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तीसरे लोग - 5

5.

उस दिन चाचा का लठैत मंगलू पहलवान किसना का बुलावा लेकर उसके घर की चौखट पर लाठी पटकते हुए आ खड़ा हुआ। अम्मा सुरसतिया ड्योढ़ी पर बैठी बथुए क साग बीन रही थी। मंगलू की ओर उसने प्रश्नसूचक द्रिष्टि से देखा। " परनाम चाची, किसनवा है का ? मालिक बुलाए हैं ऊका। कहे की छोरा ऐसे ही फजूल में धूम के बखत बिगाड़ रहा, चाहे तो मालिस (मालिश) ओर लिखा-पढ़ी का काम में लगाय देंगे। "

भोली अम्मा ऐसे ही मिसिरजी के अहसानो तले दबी थी, यहां तक की उन्हें देवता का दर्जा दे डाला था। मिसिरजी का नाम सुनकर सम्मानवश सिर के पल्ले को आंखों तक खींचती हुई वहां से चिल्लाई --

" किसना ओ किसनवा ! तानि बाहर आव तो। देखि मिसिरजी का बुलावा आया है, तोका चाकरी देय के खातिर। " बुशर्ट का बटन लगाते हुए किसना कमरे के बाहर आया। अम्मा ने मिसिरजी को दुआएं देते हुए किसना को उनका संदेश दीया तो किसना ने तुरंत हामी भर दी नौकरी के लिए और चल दीया मंगलू पहलवान के साथ। वैसे तो किसना हाईस्कूल तक पढ़ा था, परंतु मिसिर चाचा के लिए वह कुछ भी काम करके स्वंय को धन्य कर लेना चाहता था।

" पाय लागूं चाचा। " कहकर किसना ने मूंज की खटिया पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए मिसिरजी को प्रणाम किया।

"अरे आवा आवा किसना, हियां, हमरे बगल में आयके बैठा हो। "

उनके रसपगे शब्दों से गदगद हो किसना ने हाथ बांधे कहा, " हुकुम चाचा। कहिए, क्या सेवा है हमरे लायक ?"

किसना को इशारे से पायताने पर बैठने का आदेश देकर मिसिर चाचा ने प्रेम से उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा, " आईसा है बिटवा की हमार मालिशवाला गांव चला गया, उसकी जोरू बीमार है। तो हम सोच रहे थे तू तो बेकार फिरता है सारा सारा दिन। अब तो तेरी अम्मा भी बूढ़ी हो चली है, सो कितने दिन बेचारी जवान छोकरे की रोटी-पानी का जुगाड़ करेगी। कहो तो तुम्हें मालिश काम में लगाए देते हैं। चार गो पईसा भी आवेगा और एक टाइम का खाना भी मिलेगा। तो का रे, माइश करब हमार ?" कहकर मिसिरजी ने मूंछों को ताव देते हुए बड़ी काइयां नजरों से किसना को ऊपर से नीचे तक कुटिल मुस्कराहट से देखा, परंतु भोला किसना उस विधुर की आंखों में तैरते हवस के लाल डोरों को न देख पाया।

किसना ने दोनों हाथ जोड़कर कहा, " काहे सरमिंदा करते हो चाचा, कल ही से आ जाएंगे। चाचा आपकी सेवा करके इसी बहाने थोड़ा पुण्य कमा लेंगे। " मिसिर जी ने किसना के लड़कियों जैसे भरे गुलाबी गालों को हल्के से खींचते हुए अगले दिन आने का आदेश दीया।

अम्मा तो मारे ख़ुशी के महादेवजी के मंदिर ने नारियल-जल चढ़ा आई। मन ही मन मिसिरजी के दीर्घायु होने की प्रार्थना भी की। किसना को आज और दिन की तरह सुबह आठ बजे तक खटिया पर पड़े खर्राटे भरते ना देखकर अम्मा को बड़ा अचंभा हुआ। अम्मा के मंदिर जाते ही किसना भी सुबह सवेरे ही उठ गया था। कुल्ला-दातुन करके बदन में सरसों के तेल से मालिश की। पचास-एक दंड पेले, फिर गुसलखाने में लाइफबाय साबुन की लाल टिकिया से खूब जमके नहाया। किसना को गमछा पहनकर भगवान् के सामने अगरबत्ती जलाते हुए देखा तो सुरसतिया का मुंह हैरत से खुला का खुला रह गया।

" हंय ! क्या रे बिटवा, आज सूरज का पश्चिम से निकला ?" कहकर सुरसतिया ने बेटे की बलइया ली और एक बताशा उसके मुंह में ठूंस दीया। किसना ने गुनगुनाते हुए सिर पर चमेली का तेल लगाया और गुलाबी रंग के पांड्स पाउडर की दिल खोल के गले में, छाती में, बगल में पाउडर छिड़का, धूलि कमीज को लोटे में दहकते कोयले डालकर इस्त्री किया। अब वह नौकरी के पहले दिन के प्रस्थान को तैयार था। अम्मा के चरण छूकर आशीर्वाद लेते हुए घर से निकला पड़ा किसना।

मिसिरजी के घर की देहरी पर पांव रखा ही था की अंदर से उनकी दहाड़ सुनाई दी। शायद नौकरों को डांट रहे थे। " साला तू लोग सबका सब नमकहराम और कामचोर है। मारे चाबुक के खाल उधेड़ के भूस भर देंगे। हराम का खाय-खाय के ई जो तोंद बढ़ाए हो, चीर के हाथ में धर देंगें समझा तू लोग। अब दफा हो जाओ, काम करो अपना-अपना। "

किसना का कलेजा कांप उठा। उसने मिसिर चाचा का हमेशा सौभाय रूप ही देखा था। उनके व्यक्तित्व के इस पहलूसे वह पहली बार रू-ब-रू हुआ। गला खंखारते हुए तनिक हिचकिचाकर उसने कदम आगे बढ़ाने का साहस जुटाया, पर तब तक उनकी नजर पड़ गई थी किसना पर। " अरे, आओ आओ किसना, वहां काहे खड़ा है रे, आजा भीतर आजा। "

बड़े अजीब आदमी है चाचा भी। पल में रत्ती, पल में माशा। किसना सोचते हुए उनके पास आकर खड़ा हो गया। " पांय लागू चाचा "। किसना को देखकर उनकी बांछें खिल गई। "बैलकम बैलकम (वेलकम) पिलीज (प्लीज) कम हियर। " मिसिर चाचा का यह हल्का-फुल्का मजाकिया मूड देखकर किसना को जितना आश्चर्य हुआ, उससे कहीं अधिक जड़बुद्धि मंगलू पहलवान को अपने मालिक द्वारा कहे गए अंग्रेजी के चंद टूटे-फूटे अल्फाज गदगद कर गए और वह निपट मूरख, मालिक के अंग्रेजी ज्ञान को सुनकर हाथ जोड़े भक्ति भाव से झूम उठा, मानो सुंदरकांड की चौपाई सुन रहा हो।

" ए मंगलू जा तो गिलासभर के भैंसवा का दूध पिला लौंडे को। मालिश करने के लिए बदन को ताकत चाहिए की नहीं ?" कहकर मिसिरजी हो ! हो ! हो ! कर अटटहास कर उठे और किसना उनकी उदारवादित से गदगद हो दुगने जोश के साथ काम करने को ततपर हो उठा। गरीब इस बात से बेखबर था की बलि के बकरे को हलाल करने से पहले भरपेट खिलाया-पिलाया जाता है।

खटिया पर अपना अर्धनग्न जिस्म उघाड़कर मिसिरजी औधें लेट गए। हाथ के इशारे से मंगलू को जाने के लिए कहा। किसना पीतल के कटोरे में सरसों का तेल भर लाया और उनकी चौड़ी लिजलिजी पीठ पर लगा मालिश करने। किसना की कोमल हथेलियों का स्पर्श पाकर वह साठ पार बूढ़ा परमानंद के सागर में गोते खाता हुआ बुदबुदाने लगा, " आ हां ! हां, वह ! कित्ता कोमल हाथ है रे तेरा, बिलकुल मक्खन जैसा मुलायम। जी करता है इन हाथों की चुम्मी ले लूं। " कहकर उस कामांध वृद्ध ने सचमुच ही किसना के दोनों हाथों को चुम लिया, परंतु उस पितृवंचित किशोर को उस चुंबन में हवस का नहीं, स्नेह के स्पर्श का आभास हुआ।

मालिश का सिलसिला यूं ही रोज चलता रहा, साथ ही साथ वह दौड़-दौड़ के मिसिरजी के अन्य छूट-पुट काम भी कर दिया करता था। चूंकि किसना हाईस्कूल पास था, इसलिए मिसिरजी के राजनीतिक कार्य से संबंधित पत्र भी लिख दिया करता था। एक तो उसकी लिखावट और दूसरी उसकी अलंकृत भाषा, दोनों ही अति सुंदर थी। मिसिरजी भी उसकी लिखावट और भाषा के कायल हो चुके थे। " वाह ! बबुआ वाह ! तू तो बहुत गुनी निकला रे। सोच रहा हूं, जो इस बार लोकसभा का इलैक्शन जीत जाऊं तो तुझे ही अपना पिराइवेट सीकटरी (प्राइवेट सेक्रेटरी) रख लूंगा !" और किसना बगल में फाइल दाबे, सूट-बूट में सुसज्जित, मंत्रीजी के आगे-पीछे घूमता हुआ, कल्पना-लोक में खो जाता, ठीक किसी मंत्री के पी.ए. की तरह।

समाज में मिसिरजी का रौब-दबदबा एक राजनेता के रूप में तो था ही, साथ ही धर्मपरायण व्यक्तित्व के रूप में भी वे कम चर्चित न थे। कहीं सुंदरकांड का पाठ रखवाना हो, रामलीला का आयोजन करना हो, जन्माष्टमी की झांकी शहर-भर में फिरदानी हो या शिवरात्रि, होली पर भांगोत्स्व, मिसिरजी के बिना शहर का प्रत्येक धार्मिक आयोजन एक प्रकार से असंभव ही था। जी खोलकर अपनी दो नंबरी कमाई की दौलत इन्हीं अनुष्ठानों पर लुटाते। पाप के पाप भी धुल जाते और वाहवाही मिलती सो अलग।

हमारे समाज में ऐसे बहुरूपियों की कमी नहीं। हर शहर, गली-नुक्कड़ में साधु का मुखौटा पहने शैतान घूमते नजर आते हैं और इन मुखौटों की चमक-चमक देखकर भोली जनता की बुद्धि-विवेचना, आत्मा सभी कुछ तो भ्रमित हो जाती है। सच ही तो है की दौलत अन्य तमाम शक्तियों पर भारी पड़ती है।

उस पितृहीन अभागे लड़के किसना को विधाता न भले ही किसी कमनीय षोड्षी सा गठन और गजगामिनी चाल दी थी, परंतु वह मन से और आत्मा से एक संपूर्ण पुरुष था। रुचियां उसकी लड़कियों सी अवशय थीं, पर भावनाएं थीं पुरुष की। राह चलती किसी सुंदर लड़की को देख, उसके हमउम्र लड़कों की तरह उसके भीतर का पौरुष भी जाग उठता और रातें गुजरती उन्हीं षोडषी श्रीमुख के सपनों को आंखों में समेटते हुए।

इन दिनों मिसिर चाचा की अनुकंपा उस पर कुछ अधिक ही थी। किसना की सेहत का खास ख्याल रखा जाता। कुछ ही दिनों में दूध, मलाई, मेवे के कलेवे से उसके पीतवर्णी कपोल कश्मीरी सेब हो उठे थे और अम्मा सुरसतिया रोज दीया-बाती करते वक्त बेटे के साथ-साथ मिसिरजी की उन्नति और स्वास्थय की प्रार्थना करती ईश्वर के समक्ष।

परंतु न जाने क्यों इन दिनों किसना कुछ परेशान सा जान पड़ता था। दरअसल, कई दिनों से वह गौर कर रहा था की वह जब भी मिसिरजी के पांवों की मालिश कर रहा होता, तो वे अपनी धोती को धीमे-धीमे ऊपर सरकाते चले जाते और किसना का हाथ पकड़कर अपनी जांघों पर धरे सहलवाते। किसना से कहते, " किसना कमीज पहनकर मालिश मत किया कर, तेल के छींटें से चिकट हो जाएंगे। " और किसना उसके आदेश का पालन करते हुए बिना किसी झिझक के कमीज उतारकर खूंटी पर टांग देता, क्योंकि उसके लिए तो किसी पुरुष के समक्ष अर्धनग्न देह में घूमना एक सामान्य बात थी। किसना तो बेचारा, मन से और ईमान से बड़ी श्रद्धा और लगन के साथ मिसिरजी की सेवा करता। जब भी वह उनकी शवेत, लोमष छाती पर तेल लगाकर मालिश कर रहा होता, तो वह हवस का भूखा वृद्ध आंखें मूंदकर किसना के अवयवों को जानबूझ-कर अनजाने में छूने का कोई भी अवसर गंवाने न देता। किसना को बहुत अटपटा लगता उन रेंगती हथेलियों का स्पर्श, मानो कोई लिजलिजी छिपकली शरीर पर रेंग रही हो, परंतु फिर सोचता शायद अनजाने में स्पर्श कर गए होंगे मिसिर चाचा के हाथ।

उस दिन तो बस हद ही कर दी मिसिरजी ने। न अपनी उम्र का लिहाज रखा और न ही अपने रुतबे का। समस्त सीमा रेखाओं को लांघते हुए वासना के अंधे हुए उस वृद्ध ने अभागे किसना को किसी भयभीत हिरणशावक सा अपने चौड़े खुरदरे पंजों में दबोच लिया और उसके भरे रसीले अधरों से खेलने लगा। किसना ने काफी मिन्नतें की। अपने को बचाने की कोशिशें भी कीं। रोया, गिड़गिड़ाया, पर उस कामांध राक्षस की शक्ति के समक्ष वह गरीब दब के रह गया। हैवानियत की समस्त सीमाओं को तोड़कर जब उस भेड़िये की बुभुक्षा तृप्त हुई तो किसना को बहलाया-फुसलाया, लालच दिया। फिर भी जब वह नहीं माना तो धमकाते हुए कहा, की यदि इसका जिक्र भी कभी किया तो उसकी अम्मा को अपने लाडले की लाश पचासों टुकड़ों में भेंट की जाएगी। किसना अम्मा की दुर्दशा के बारे में सोचकर सिर से पांव तक कांप उठा और चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी।

किसना की चुप्पी से मिसिरजी के हौसले और भी बुलंद हो उठे। अब तो जब भी उनकी इच्छा होती, किसना को बुलवा भेजते और शौकिया मित्रों को दावत पर आमंत्रित करते हुए शराब और कबाब के साथ-साथ उस अभागे लड़के को भी मित्रों के समक्ष परोसकर उन पर अपनी उदारवादिता का रौब झाड़ते और मुआवजे या बयाने के तौर पर किसना को उपहारों से लादने से भी न चूकते। किसना चढ़ावे का प्रसाद बनते-बनते टूट चुका था, थक गया था।

अम्मा सुरसतिया किसना को प्राय: नई भेंट से लदे हुए घर लौटते देखती तो हाथ जोड़कर ईश्वर से मिसिरजी की मंगल कामना करती, परंतु इन दिनों किसना बेहद उदास रहने लगा था। जितनी देर घर में रहता, अपनी चारपाई पर गुमसुम उदास-सा आंखें मीचे पड़ा रहता अथवा खुली आंखें शून्य सीलनभरी दीवारों पर टकटकी लगाए रहतीं। उन आंखों में न तो अब शरारतें थीं, न ही चपलता। अम्मा के दस बार कोई सवाल, पूछने पर बड़ी मुश्किल से किसना सिर्फ हां या ना में जवाब देता। कहां तो कुछ दिनों पहले तक चूल्हे के सामने बैठी अम्मा के हाथ रोटी बेलते और सेंकतें थक जाया करते थे, किंतु जवान बेटे का पेट ही न भरता। " बस अम्मा एक और फुल्का बस एक और, बस ये आखिरी एक रोटी और..." सिलसिला थमता ही नजर नहीं आता था और वही आज उसका जवान बेटा बड़ी मुश्किल से एक या दो रोटी खाकर थाली में पानी के छींटें मारते हुए उठ जाता, ये कहते हुए, " बस अम्मा, भूख नहीं है, खाना खाकर ही आया हूं। " और ममता की मारी भोली सुरसतिया के हाथ खुद-ब-खुद उठ जाते मिसिरजी को आशीर्वाद देने के लिए। ये देखकर किसना की आंखों में अंगारे दहकने लगते, परंतु क्रोध को काबू में करते हुए वह दनदनाता हुआ वहां से निकल जाने में ही भलाई समझता।

उस दिन एक अनहोनी घट गई। होलिका दहन-पूजन की समस्त व्यवस्था हर बार की तरह इस बार भी मिसिरजी ने अपने जिम्मे ली। पूर्णिमा के चंद्रमा की ज्योतसना जहां अपनी छटा से सबको नहलाते हुए फाग का निमंत्रण दे रही थी, वहीं मुहल्ले के लोग एक दूसरे पर अबीर-गुलाल छिड़कते हुए होली की शुभकामनाएं दे रहे थे। अम्मा सुरसतिया होली-पूजन निपटाकर आई तो देखा पीछे-पीछे मंगलू पहलवान भी फलों-मिठाइयों की टोकरी कंधे पर उठाए चला आ रहा है। " परनाम चाची, किसना है का? मालिक के घर में बड़ा दावत है सो किसना को भी न्यौता दिए हैं सरकार। " धन्न भाग हमारे मंगलू भइया जो इत्ता बड़ा आदमी हम गरीबों का ख्याल रखे हैं। साक्सात (साक्षात) देवता का रूप है तोहरे मालिक। अभई भेजत हैं किसनवा को। " किसना ने भीतर से ही दोनों की बातचीत सुन ली थी। एक बार मन हुआ की लात मारकर उन टोकरियों को बाहर फेंक दे और जाके भच्च से थूक दे बुढ़ऊ के मुंह पे, पर फिर उसे उस दैत्य की धमकी का ख्याल आया। वह यह भी जानता था की उनके जैसा कमीना आदमी कुछ भी कर सकता है। इसीलिए बड़े भारी मन से उसे जाना पड़ा।

मिसिरजी की कोठी में आज उनके करीबी राजनीतिक मित्रों का महफ़िल जमी थी। कबाब सिंक रहे थे और साबुत बकरा भुना जा रहा था। विदेशी शराब की नदियां बह रही थीं।

किसना विस्फारित नेत्रों से उस महफ़िल में सहमकर खड़ा रहा। ऐसा लगा मानो भेड़ियों के इलाके में घुस आया है। उसने एक के बाद एक सबके चेहरों को गौर से देखा। ये वही लोग थे जो दिन के उजालों में शवेत वस्त्र पहने और मानवतावाद का मुखौटा ओढ़े फिरते हैं। हाथ जोड़कर जनता के खिदमतगार बने घूमते हैं और भोली जनता उन पर प्रगाढ़ विशवास कर उन्हें देवताओं का दर्जा देकर अपनी बेवकूफी का प्रमाण देती है। मिसिरजी के बाईं ओर बैठे थे चौबेजी, बाल विकास मंत्री, दाहिनी ओर बैठे थे राज्य शिक्षामंत्री अखिलेश प्रसाद। बीच में विराजमान थे शहर के युवा कल्याणमंत्री बैजनाथ सिंह और साथ में मसनद पर पीठ टिकाए बैठे थे जाने-माने समाजसेवी और कई अनाथ आश्रमों के आश्रयदाता बृजभूषण चौरसिया।

ऐसा क्यों होता है की जिन मनुष्यों की अन्तरात्माए काजल की कोठरी की कालिख से सनी होती हैं, उनके वस्त्र उतने ही उजले दिखाई देते हैं। शायद ह्रदय के किसी कोने की सुप्त चेतना गाहे-बगाहे आईने में उनके कलुषित चरित्र को उजागर करने का प्रयत्न करती होगी और इसलिए श्वेत आवरण से स्वंय को ढांप-ढ़ू्पकर कलुषित आत्मा की नग्नता छुपाए बगुला-भगत बने घूमते हैं और हमारा अंध समाज उनकी आत्मा की नग्नता से रु-ब-रु हुए बगैर केवल उनके झकाझक बाहरी आवरण से ही उनके चरित्रों का मापदंड तय करता है।

मिसिरजी ने म्यूजिक सिस्टम में एक अश्लील लोकगीत की सीडी बजाते हुए खूब नचवाया अपने मित्रों को। फिर किसना को बांह से घसीटकर उन भूखे भेड़ियों के बीच परोस दिया। उसे जबरन विवस्त्र करके नाचने का हुक्म दिया- " ऐ लौंडे जरा पतुरिया सा लटका-झटका दिखाय दे तो आनंद आ जाए। " नशे में धुत्त उन विकृत मस्तिष्क के बूढ़ों की आंखों में वासना के शोलों को देखकर किसना का हाथ पकड़कर इतनी जोर से घुमाया की किसना घूमता ही चला गया। उसके कानों में उन कामलोलुप वृद्धों के अटटहास गूंजते चले गए और वह घूमता ही रहा। विभिन्न प्रकार की आवाजों और दोगले चेहरों का सच उसकी आंखों में तैरते चले गए। " हम गरीबों के सेवक हैं, आपका दुःख हमारा दुःख है, बलात्कारी को फांसी की सजा दिलवाएंगे, आपको अवश्य ही न्याय मिलेगा .... हा हा हा ... चल बे लौंडे, काहे की सरम हमसे चल जल्दी से कपड़े उतार, अरे ! तुझे तो भगवान् ने बड़ी फुर्सत से ....... हाय ! हाय ! मर जाऊं तेरे दशहरी आम से रसभरे होठों पर.... देश में बेरोजगारी बढ़ रही.... हमारी पार्टी आपको...." और किसना के कान और दिमाग दोनों सुन्न हो गए इन नि: शब्द चीखों से। किसना पर वे सौ-पचास, पांच सौ के नोट वारते चले गए। वह चक्कर खाकर धम्म से बैठ गया सिर पकड़ के। मारे प्यास के उसके गले में कांटे उग आए थे। बड़ी मुश्किल से बुदबुदाया प... प.... पानी। एक ने जबरदस्ती उसके गले में शराब उंडेल दी। " अ र र र ! पानी तो कुत्ते भी पीते हैं, दारू पी और बंदा बन। " फिर वही भयानक सामूहिक अटटहास... जीभ लपलपाते काम लोलुप चेहरे ..... उफ्फ !

लेकिन यकायक किसी दैवी शक्ति ने किसना के टूटते मन को बिखरने से बचा लिया। उसने झुककर अपने निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े डाले, फिर घुटनों के बल रेंगता हुए खुद पर वारे गए सारे पैसों को बटेरा और उन नशे में धुत्त होकर यहां-वहां पसरे हैवानों को लांघते हुए तेजी से कोठी के बाहर निकल आया। रात आधी के ऊपर बीत चुकी थी और पूरा मुहल्ला तथा सड़कें सुनसान थीं। एक आध आवारा कुत्ते बिना वजह भौंकते हुए यहां-वहां दौड़ रहे थे। दूर कहीं से ढोल-मंजीरों के साथ फाग गाने की आवाज हवा में तैर रही थी। घर लौटा तो देखा, अम्मा, ड्योढ़ी पर ही बैठे-बैठे ऊंघ रही थी, शायद बेचारी बिना खाए-पिए उसी की राह देखती हुई सो गई होगी। किसना का सहसा अम्मा पर असीम स्नेह उमड़ा। उसने धीमे-से आवाज दी, " अम्मा, ओ अम्मा, चल भीतर चल के सो जा खटिया पर। " बेटे की पुकार से सुरसतिया हड़बड़ाकर उठ बैठी। जम्हाई लेकर चुटकी बजाते हुए बोली, " आय गवा लल्ला ! चल रोटी खा ले। "

किसना ने कहा, " अम्मा आज तेरे हाथों से खाऊंगा रोटी, खिलाएगी ना ?"

"धत पगरा गया है का ? अच्छा चल हाथ मुंह धोय के आ जाव। "

कहकर अम्मा चौके की ओर मुड़ी तो किसना ने अपनी भरी आंखों के उमड़ पड़ने को बेताब बांध को शर्ट की आस्तीन से पोंछ लिया। पता नहीं उसके मन के भीतर कौन-सा महायुद्ध चल रहा था। चूल्हे में जलते कोयले की आंच अब भी गर्म थी। अम्मा ने टिंडे की रसेदार तरकारी गरम की और रकाबी में से रोटियां निकालकर चिमटे से पकड़ते हुए उलट-पलटकर आग में सेंक लीं। खाना परोस के ले आई। किसना तब तक हाथ-मुंह धो आया। फिर आसन बिछाकर बैठ गया।

" अम्मा आज पहले मेरे हाथ से खा। " कहकर किसना ने एक निवाला अम्मा के मुंह में धर दिया। उस गरीब विधवा की एक मात्र संतान ही उसके संसार की सर्वोच्च धरोहर थी।

" काहे लल्ला ! आज मिसिरजी के हिंया खाना नहीं खाय ? " अम्मा ने पूछा तो किसना ने थाली पर से बिना नजरें हटाए ही जवाब दिया, " नाहीं अम्मा आज तो उनके हिंया गोस्त और मुर्गा पका था, हमको तो उसका बास से उबकाई आती रही तो बहाना करके बिना खाए ही चले आए। " किसना ने झूठ का सहारा लिया। आज बहुत दिनों बाद पुत्र को तृप्ति से खाना खाते देख अम्मा ने बेहद संतुष्टि का अनुभव किया। अम्मा चौके में खटर-पटर करती रही और किसना आखों पर बाईं बांह को रखे सोने का प्रयत्न करने लगा, परंतु आज उन मासूम आंखों में नींद कहां ? देह से अधिक मन की पीड़ा और अपमान की चिता में वह राख हुआ जा रहा था। पलकों का छोर अब किसी बंदिश को मानने को तैयार न था, तभी तो वेदना और अपमान की नदी अश्रुधार बन अविरल बहती चली गई।

कौन कहता है की भद्र कहलानेवाले समाज में नारी जाती ही सर्वदा पुरुषों की कुंठित वासनाओं और हिंसक प्रवृत्ति का शिकार बनती चली आई है। अब तो पुरुष भी विकृत मनोवृत्तिवाले पुरुषों के यौन शोषण का शिकार बनते हैं। हां ये बात और है की पहले इनकी चर्चा नहीं होती थी। कारण चाहे कुछ भी हो, परंतु अब तो दबी जबान से इनकी चर्चा और बहस भी होने लगी है। किसना भी कोई अपवाद न था, जो स्वंय एक पुरुष होकर पुरुषों की कलुषित कामनाओं की भेंट चढ़ा। बलात्कार पीड़ित स्त्री अमूमन इस वजह से मौन रह जाती है, क्योंकि वह जानती है हमारे देश की कानून-व्यवस्था की पेचीदगियां, जहां इंसाफ मिलना तो दूर, उलटे उसे ही समाज द्वारा कलंकिनी और चरित्रहीन के संबोधनों से संबोधित किया जाता है, परंतु पुरुष शायद इस कारण अपनी आवाज नहीं उठा पता, क्योंकि किसी पुरुष द्वारा किया गया यौन शोषण उसकी नपुंसकता को उजागर करता है और कोई भी पुरुष अपने अहम के साथ कभी समझौता नहीं कर सकता। उसके लिए दुनिया की सबसे भददी गाली है " कापुरुष कहलाना "।

विचारों की उथल-पुथल के बीच कब नए दिन की शुरुआत हुई, वह किसना को " होली है " बुरा न मानो होली है और सररर रा की गगनभेदी गूंज से ज्ञात हुआ। प्रत्येक वर्ष की तरह आज भी सुरसतिया इस पावन पर्व पर संगम में डुबकी लगाने सुबह-सवेरे ही निकल पड़ी। अबीर-गुलाल के रंगों से आज लग रहा था की इंद्रधनुष, आकाश से धरा पर उतर आया हो। बीती रात के अपमान की चिता की चिंगारी में अब भी ऊष्णता थी। खुद पर वारे गए रुपयों को सिरहाने से निकलकर गिनने लगा। लगभग तीन हजार-रुपये थे। उसने कुछ सोचते हुए घ्रणा से मुंह सिकोड़े, फिर उठकर देवी-देवताओं के चित्रों से सजे आले तक आया। कृष्णा भगवान् की मूर्ति के तले हजार रुपये दबाकर रख दिए। फिर अम्मा के नाम एक चिटठी लिखने बैठा ----

प्यारी अम्मा,

नौकरी की तलाश में जा रहा हूं तुझे बिना बताए। कुछ ऐसी बात हो गई है, जो तुझे नहीं बता सकता। बस इतना जान ले की तेरा बेटा कभी गलत काम नहीं कर सकता। बस एक हिसाब-हिसाब करना बाकी है। इंसाफ करके और अपने पर हुए अन्याय का बदला लेकर ही जाऊंगा। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। तेरे चरणों की धुल का तिलक करके माथे पर आशीर्वाद समझकर लिए जा रहा हूं। अपना ख्याल रखना।

तेरा लाडला " किसना "।

वह जानता था की आज अम्मा को घर आते-आते दो-तीन घटें तो लग ही जाएंगे। किसना ने बाकी के दो हजार रूपये जेब में धरे और मुंह पर अच्छे से अबीर-गुलाल मलकर मिसिरजी के द्वारे जा पहुंचा। वह जानता था आज उनके घर के सारे नौकर-चाकर होली खेलने अपने-अपने गांव चले गए थे दो दिनों के लिए। मिसिरजी खटिया पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते हुए ताजा अखबार पढ़ रहे थे। किसना को यूं अचानक देखकर उनकी बूढ़ी होतीं हड्डियां फिर जवान हो उठीं। " अरे किसनवा है ना, आओ नजीक आओ। गले लगकर होली मिलन करो। " किसना भी मुस्कराते हुए आगे बढ़कर उनके गले मिला और होली की मुबारकबाद दी।

" अरे चाचा ! अइसे थोड़े ना होली होती है। जरा रंग-वंग डालें आप पर। बिलकुल कोरे हुए बैठे हो। " किसना की आंखों में आज एक अद्भुत चमक थी। एक ऐसी चमक, जो पूर्णिमा के संपूर्ण चंद्रमा पर किसी विक्षिप्त या नीम पागल की आंखों में होती है। " अच्छा अच्छा जा, भीतर के चौके में बाल्टी, रंग पिचकारी सब पड़ी है। अपने मन की कर ले। तू भी क्या याद करेगा इस होली को। "

मिसिरजी ने कहा तो किसना चौके की तरफ बढ़ते हुए बोला उठा, " हां ! चाचा आज तो सचमुच आपके संग ऐसी होली खेलेंगे की सारा का सारा शहर देखते रह जाएगा। " और किसना चौके में से बकरे की बलि चढानेवाला धारीदार गंड़ासा उठाए दबे पांव मिसिरजी के पीछे आ खड़ा हुआ और मजबूती से गंडासे को हाथ में धरे पूरी शक्ति के साथ एक ही वार में उनके चर्बीयुक्त सिर को धड़ से कलम कर दिया। छटपटाते धड़ से खून के फव्वारे छूटने लगे। किसना ने उस खून से तिलक किया। नीचे फर्श पर लोटती निर्जीव खोपड़ी की फटी आंखें किसना पर ही टिकी थीं, लेकिन आज उन आंखें में किसना को अपने प्रतिशोध की जीत और वासना की हार नजर आई। खून के सुर्ख छींटें उसके गुलाल लगे चेहरे में घुलने लगे थे।

गंड़ासा वहीं फेंककर, अपनी उंगलियों के निशान पोंछें फिर अंतिम बार घृणा से उस पापी नरमुंड को देखते हुए उसने " पच्च " से थूक दिया। पिछवाड़े से चुपचाप निकलकर सीधे रेलवे स्टेशन का रुख किया। चेहरे पर लगे अबीर-गुलाल को वह इलाहबाद छूटने तक मिटाना नहीं चाहता था।

मुंबई का टिकट कटाकर वह थोड़े समय यूं ही प्लेटफार्म पर निरुद्देश्य-सा भटकता रहा। लगभग आधे घंटे बाद ट्रेन प्लेटफार्म पर आ लगी तो भीड़ के साथ धककम-पेली करता हुआ किसी प्रकार से जनरल कम्पार्टमेंट में सवार हो गया। बड़ी मुश्किल से ऊपरवाली बर्थ पर बैठने की थोड़ी जगह मिल ही गई। सामान तो कुछ था नहीं। धीरे-धीरे ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ने लगी। उसने भरे मन से प्रयागनगरी से विदाई ली। अम्मा का ख्याल आते ही आंखें छलक उठीं और मन ही मन बहादुरशाह जफर की पंक्तियां बुदबुदाने लगा ---

" बाबुल मोरा, नैहर छूट ही जाए....