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धरती तुम बदल गईं

धरती तुम बदल गईं

शाम का धुंधलका और गहरा हो चला था । स्ट्रीट लाइटें ऑन हो चुकी थीं । रविवार की शाम थी, दूरदर्शन पर शाम की फिल्म चल रही थी । सारे कालोनी के लोग कड़कड़ाती ठण्ड में शाम पांच बजे से ही रजाईयां ले टी 0 वी 0 के सामने डट चुके थे । बाहर निकलने का सवाल ही नहीं उठता था रोहित का भी मन नहीं था, फिर भी वह बाज़ार आया था कुछ खुदरा चीज़ें खरीदने । रोहित ने देखा, सड़कें सन्नाटे में डूबी हुई थीं । रोहित खरीददारी कर लौटने को हुआ, तभी कॉफ़ी शॉप पर नज़र पड़ी, सोचा क्यूँ न एक कप कॉफ़ी हो जाये । कॉफ़ी शॉप में भी सन्नाटा पसरा पड़ा था । एक कोने में एक शख्स, एक टेबल पर सर झुकाए हुए कॉफ़ी या न जाने क्या पी रहा था । बीच वाली टेबल पर दो लडके आपस में गप्प लड़ा रहे थे, शायद कॉलेज के होंगे । सरसरी सी निगाह पूरे कॉफ़ी शॉप पर डाल, बैरे को एक कॉफ़ी का ऑर्डर दे कर एक कोने के टेबल पर बैठ गया । तीन - चार मिनट बाद बेयरा कॉफ़ी उसके टेबल पर रख गया । चुस्की लेते हुए वह सोचता है, ठण्ड में ये साली कॉफ़ी भी क्या कमाल की लगती है । तभी नज़र दरवाज़े पर पड़ीं, एक पहचानी सी आकृति अन्दर आ रही थी, मंद चाल से ।

उसने चिहुंक कर आवाज़ दी --------- " अरे विनोद तुम " रोहित ने हाथ हिलाया ।

''अरे रोहित '' विनोद आश्चर्य मिश्रित लहजे में बोला और टेबल के नजदीक आकर कुर्सी खींचकर बैठ गया | '' कैसे हो यार, जबसे भोपाल से आया हूँ तुम लोगों से मिल ही नहीं पाया, माफ़ करना यार '' रोहित ने हौले से विनोद के कंधे

पर हाथ रक्खा ।। ........... विनोद चुप रहा ।

'' क्या बात है, मुझे दो दिन हो गए हैं यहाँ आये हुए, ऑफिस भी ज्वाइन किये हुए, लेकिन तुम नहीं दिखे यार । एक दो लोगों से तुम्हारे बारे में भी पूछा, तो कहने लगे, तुम्हारा आजकल कोई ठिकाना नहीं, मुझे बड़ा अटपटा लगा । लगा की वे लोग मजाक कर रहे हैं,हमारी दोस्ती को तौलना चाहते हैं । रोहित गर्मजोशी से बोला । .........विनोद फिर भी चुप रहा ।

'' क्या हुआ, कुछ बक भी, नाराज़ है क्या ? मानता हूँ गलती हुई, आते ही तुझसे नहीं मिला । क्या करता, मेरी व्यस्तता ही कुछ ऐसी रही ।" रोहित अपनी सफाई पेश कर रहा था लेकिन विनोद की चुप्पी इस बार वह सह न सका । विनोद को लगभग झिंझोड़ने लगा । विनोद की जैसे तभी तन्द्रा टूटी ।

" मैंने नौकरी छोड़ दी है, इस्तीफा दे आया हूँ, लेकिन अभी तक मंजूर नहीं हुई है । " बुझे स्वर में विनोद बोला ।

" क्या ? रोहित का मुँह खुला का खुला रह गया । ऐसा लगा मानो ठण्ड से पथराई हवाओं ने कॉफ़ी शॉप की पाषाणी दीवारों पर अपना सर दे मारा हो । वह बेचैन हो उठा ।

" इतनी अच्छी लगी लगाई नौकरी छोड़ दोगे ?.........आखिर क्या हो गया है तुम्हे ? रोहित ने उसे समझाने और समझने की एक साथ कोशिश की ।

" क्या फर्क पड़ता है " बुझे हुए स्वर थे विनोद के ।

" अंमा यार तुम भी न हद ही करते हो, आजकल नौकरी मिलनी कितनी मुश्किल है और तुम लगी लगाई नौकरी छोड़ने पर उतारू हो । रोहित विनोद पर झुंझलाते हुए बोला ।

" छोड़ न यार, दूसरी बात कर " विनोद रोहित का हाथ पकड़कर बोला ।

" क्या बातें करूँ चार साल बाद मिला है और मिलते ही पहली खबर दे रहा है कि नौकरी छोड़ दी ।"

'' बॉस से पटरी नहीं बैठ रही थी, समझा कर यार, विनोद ने प्रश्न उत्तरों का सिलसिला ही मिटा देना चाहा ।

" जब मैं तेरे साथ इस ब्रांच में था तब तो तेरे बॉस से तुझे या तेरे बॉस को तुझसे कोई शिकायत नहीं थी । बॉस तो देशमुख ही था न ? ............"

" है तो वही पर अब यह नौकरी मुझे भाती नहीं ....."

" कुछ तो है विनोद जो तू मुझसे छुपा रहा है ......... कारण करीब साल दो साल से तू न तो फोन ही करता है और मै तुझे फ़ोन करूँ तो फोन इस वक़्त बंद है की उदघोषना उस पार से सुनाई पड़ती थी, और मैंने तुम्हे दो तीन पत्र भी लिखे उनका भी कोई जवाब नहीं आया । बता क्या बात है ?

" यार तू भी न रोहित जान ही खा जाता है ...शब्दों में झुंझलाहट भरी थी ......तू बता, तू कब आया जबलपुर .....?"

" अरे यह तो मैं तुझे बताना ही भूल गया । मैंने सोमवार को ही ऑफिस ज्वाइन किया है । अब ऑफिस में ए .जी .एम . हो गया हूँ । अलका भी साथ आई है । गट्टू को उसके दादा - दादी के पास छोड़ आये हैं, जैसे ही सब सामान जम जाता है उन्हें बुलवा लेंगे | अच्छा भाई तुमसे फिर मिलता हूँ ।" कह कर रोहित उठ खड़ा हुआ । रोहित के जाने से विनोद थोड़ा आहत सा हुआ । उसे रोहित के साथ बातें करना अच्छा लग रहा रहा । थोड़ी देर तक विनोद यूँ ही बैठा रहा, तभी कॉफ़ी शॉप के किचन में शायद बैरे ने कप तोड़ा जिसकी आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी । कॉफ़ी शॉप से बाहर निकल आया और स्कूटर स्टार्ट कर होटल पैगोडा की तरफ चल दिया । आजकल उसकी शामे वहीँ गुजरती हैं ।

*******

हफ्ता बीत गया, रोहित फिर इस बीच विनोद से नहीं मिल पाया । विनोद तो जैसे छिपता फिर रहा था । इस बीच गट्टू को उसके दादा जी छोड़ गए थे । एक दिन रोहित ने विनोद को ढूंढ ही लिया और अपने स्कूटर के पीछे जबरदस्ती बिठा कर अलका के सामने ला पटका ।

" लो सम्हालो अपने इस घामड़ दोस्त को " रोहित विनोद की तरफ इशारा कर अलका से बोला । अलका भौचक्की सी दोनों को बारी - बारी से निहार रही थी ।

'' अब यह तो किसी के बस में नहीं रहा । '' रोहित बेचैन सा होकर बोला । अलका प्रस्तुत नहीं थी इस हालात के लिए, अचानक ही हो गया यह सब । वह अचकचा सी गई । और पल भर में ही अपने अतीत में गोता लगा आई।

यह वही विनोद है जिसके सुन्दर चौड़े माथे पर लटें अठखेलियाँ करती थीं, जिसके चेहरे की मुस्कान पर हजारों बार वह गश खा कर गिरी थी । वह ही क्यूँ, और भी न जाने कितनी मेरे जैसी या मुझे भी ज्यादा और भी कितनी उस पर मरती थीं । वह विनोद के चौड़े लोमश सीने पर सर रखने को कितनी ही बार तड़पी थी, लेकिन क्या वह यह सब कर पाई ? नहीं बस एक अच्छे दोस्त की तरह एक ही राह पर चुप चाप सर झुकाए चलते हुए दोनों अपनी - अपनी मंजिलें अलग - अलग चुन लीं थीं । कारण अलका के माता - पिता नहीं चाहते थे की यह रिश्ता हो, इस रिश्ते के पनपने का हल्का - हल्का सा आभास उन्हें भी था । पर उन्हें अच्छे पढ़े - लिखे, ऊँची पद पर कार्यरत वर की तलाश थी। विनोद उन्हें भी अच्छा लगता था लेकिन कम पढ़ा - लिखा होने की वजह से उन्हें अलका के लिए माफिक नहीं लगा था । अलका और विनोद ने माता - पिता की इच्छा का मान रखा और दोस्त बनाना ही स्वीकार कर लिया ।

अलका की शादी विनोद के ही ऑफिस के एक उच्च पदाधिकारी से हो गई । रोहित पढ़ा - लिखा था और आगे भी उसके उन्नति के मार्ग सुनिश्चित से थे । इन्टरनल एग्जाम के जरिये प्रमोशन पाकर आगे बढ़ सकता था । रोहित प्रतिभावान तो था ही, मृदु भाषी एवं सयंमी भी था । अलका विनोद को अब बस एक दोस्त की तरह से ही याद करती रही ।

देखते ही देखते आठ साल बीत गए । दो साल पहले विनोद के माता - पिता ने विनोद की शादी काफी अच्छे खानदान की सुन्दर सी लड़की से कर दी । शादी में अलका और रोहित भी शामिल हुए थे । उन दिनों अलका और रोहित भोपाल में थे । विनोद के ही ख़ास आग्रह पर वे पांच दिन की छुट्टी लेकर आये थे जबलपुर । निशा भी इन पांच दिनों में ही अलका और रोहित से काफी घुलमिल गयी थी |

" अरे आओ आओ .....भीतर आओ विनोद, निशा कैसी है ? " अलका ने अतीत से बहार आकर विनोद से धीरे से प्रश्न किया ।

" ....................." विनोद सर झुकाये बैठा रहा, निर्वाक सा ।

" चाची कैसी है ? " अलका अपने आप पूछे जा रही थी और विनोद चुपचाप बैठा दीवारों को घूर रहा था । अलका ने उसे कंधे से झिंझोड़ा । वह अकबका सा गया । सूनी आँखों को अलका की तरफ फेर कर बोला -------

" ठीक हैं, ये रोहित कहाँ चला गया विनोद ने बात पलटने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा ।

" मुहं हाथ धोकर आते ही होंगे, तुम बताओ कैसे हो ?

.......................एक घनीभूत चुप्पी ।

" मम्मी मुझे मैग्गी बना दो ना ............, बड़ी जोर की भूख लगी है ।" गट्टू अलका की साड़ी का आँचल खींच रहा था ।

" अंकल के पास बैठो, मैं अभी बनाकर लाई " गट्टू को हिदायत देते वक़्त अलका ने विनोद की तरफ पल भर को देखा । विनोद ना जाने किन ख्यालों में गुम गोते लगा रहा था । उसने महसूस किया की विनोद जैसे गहरे दलदल में उतर कर नायब मोती चुनने की असफल कोशिश कर रहा है । उसकी निगाहों में छटपटाहट साफ़ झलक रही थी । अचानक ही वह हड़बड़ा कर उठ बैठा और बोला -----------

" मैं जा रहा हूँ .........." अलका कुछ जवाब देती उससे पहले ही रोहित मुंह हाथ धोकर बाहर आ चूका था बोला .... .. .

" मैं भी साथ चलता हूँ चल " यह कहते हुए करीब जाकर रोहित ने हलके से विनोद के कंधे पर अपनत्व भरा हाथ रखा । और विनोद को लेकर सीढियां उतरने लगा । एक क्षण को अलका के समझ में कुछ नहीं आया । वह भौंचक्की सी खुले द्वार को निहारती रही । दोनों का ब्यवहार उसके समझ से परे था । वह ज्यादा दिमाग न लगा कर गट्टू के लिए मैग्गी बनाने किचन में चली आई ।

******

" डिंग डौंग "......." डिंग डौंग "

हड़बड़ाकर उठ बैठी अलका, न जाने कब नींद लग गई थी । नजर उठा कर सीधे दीवाल घड़ी की तरफ टिका दी, रात के बारह बज रहे थे वह अपनी अस्त- व्यस्त साड़ी ठीक करने लगी । साड़ी में लिपटा गट्टू कसमसाया, शायद ठण्ड की वजह से माँ की साड़ी लपेट ली थी उसने, धीरे - धीरे अलका ने अपनी साड़ी खींची पर, गट्टू गहरी नीद में सोया हुआ था, सोया ही रहा ।

" डिंग - डौंग "

" आती हूँ " कह कर अलका ने गट्टू के लटके हाथ को बिस्तर पर ठीक से रख दरवाज़ा खोलने से पहले आई मिरर से बाहर झांक कर देखती है रोहित था दरवाज़ा खोल जम्हाई लेती हुई बड़बड़ाई -----

" यह कोई घर आने का वक़्त है ?"

" नाराज़ मत हो " कहकर लड़खड़ाता सा वह विनोद की बाहें थामे अन्दर आ गया । विनोद को देखकर अलका दरवाज़े से हट जाती है । दोनों सोफे पर धम्म से जा गिरते हैं। अलका भांप गई कि आज दोनों ने जम कर चढ़ाई हुई है । रोहित थोड़ी ही देर में जोर - जोर से खर्राटे लेने लगा। कारण वह कभी- कभी ही पीता है, उसे ज्यादा चढ़ गई थी। अलका बेडरूम से दो तकिये ले आई और एक रोहित के सर के नीचे रख दूसरा विनोद की और बढ़ा दिया, उसने देखा विनोद आँखें फाड़ फाड़ कर छत को निहार रहा है । तकिया उसके पास रख अलका लौटने लगी तो विनोद की आवाज़ ने उसके कदम रुक गए --------

" थोड़ी देर बैठो न "विनोद की आवाज़ अलका को बड़ी दूर से आती महसूस हुई । अलका ने सरसरी सी निगाह कमरे में डाली देखा रोहित गहरी नीद में है। फिर वह लौट कर पास वाले सोफे पर आ बैठी ।

"......................." इतना सन्नाटा, इतनी चुप्पी कि " थोड़ी देर बैठो न " की गूँज अलका के कानो से शरीर के रग - रग में उतर गई । वह चढ़ती - उतरती साँसों पर काबू पाने की नाकाम कोशिश करने लगी । सोचने लगी, कि विनोद कुछ भी न कहे तो ही अच्छा है,कारण वह आज और कुछ भी न सुन पायेगी । उसका अपने आप पर से संतुलन खो रहा था । उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि रोहित की आँखें इसी पल खुल जाएँ । जाने कौन सी बात कहना चाहता है विनोद बेहोशी के इस आलम में । वह विनोद की आवाज़ का सामना करने से डर रही थी ।

" कैसे हो ?" उसने विनोद के कुछ कहने से पहले ही धीमी सी आवाज़ में सवाल कर दिया ।

" ..........." गहन चुप्पी ।

" निशा कैसी है " अलका फिर पूछ बैठी ।

".............निशा अब मेरे साथ नहीं रहती, तुमने पूछा पर मैं कैसे बताता की वह कैसी है "

" कब हुआ यह सब ........"

" साल भर पहले ............"

" तुमने हमें बताना भी मुनासिब नहीं समझ " अलका ने साँसों पर काबू कर उलहना दिया ।

" नहीं, ऐसा नहीं है मैं तुम लोगों को दुखी नहीं करना चाहता था ।"

" ........क्या तुम सुखी हो .......ये सारी बातें हमसे छुपा कर ?"

"..........................चुप्पी, गहन चुप्पी ।

" फिर यह कैसे सोच लिया की हम खुश होंगे, चाची जी तो टूट ही गई होगी ?"

" हाँ, प्रतीक के बिना वह पगला सी गई हैं "

" प्रतीक कौन ....?

".................. ".फिर एक चुप्पी ।

" कुछ तो बोलो " अलका झुंझलाई ।

" निशा का बेटा ".............

"..................." मौन भाव से अलका ने विनोद को देखा ।

" और कुछ मत पूछना मैं कह नहीं पाउँगा ।" थोड़ी देर तक फिर मौन खिचा रहा। दोनों बस एक दूसरे की साँसें ही गुनते रहे । अलका ने महसूस किया, विनोद गहरी - गहरी साँसें ले रहा है । उसने समझ लिया विनोद की जिजीविषा जाती रही । नहीं तो यही विनोद कभी कितना विनोदी और जीवट हुआ करता था ।

" चाचा .....? " अलका ने धीमें से पुछा ।

" नहीं रहे "

" कब की बात है ?" अलका के कान सजग हो उठे ।

" पिछले साल, जब महिला कोर्ट से 498 दहेज़ प्रताड़ना का सम्मन आया था । और हम सबको पकड़ कर हवालात में बंद कर दिया गया था । विनोद सपाट लहजे में बोल गया सभी कुछ ।

" फिर .............."

" हवालात से जमानत पे छूटकर घर आये और अपने कमरे में खुद को बंद कर लिया उन्होंने । इतना अपमान इस बुढ़ापे में बिचारे सह न सके । उसी रात, उनका हार्ट फेल हो गया । मौन अब और भी गहरा गया । अलका नहीं समझ पा रही थी की बातों का रुख अब वह किस और मोड़े ।

" आखिर निशा को क्या तकलीफ थी ।" एक लम्बी चुप्पी के बाद अलका बोली ।

" .................... "विनोद चुप रहा ।

" तुमसे खुश नहीं थी, बेवक़ूफ़ लड़की ? अलका ने धीरे से दांत पीसे ।

" वही एक ही रोना, नई हवा, हम और तुम बस, न्यूक्लियर फैमिली का नशा ......." विनोद थोड़ा और खुला । " मेरे न मानने पर छह - छह दिन तक बात न करना और मुहं सुजा कर बैठ जाना । तमाशा सा बना हुआ था । रोज़ - रोज़ की चख -चख, मुझे सारे दिन साड़ी पहननी पड़ती है । जब तब तुम्हारे कोई न कोई खास आ टपकता है, फिर शुरू मम्मी - पापा का उसे यह बना दो, उसे वो शिर्डी वाले बाबा का प्रसाद दे देना जरा । शिर्डी जाते वक़्त उसकी माँ ने मुझे बड़े प्यार से कहा था ------- भूलना नहीं बहन, प्रसाद जरूर लाना बाबा जी का । न तो ढंग से पैर फैला कर सो सकती हूँ न ही ढंग के कपड़े और न ही मन चाह पिज़्ज़ा और बर्गर ही खा सकती हूँ । जब तक उन फ़ास्ट फ़ूड में नए - नए रोग वह भी न्यूज़ पेपर में पढ़ - पढ़ कर झाड़ते रहेंगे ......... मुझे यह सब नहीं भाता । मुझे तो तुम और मैं वाली अकेली और निराली सी गृहस्थी चाहिए कि जैसे ही तुम ऑफिस से लौटो मैं तुम्हारे कंधे से लग झूल जाऊं और तुम मुझे गोद में उठाकर होंठों में होंठ रख बेडरूम तक लाओ और दुलार करो । साला वह सब तो इस घर में अशोभनीय है । जो भी करना है रात तक का इंतजार करो। तब तक साला मूड की भी किरकिरी । विनोद बोलता ही चला जा रहा था । सांस ले को जरा रुका .............

" फिर ............." अनजाने में ही अलका के मुंह से निकल पड़ा।

" हार मान कर माँ बाबा ने कहना शुरू कर दिया ....." तू अलग रह, हमारी चिंता मत कर .... बस यही भलमानसता ही माँ - बाबा को ले डूबी । निशा को यह आभास हो चूका था की ये सीधे - सादे, सच्चे लोग हैं, इन्हें अपनी इज्जत का बड़ा ख्याल है । अगर वह अलग रहने का दबाव डाले तो वे लोग मुझे खुद की कसम दे या मेरी और निशा की ख़ुशी का हवाला दे मुझे समझा लेंगे और मैं भी उनकी खातिर यह अनर्थ करने को राज़ी हो जाऊंगा । अलग से घर बसा लूँगा ...कहीं ..........बेवक़ूफ़ थी .....बेवक़ूफ़ । इसी बीच निशा ने कंसीव कर लिया, लेकिन उसने मुझे बताया तीन माह के बाद । मेरे गुस्सा करने पर की मुझे पहले क्यूँ नहीं बताया तो मुंह टेढ़ा कर कहती है की '' मैं नहीं चाहती की मेरा बच्चा भी कहीं तुम्हारी ही तरह माँ - बाप के प्यार में अँधा न हो । और उस प्यार में अपना भला - बुरा सोचने की शक्ति भी खो दे ।" मैं अवाक् रह गया । और वह क्रोध में न किसीकी बात सुनती और न ही ठीक से न ही कुछ अच्छा खाती और न ही पीती । कभी - कभी दो - दो दिन तक भूखी रहती ।जैसे उसने बच्चे को कोख में ही मार डालने की ठान ली हो । मैंने डर कर उसके बड़े भाई को फ़ोन किया कहा एक बार आओ और देख जाओ । वह आया और अपनी बहन को ले गया । वहां जाकर भी उसने न ही एक फ़ोन किया और न ही एक भी पत्र ही लिखा | मेरे फ़ोन वह रिसीव ही नहीं करती थी और न ही पत्र का कोई जवाब ही देती । फिर प्रतीक हुआ ..........मैं देखने भी गया, सारे दिन उनके ड्राइंग रूम में ही बैठा रहा । दोपहर को खाने के बाद बस कुछ मिनटों के लिए प्रतीक को मेरी साली एक झलक दिखा कर वापस ले गई । न तो मेरी गोदी में दिया न ही छूने को ही दिया । मैं अपमान से भर उठा । छूने को हुआ तो कहने लगी नहीं आपके हाथ धुले नहीं हैं, उसे इन्फेक्सन हो जायेगा । मैंने छुआ तक नहीं आज तक प्रतीक को . क्या लम्बी - लम्बी पलकें थी उसकी, उन्ही पलकों को खोलकर झांक - रहा था एक टक मैं उसे ताकता ही रहा । मुझे क्या पता था की वह भी मुझे आखरी बार देख रहा है । शर्म और दुःख से भरा हुआ मैं उसी रात वापस आ गया । न निशा ही मेरे कमरे में नहीं आई और न ही मुझे ही अपने कमरे में ही बुलाया । फिर एक माह बाद महिला थाने से सम्मन आया, साथ आई महिला पुलिस । और धारा 498 के तहत हम सभी को धर पकड़ कर ले गई । खूब पूछ ताछ की, गंदे - गंदे इल्जाम लगाये । ढेरों अपशब्द भी बोले । मुझे,माँ को और बाबा को ........ बाबा सह नहीं पाए ....जमानत दी चक्रवर्ती दादा ने । भला हो उनका ...बहुत सहयोग दिया उन्होंने । अगर मैं 24 घंटे हवालात में रहता तो मेरी नौकरी ही चली जाती । फिर 15 दिनों के भीतर ही कोर्ट से सम्मन आया ......बाबा ने पढ़ा और अपने को कमरे में बंद कर लिया,वहीँ उनका हार्ट फेल हो गया । बाबा नहीं रहे ............खबर भिजवाई निशा को भी पर वह नहीं आई ।

विनोद चुप हो गया .....इतना बोलकर उसे लगने लगा जैसे वह बरसों से बोलने को तरस रहा था । अलका ने भी चुप्पी नहीं तोड़ी । तभी रोहित शायद टॉयलेट के लिए उठा ........।

अलका ने खिड़की खोल दी । बाहर झाँका, देखा सूरज उगने को है । उसे लगा, आज का उजाला बोझिल पांव से रेंग रहा है धरती पर । धरती भी उत्साहित नहीं थी जैसे उसे सूर्य की किरणों की कोई चाह नहीं । वियोग के बाद ......मिलन का कोई उत्साह नहीं । दिसंबर की धुंधलाती सुबह, उड़ते परिंदे, पेड़ों से छनती धीमी रौशनी, सब कुछ पीला, उदास । ये कैसी सुबह .....? जिसकी रौशन किरणों से धरती आज अपने बाल सुखाना भी भूल गई, अपलक अलका भरी आँखों से विनोद को देखती रही और विनोद शून्य में निहारता शायद कुछ सोच रहा था, अलका के मन में यह बात हलचल मचा रही थी, स्त्री को धरती का रूप कहा जाता है पर यह क्या ? अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़ा ----------------- "-धरती तुम बदल गईं "।

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