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विलुप्त होता मुहावरा

विलुप्त होता मुहावरा

रामगोपाल भावुक

हमारे गाँव के भोले बाबा बड़े किस्सा गोई हैं। वे गाँव से जुड़े किस्से अक्सर सुनाते रहतें हैं। पीपल के पेड़ के नीचे रोज की तरह लोगों ने उन्हें घेर लिया-‘ बाबा, बाबा आज कोई नया किस्सा सुनाओ। ’ बाबा अपनी लम्बी दाड़ी पर हाथ फेरते हुए बोले-‘ आज में दो बैलों की कथा सुनाउँगा। यह कह कर उन्होंने कथा वाचक पण्डितों की तरह पालथी मारी और कथा कहने लगे-

बात इन्हीं दिनों की है, पिछले कुछ दिनों से रामभरोसे के पुत्र महेश के मन में बड़ी उथल पुथल मची है कि कैसे पिताजी को पटाकर बैलों को घर से भगाया जाये। यह सोचकर महेश बोला-‘पिताजी अब टेªक्टर का जमाना आ गया है, कृषि के सारे कार्य उससे फटाफट हो जाते हैं। पहले आप दिनभर लगे रहते थे तो भी आपका काम नहीं निपट पाता था। अब तो आराम से टेªक्टर के ड्रायवर के बगल में बोनट पर बैठे जाओ,कुछ ही घन्ठों में अपना खेत जुतकर तैयार हो जाता है। मैं कितने दिन से कह रहा हूँ कि आप अपने प्यारे बैलों को किसी व्यापारी को बैच दें, रट्टा कटे। दिन भर उनकी देखभाल में लगा रहना पड़ता है। मेरे से अब इतनी मेहनत नहीं बनती। आपका शरीर अब काम नहीं देता तो भी आप बैलों की सेवा करने में लगे रहते होे। आपकोे तो मेहनत करने की आदत पड़ गई है। सुबह- सुबह जल्दी उठकर बैलों के लिये सानी करो। जब वे सानी खालें, उन्हें सार से बाहर निकाल कर खुले मैदान में हवा खाने के लिये बाँधो। उनकी देख- भाल करते रहो। दोपहर कुआ पर पानी पिलाने के लिये ले जाओ। दोपहर बाद फिर सानी खिलाओं। इस तरह सारे दिन मेहमानों की तरह इनकी सेवा करते रहो।’

‘बेटा, भगवान किसी को बैल का जन्म न दे। कहते हैं किसी का कर्ज नहीं चुक पाया तो बैल बनकर चुकाना पड़ता है। हम इनसे दिन-रात मेहनत लेते हैं, बदले में इन्हें क्या देते हैं, बस पेट भर भूषा। अब वह भूषा ही नदारत है। बेटा, आदमी अपने श्रम का तो मूल्यांकन करता है, अभी तक कोई ऐसा विद्वान मनीषी नहीं हुआ जो इन पशुओं के श्रम का भी मूल्याकंन करता। हम जिन्दगी भर इनकी सेवा करें तो भी इनका कर्ज नहीं पटा पायेंगे। इस पर भी तुम्हें इनसे बड़ा कष्ट है, तुम्हें तो यह अच्छा लगता है कि ट्रेक्टर वाले के निहोरे करने उसके घर चक्कर लगायें। उसे मुँह माँगी जुताई के पैसे दें। तुम हो कि काम से जी चुराते हो। अब कह रहे हो कि मैं इन बैलों को किसी व्यापारी को बैच दूँ जिससे वह इन्हें लेजाकर कसाई को बैच देगा। बेटा, मैंने इनकी कमाई खाई है, मैं इन्हें कसाई के हाथों में नहीं पड़ने दे सकता।’

‘पिताजी , आप इन्हें नहीं बेचना चाहते हो तो मत बेचो, लेकिन अब आज के युग में इनकी आवश्यकता ही नहीं है। इस वर्ष मौसम खराव हो रहा था फिर सोसाइटी की किस्त भरना थी इसलिये टेªक्टर से डायरेक्ट गेंहूँ निकलवा लिये। अब हम बैलों कीे झंझट में नहीं पड़ने वाले। बैलों से खलियान का काम निपटाने में महिनों लग जाते थे। पहले खेत में अनाज कटा कि गाड़ी-बैल से उसे खलियान में ढोकर लाओ फिर उसकी टटिया चलाकर दाँय करो। बैलों के पीछे खुद भी दिन भर चक्कर चलाते रहो। दाँय होने के बाद हवा चलने की प्रतिक्षा करते रहो। कभी- कभी तो हवा चलने की प्रतीक्षा में आठ- दस दिन तक गुजर जाते थे ,तब कहीं वे अनाज के दाने घर में आ पाते थे। अब तो खलियान की भी जरूरत नहीं है, सीधे खेत में ही टेªक्टर से अनाज निकलवाकर मण्ड़ी में जे जाओ। काम इतनी तेजी से होता है कि बाद में आराम ही आराम।

बड़ी देर से उसकी माँ कमला बाप- बेटे की बातें सुन रहीं थी। उसे लगा कि बेटा ठीक ही कह रहा है। बोली-‘ बैल यदि घर में रहे तो उन्हें खिलाओगे क्या? इस वर्ष खेतों से सीधा अनाज निकलवा लिया। टेªक्टर वाला भूषा निकलवाने के लिये अलग से पैसे मांग रहा था सो लोभ में फस गये। सोचा-भूषा तो फिर निकलवा लेंगे। फिर के चक्कर में भूषा निकलवा न पाये। अब यही चिन्ता खाये जा रही है कि इन बैलों का पालन- पोषण कैसे होगा?’

पत्नी कमला की बात सुनकर रामभरोसे को क्रोध आ गया बोला-‘तुम दोनों ही नहीं चाहते कि ये बैल घर में रहें। मैं इन्हें कटने के लिये कसाई के हाथों तो बेच नहीं सकता। हमारे बूचा का जन्म तो हीेराभुमिया की कृपा से हुआ था। उनने मुझ से स्वप्न में कहा था-‘ यह बछड़ा, बैल बनकर तुम्हारा पिछले जन्मों का कर्ज पटाने के लिये आ रहा है। तुम भी इसका अच्छी तरह ख्याल रखना।’ इन दोनों बैलों ने हमारी जिन्दगी भर सेवा की है। एक कर्जदार की तरह मेहनत से हमारा जन्म जन्मान्तर का कर्ज पटाया है। अब इन टेªक्टरों ने आकर इनका अस्तित्व ही दाव पर लगा दिया। सारे गाँव वाले अपने बैलों को यातो कसाइयों के हाथें बेच रहे हैं अथवा जो भले लोग हैं वे इन्हें शहर में ले जाकर छोडकऱ आ रहे हैं।’

महेश ने परामर्श दिया-‘पिता जी, आप ने शहर में छोड़े गये पशुओं की हालत नहीं देखी। कचरे में पड़ी पिलास्टिक की पन्नियाँ खा-खाकर मर जाते हैं। वहाँ लोग गायों को तो पुण्य कमाने कें चक्कर में रोटी भी खिला देते हैं। बैलों पर तो डन्डे फटकारते हैं। उन्हें तो गन्दगी के ढेरों में सूअरों की तरह मुँह मार- मार कर कुछ खाने को तलाशना पड़ता है ,शायद भाग्य से कुछ मिल जाये। पिताजी इससे तो अच्छा है इन्हें हम कसाइयों के हाथांे ही बेच दें, इससे इनकी शहरों में दुर्गती तो नहीं होगी। अपने को भी कुछ पैसे भी मिल जायेंगे। अपने गाँव के समझदार लोग यही कर रहे हैं।’

उसकी बात सुनकर वे बोले-‘ मुझे तुम्हारा और आपने गाँव के लोगों का यह दृष्टिकोण ठीक नहीं लगा । जिनकी कमाई खाई है उन्हें अपने लाभ के लिये कसाई के हाथों बेच दें। मेरा मन यह स्वीकार नहीं करता, लेकिन क्या करें? घर में भूषा नहीं है , वे घर में भूखे मरै इससे अच्छा है उनके भाग्य के सहारे शहर में ले जाकर छोड़ दिया जाये। आँख ओझल सो पार ओझल, फिर जो उनके भाग्य में होगा सो भोगेंगे। क्या पता सरकार उन्हें पकड़वाकर गायों की गोशाला की तरह किसी बृषभ अभ्यारण्य में पहुँचा दे। वहाँ ये आनन्द से तो रहेंगे।’

इसी समय पडोस में रहने वाला किसान नारायण उनके यहाँ आ गया। आते ही बोला-‘काका, मैं आपकी तरह बड़ा किसान तो नहीं हूँ। मजदूरी करके पेट पालता रहता हूँ। मुझ पर तो केवल बीधा भर जमीन है। उसमें गेंहूँ बोना है। रामेश्वर महाते के घर ट्रेक्टर से बौनी कराने के लिये तीन दिन से चक्कर काट रहा हूँ। उनके मिजाज ही नहीं मिल रहे हैं। कभी कहते हैं इतने छोटे काम के लिये इतने बड़े ट्रेक्टर को ले जाओ, फिर बीधा भर में ट्रेक्टर ठीक ढंग से घूम भी नहीं पायेगा। अब बताओ बड़ा खेत कहाँ से बना लाऊँ। अब तो एक ही उपाय दिख रहा है कि आप अपने बैलों को एक दिन के लिये मुझे मांगे दे दें तो मेरा खेत ठिकाने लग जायेगा।’

महेश झट से बोला-‘ हम अपने बेलों कांे एक दिन के लिये नहीं, तुम्हें हम हमेशा के लिये ही उन्हें दे सकते हैं। अभी ही ले जाओ। उनकी सेवा करो। उन्हें खिलाओ- पिलाओ और अपनी खेती करते रहो। कुछ छोटे- मोटे ऐसे ही काम तलाश लिया करो जिससे तुम्हारा भी काम चलता रहेगा। अब तुम्हारी यही मजदूरी सही।’

यह सुनकर वह गम्भीर हो गया। बोला-‘ भैया एक दिन की ही बात है, फिर तो मैं रोज इसी चक्कर में फस जाउंगा। मजदूरी करने भी नहीं जा पाया करूँगा। हाँ एक काम जरूर कर सकता हूँ आज आपके इन बैलों को लिये जाता हूँ, अपना काम निपटाकर, कल गाँव के सभी लोगों की तरह मैं इन्हें ले जाकर शहर छोड़ आउँगा।’

महेश ने ही उसे झट से उत्तर दिया-‘ यह ठीक है, आप आज ही इन्हें हमारे घर से लिये जाओ। क्यों पिता जी, यही ठीक रहेगा ना!’

महेश देख रहा था,पिता जी टकटकी लगाये बैलों को देख रहे हैं। उन्हें याद आ रहा था-‘ कैसे बूचा के जन्म के लिये हीराभुमिया से मिन्नते की थीं। उन्हीं की कृपा से उसका जन्म हुआ था आज इस तरह उसे घर निकाला जा रहा है, यह सोचकर बोले-‘ बेटा किसी दिन हम काम के न रहेंगे तो हमें भी ले जाकर शहर छोड़ आना। अरे! जब तक मेरा जीवन है मैं इनकी सेवा करता रहूँगा। नारायण, तुम तो अपना काम निकालकर इन्हें हमारे हीे घर छोड़ जाना।’

महेश उन्हें डाँटते हुए बोला-‘ नहीं , नारायण मैया तुम तो इन्हें शहर छोड़कर ही आओगे। इनके हाथ-पाँव चलते नहीं है ये कैसे कर पायेंगे इनकी सेवा! ’

इसी समय उनकी पत्नी बोली-‘ महेश, ठीक कह रहा है। इनसे अपना शरीर तो सँभल नहीं रहा है। इनसे तो हो गई इनकी सेवा!’

नारायण विवाद में न पड़कर अपना काम निकालना चाहता था। उनकी बातें सुनकर चुप रह गया था। जैसे ही उसने बैलों को खूंटे से खोला, रामभरोसे दोनों बैलों के गले लगकर खूब फूट फूट कर रोये। इस स्थिति में महेश के सहयोग से नारायण उन बौलों को लेकर जा पाया। रामभरोसे हाथ मलते खड़ा रह गया था।

दूसरे दिन नारायण ने अपनी बोनी की और दिन डूबने से पहले ही उन दोनों बैलों को लेकर शहर निकल गया।

रामभरोसे को आज घर बिना बैलों के सूना- सूना लग रहा था। उसे रह- रह कर अपने बैलों की याद आ रही थी-क्या मजाल कि बोनी के समय एक आँतरा हो जाये। इतने सधकर चलते कि सारा गाँव उनके विवके की प्रशंसा किये बिना न रहता। उनकी डाइट भी इतनी नहीं कि खाते ही चले जाये । उनका पेट भरा कि फिर चाहे मोहन भोग उनके सामने रख दो, उधर देखते भी नहीं थे। इन्हीं यादों में राम भरोसा खोया रहता। एक दिन डरते- डरते बेटे से कहा- चल कर किसी दिन उन्हें शहर में देख भर आते हैं। कैसे रह रहे हैं वे वहाँ?

एक दिन महेश को शहर जाना होगा। उसने अपनी मोटर साइकल तैयार की और पिताजी से बोला-‘ चलो आज आपके बैलों से आपको मिला लाता हूँ। मुझे बैंक के काम से शहर जाना ही है। आप भी चले चलें। मिल जाये तो अपने प्यारे बैलों से मिल लेना। राम भरोसे झट से तैयार होकर उसके साथ मोटर साइकल पर बैठ गया था।

ष्शहर पहुँच कर महेश तो बैंक में अन्दर चला गया। रामभरोसे ने अपने बैलों को ढूढ़ना शुरू किया। इस चौराहे से उस चौराहे पर उन्हें ढूढ़ता रहा। एक जगह दोंनों बैल साथ- सथ दिख गये। वह उनके पास पहुँच गया। उसके उन बैलों के पास जाने पर लोग चिल्लाये-‘ अरे! बाबा क्या करते हो? उन बैलों के पास नही जाओं, वे मरखा बैल हैं।’

रामभरोसे ने उनकी एक नहीं सुनी, वह उनके सामने पहुँच गया। वे कचरे मैं मुँह मार- मार कर खाना तलाश रहे थे। बूचा ने सिर उठाकर उसकी ओर गौर से देखा और आगे बढ़कर रामभरोसे के धीरे से जड्ड मार दी। वह वहीं गिर पड़ा। कुछ लोग डण्डे लेकर उन बैलों को मारने दौड़ पड़े तो वे दूर भाग गये। लोगों ने रामभरोसे को उठाया तो वह स्वयम् ही उठकर खड़ा हो गया।

लोगों की भीड़ देखकर महेश मोटर साइकल से उन्हें तलाशता हुआ वहाँ आ गया। एक कह रहा था-‘ ये दोनों बैल बहुत मरखा हैं। अभी तक चार- छह लोगों को अस्पताल पहुँचा चुके हैं। मैंने इनसे उनके पास जाने की मना की थी, ये नहीं माने। भगवान की कृपा रही कि बच गये।’

राम भरोसा कह रहा था- ‘बेटा, बूचा तो घर में भी प्यार से ऐसी ही जड्डें मारा करता था। अब मैं तुम से कहता हूँ कि इन बैलों को अपने घर ले चलो। मैं इनकी सेवा करता रहूँगा।’

महेश उनसे लड़ ही पड़ा- ‘ जैसे-तैसे तो इनसे पिण्ड छूटा है! यहाँ आकर ये मरखा हो गये हैं। ’

यह कहकर वह जोर से बोला-‘ देख लिये इनके हाल-चाल, इन पर आपका बहुत प्यार उमड़ रहा था। आप अब इनका मोह छोड़ें और मोटर साइकल पर बैठें। ये मरखा हो गये हैं, अब तो नगर पालिका वाले ही इन्हें कहीं क्यों नहीं पहुँचा देते?’

वेबश होकर राम भरेसे को मोटर साइकल पर बैठना पड़ा। वह जाते बक्त मुड़मुडकर उन बैलों की ओर देखता जा रहा था। जब तक वे ओझल नहीं हो गये वह उन्हें देखता ही रहा। उसने देखा, वे दोनों बैल भी उसकी ओर देख रहे हैं।

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