदलने के लिए कहा- " ऐ लड़की मुझे माफ कर दे" "ऐ लड़की नही...मेरा नाम......"कह कर मणि खिलखिला कर हँस पड़ी और राज भी। दोनों में सहजता और निकटता दोनो ही बढ़ने लगी।
शाम से पहले ही दोनों गाँव वापस लौट आये। आज बंसी ने दाल भात पकाया था। सबने बड़े स्वाद से वही खाया। वैसे भी थकान के बाद गरमा -गरम भोजन बड़ा ही स्वादिष्ट लगता है।
बंशी का प्रेम आग्रह और दूसरा मणि के प्रति उसके बढ़ते लगाव ने राजवीर को उस रात वहीं रूकने पर विवश कर दिया। ढिबरी की धीमी -धीमी सी रोशनी और बांस की बनी हुई चारपाई पर लेटा हुआ वह मीठे -मीठे सपनों में खोने लगा। आज पहली बार ऐसा हुआ था, कि उस रात को खाने से पहले उसने दारू नहीं पी थी। फिर भी आंखों में नशा सा था। मणि की सादगी का सुरुर उसके दिलो-दिमाग पर छाया हुआ था। वह भी उसके वहां रुकने से खुश थी। राजवीर का साथ उसे भी एक अलग तरह का सुकून दे रहा था। जिसे उसने कई बार अस्वीकारने की कोशिश भी की थी। मगर बार-बार राज का चेहरा उसकी आंखों के सामने आ जाता था। इतना होने पर भी, ना तो राज ने मणि से कुछ कहा और ना ही मणी ने। पर यह तो तय था, कि उन दोनों के दिल में प्रेम का अंकुर फूट चुका था। प्रेम को छुपाना एक स्वभाविक प्रक्रिया होती है। ऐसा माना जाता है, कि स्त्रियां लाज के कारण अपनी बात को कहने में, या पहल करने में संकोच करती हैं। मगर राजवीर के आगे ऐसा कोई कारण नहीं था। फिर भी उसने मणि से अपने दिल की बात नहीं कही थी। बेशक उसकी तरफ से दोस्ती का प्रस्ताव जरूर आया था। मगर उसी सहजता से स्वीकार लेना एक पिछड़े हुए छोटे से गांव की लड़की के लिए आसान नहीं था। हो सकता है वह दोस्ती का प्रस्ताव राजवीर का प्रेम प्रस्ताव ही हो। तमाम कयास थे जो मणि के मन में उथल-पुथल मचा रहे थे।
सुबह हो गई थी और राजवीर वहां से जाने की अनुमति ले रहा था। वह शुक्रगुजार भी था इतनी आत्मीयता से अतिथि-सत्कार के लिए। मणि झोपड़े की ओर की ओर से देख रही थी। कि वह उसे ही ढूंढ रहा था। उसने बंसी से पूछा - "बंसी, मणि कहां है? दिखाई नहीं दे रही ।"
"साहब वह राजा को घास खिला रही होगी। जब तक राजा नहीं खा लेता वह भी कुछ नहीं खाती है। मैं अभी देखता हूं उसे" राजवीर के मुंह से अपना नाम सुनकर मणि का दिल जोर से धड़क उठा। वो आंखों को बंद कर झोपड़े की दीवार से टिक गई। "हे पहाड़ा माई ! यह क्या हो रहा है मुझे?" तभी बंसी ने आवाज लगाई मणि..... आ जा, देख साहब जा रहे हैं ।"
मणि सिर झुका कर खड़ी थी। एक ऐसा अपराधबोध का भार लिए जो उसने किया ही नहीं था। प्रेम तो प्रगाढ़ होता है। पवित्र होता है। निश्छल होता है। फिर प्रेम से भय कैसा ? राजवीर ने उससे कुछ कहा भी नहीं था, पता नहीं वह क्या सोच रहा होगा ? क्या उसका दिल भी मेरे दिल की भांति धड़क रहा होगा? अगर नहीं तो......? मगर ऐसा नहीं है। अगर ऐसा होता तो वह दोस्ती का प्रस्ताव ही क्यों रखता ? उसकी आंखें कितना कुछ बोल रही थी। बगैर शब्दों के हमने कितनी बातें की। मणि सोच में डूबी हुई थी। तभी राजवीर की आवाज से वह चौक गयी। "मणि, मुझे लारी तक नहीं छोड़ोगी..?" "जा मणि.. साहब को छोड़ आ, और देख संभाल कर जाना, कोई शरारत नहीं करना।" बंसी ने मणि को हिदायत दी। मणि चुपचाप राजवीर का बैग उठा लिया।
" लाओ मणि तुम रहने दो मैं उठा लेता हूं।"
" नहीं बाबू ठीक है आप चलो।"
" नहीं यह ठीक नहीं लगता और फिर पुरुषों होकर स्त्रियों से बोझ उठवाऊँ ये बात अच्छी नहीं।"
" क्यों, स्त्रियां क्यों नहीं उठा सकती, वह किसी से कमजोर है क्या ।"
"नहीं मणि बल्कि वो तो ताकत है मर्द की भी।"
" फिर "
"मैं स्त्री का सम्मान करता हूं, और जिसका सम्मान किया जाता है उसका कद ऊंचा होता है। बस इसलिए मैं नहीं चाहता कि तुम मेरा बैग उठाओ।" राजवीर ने ये कह कर मणि से बैग लेकर कन्धे पर टाँग लिया।
लकड़ी के पुल को पार करते -करते राजवीर ठहर गया। और ध्यान से नहर को देखने लगा। फिर एक पत्थर उठाकर नहर पर उछाल दिया मणि यह सब देख रही थी। आज वह बिल्कुल खामोश थी। फिर उसने मणि की तरफ देखते हुए कहा- "मणि इस पत्थर को देखा.? कैसे छोटे से पत्थर ने पूरी नहर में हलचल मचा दी।"
" हां वह मेरी सहेली है ना बल्लो, हम दोनों अक्सर शाम को यहां बैठ जाते हैं और देखते हैं किस का पत्थर ज्यादा दूर तक जाता है। लेकिन मैं हमेशा उस से हार जाती हूं।"
"मगर इस बार तुम जीत गई हो मणि"
" मैं .......? मणि उसके अनकहे शब्दों को समझने का प्रयास कर रही थी। उसकी आंखें राजवीर की आंखों को पड़ने लगी।
"मैं तुम्हें चाहने लगा हूं। मणि मेरे दिल की नदी में तुम्हारे बाहरी और भीतरी सौंदर्य एक अजब सी हलचल मचा दी है।" मणि बुत सी बनी धड़कती रही, और राजवीर वही बोलता रहा शायद जो वह सुनना चाहती थी। आज उसके और राज के मध्य भी ऐसा ही एक पुल बन चुका था। जहां से भावनाओं का सफर शुरू भी हो चुका था। कहीं ये लकड़ी का अस्थाई पुल तो नहीं..? यह विचार आते ही मणि जैसे नींद से जाग उठी। " मणि तुम कुछ बोलोगी नहीं..? राजवीर ने शांत स्वर में पूछा।
" बाबू सुना है शहर वाले हमारे जैसे नहीं होते।"
" हां मैं तुम्हारे जैसा नहीं हूं। दारु पीता हूं। जरूरत पड़ने पर गालियां भी देता हूं। कई बार रंडियों का नाच देखने भी जाता जाता हूं। और.........."
"रहने दो बाबू" मणि ने उसको वहीं रोकते हुए कहा। मुझे आपका अतीत नहीं जानना है। हम बहुत गरीब लोग हैं। दिल के अलावा और कुछ नहीं है हमारे पास। अब वह भी आप ले जा रहे हो। अगर कहीं..........? " इस बार राजवीर ने उसको रोक दिया। "मणि मैं लौट कर जल्दी आऊंगा। दस बारह दिन में गाड़ी लेकर, और एक दिन बंसी से तेरा हाथ मांग लूंगा। करेगी ना मेरे साथ ब्याह....?"
मणि लजा कर बोली- " आओगी ना बाबू "
" हां मैं जरूर आऊंगा। जब भी तुझे मेरी याद आए नहर में एक पत्थर उछालना मैं समझ जाऊंगा तूने मुझे याद किया है मणि में एक पत्थर उठाकर नहर में उछाल दिया। यह देखकर राज ने उसे गले से लगा लिया।
राजवीर लारी लेकर चला गया मणि तब तक हाथ हिलाती रही। जब तक लारी आंखों से ओझल नहीं हो गई ।
यूं तो प्रेम कहानियां सदियों से चली आ रही है। मगर हर कहानी कुछ अलग ही कहती है। इस बार भी शहर की हवा ने गांव के दरवाजे पर दस्तक दी थी। काठ के कच्चे मकानों में हवा का ठहराव इतना मुश्किल भी नहीं होता है जितना अक्सर लोग समझते हैं ।
राजवीर को गए हुए दस दिन हो चुके थे। उछलने-कूदने और शरारत करने वाली मणि अब शांत रहने लगी थी, और राज के ख्यालों में डूबी रहती। दिन में कई बार उंगलियों पर दिन गिनती । रेस्तरां पर मणि रोज जाती और मुख्य सड़क को दूर तक निहारती ।उसकी निगाहें राज की लारी को ढूंढती। फिर वह उदास होकर घर वापस आ जाती। इन दस दिनों में उसमें रोज एक पत्थर नहर में उछाला था।
आज पूरे बारह दिन के बाद फिर से राज की लारी रेस्तरां पर आकर रुकी थी। राजवीर रेस्तरां में घुसते ही बोला-"बंसी मणि कैसी है.?"
"ठीक है साहब, मगर अब वो पहले जैसी शरारती नही रही। जाने कहाँ खोई रहती है..?"
"बंसी क्या मैं मणि से मिल सकता हूँ..? "
"कोई काम है साहब..??"
राजवीर ने झेपते हुये कहा - "बंसी उस एक दिन में तुम लोगों से मुझे जितना अपनापन मिला है मैं भूल नही सकता।"
"ठहरो साहब, वो दोपहर को रोटी लेकर आती होगी। तभी आप मिल लेना।"
" बंसी तुम कहो तो मैं वही मिल लूँ मणि से। क्योंकि मुझे लारी लेकर जल्दी लौटना है।"
" ठीक है साहब, मगर मैं रेस्तरां छोड़ कर नही जा पाऊँगा।"
"तुम रहने दो मैं चला जाऊँगा ।" कह कर राजवीर मणि से मिलने निकल पड़ा।
मणि नहर के किनारे बैठी थी। वह उदास थी। उसने एक पत्थर उछाल कर नहर में फेंका। छपाक की आवाज के साथ ही वो नहर में समा गया। उसने नहर से पूछा - "मेरा राज कब आएगा.?"
" मैं आ गया हूं मणि " राज ने पीछे से आकर कहा ।"
" बाबू आप ..?" उसने पलट कर देखा। "आप कब आए.?" मणि ने खुशी से चहकते हुए कहा।
"बस अभी आया हूं। कह कर राज ने बाहें फैला दी। मणि उस में समाती चली गई। बहुत देर तक दोनों यूं ही बैठे रहे। बगैर बोले, बहुत कुछ कहते- सुनते रहे। राजवीर मणि से बहुत सारी बातें करना चाह रहा था। मगर मणि ने उसको रोक दिया। उसने कहा- " बाबू, बस इतना बता दो, तुम बापू से मेरा हाथ मांगोगे ना...??"
" मणि मैं जल्दी आऊंगा और बंसी से तेरा हाथ भी मांगूँगा। तुमने तो मेरी दुनिया ही बदल दी है। इस दुनिया के रंग इतने पक्के और चटखीले हैं कि मैं चाहकर भी नहीं बदल सकता। ना ही कोई ताकत इसे धो सकती है। मणि की आंखों की कोरों पर पानी की बूंदें छलक आई। मां को तो उसमें बचपन में ही खो दिया था और बापू चाह कर भी उतना प्यार नहीं जता सकता। बेशक बंसी ने उसे मां और पिता दोनों का प्यार दिया था। मगर दोहरी जिम्मेदारी के चलते भावनाएं व्यक्त करना आसान नहीं होता। मगर आज उसके जीवन में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा था। जिस पर यकीन कर पाना बहुत मुश्किल हो रहा था। मणि अपने भाग्य को सराह रही थी। राजवीर ने जेब से लंबे लटकन वाले कानों के बुंदे निकालें और कहने लगा- "मणि यह मैं तेरे लिए लाया हूं। देख कैसे हैं...?" "बहुत सुंदर है बाबू पर बड़े कीमती होंगे ना ..?जवाब में राजवीर मुस्कुरा दिया और मणि को अपने हाथ से उसके कानों में पहना दिए। मणि का रोम -रोम पुलकित हो उठा ।राजवीर ने गंभीर होकर कहा- "मणि यह बुंदे नहीं मेरा प्रेम है।"
"मैं इन्हे हमेशा संभाल कर रखूँगी " कह कर वो राज से लिपट गयी।
राजवीर के जाने का समय हो गया था।
मणि ने भरे मन से उसे विदाई दी। "कब आओगे बाबू..?" वो तड़प उठी।
"जल्दी आऊँगा, तू मेरा इन्तजार करेगी ना...?"
"बाबू मैं तुझे देखे बगैर नही मरूँगी।"
"ना .ना ..ऐसा मत बोल। मैं तुझे खोना नही चाहता। तेरे लिये कुछ भी करूँगा।" उदास मन से राजवीर चल दिया।
मणि उसे छोड़ने लारी तक आई। वो उसे तब तक देखती रही जब तक लारी आँखों से ओझस नही हो गयी।
बंसी की तजुर्बे कार आँखें उन दोनों के बीच पल रहे प्रेम को भाँपने लगी थी। उसने मणि को अप्रत्यक्ष रूप से समझाया भी।कि 'देख मणि ऊँचे सपने मत देख, ये प्रेम -व्रेम हम गरीबों की किस्मत में नही होता। मणि चुपचाप बापू की बातों को सुनती और रोज बड़ी सड़क को दूर तक चुपचाप निहारती ।
इस बार राज को आये हुये पूरे बीस दिन हो गये थे। मणि रोज सड़क को तकती और घण्टों वही बैठी रहती। इस बार उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था पर उसे विश्बास था कि वो जरुर आयेगा।
पूरे पच्चीस दिन बाद रेस्तरां पर लारी आकर रुकी। "ये तो राज की लारी है..?" मणि खुशी से पागल हो उठी। "मैं तो नाहक ही घबरा रही थी। "हे पहाड़ा माई! देखो बाबू आ गये। वो तेज कदमों से लारी के नजदीक गयी।
मगर इस बार लारी से जो व्यक्ति उतरा वो राजवीर नही था। मणि घबरा कर उसके पास गयी और पूछा- "बाबू कहाँ हैं..??
"कौन बाबू..?" उस व्यक्ति ने कहा ।
"वही जिनकी ये लारी है "
"ये लारी तो हमारे साहब की है"
"पर इसे तो मेरा बाबू लेकर आता था "
"मैं उसे नही जानता "
"मगर इसे तो राजवीर ही चलाता था। मैं सच कह रही हूँ।"
" मैं राजवीर के बारे में तो नही जानता, हाँ मालिक ने इतना जरुर कहा था कि अब इस लारी को मैं ही चलाऊँगा।
"ओ बाबू..तुम मेरे राज को ढूँढ सकते हो...?"
"सुन लड़की मैं तेरे राज को तो नही जानता मगर इतना जरूर जानता हूँ कि जो पहले इसे चलाता था वो.........."
"बताओ बाबू, क्या हुआ मेरे राज को... ?" मणि की घबराहट बहुत बढ़ चुकी थी।
"तू सुन पायेगी..? मैं नही जानता वो तेरा राज है या नही..?"
"हाँ बाबू... जल्दी बताओ ,मेरे बाबू की क्या खबर लाये हो..?"
"तो सुन वो एक अच्छा आदमी नही था। अपराधी था वो। एक बार नशे की हालत में किसी से झगड़ा कर बैठा और गोली चल गयी। जिसको उसने गोली मारी थी वो वही खत्म हो गया।हत्यारा है वो..."
मणि के पैरों तले जमीन निकल गयी। उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने उसे पहाड़ से नीचे फेक दिया हो और वो गहरी खाई में गिरती जा रही हो। वो धीरे से बोली - "तुम झूठ बोल रहे हो..?? मेरा बाबू ऐसा नही हो सकता।"
"ऐसा ही हुआ है। ये घटना तो कुछ महीने पहले की है। मगर उसने आत्म समर्पण अभी किया है। सुना है वो किसी से प्रेम कर बैठा है, और उसी की प्रेम की प्रेरणा से उसने समर्पण किया है।शायद वो नयी जिन्दगी जीना चाहता है। अपराध बोध लेकर जीवन में खुशियाँ नही बाटीं जा सकतीं। सुन ...क्या वो लड़की तू ही है...???"
मणि ने कोई जवाब नही दिया। उसकी आँखों मे अब आँसू भी नही थे। एक हाथ में राज के दिये हुये बुन्दे थे जिसको उसने कस कर मुठठी में भींच लिया। "बाबू मैं तुम्हारा इन्तजार करुँगी" बस इतना कह कर वो शहर से आती हुई उस वीरान सड़क को ताकने लगी.....और ताकती रही.....
सुना है सजा काट कर पूरे बारह बरस बाद राजवीर लौटा था।मगर मणि वेवफा निकली। वो उसका इन्तजार नही कर पाई।उसने कुछ दिन पहले उसी सड़क की ढलान पर दम तोड़ दिया था। मरते वक्त उसकी पथराई हुई आँखों को बन्द नही किया जा सका। राजवीर मणि को खोजता हुआ पहाड़ो की तलहटी में चला गया। गाँव वालों ने उसको तभी आखरी बार देखा था और ये भी कि एक परछाई उसका हाथ थामें हुई थी।
छाया अग्रवाल