Chachaji ka adhura upanyas books and stories free download online pdf in Hindi

चाचाजी का अधूरा उपन्यास

चाचाजी का अधूरा उपन्यास

सुशांत सुप्रिय

चाचाजी हिंदी साहित्य में एक बड़ा नाम थे । उन्होंने दर्जनों कथा-संग्रह, काव्य-संग्रह व उपन्यास लिखे थे । उनकी आलोचनात्मक किताबों ने कई स्थापित मान्यताओं को तोड़ा था । उन्हें बहुत सारे साहित्यिक पुरस्कारों से नवाज़ा गया था । उनकी कृतियों को बच्चे स्कूलों व कॉलेजों में पढ़ते थे । उनकी किताबों पर विश्वविद्यालयों में छात्र-छात्राएँ शोध-कार्य करते थे । यानी वे हिंदी साहित्य के गगन के चमकते सूर्य थे ।

चाचाजी दिल्ली के ग्रेटर कैलाश इलाक़े में रहते थे । जब अचानक एक दिन चाचीजी की मृत्यु हो गई तो चाचाजी उस बड़े-से घर में नितांत अकेले रह गए । घर के काम-काज के लिए रोज़ आने वाली सुशीला बाई को छोड़कर अब उनके पास कोई नहीं होता था । सुशीला बाई भी सुबह आती थी और शाम को चली जाती थी ।

चाचीजी की मृत्यु के बाद जब मैं चाचा जी से मिला तो उन्होंने मेरे सामने एक प्रस्ताव रख दिया । वे मेरी साहित्यिक अभिरुचियों से अवगत थे । मैं थोड़ा-बहुत लिख-पढ़ लेता हूँ । मेरी उम्र चालीस बरस की हो गई है किंतु मैंने स्वयं को साहित्य के लिए समर्पित कर दिया है । इसलिए मैंने शादी नहीं की । इस समय चाचाजी को किसी ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो उनकी वृद्धावस्था में उनके लिखने-पढ़ने के काम में उनकी मदद करता और उनके साहित्यिक सरोकारों को सँभाल लेता ।इसलिए उन्होंने मेरे सामने यह प्रस्ताव रखा कि यदि मैं उनके पास आ कर रहूँ और उनके साहित्यिक सरोकारों को सम्भाल लूँ तो वे मुझे हर महीने एक निश्चित वेतन देने के साथ ही अपनी वसीयत में अपनी मृत्यु के बाद मेरे लिए यह घर छोड़ जाएँगे । यूँ भी उनके कोई बाल-बच्चा नहीं था ।

मैं इस आकर्षक प्रस्ताव को नहीं ठुकरा सका । दरअसल मुझे चाचाजी शुरू से अच्छे लगते थे । फिर एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में भी मैं उनकी बहुत कद्र करता था । और मुझे उनका मकान तो पसंद था ही । इसलिए मैंने उनके प्रस्ताव को मान लिया और एक रविवार अपना ज़रूरी सामान लेकर मैं चाचाजी के यहाँ शिफ़्ट कर गया ।

वहाँ आते ही मैंने अपनी ज़िम्मेदारियाँ सँभाल लीं । मैंने उनकी पूरी लाइब्रेरी की डस्टिंग करके सारी किताबों को व्यवस्थित कर दिया । हर रोज़ सुबह के नाश्ते और रात के भोजन के बाद चाचाजी घंटा-दो घंटा लिखते थे । मैंने उनकी देख-भाल अच्छी तरह करनी शुरू कर दी । उन्हें पौष्टिक आहार मिले, मैं इसका ख़्याल रखता । उनके जीवन को सरल और सुगम बनाने में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी । उनके साहित्यिक पत्राचार और प्रकाशकों से हो रही उनकी बातचीत में भी मैंने उनकी पूरी मदद करनी शुरू कर दी । शाम में मैं लॉन में टहलने में उनकी मदद करता । इस तरह अस्सी वर्षीय चाचाजी का जीवन फिर से सही ढंग से चलने लगा । वे भी मुझे पसंद करने लगे । कहते, “ प्रशांत, तुम नहीं आते तो पता नहीं मेरा जीवन कैसा होता । “ मैं मुस्करा कर उनका स्नेह ग्रहण कर लेता ।

मुझे चाचाजी का काम-काज सँभाले लगभग एक साल हो गया था । इस बीच उनका एक काव्य-संग्रह और दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो गए थे । चाचाजी को सर्दियों के इन महीनों में लॉन की धूप में आरामकुर्सी पर बैठ कर कोई पुस्तक पढ़ना बहुत अच्छा लगता था । ऐसे समय में मैं यह ख़्याल रखता था कि उनके महत्त्वपूर्ण फ़ोन-कॉल्स के उत्तर दिए जाएँ और उन्हें नेस्कैफ़े की उनकी पसंदीदा लाइट-कॉफ़ी मिलती रहे ।

किंतु फिर वह दिन भी आ पहुँचा । एक रविवार दोपहर एक बजे के क़रीब जब मैं खाना खाने के लिए उन्हें बुलाने के लिए लॉन में गया तो मैं सन्न रह गया । वे आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही चल बसे थे । बाद में डॉक्टर ने बताया कि उन्हें दिल का दौरा पड़ा था ।

उनका अंतिम संस्कार करने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी जो मैंने बखूबी निभाई । उनकी अंत्येष्टि में शहर भर के दर्जनों साहित्यकार शामिल हुए । अख़बारों और खबरिया चैनलों ने उनकी मृत्यु को हिंदी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति बताया । मैंने सभी रीति-रिवाजों का अनुपालन किया । इस सब से मुक्त होने के बाद मैंने उनकी लाइब्रेरी पर ध्यान केंद्रित किया । एक बड़े हॉल में फैली उनकी लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य की हज़ारों अमूल्य पुस्तकें भरी पड़ी थीं । किताबों की तादाद इतनी ज़्यादा थी कि उन्हें जीवन भर सँभाल कर रखना किसी सिर-दर्द से कम नहीं था । अब, जब चाचाजी नहीं रहे तो मैंने सोचा कि क्यों न इन किताबों को शहर के विश्वविद्यालय को दान में दे दूँ ताकि पढ़ने-लिखने वाले लोग इन पुस्तकों का लाभ उठा सकें । इसलिए एक सोमवार मैंने चाचाजी की लाइब्रेरी की सारी किताबों को यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में भेजने का प्रबंध कर दिया ।

अपनी अकस्मात् मृत्यु से पहले चाचाजी अपने अगले उपन्यास पर काम कर रहे थे । उन्होंने उसके नौ अध्याय लिख लिए थे । उनकी स्टडी में मुझे इस उपन्यास की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि भी मिली । बातचीत के दौरान चाचाजी ने तब ज़िक्र किया था कि दसवाँ अध्याय इस उपन्यास का अंतिम अध्याय होगा । लेकिन उपन्यास पूरा कर पाने से पहले ही वे चल बसे ।

मैंने सोचा कि उपन्यास पढ़ कर देखा जाए । दसवाँ अध्याय यदि पूरा कर दिया जाए तो चाचाजी का यह उपन्यास प्रकाशित किया जा सकता था । उनकी अधूरी कृति को पूरा करने की इच्छा मेरे मन में जगी ।

चाचाजी के उपन्यास की पांडुलिपि के वे नौ अध्याय उनकी पाँच डायरियों में

उनकी ही लिखावट में मौजूद थे । नौवें अध्याय के अंत के बाद अगले पृष्ठ पर चाचाजी ने अपनी लिखावट में ‘ दसवाँ अध्याय ‘ लिखकर उसे अंडरलाइन कर दिया था । पर इसके नीचे या डायरी में इसके बाद के किसी पृष्ठ पर और कुछ भी नहीं लिखा हुआ

था । ये डायरियाँ उनकी स्टडी-टेबल पर पड़ी हुई थीं ।

इत्तिफ़ाक़ से इस घटना के बाद मैं लगभग पंद्रह-बीस दिनों तक दूसरे कामों में फँस गया और चाचाजी के उपन्यास की ओर ध्यान नहीं दे सका । पंद्रह-बीस दिनों के बाद फुर्सत मिलने पर मैं उनकी स्टडी में दोबारा गया । अंतिम डायरी पलटते हुए जब मैं ‘ दसवाँ अध्याय ‘ वाले पृष्ठ पर पहुँचा तो सन्न रह गया । वहाँ चाचाजी की लिखावट में नई लाइन लिखी हुई थी — “ बेटा, मेरा यह दसवाँ अध्याय तुम लिखकर जल्द-से - जल्द मेरा यह उपन्यास छपवा दो ।“ मुझे काटो तो खून नहीं । मुझे पक्का याद था कि पिछली बार ये पंक्तियाँ इस पृष्ठ पर नहीं लिखी थीं । फिर चाचाजी की मृत्यु के बाद उनकी लिखावट में ऐसी बात यहाँ किसने लिख दी ? काम करने वाली सुशीला बाई को छोड़कर बाहर से घर में और कोई नहीं आता था ।पर सुशीला बाई तो अनपढ़ थी । फिर चाचाजी की लिखावट को हू-ब-हू वैसा ही लिख पाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल काम था । यह एक ऐसा रहस्य था जिसे मैं नहीं सुलझा पा रहा था । हालाँकि मैं भूत-प्रेतों में यक़ीन नहीं करता लेकिन जब मैंने इस गुत्थी के बारे में जान-पहचान वालों से बात की तो उन्होंने कहा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि चाचाजी की अतृप्त आत्मा अपने अपूर्ण उपन्यास के कारण इसी घर में भटक रही है ।

ख़ैर । मैंने चाचाजी की स्टडी में ताला लगा दिया । यार-दोस्तों ने सलाह दी कि घर की शुद्धि और चाचाजी की आत्मा की शांति के लिए घर में पूजा-पाठ और यज्ञ का आयोजन किया जाए । लिहाज़ा एक रविवार मैंने इलाक़े के मंदिर के पंडित जी को बुला कर घर में पूजा-पाठ और यज्ञ का आयोजन करवाया ।

अगले दिन मैं फिर से चाचाजी की स्टडी में पहुँचा । काँपते हाथों से मैंने वह डायरी उठाई और वह पृष्ठ खोला जिसमें ‘ दसवाँ अध्याय ‘ लिखा हुआ था । मैं फिर से सन्न रह गया । अब पिछली पंक्ति के नीचे चाचाजी की लिखावट में नई पंक्तियाँ लिखी हुई थीं —

“ बेटा, तुम इस काम को गम्भीरता से नहीं ले रहे हो । इस उपन्यास के दसवें अध्याय को तुम्हें ही पूरा करना है । जल्दी करो । दसवाँ अध्याय लिख कर यह उपन्यास छपवाओ । “

मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था । दिल जो सम्भावना व्यक्त कर रहा था, मेरा दिमाग उसे मानने से इंकार कर रहा था । पर पहली बार मुझे डर भी लगा । क्या यह वाक़ई भूत-वूत का चक्कर था ?

ख़ैर ! जो भी हो, मैंने चाचाजी का पूरा उपन्यास शुरू से अंत तक पढ़ा और मुझे दसवाँ अध्याय लिखने के लिए एक संभावित अंत सूझ ही गया । मुझे लगा कि यदि चाचाजी जीवित होते तो उन्हें भी यह संभावित अंत पसंद आता । फिर तो मैंने दो-चार दिन में चाचाजी के उपन्यास का अंतिम दसवाँ अध्याय लिख लिया । इसके बाद चाचाजी की किताबों के एक प्रकाशक से बात करके मैंने पुस्तक के प्रकाशन के लिए अंतिम कांट्रैक्ट साइन कर लिया । तीन महीनों के भीतर उपन्यास छप कर आ गया ।

उपन्यास की प्रतियाँ लेकर मैं चाचा जी की स्टडी में गया । मैंने उस डायरी का वही पृष्ठ खोला जहाँ ‘ दसवाँ अध्याय लिखा हुआ था । मैं फिर से हैरान रह गया । चाचा जी की खूबसूरत लिखावट में पिछली पंक्तियों के नीचे लिखा था —

“ बेटा, मैं तुम्हारा आभारी हूँ कि तुमने मेरी मनोकामना पूरी कर दी ।

अलविदा । “

मैं नहीं जानता, यह सब क्या था । पता नहीं, भूत होते हैं या नहीं । लेकिन उस दिन के बाद उस डायरी में फिर कभी कोई नई पंक्ति लिखी हुई नहीं पाई गई ।

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प्रेषक: सुशांत सुप्रिय

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गौड़ ग्रीन सिटी,

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इंदिरापुरम्,

ग़ाज़ियाबाद- 201014

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