Sumandar aur safed gulaab - 3 - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

समंदर और सफेद गुलाब - 3 - 2

समंदर और सफेद गुलाब

2

इस बीच राहुल ने मेरा पासपोर्ट बनवाकर मुझे अमेरिका भेज दिया। कुछ दिन लगे थे आपरेशन होने को। आपरेशन कामयाब हुआ था। जिस दिन मुझे डाक्टर ने आईना देखने के लिए तो मैं डरा-डरा आईने के सामने जा रहा था। डाक्टर की आवाज आई, ‘हमने आपको अच्छा बनाया है, बुरा नहीं।’ उसने हिन्दी में अपनी बात कही क्योंकि वह डॉक्टर हिंदुस्तानी था।

‘इसी बात से तो डर रहा हूं, मुझसे कहीं अपनी ही खुशी बर्दाश्त न हुई तो?’

खैर, जब मैं आईने के सामने पहुंचा तो अपना चेहरा भी नहीं पहचान पाया। अपना चेहरा देखकर मैं खुश था और खुशी के आंसू मेरी आंखों में आ गए। अभी मैं आईना देख ही रहा था कि डायरैक्टर राहुल भी अंदर आ गया। उसे देखकर मैं हैरान रह गया। डॉक्टर चला गया और हम लोग बातें करने लगे। बातों ही बातों में राहुल ने बताया कि ‘ हम लोग आज ही इंडिया के लिए निकलेंगे और कुछ ही दिनों के बाद शूटिंग शुरू हो जाएगी। सारे सैट और लोकेशन्स तैयार कर लिए गए हैं।’

प्रैस कांफ्रैंस का दिन आ गया। उसी दौरान अनिल से दोस्ती हुई थी। उस दिन किसी अखबार के लिए अनिल ने मेरा इंटरव्यू लिया था और जिंदगी का वह मेरा पहला इंटरव्यू था। अनिल ने फिर पती नहीं उसे कितनी जगह छपवाया जिसके चलते हमारे संबंध प्रगाढ़ हो गए थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था। प्रैस वाले बार-बार फोटो खींच रहे थे। फाइव स्टार होटेल की शानो-शौकत, शराब की बोतलें और मांस-मछली के चक्कर में लाखों रुपया खाक हो जाना था। आज पहली बार मुझे फिल्म इंडस्ट्री सचमुच मायानगरी लगी थी। मुझे नफरत सी हुई थी। अंदर से मैं खीझ रहा था और मुझे कोफ्त हो रही थी। क्या है यह सब?

उस दिन अनिल ने पूछा था, ‘आप राम के रोल में अपने आप को कितना फिट समझते हैं?’

इस पर मैंने तपाक से जवाब दिया, ‘इसके बारे में तो राहुल जी ही बता सकते हैं या फिर सीरियल देखने के बाद जनता ही फैसला लेगी।’

धीरे-धीरे पार्टी शुरू हो गई। सब पत्रकार एवं लोग खाने-पीने में जुट गए। मैं और मेरे दोस्त एक कोने में बैठकर पार्टी वालों को खाली निहार रहे थे।

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सीरियल शुरू हो गया और चल निकला। मेरी तस्वीरें लोगों के घर-घर जानी शुरू हो गईं। अखबारों और मैगजीनों में मेरी तस्वीर छपती तो मैं मोर की भांति नाच उठता। शुरू-शुरू में तो मैंने कुछ कटिंग्स रखीं लेकिन धीरे-धीरे बंद कर दीं। मुझे लगा कि मैं इतनी कटिंग्स संभाल नहीं पाऊंगा। जब सीरियल शुरू होता तो गलियों में सन्नाटा पसर जाता। राहगीर जहां से गुजरते वहीं रुक जाते। हालात यहां तक आ पहुंचे कि मैं अकेला अब सडक़ पर भी नहीं जा सकता था। मुझे देखते ही लोग चिल्लाने लगते। कोई आटोग्राफ मांगता तो कोई फोटो खिंचवाने की जिद करता। मेरे इर्द-गिर्द भीड़ जमा हो जाती। मुझे पुलिस स्टेशन से फोन आ गया था कि आप अकेले बाहर नहीं जाएंगे। जब भी आपको कहीं जाना हो, आप हमें इत्तलाह करेंगे। साला..मैं तो गुलामी की तरफ बढ़ रहा था, मुझे ऐसा महसूस हुआ। मेरी आजादी तो गुम होने लगी थी। मेरी आजादी और गुलामी के बीच लोग और पुलिसवाले आ गए थे।

दिन-रात शूटिंग चल रही थी। बड़े-बड़े होटलों में पार्टियां होतीं। राम का कैरेक्टर इस कदर लोगों के दिमाग पर हावी हो गया कि लोग मुझे सचमुच राम ही समझने लगे। मैंने तो यहां तक भी सुना कि लोग जब रामायण देखते तो अपने जूते टी.वी. वाले कमरे में न उतारकर बाहर ही उतार देते थे। कुछ लोग तो नहा-धोकर टी.वी. के आगे बैठते। कुछ लोग रामायण सीरियल शुरू होते ही टी.वी. के आगे धूप-बत्ती करते। इस बीच मुझे हिन्दुस्तान के कई कोनों से न्यौते आने लगे थे, जिसके लिए मुझे पैसा मिलता था।

शुरू-शुरू में तो मैंने अपने सैक्रेटरी को पैसे लेने से मना कर दिया था लेकिन उसने बताया कि ‘ले लीजिए सर..चार दिन की चांदनी है, फिर कोई नहीं पूछेगा। बड़े-बड़े स्टार पानी के बुलबुले की तरह खत्म हो जाते हैं। यह स्टारडम भी एक पानी के बुलबला ही है।’

धीरे-धीरे मुझे भी यह फंडे समझ आने लगे थे। मैं समझ गया था कि मेरी इमेज को कैश करवाने की कोशिश की जा रही है। अब मेरे दिमाग से विचार निकलने लगा था और पैसा आने लगा था। सोचनेे का समय खत्म ही हो गया था। ऐसा लगता था जैसे मैं पैसा कमाने की मशीन बन गया हंू। यह समझ में ही नहीं आता था कि पैसा किस तरह और किधर-किधर से आ रहा है। इसके लिए मुझे अलग से चार्टेड अकाऊंटैंट का इंतजाम करना पड़ा था।

देखते ही देखते मेरे जीने की तरीका बदल गया था। कोई समय था जब दोस्तों से बात करता-करता थकता नहीं था लेकिन समय ने करवट ली कि अब किसी से बात करने की फुर्सत ही नहीं थी। राजनीतिक पार्टियां भी मुझे भुनाने लगी थीं।

इलैक्शन के दिन आ गए थे। इलैक्शन का एक बहुत बड़ा नेता मेरे पास आया और कहने लगा, ‘आप हमारी पार्टी के लिए प्रचार करो।’

मैंने तुरंत कहा, ‘प्रचार और मैं...? मेरा पॉलिटिक्सि से कोई सरोकार नहीं। मैं पॉलिटिक्स में विश्वास नहीं करता और न ही मुझे पॉलिटिक्स अच्छी लगती है।’

नेता ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘आपको पॉलिटिक्स अच्छी लगे या न लगे लेकिन आप फिर भी पॉलिटिक्स में इनवॉल्व हैं, क्योंकि पॉलिटिक्सि अपने आप लोगों में इनवॉल्व हो जाती है। भारत तो वैसे भी लोकतांत्रिक देश है। आप भी उसी लोकतंत्र का हिस्सा हैं। बिना पॉलिटिक्स के आप कैसे जी पाएंगे?’

उसकी बात सुनकर मैं निरुत्तर हो गया और कहा, ‘बताइए कि आप क्या चाहते हैं मुझसे?’

‘बस, कुछ खास नहीं। हम यह चाहते हैं कि आप हमारी पार्टी के लिए प्रचार करें। भाषण हम लिखकर देंगे। आपका चेहरा भीड़ इकट्ठी करने के लिए काफी होगा। आप चाहेंगे तो आपको टिकट देकर मैंबर आफ पार्लियामैंट भी बना देंगे। लेकिन इससे भी बड़ी एक स्कीम आपके लिए मेरे पास है। वो यह कि आप राम के नाम से पूरे देश में मशहूर हो चुके हैं। बच्चा-बच्चा आपको चाहने लगा है। आप चाहेंगे तो हम मुम्हई के नजदीक आपको एक आश्रम बना देंगे जहां आप खाली मठाधीश बनकर बैठे रहेंगे और आने-जाने वाले को आशीर्वाद देंगे।’

उसकी बात सुनकर मैं अचम्भित हो गया था। एक सन्नाटा हम दोनों के बीच पसर गया था। उस सन्नाटे को उसने चीरा और कहा, ‘सॉरी राम जी कोई भी मंजिल आखिरी मंजिल नहीं होती, कोई भी सफर आखिरी सफर नहीं होता। ये जिन्दगी के रास्ते हैं, जिन पर हम चलते हैं और हमें निरन्तर चलते रहना चाहिए। पानी खड़ा हो जाए तो उसमें काई जम जाती है और वैसे भी आपको तुरन्त फैसला लेना होगा। अवसर आपके दरवाजे पर खड़ा होकर आपकी हां का इंतजार कर रहा है वर्ना लोग तो बहुत हैं। गया वक्त हाथ नहीं आता। बस हां कहिए और हमारे रंग में रंग जाइए।’

अभी मैं कुछ ठीक से बोला भी नहीं था तो वह कहने लगा, ‘ठीक है, आप राजी हो गए, मैं अभी हाईकमान को आपका फैसला बता देता हूं।’

उसने जेब से मोबाइल निकाला और फोन करने लगा। हम बैठकर इधर-उधर की बातें करने लगे। देखते ही देखते मेरे कानों में आवाज पड़ी, ‘राम से आएगा रामराज्य, दुश्मन मुंह की खाएंगे।’ मैं यह समझ ही नहीं पा रहा था कि ये आवाजें कहां से आ रही हैं। मैं उत्सुकतावश अपनी जगह से उठकर बाहर देखने लगा तो पाया कि मेरे ही घर में खड़े होकर कुछ लोग नारे लगा रहे थे।

मेरी हैरानी पर नेता ने कहा, ‘घबराओ नहीं राम जी, अपनी ही पार्टी के आदमी हैं। इन नारों का मतलब है कि दुश्मन की दुम पर पटाखे बांध देना और दियासिलाई अपने हाथ में पकड़ लेना।’

कुछ समय के बाद वे सब लोग चले गए और मैं घर में अकेला था।

*****

जगह-जगह पर पार्टी के प्रचार के लिए जलसे होने लगे। जहां-जहां जलसा होता, वहां-वहां मैं साथ जाता। सचमुच भीड़ ऐसे जुटती जैसे मैं सच में भगवान बन गया हूं। लोग पागलों की तरह उन जलसों में आते थे। आदमी पर आदमी चढ़ा होता था। जिस भी मंच पर मुझे जाना होता, वहां पहले से ही एनाऊंसमैंट होने लगती, ‘बस कुछ ही समय में राम जी स्टेज पर पधार रहे हैं। मैं पास के ही एक कमरे में बैठा सुन रहा होता। कई जगह तो भीड़ इकट्ठी होकर मेरी तरफ बढ़ती, मैं उनकी तरफ देखकर डर जाता और दूर हो जाता। उस दिन तो हद हो गई थी। भीड़ इस तरह से बेकाबू हुई कि सारे बंधन तोड़ कर मुझ तक पहुंच गई।

मैं डरकर पीछे की तरफ जा रहा था। भीड़ में से कई लोग मेरे पांव को हाथ लगाने लगे। मैं शर्मसार हो रहा था। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि लोग इस कदर दीवाने थे।

पार्टी के मंत्री मुझ पर बहुत खुश थे। उन्हें लगने लगा था कि मैंने उनका वोट बैंक पक्का कर दिया है। धीरे-धीरे मंचों से यह एनाऊंसमैंट होने लगी थी कि ‘पार्टी जैसे ही जीतेगी, राम जी को मुम्बई में आश्रम बना दिया जाएगा, जहां बाबा जी के दर्शन आम हो सकेंगे। देश का कोई भी नागरिक वहां जाकर बाबा जी के दर्शन कर सकता है। जमीन का एक बड़ा टुकड़ा बाबा जी को दिया जाएगा। कई बार तो मुझे कोफ्त होने लगती क्योंकि इस चक्कर में मेरा असली नाम कहीं दब गया था। मैं रितेश से राम जी हो गया था।’

वही हुआ जो पार्टी चाहती थी। पूरे हिन्दुस्तान में पार्टी बहुमत से जीत गई थी। तस्वीरों से अखबारें भरी पड़ी थी। मुझे लेकर मीडिया ने कई तरह की बातें लिखी थीं। कुछ हक में भी थीं, कुछ नहीं थीं। विरोधी पार्टी वालों का बयान था कि धर्म के नाम पर अब क्या-क्या होने लगा है। जो फिल्म इंडस्ट्री के नाचने-गाने वाले लोग हैं, वह आश्रम चलाएंगे? क्या वह आने वाले कल के भगवान होंगे। ऐसे और भी कई सवाल मेरी तरफ उछाले गए थे। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। मुझे लग रहा था कि मैं नेताओं के हाथ की कठपुतली बन गया हूं। डोर उनके हाथ में है और नचा मुझे रहे हैं। कहते हैं न कई बार हम कम्बल को छोडऩा चाहते हैं लेकिन कम्बल हमें नहीं छोड़ता।

कुछ-कुछ ऐसा ही हाल मेरा था। अब पीछे लौटना असंभव था।

नयी सरकार का शपथ समारोह हो गया था। शपथ समारोह में मैं भी गया था। मेरी सीट पंक्ति में सबसे आगे थी। वहीं से यह एनाऊंस कर दिया गया था कि मुम्बई के मड आइलैंड में एक आश्रम बना दिया जाएगा।

एक खंडहरनुमा कोठी को आश्रम बना दिया गया था। कमरों की मरम्मत करवाकर उनपर टाइलें लगवा दी गई थीं जिससे कमरे चमकने लग गए थे। लगभग एक साल बीत गया था। काम ऐसे चला कि पूछो मत। आश्रम में दिन-रात लोगों का आना-जाना जारी था जो आश्रम की सेवा में काम कर रहे थे। इसी के चलते आश्रम बहुत जल्द बनकर तैयार हो गया था। यह जगह जो कल तक जंगल के रूप में जानी जाती थी, उसमें मंगल हो गया था। आश्रम के एक तरफ मेरी कुटिया थी। वह कुटिया थी या महल...मेरी समझ में नहीं आ रहा था।

मेरे बैठने के लिए अलग से एक पक्की स्टेज बना दी गई थी और सामने बड़े-बड़े हॉल। वहां लोगों के आने के लिए, कीर्तन करने के लिए कई तरह के इंतजाम किए गए थे। इसके बावजूद भी काम दिन-रात चल रहा था। लोग धीरे-धीरे आश्रम में आने शुरू हो गए थे। इस आश्रम का नक्शा इतना सुंदर था जिसका जिक्र विदेशी अखबारों ने भी किया था। अब हफ्ते में एक बार मैं प्रवचन बोलता और लोग ध्यान लगाकर सुनते। अमीर-गरीब, व्यापारी-अधिकारी, मंत्री-संतरी, सब लोग आश्रम में आते और आशीर्वाद लेकर जाते। समय बीतता गया और यह प्रचार होने लगा कि बाबा तो रब्ब के रूप में आया है, जिसने दुनिया का बेड़ा पार लगाना है।

धीरे-धीरे इस आश्रम के कुछ नियम बन गए थे। जो भी इस आश्रम में रहना चाहता है, उसे पचास लाख रुपये फिक्स करवाना होगा और उसे वहां एक रहने के लिए पक्के तौर पर कमरा दे दिया जाएगा, वह अपने हिसाब से आश्रम की सेवा कर सकता है। आश्रम हर बंदे को उसके कार्य की दक्षता के हिसाब से ड्यूटी देगा। धीरे-धीरे सत्ताधारी पार्टी ने मुझसे सम्पर्क किया और कहा कि आप लोगों को मैडिटेशन की तरफ लगाएं। जब मैंने कहा कि ‘मुझे तो मैडिटेशन की कोई नॉलेज ही नहीं है तो मैं कैसे लगा सकता हूं?’

मैडिटेशन सिखाने के लिए मेरे पास बड़े-बड़े बाबा भेजे गए जो मुझे मैडिटेशन के बड़े-बड़े गुण देते। लोगों को तो मैं मैडिटेशन सिखा रहा था और खुद के बारे में सोचता कि मैं कहां से चला था और कहां पहुंच गया। क्या बनना चाहता था और क्या बन गया। मैं एक साधारण सा इन्सान था। लोगों ने मुझे असाधारण बना दिया। मेरे अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार सब भरा हुआ है। मेरे पास सारी सुख-सुविधा है। कुछ पाने की तमन्ना भी है। लेकिन जो पा लिया है वो तो एक्सट्रीम है, इसके बाद क्या?

इसके बाद मेरी यात्रा क्या होगी? मैं कहां से चलूंगा, कहां तक पहुंचूंगा, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मुझे लगता था कि सफर के बिना मेरा शरीर पत्थर का बन गया है जिसमें धडक़न तो है लेकिन बाकी सब मर गया है। इन्द्रियों की सैंसेशन लगभग खत्म है। अन्जाने में मैं क्या बन गया? यही बात दीमक की तरह मुझे अंदर ही अंदर खाने लगी।

आज मुझे पता नहीं नेपोलियन की बात कहां से याद आ गई। नेपोलियन का एक दोस्त था जो चित्रकार था। एक दिन वह दोस्त समंदर के किनारे लेटा हुआ था। लहरें आतीं और उसे छूकर वापस चली जातीं। वह सोच रहा था कि काश यह लहरें मेरे ऊपर से निकल कर जाएं और दोबारा फिर मेरे ऊपर से निकलकर पानी में जा मिलें। अभी वह सोचे ही रहा था कि अचानक नेपोलियन ने आकर उसको झकझोर दिया और कहा, ‘उठ और मेरी बात सुन।’

वह हड़बड़ाहट में उठा और कहने लगा, ‘बोलो..।’

नेपोलियन ने कहा, ‘दोस्त, मैं अपने मुहल्ले में एक सभा बनाना चाहता हूं।’

‘तो बना लो।’ दोस्त ने सहजता से कहा।

नेपोलियन ने उत्सुक होकर फिर से कहा, ‘मेरी बात तो ध्यान से सुनो। अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई और तुम बीच में ही बोल पड़े।’

उसके दोस्त ने फिर सहजता से कहा, ‘सुनाओ।’

नेपोलियन ने कहा,‘अपने मुहल्ले का प्रधान बनने के बाद मैं अपने शहर का प्रधान बनना चाहता हूं। उसके बाद अपनी रियासत का, रियासत के बाद पूरे देश का और उसके बाद मैं अपने देश की सेना बनाऊंगा और उस सेना को ले जाकर फलां-फलां देश जाऊंगा, और फलां-फलां देश जीतूंगा।’

उसके दोस्त ने कहा, ‘बस हो गया..?’

नेपेलियन ने कहा, ‘नहीं, इसके बाद की कहानी सुनो। इसके बाद मैं अपनी सेना को दूसरे देशों की सेना के साथ लड़ाकर उन देशों पर कब्जा करूंगा और फिर आखिर की जिन्दगी फलां जगह पर शांति से काटूंगा।’

नेपोलियन की बात सुनकर उसका दोस्त हंस पड़ा और बोला, ‘अरे दोस्त तुम इतना मारकाट करके जिस शांति को तलाश रहे हो, उस शांति को तो मैं अभी जी रहा हूं।’

ऐसा माना जाता है कि जिस जगह की बात नेपोलियन ने की थी, नेपोलियन की मृत्यु उसी जगह पर हुई थी। सोचेते-सोचेते मेरे अंदर सुनामी तबाही मचाने लगी थी। कहते हैं न, पानी किनारों के बीच-बीच बहता है तो वह गंगाजल भी हो सकता है, निर्मल भी हो सकता है। अगर वह किनारे तोडक़र पार निकल जाता है तो वह केवल तबाही लाता है और तूफान को अंजाम देता है।

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