Kahaani purani delhi ki books and stories free download online pdf in Hindi

कहानी पुरानी दिल्ली की

सन् 2001, दीवाली जा चुकी है और मीठी मीठी सी ठंड दस्तक दे चुकी थी । रविवार का दिन था तो घर के उस समय के सबसे छोटे युवराज यानी की हम 6 बजे तक सो कर नहीं उठे थे । उस समय के हिसाब से अगर आप प्रातः 6 बजे सुस्ता रहें हैं तो आपको निशाचर की श्रेणी में शामिल कर दिया जाता था ।

माता श्री गुस्साई और बोलीं की याद नहीं की आज बाऊ जी (दादा जी) के साथ पुरानी दिल्ली जाना है, बुआ के घर कार्ड देने । जैसे ही ये बोल कानों तक पहुंचे, मैं स्प्रिंग की भांति फोल्डिंग से उठ सीधा बाथरूम की ओर भागा ।। दरअसल बात ये थी की यूं तो एक सप्ताह बाद मेरी सैकंड टर्म की परीक्षा शुरू होने वाली थी पर उन्ही परीक्षाओं के बीच में हमारे दोनों चाचाओं के बर्बाद होने का इंतजाम भी कर दिया गया था यानी की उनकी शादी होने जा रही थी। पढ़ने लिखने में अच्छा होने के कारण मुझे इस सैर सपाटे का अवसर प्रदान कर दिया गया। नहा धोकर 15 मिनट में बाबूजी बनकर माजी (दादी) की अंगीठी के बगल में जा बैठा। उत्सुकता पेट में यूं उछल रही थी मानो अपने अंदर रोटी को भी आने ना दिया । मुश्किल से आधी रोटी खाकर बाऊजी के समीप जा बैठा जो हाथ में दूध का कटोरा लिए अभी भी अपने पंजाब केसरी में मग्न थे । मेरी चंचलता को देख उन्हें आभास हो गया की अब ये ज्यादा देर घर पर टिकने ना देगा । यूं तो रास्ता कुछ ज्यादा लंबा न था, पर माजी ने रास्ते के लिए अख़बार में कुछ रोटी और अचार लपेट कर दे दिए । मैं बाऊजी की लूना (मोपेड) में आगे सवार हुआ और हम स्टेशन की ओर चल दिए । मेरी उत्सुकता के कारणवश हम समय से 15 मिनट पहले ही स्टेशन पहुंच गए और गाड़ी का इंतजार करते हुए मेरे धीरज का बांध कई दफा टूटते टूटते बचा । आखिरकार एक लंबे इंतजार के बाद हमारी छुक छुक का आगमन हुआ और एक अच्छी खासी धक्का मुक्की के बाद हमें अंदर घुसने का मौका मिला । बाऊजी के वरिष्ठ नागरिक कोटे *के कारण हमें बैठने को सीट भी मिल गई और खिड़की के बगल में बैठ कर मैं बाहर की गन्दगी को कुछ ऐसे निहार रहा था जैसे प्रेमी अपनी प्रीतम को निहारता है । 7 स्टेशन के सफर में कुछ 70 सवाल बाऊजी से पूछने के बाद, हम अंततः पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंच ही गए ।।

हमारी बुआ जी गली पीपल महादेव में रहा करती थीं, जहां नीचे तो फूफा जी की दुकान थी और ऊपर उनका मकान । स्टेशन से बाहर निकलते ही मैं रिक्शे में जाने की ज़िद्द करने लगा पर बाऊ जी ने साफ मना किया और कहा की आज तुझे पुरानी दिल्ली की सैर कराऊंगा । यूं तो मैं पहले भी कई बार पुरानी दिल्ली आ चुका था पर ये टूर कभी ना किया था । आज मुझे एक ऐसी क्लास मिलने वाली थी जो शायद दुनिया का ना कोई टूर गाइड और ना ही कोई किताब दे सकती थी । स्टेशन से बाहर निकलकर हमने चलना शुरू किया और सड़क पार करते ही हमें दो पोलिस वाले दिख गए और मेरे भीतर का बहादुर बच्चा सकपका गया । कुलबुलाते हुए मैंने बाऊ जी से पूछा की ये यहां क्या कर रहे हैं ? उन्हें मुझे डराने में कुछ खास मज़ा आता था और जान बूझकर बोले की ये निगरानी के लिए हैं और अगर कोई भी बच्चा शरारत करता है तो उसे इस कोतवाली थाने में बंद कर देते हैं । मैं सहम गया और बिना कुछ बोले हाथ पकड़ कर चलने लगा । आगे बढ़ा तो मुझे घंटाघर चौक दिखाया गया, एक ऐसा घंटाघर जहां घंटा था ही नहीं । मुझे आगाह कराया गया की एक ज़माने में यहां घंटा हुआ करता था जो आज़ादी के बाद एक सांझ कुछ अटपटे ढंग से डह गया और फिर उसे अंग्रेज़ी हुकूमत की निशानी का सबूत मानकर कभी पुनः निर्मित कराया ही नहीं गया । मेन रोड पर पहुंचे ही थे कि बाऊ जी ने उल्टे हाथ की और सिर्फ इशारा किया जो मेरे लिए काफी था और मैं ख़ुशी के मारे उछल कूद करने लगा । वहां बाईं ओर एक बेहद खूबसूरत लाल इमारत पे तिरंगा लहरा रहा था जिसे हमने सिर्फ 15 अगस्त को डी डी पर ही देखा था । हां ये बात और है की मुझे लाल किले अंदर जाने के लिए कुछ 9-10 साल और इंतजार करना पड़ा । उस दिन मुझे हिंदुस्तान कि धार्मिक विविधता का पहला पाठ पढ़ाया गया था । ठीक लाल किले के सामने जो खुद में एक राष्ट्रीय धरोहर है हिंदुस्तान के सभी मुख्य धर्मों के पूजा स्थल एक कतार में स्थित हैं और मैंने उस दिन से पहले मंदिर के अलावा शायद कोई और धार्मिक स्थल नहीं देखा था और शायद उस दिन मैंने धार्मिक स्थल की एक नई परिभाषा जानी । पगड़ी वाले सरदार और टोपी वाले मुस्लमान बंधुओं को देख कर कुछ ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे मैं किसी दूसरे देश में आ गया हूं ।

ख़ैर एक जगह पर रुकना बाऊ जी को मंज़ूर ना था और हमें खींच कर आगे बढ़ाया गया । आगे बढ़े तो नई सड़क पर पहुंचे, एक ऐसी नई सड़क जो 250 साल पुरानी है । इस चौड़ी सड़क का निर्माण 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ अफसरों की आवाजाही को सुगम बनाने के लिए कराया गया था । ये नई सड़क आगे चलकर इंजीनियरिंग के समय में हमारी खास साथी बन गई । दरअसल ये दिल्ली टूर तो इक बहाना था असल में बाऊ जी को नई सड़क पर कुछ नए कार्ड छपवाने थे और इसलिए अपने साथ हमारी भी परेड करवा दी गई। नई सड़क भी मानो अपने आप में ही एक अलग दुनिया थी, जहां रोड पर रोड के आलावा सब कुछ दिखाई दे रहा था । ठेले खीचते युवक, रिक्शा, शकरकंदी की रेहड़ी, सड़कों पर बिकती किताबें, शादी कार्ड की दुकानें और जगह जगह बैठे पनवाड़ी । हिलते डुलते धीरे धीरे हम कार्ड की दुकान पर पहुंचे और फिर वहां कुछ और कार्ड का ऑर्डर देकर आगे प्रस्थान किया और दुकानदार को हमारे आर्मी मैन बाऊ जी ने सलीके से समझा दिया की हम वापिस आ रहे हैं और तुरंत प्रिंट करा दो । खैर सूरज सर पे चढ़ चुका था और नवम्बर का महीना होने के बावजूद भी धूप में अच्छी खासी तपिश थी । बाऊजी ने दुकानदार से विदा ली और अपने कदम तेज़ी से बुआ जी के घर की ओर बढ़ाए । सहसा इक मोड़ पर आकर बाऊ जी रुक गए और बोले की जानता है की यहां से सीधे हाथ पर किसकी हवेली है ? और जबतक मैं ना का जवाब देता खुद ही बोल पड़े गालिब साहब की । उस समय ना तो मैं किसी गालिब को जानता था और ना ही किसी साहब को । मुझे लगा कि शायद बाऊ जी का कोई बचपन का यार होगा और हो सकता है कि शायद हमें उनके घर भी कार्ड पहुंचाना हो। मैंने उनसे पूछा कि ये जनाब कौन हैं बाऊजी ? सहसा ही जवाब आया की ये वो हैं जिनसा कभी दूसरा कोई ना होगा । मुझे उत्तर कुछ अटपटा लगा और मुझे बाऊजी के दोस्तों से कुछ विशेष लगाव था भी नहीं तो मैंने आगे पूछा भी नहीं । बाऊजी के गुजर जाने के कुछ साल बाद जब मुझे उनके इस दोस्त की असलियत पता चली तो मैं खूब मुस्कुराया था । ग़ालिब की उस हवेली को जिसे मुझे 19 साल पहले देख लेना चाहिए था, उसे देखने की ख्वाहिश आज तक पूरी नहीं हो पाई है । जहां हमें दाएं जाना चाहिए था वहां से हम बाएं मुड़े क्योंकि बुआ जी का घर बाईं ओर था और उस वक़्त बुआ जी गालिब से कहीं गुणा महत्वपूर्ण थी ।

बहरहाल बाऊजी का हाथ थाम हमने वहाँ से आगे कूच किया और संकरी गलियों की भूल भुलैया में खोते चले गए । उन संकरी गलियों में लोगों के सौहार्द को देख कर एक बात तो ज़रूर कही जा सकती है कि सिर्फ घरों का पास होना काफी नहीं शायद दिलों का पास होना भी उतना ही जरूरी है । जिस तरह से विभिन्न तबकों और धर्मों के लोग उन गलियों में कुछ इस तरह घुल गए है जैसे दूध में मिश्री । इंटरनेट दुनिया में पला बढ़ा मैं कभी भी उस रास्ते को याद नहीं कर पाया और गूगल मैप के आने तक पनवाड़ी का सहारा लेकर ही बुआ के घर पहुंच पाया । ख़ैर कुछ हज़ारों लाखों दफा दाएं-बाएं मुड़ने के बाद हम आखिरकार बुआ के घर पहुंच ही गए । यहां मैं एक बात बताना बहुत ज़रूरी समझता हूं कि भारतीय समाज में अगर जमाई से ज्यादा किसी कि पूछ है तो वो है एक भतीजे की अपनी बुआ के घर । वहां मेरा स्वागत ऐसे हुआ मानो किसी मुगलिया सल्तनत के युवराज मीना बाज़ार का दौरा करके लौटे हैं । खाने को ऐसे ऐसे पकवान मंगाए गए की खाने के साथ इंसान थाली भी चाट जाए । दूध जलेबी खाने के बाद ना जाने कब नींद से आलिंगन हुआ और कार्टून देखते देखते मैं बुआ जी की बाहों में ही सो गया । जब मुझे उस मीठी नींद से जगाया गया तो हमारे घर वापिस जाने का समय हो चुका था । 4 बजे की गाड़ी को पकड़ने के लिए बाऊजी ने एक घंटा पहले निकलने का निर्णय किया क्योंकि राह में उन्हें कुछ और दोस्तों से भी मिलना था । बुआजी ने टीका कर, कुछ रुपए और टाॕफी दे कर हमें विदा किया और ज़ाहिर सी बात है की घर से बाहर निकलते ही वो रुपए मुझसे छीन लिए गए ।

बाहर निकले तो ऐसा लग रहा था मानो रात होने वाली है क्योंकि ना जाने कैसे कुछ काले मेघों ने यहां का रास्ता ढूंढ लिया था जिससे सूरज की तपिश और रोशनी दोनों ही गायब हो गई थी। पर घर पहुंचना भी ज़रूरी ही था इसलिए बाऊ जी ने बुआ से छाता ले लिया और विदा ले वापिस चलना शुरू किया । अब एक हाथ में छाता और दूसरे हाथ में मिठाई के डब्बे होने के कारण बाऊ जी को विवशतः मेरा हाथ छोड़ना पड़ा और उस वक़्त मुझे इससे ज्यादा शायद कुछ चाहिए भी नहीं था । एक अच्छी खासी नींद के कारण मेरी थकान तो जा ही चुकी थी और इसलिए मैं उन्मुक्त होकर इधर उधर दौड़ने लगा । बाऊ जी को मुझे पकड़ते पकड़ते पसीने छूट गए और जब तक दो चार बार उन्होंने मुझे कोतवाली में बंद करवाने की धमकी ना दे डाली तब तक मैं शांत ना हुआ । कुछ ही मोड़ मुड़ने के बाद एक ज़ोर की घड़घड़ाहट के बाद मूसलाधार बारिश शुरू हो गई । बाऊ जी ने छाता खोला और मुझे उसके नीचे ही चलने के आदेश दे डाले । चलते चलते हम कुछ ही क्षणों में नई सड़क पर आ पहुंचे जो अब कीचड़ होने के कारण काफी संकरी प्रतीत हो रही थी और लग रहा था मानो उस पर भीड़ बढ़ गई है । हमने वहां कदम रखे ही थे की कानों को फ़ाड़ देने वाली आवाज़ के साथ एक ज़ोरदार धमाका हुआ और कुछ चंद पलों में ही वहां अफरा तफरी मच गई ।

देखते ही देखते लोगों में हाहाकार मच गया और सब अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर दौड़ने लगे और इसी धक्का मुक्की में मैं बाऊ जी से अलग हो गया और उस निरर्थक भीड़ ने मुझे किसी अनजान जगह ले जाके छोड़ दिया । चाहे वो पल भर के लिए ही हो लेकिन वियोग का दुख क्या होता है शायद मैंने उस दिन पहली बार जाना था । क्षणभर में ही मेरे नेत्रों से अश्रुवर्शा होने लगी और बदहवास होकर मैं बाऊ जी को ढूंढता हुआ इधर उधर दौड़ने लगा । कुछ समय पहले तक खुद को आज़ाद समझने वाले पंछी को अब सारे द्वार बंद होते नज़र आने लगे । तभी उस भीड़ में एक टोपी वाले भाईजान का ध्यान मुझपे गया और एक सात साल के बच्चे को यूं बिलखते हुए देख उन्होंने मेरा हाथ थाम लिया और मुझसे पूछताछ करने लगे । अब बात ये थी की उस समय तक टोपी वाले लोगों के साथ मेरा तारूफ कुछ अच्छा था नहीं और आज से पहले इन्हें हमने अमरीश पुरी के रूप में गदर फिल्म में ही देखा था । मुझे यूं लगा मानो मुझे अगवा कर लिया गया है और इस वजह से मैंने उनके किसी सवाल का जवाब ना दिया । आखिरकार बहुत देर बाद जब मैंने रोना बंद ना किया तो उन्होंने मुझे कोतवाली में छोड़ने का निर्णय किया । अब कोतवाली का को साक्षत्कार मुझसे करवाया गया था वो बहुत ही बेहतरीन था और जब उन साहब ने मुझे वहां छोड़ा तो मेरे होश ही उड़ गए । मैं और ही बुरी तरह रोने लगा और सिपाहियों की लाख मिन्नतों के बाद भी चुप ना हुआ । आधा घंटा बीत गया और तभी मैंने बाऊ जी को बदहाल अवस्था में कोतवाली के दरवाज़े में घुसते देखा और पवन वेग से भागकर मैं उनकी गोदी में चढ़ गया । शायद उतनी ख़ुशी मुझे जीवन में कभी ना हुई थी और ना शायद आगे हो पाएगी । बाऊ जी ने भी राहत की सांस ली, सिपाहीयों का धन्यवाद किया और कागज़ी कार्यवाही पूरी करने के बाद घर की राह पकड़ी । रास्ते में मैंने उन्हें टोपी वाले अंकल के बारे में बताया और वो बोले कि उनके दोस्त गालिब भी टोपी पहनते थे और मैं उनके दोस्त का चित्र अपने दिमाग में बनाते बनाते वापिस सो गया ।