समंदर और सफेद गुलाब
3
धीरे-धीरे आश्रम में श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी और मेरी उलझन उससे भी ज्यादा बढ़ गई। मैं आश्रम में शांति का दूत माना जाता था लेकिन मेरा मन अशांत समंदर की तरह खौलता रहता। मैं चाहता तो था कि किसी दिन मुझे मंजिल मिले, लेकिन संघर्ष खत्म न हो। पर पता नहीं मेरे साथ यह क्या हो रहा था। मैंने पहले भी कई बार देखा है कि मुझे चीजें बहुत आसानी से मिल जाती हैं लेकिन संघर्ष बहुत जल्दी खत्म हो जाता है। मेरा दुखी होने का सबसे बड़ा कारण यह भी था। बात भी सही है, जब हम किसी चीज के लिए संघर्ष करते हैं और उस मंजिल को पाने के लिए सालों-साल लगते हैं, तो हासिल हुई मंजिल को जीने का मजा ही कुछ और होता है लेकिन जब चीजें आराम से मिल जाती हैं, जिनमें संघर्ष न हो, उन चीजों का आप आनंद नहीं ले सकते।
ऐसा ही कुछ-कुछ मेरे साथ घट रहा था। लोग कई बार सारी जिंदगी बिता देते, उन्हें कोई मुकाम हासिल नहीं होता लेकिन मेरे साथ परिस्थिति बिल्कुल अलग थी जिसके चलते मैं अपने आप को अधूरा समझता। सब कुछ पा लेने के बाद भी अधूरा। आदमी जब सब कुछ पा लेता है तो उसका सफर खत्म हो जाता है और आदमी भी खत्म हो जाता है। कहते हैं न कि जब तक हमारी इच्छाएं हैं, तब तक हमारे पास जीने का एक मकसद है। जब इच्छाएं खत्म हो जाती हैं तो जीने का मकसद भी खत्म हो जाता है। तब आदमी चिड़चिड़ा हो जाता है। एक कहावत मैंने सुनी थी, चीन में जब किसी को कोई श्राप देना होता है तो वह कहता है कि जा तेरे सारे सपने पूरे हो जाएं!
सारे सपने पूरे होने का मतलब है कि आदमी के पास सचमुच जीने का मकसद खत्म हो जाए। मेरे स्वभाव में भी एक ऐसा परिवर्तन देखने को मिल रहा था। मुझे अपने आप से नफरत सी होनी शुरू हो गई थी। मेरा मन पता नहीं कौन से विचारों में खोया रहता। धीरे-धीरे मुझे यह भी लगने लगा कि जो इतने श्रद्धालु आश्रम में आते हैं और मुक्ति की तलाश करते हैं, मैं उन्हें गुमराह करने का काम कर रहा हूं। कभी-कभी सोचता हूं, वे लोग यहां आकर इतनी सेवा भी करते हैं और काम भी लेकिन उन्हें मजदूरी के रूप में कुछ नहीं मिलता। मैंने अपने मन की शांति के लिए धीरे-धीरे साधुओं से ज्ञान लेना शुरू कर दिया। कुछ साधुओं ने वेदों की, उपनिषदों की कथा सुनाई लेकिन मेरा मन विचलित ही रहा। आश्रम में कई साधु आते, कई बार मेरा मन करता कि उन साधुओं से पूछूं कि मुक्ति का मार्ग क्या है। आखिर मैडिटेशन होगा कैसे? लेकिन मैं ऐसा कर न पाया क्योंकि मेरा अहम बीच में आ जाता। मैं अक्सर सोचता कि कोई देखे-सुनेगा तो क्या कहेगा। अब मैं बहुत बड़ा आदमी बन गया था। सबके साथ मिलजुल नहीं सकता था। इतना बड़ा महात्मा जिसने कई मुक्ति का राह दिखाना है, वह खुद साधुओं से मुक्ति का मार्ग पूछेगा, नहीं यह नहीं हो सकता।
लोग मेरे पास बड़ी-बड़ी अजीब समस्याएं लेकर आते। मुझे याद आया जब मैं नया-नया आश्रम में आया तो लोग मेरे पास समस्या लेकर आते थे। उन दिनों एक औरत मेरे पास आई जो हिन्दुस्तान के चंद अमीर माने जाने वाले लोगों में से एक थी। उसने मुझसे मिलने के लिए अप्वायंटमैंट ली थी। वह अकेली मुझसे बात करना चाहती थी। उसने कहा था, ‘बाबा जी मैं बहुत परेशान रहती हूं। मेरे पास किसी चीज की कमी नहीं। नौकर-चाकर आगे पीछे घूमते हैं। एक फोन कर दूं तो दुकानदार महंगी से महंगी चीज घर छोड़ जाते हैं लेकिन बाबा जी मन की शांति नहीं है, मन बेचैन रहता है। बेचैनी इतनी है कि मां-बाप याद आते हैं। मायका पूरी तरह से मेरे दिल-दिमाग पर हावी हो जाता है। कई बार मन करता है कि समाज के सारे नियमों को तोडक़र बंधनों से मुक्त होकर मां-बाप के पास चली जाऊं पर मैंने मां-बाप के साथ बात भी की लेकिन वे नहीं मानते। पैसा होने के बावजूद शायद वे अब भी दकियानूसी विचारों के हैं।’
उसकी बातें सुनकर मुझे हंसी आ गई। मेरी हंसी पर वह हैरान हुई और कहने लगी, ‘आप हंस क्यों रहे हैं?’ मैंने बड़े सहज भाव से उत्तर दिया, ‘तुम एक औरत है। तुम प्राकृतिक तौर पर ही रचनात्मक हो क्योंकि संसार का सृजन तुमसे होता है। जो आदमी कुछ नया सृजन करता है, मेरी नजरों में वह महान है। स्त्री बच्चे को जन्म देने के लिए सृजन प्रक्रिया में पड़ती है। जब तक वह इसे नहीं पाती, अपने आप को अधूरी समझती है लेकिन कुदरत ने पुरुष को इस सृजन से अधूरा रखा है। इसलिए आदमी सारी जिन्दगी कुछ न कुछ नया सृजन करने की सोचता रहता है। कुदरत ने जो नजारा स्त्रियों को दिया है, वह आदमियों में नहीं है। देखो, कितनी अजीब बात है, लडक़ी पैदा होती है, बड़ी होती है, फिर वह शादी के बाद अपने ससुराल घर चली जाती है। हमारे समाज ने एक औरत को कितनी बड़ा परिवर्तन दिया है, जो आदमी को नहीं मिलता। आदमी जिस घर में जन्म लेता है, उसी घर में सारी जिन्दगी बंधा रहता है। औरत को पहले परिवर्तन मिलता है, फिर सृजन प्रक्रिया और धीरे-धीरे सृजन प्रक्रिया के कुदरती गुण उसमें कम होते जाते हैं, जिसे मैडिकल दुनिया में हार्मोनल चेंज कहते हैं।
स्त्री को एक बार फिर लगता है कि उसके सारे शरीर के अंदर कुछ तब्दीलियां आनी शुरू हो गई है, जिन्हें वह हंसकर स्वीकारती है। जैसे-जैसे वह उम्र के पड़ाव को पार करती है, उसके अन्दर मर्दों वाले गुण आने शुरू हो जाते हैं। जैसे दाढ़ी-मूंछ आना इत्यादि। यह कितना बड़ा परिवर्तन है कि औरत होते हुए उसमें आदमियों के वाले गुण आने शुरू हो जाते हैं। जैसे दाढ़ी-मूंछ आना इत्यादि। यह कितना बड़ा परिवर्तन है कि औरत होते हुए उसमें आदमियों के लक्षण आने शुरू हो जाते हैं। फिर उसे लगना शुरू हो जाता है कि उस निराकार को मिलने का समय नजदीक आ रहा है। फिर वह मोह-माया त्यागकर धीरे-धीरे प्रभु की भक्ति में लीन होने में विश्वास रखने लगती है। आदमी का जीवन इससे बिल्कुल विपरीत है। पूरी जिन्दगी में कुछ न कुछ अलग करने के चक्कर में अपनी पूरी उम्र गंवा देता है, फिर भी औरत की तरह कुछ अलग क्रिएट करने में असमर्थ रह जाता है।
मर्द की जिन्दगी में कोई परिवर्तन नहीं। सारी जिन्दगी अपनी जिम्मेदारियां निभाता हुआ सड़ता रहता है, खटता रहता है, खपता रहता है।’
मेरी बातें सुनकर उस औरत की आंखों में आंसू आ गए। वह मेरे पैरों में गिर पड़ी और कहने लगी, ‘बाबा जी आपने तो मेरी जिन्दगी को जीने के अर्थों को ही बदल दिया है। मैं जिस सृजनात्मक शक्ति को बोझ समझती थी, उसी बोझ के चक्कर में एबार्शन तक करवाना चाहती थी। उसी चक्कर में मैं अपने मां-बाप के घर भी जाना चाहती थी और मुझे मां-बाप का घर छोडऩे का दुख भी होता था और मुझे लगता था कि मेरी फीगर खराब हो जाएगी लेकिन आपने तो मेरे भीतर ज्ञान का दीपक ही जला दिया है। यह तो वही बात हुई कि हिरण सारा जंगल मारा-मारा फिरता है लेकिन कस्तूरी उसके अंदर ही बसती है।’
उसके कहने पर मेरे मुंह से भी निकल गया ‘तमसो मा ज्योतिर्गम्य’ अर्थात ‘हे प्रभु मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाओ।’
वह महिला मेरे पांव को हाथ लगाकर निकल गई। मैं उसके जाने के बाद भी पता नहीं कितनी देर वहीं बैठा न जाने क्या-क्या सोचता रहा।’
‘सच कहूं, वह एक औरत की कहानी...ऐसे कई लोग अपनी समस्याएं लेकर आते हैं और शांति से चले जाते हैं।
मेरी परेशानी का आलम इतना बढ़ गया कि मैं सोचनेे पर मजबूर हो गया। मुझे लगा कि लोगों को प्रकाश की ओर ले जाकर मुक्ति मार्ग तक पहुंचाना यहां का एक पर्याय बन गया है। लेकिन खुद अंधेरे बंद कमरों में कैद होकर रहना, क्या मुक्ति मार्ग है। यह उलझन मेरे दिमाग में मेरे साथ-साथ हमेशा चलती। मुझे लगने लगा है कि सब कुछ पाखंड है। मेरे अंदर एक अशांत समंदर है, जो कभी शांत नहीं होता। मेरे मन में ख्याल आया कि यह जो चोला मैं पहनकर बैठा हूं, इसे उतार कर फैंक दूं। यही मेरे दुखों का कारण है, यह न होता तो मेरी जिन्दगी में अंधेरा न होता। समय अपनी रफ्तार से चल रहा था। मेरा मन इन दिनों बेचैन ही रहता था।
इन दिनों हमेशा इस बंधन से मुक्त होने की बातें मेरे मन में आती थीं। मैं जहां जाता, हर वक्त मेरे साथ कई लोगों का पहरा रहता। कोई आगे चलता, कोई पीछे चलता। मुझे हमेशा लगता कि मेरी आजादी खत्म हो गई और मैं गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ हूं। ऐसे ही कई विचार मेरे मन में धीरे-धीरे हावी होने लगे थे।’
कई बार मुझे ऑस्ट्रेलियन डिंगो नस्ल के कुत्ते की याद आती है। वह भौंक नहीं सकता। असल में यह चीज उसे बाकी कुत्तों से अलग तो करती है लेकिन कहीं न कहीं न भौंकने का गम तो उसे भी होता होगा क्योंकि कुदरत ने उससे उसका हक ही छीन लिया है और जीने का मकसद भी। मुझे अपनी हालत उस डिंगो कुत्ते की तरह लग रही थी। कई बार सोचता हूं कि रात के अंधेरे में निकल जाऊं। लेकिन फिर सोचता हूं कि यहां से निकला तो खत्म हो जाऊंगा। भौतिक सुख यहां सहज ही मिल रहा है। नहीं तो उसके लिए भी दर-ब-दर की ठोकरें खानी पड़ेंगी।’ कहते-कहते उसने गहरी सांस ली और कहा, ‘छोड़ो यार इस बात को, कुछ और बात करते हैं।’ हम लोग थोड़ी देर और बैठे। चाय पी और विदा लेकर वापस आ गए।
******
हम लोग आश्रम से लौटे तो पाया कि मानव जी बहुत बढिय़ा नाश्ते का इंतजाम करके हमारा इंतजार कर रहे थे। नाश्ता करते-करते मानव जी ने कहा, ‘उन लोगों ने आपके साथ सही नहीं किया। आपको कोई प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी। उस साले ने तो आपको आने-जाने का किराया भी नहीं दिया लेकिन उसने आपके साथ वादा किया था कि आपको जहाज का आने-जाने का किराया देगा।’
मैंने मानव जी की बात सुनी और कहा, ‘कोई बात नहीं मानव जी। उसने जो कुछ भी मेरे साथ किया मैं उससे जरा भी दुखी नहीं हूं बल्कि मैं तो खुश हूं कि उसने मुझे मेरे अंदर उन चीजों को देखने का भी अवसर दिया है, जिन्हें मैं जिंदगी में करता ही जा रहा था लेकिन कभी उनका उत्सव नहीं मना पाया। लोग कहते थे कि आपकी रचना अच्छी है, तो मैं उनकी हां में हां मिला देता था। कुछ देर के लिए मैं खुश होता लेकिन फिर से मेरा मन किसी अंजान जंगल में भटकने लगता।
खैर, इन लोगों ने मेरी भटकन को दूर करने में मेरी सहायता की है। मानव जी, आप नहीं जानते... मैंने जिंदगी में बहुत सी चीजें इसी भटकन के चक्कर में छोड़ दीं। मुझे लगता था कि यही जिंदगी है। असल में कल के बाद ही मुझे जिंदगी के बारे में गहराई से सोचने का मौका मिला और मैंने खूब सोचा। आप लोग सो रहे थे, तब भी मैं सोचता ही रहा। मैं चाहता तो रिएक्ट कर सकता था लेकिन मैं कुछ नहीं बोला था, क्योंकि मेरे अंदर विद्रोह की स्थिति पैदा हो गई थी। सच पूछिए तो जिंदगी में जब-जब भी मैं विद्रोह को गले लगाता हूं, कुछ न कुछ करिश्मा ही होता है। यह बात मैंने भी नोटिस की थी कि बाहर से आया हुआ प्रोड्यूसर एक डायरेक्टर के हाथों कैसे लुट रहा था। आपने देखा नहीं, जब मैं कुछ नहीं बोला तो वो निर्माता मेरी मिन्नतें करता रहा और कई वायदे करता रहा लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ, क्योंकि मेरे अंदर विद्रोह अपनी पीक पर पहुंच गया था। उसके बाद जब वह नहीं माना तो मैंने उससे कहा, ‘कोई बात नहीं... ठीक है, मैं कोई और रोल कर लूंगा।’ इस तरह बात रफा-दफा हो गई थी। फिर आपको पता ही है कि इतना कहने के बाद अनिल, प्रोफैसर और मैं उस स्टूडियो से निकल आए थे।’
खाना खाकर अनिल ने कहा, ‘आकाश जी.. अब हम निकलें? ..जाने में भी समय लग जाएगा और दो घंटे पहले एंट्री भी लेनी है.. मुझे भी आकर नींद पूरी करनी है क्योंकि कल एक होटेल में एक फिल्म की प्रोमोशन के लिए प्रैस कांफ्रैंस पर जाना है। कई दिनों से लगातार प्रैस कांफ्रैंस आ रही हैं। हमारी तो मजबूरी है, जाना ही पड़ता है। अच्छा खाना, पीने को दारू और पांच सौ रुपये की लिफाफा ही हमारी जिंदगी बन गई है।’
बात करते हुए अनिल भावुकता के स्तर पर पहुंच गया था। मेरी दिलचस्पी अनिल की बात सुनने में हो गई।
अनिल आगे कहने लगा, ‘इतने वर्ष हो गए इस शहर में रहते हुए, मिला क्या...? शादी तक नहीं हो सकी..आपको लगता है, यह एक अनिल की कहानी है लेकिन ऐसे कई अनिल इस मायानगरी में भरे पड़े हैं। क्या-क्या ख्वाब लेकर मुंबई आया था।..खैर छोड़ो! मैं इस बात को याद नहीं करना चाहता।’
मैंने जल्दी से सामान उठाया और उनसे विदा ली। जाते हुए केवल इतना ही कह पाया, ‘अगर भगवान ने चाहा तो जल्दी ही एक उपन्यास लिखूंगा और आपको जरूर भेजूंगा। अरे नहीं..भेजूंगा नहीं बल्कि खुद यहां देने आऊंगा। उससे पहले सब मिलकर यहीं उस उपन्यास का विमोचन करेंगे।’
मेरी बात सुनकर सब लोग हंसने लगे। हम सब की हंसी एक-दूसरे की हंसी में घुल गई थी।
हमने टैक्सी की और एयरपोर्ट की तरफ निकल पड़े। मुझे चुप देखकर अनिल कहने लगा, ‘असल में मुम्बई आने से पहले हर आदमी सही होता है। फिल्म बनने से पहले तो निर्माता ने मुझसे भी वायदा किया था कि उसकी फिल्म की प्रोडक्शन मैनेजर की जिम्मेदारी रहेगी। मैंने कई कन्सन्र्ड लोगों से उसे मिलावाया भी था लेकिन आखिर में वह डायरेक्टर की झोली में जा गिरा। बात यह है कि दोनों ने आपस में सांठगांठ करके मुझे किनारे कर दिया। आपको याद है न, जिस दिन आपने सुबह मुझे शूटिंग पर चलने के लिए कहा था, मैंने मना कर दिया। क्योंकि फिल्म बनने से पहले मेरी भूमिका ही खत्म हो गई थी। मैंने आपसे बात नहीं की थी क्योंकि मैं आपका दिल नहीं दुखाना चाहता था। कोई बात नहीं, अंत में मेरे पास ही आएगा क्योंकि जब उसकी सांसें रुकने लगेंगी तो मैं ही उसकी छाती पर मालिश कर-करके उसकी सांसें बाहर निकालूंगा। स्साला...झांगी का झांगी ही रहा। हमेशा कहता है ‘हेक डू, दो डू, मुड़ डू, वाल डू, डवाल डू...।’
अनिल फिर गुस्से से बोला, ‘इसका तो मैं डवाल डू बनाऊंगा जब किसी अखबार में इसकी खबर लिखकर नहीं भेजूंगा। फिर यह जार-जार रोएगा और मैं फिर कहूंगा, ‘हेक डू, दो डू, मुड़ डू, वाल डू, डवाल डू...।’
हम बातें करते-करते पता ही नहीं चला कि कब एयरपोर्ट आ गया। टैक्सी ने टैक्सी रोक दी तो हमें आभास हुआ कि हम एयरपोर्ट पहुंच चुके हैं। अनिल विदा लेते हुए बोला, ‘बाकी बातें फोन पर हो जाएंगी। यह मायानगरी की माया, कोई न जान पाया।’
सारी औपचारिकताएं वही थीं, जो आते वक्त थीं। जहाज टर्मिनल पर लगा हुआ था और मैं अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। बैठते ही मैं सोचने लगा कि असल में आज मेरे अंदर फिर से विद्रोह की भावना ने जन्म ले लिया था। शायद यही कारण था कि मैंने कोई विरोध नहीं किया था। यही नहीं आज मुझे अपने लिखने पर फख्र होने लगा था। मुझे लगा था कि यह विद्रोह ही मेरी जिंदगी का हिस्सा है। कृतियों के रूप में मेरे अंदर जो फूल खिले हुए हैं, अचानक मुझे उनका ध्यान आने लगा। मुझे लगने लगा कि कैसे पढऩे वाले मेरे उपन्यासों की बात करते हैं। बड़े-बड़े सैमीनारों में उनकी चर्चा होती है। यह सोचकर मेरा मन खुशी से भर गया। मुझे ऐसा लगने लगा कि जो खुशबूदार फूल मेरे अंदर पनपा हुआ है मुझे उसे हर हाल में बचाना है। आज फिर से मेरे अंदर कई सालों के बाद विद्रोह ने जन्म लिया था। इसी विद्रोह से मैं जान पाया कि यह विद्रोह ही एक वजह है, जिसके चलते मैं अपने अंदर के खिले हुए फूल को जिंदा रख सकता हूं। यहां तो उसे खुराक मिलनी ही बंद हो जाएगी।
मुझे अचानक बलवंत गार्गी द्वारा रजिंदर सिंह बेदी के ऊपर लिखा हुआ रेखा चित्र स्मरण हो आया जिसमें उसने लिखा है कि ‘रजिंदर सिंह बेदी बहुत अच्छा साहित्यकार था। वह रेडियो स्टेशन की नौकरी छोडक़र अपने परिवार को छोडक़र मुंबई भाग गया था। एेसा नहीं कि उसे काम नहीं मिला उसने कई फिल्में लिखीं लेकिन वह कोई अच्छी रचना नहीं लिख पाया। हालांकि बेदी ने ‘एक चादर अधोराणी’ उपन्यास लिखा था जिस पर फिल्म ‘एक चादर मैली सी’ बनी थी लेकिन वह अपने आखिरी दिनों में वह बहुत उदास था और समंदर के किनारे पर सैर करता हुआ एक दिन वह बलवंत गार्गी से पूछता है कि ‘ये लोग जो यहां पर आ-जा रहे हैं, क्या वे जानते हैं कि मैं रजिंदर सिंह बेदी हूं।’
मुझे लगता है कि वे लोग जानें चाहे न जानें लेकिन वह खुद भी अपने नाम से इतना दूर हो गया होगा कि अपना नाम भूल गया होगा। शायद उसकी जिंदगी उस मोर की भांति हो गई होगी, जो नाचते-नाचते अपने पैरों को देखकर रोने लगता है। शायद, वैसी हो गई होगी जैसी हीरा तराशने वाला आदमी पत्थर तोडऩे पर लग गया हो। शायद उसे लगता होगा कि जो एक उपन्यास में एक संसार बसा देता था, अब वह दो-तीन घंटे की किसी फिल्म तक ही सिमटकर रह गया है। इस शहर में उसे पैसा तो मिला होगा लेकिन उससे लेखक के उस फूल छीन लिया जिससे खुशबू आती थी और हिंदुस्तान एवं पाकिस्तान को महकाती थी।
लेकिन सफेद गुलाब को कौन जानता है? वैसे भी बेदी से ज्यादा लोग तो गुलशन नंदा को जानते होंगे। बेदी ‘क्लास’ राइटर था और गुलशन नंदा ‘मास’। अब क्लास और मास में अंतर तो होता ही है। फिल्में केवल मनोरंजन के लिए लिखी जाती है और क्लास राइटिंग में कहीं न कहीं दीप जले होते हैं और विभिन्न तरह के फूल खिले रहते हैं जो समय आने पर अपनी खुशबू का अहसास करवाते हैं और मुसीबत में वे दीप प्रज्ज्वलित होकर आपको रास्ता भी दिखाते हैं।
सोचते-सोचते मुझे लगा कि मेरा मन आनंद से भर रहा है। उसी विद्रोह भरे आनंद में मैंने अपने मोबाइल से अपनी पत्नी को फोन लगाया और बताया कि मैं एयरपोर्ट जा रहा हूं और वहां पहुंचते ही सुबह की शताब्दी पकडक़र दोपहर तक पहुंच जाऊंगा।
मेरी बात सुनते ही बोली, ‘आप तो सात दिन के बाद आने वाले थे।’
पत्नी तो जैसे मेरे आने की बात सुनकर गद्गद् हो गई थी। कहने लगी, ‘ठीक है, मैं कल आपके लिए आपकी मनपसंद के व्यंजन बनाकर रखूंगी और हां... चिंता न करना। गाड़ी पहुंचने से पहले फगवाड़ा आकर फोन कर देना, बेटा आकर ले जाएगा कार में।’ उसकी आवाज लगातार आ रही थी।
आज रेलगाड़ी उल्टी दिशा में बढ़ रही थी...मुझे भी आज सुकून मिला था। ट्रेन में पैंट्री कार वाले अपना सामान लेकर इधर-उधर जाने लगे थे। गाड़ी अपनी गति से चल रही थी। मैंने आंखें बंद कीं और अपने बारे में सोचने लगा। आज मेरा मन हल्के फूल की तरह था। शायद, मेरे अंदर जो वर्षों से सफेद गुलाब पनप रहा था वह मैं कहीं मुंबई के समंदर में ही फैंक आया था।
******