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तीसरे लोग - 6

6.

स्मारक इन दिनों ज्यादा से ज्यादा वक्त अस्पताल में मरीजों के बीच ही बिताने की चेष्टा करता। घर लौटने के समय का कोई ठिकाना नहीं था। आज बड़-सावित्री की पूजा है। विवाह के पश्चात पहला पूजन बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। सास के साथ-साथ बहु ने भी उपवास रखा था। अब मुंबई जैसी महानगरी में कंक्रीट के जंगल तो चारों ओर उग भी रहे हैं और आकाश को भी मुट्ठी में बांधना चाहते हैं, परंतु एक वट का वृक्ष पूजने के लिए उन्हें वर्सोवा से बोरीवली जाना पड़ा। हम शनौ:-शनौ: अपने रीति-रिवाजों को भूलते चले जा रहे हैं, शायद इसीलिए अपनी दौड़ती-भागती जिंदगी या तथाकथित " प्रैक्टिकल एटिट्यूड " (व्यवाहरिक रवैया ) जिंदगी के प्रति और इन सब विचारों के क्रांतिकारी बदलावों के बीच रीति-रिवाज, उनकी मान्यताएं और वट-वृक्षों का शहर के हर नुक्क्ड़, किनारे पर होना शायद हमारी दकियानूसी मानसिकता को दर्शाता है। तभी तो जंगलों के जंगल काटे जा रहे हैं, पीपल, नीम और वट के पेड़ अब बड़े शहरों में नहीं दिखते। सदियों से इन पेड़ों को संस्कृति और रीति-रिवाज़ों का अहम हिस्सा मानने में हम शर्म महसूस होती है। अब तो इन धरोहरों की जगह गगनचुंबी अट्टालिकाओं को खड़े देखना ही हमारे आधुनिकीकरण की पहचान बन गई है।

बोरीवली में हंसा बेन के कई रिश्तेदार बसे थे। मुंबई का यह इलाका मिनी गुजरात के नाम से भी पहचान जाता है। गुजरातवासियों की एक खूबी यह भी है कि चाहे जितना पैसा कमा लें अथवा व्यवसाय के चलते पश्चिमी देशों में जाके बस जाएं, परंतु अपने रीति-रिवाजों को वे बड़ी श्रद्धा-भक्ति से मानते हैं। शायद इसलिए महानगरों के इन इलाकों में भारतीय संस्कृति, हमारी धार्मिक और समाजिक रीतियों के साथ-साथ आज भी कई वट वृक्ष जिंदा हैं।

रिश्तेदारों के यहां नई बहु का भव्य स्वागत किया गया। फाल्गुनी भी हाथ में पूजा कि थाली सजाए वृक्ष को पूजने गई। पेड़ के इर्द-गिर्द धागा लपेटते हुए जहां एक ओर फाल्गुनी ईश्वर से अपने सुहाग के सम्मान कि रक्षा कि प्रार्थना कर रही थी, वही दूसरी ओर उसकी सास हंसा बेन पेड़ को लाल धागे से बांधते हुए बहु कि कोख भरने कि कामना में ईश्वर से प्रार्थना करती दिखाई दे रही थी। फाल्गुनी एक उच्चशिक्षता स्त्री होते हुए भी धर्मपरायण थी। उसका ऐसा मानना था कि शिक्षा का संबंध विचारों कि प्रगति से है तो धर्म का संबंध आस्था ओर संस्कारों से जुड़ा है, परंतु इन दोनों के समागम के माध्य अंधविश्वास कि कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

स्मारक को घर लौटने में काफी देर हुई थी आज। उसके माता-पिता बेटे की लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना आदत के कारण भरे बैठे थे। " दिकरा, अकक्ल छे के नई तारा मां ? सवार थी वऊ खादा पिधा वगर तारा माटे उपास राखी ने बेसी छे अने तू .... ( लड़के,अकल है की नहीं तुझमें। सुबह से बहु खाए-पिए बिना तेरे लिए उपवास रखकर बैठी है और तू ? ) स्मारक वैसे ही आज बहुत थका-मांदा लौटा था। दो-दो बड़े ऑपरेशन थे आठ घंटो के और उस पर बा और बाबूजी की मिजाज ! उफ़ ! अमूमन शांत और गंभीर रहनेवाला स्मारक भी आज तल्खी से पलटवार कर उठा, " मेरे लिए किसी को भूखा रहने की कोई जरुरत नहीं है, मैं पहले भी कह चुका हूं। अब क्या काम-धाम छोड़कर घर में ही बैठ जाऊं। वैसे भी अगले महीने मुझे दो वर्षों के लिए रिसर्च के काम से अमेरिका जाना होगा। " उसके विदेश जाने के समाचार से माता-पिता किंचित नरम पड़ गए।

" क्या ! दो साल ! और बहु ? बहु को तो लेके जाएगा ना " बापूजी ने शंका जताते हुए पूछा तो स्मारक ने पूरी-श्रीखंड का निवाला मुंह में धरते हुए जवाब दिया, " सॉरी बापूजी ! वहां तो अकेले ही जाना होगा। काफी पढाई करनी होगी और रिसर्च के लिए अन्य देशों और जगहों में भी शायद जाना होगा। अब ऐसे में फाल्गुनी को कहां-कहां लेकर घूमूंगा ? " कहकर उसने फाल्गुनी को कनखियों से देखा।

पति बिछोह के समाचार से फाल्गुनी की भूख मर गई थी। संतरे का जूस पीकर उसने अपना उपवास तोड़ा। फिर सास-ससुर से आज्ञा लेकर ऊपर अपने कमरे में चली आई। स्मारक शायद उसी का इंतज़ार कर रहा था यहां बैठे।

"फाल्गु मैंने बहुत सोच-समझकर ही इस रिसर्च के काम को हाथ में लिया है। ' एड्स ' जैसी भयंकर जानलेवा बीमारी पर विश्व के हर कोने से डाक्टरों की एक रिसर्च टीम तैयार की गई है। जानती हो, वर्षों से मेरा एक सपना रहा है की अपना एक अस्पताल हो। हमारी गांववाली कई एकड़ों की के लिए वहां पर एक अस्पताल बनवाऊं, जिससे की वे जीवन की गोधूलि वेला को या यूं कहूंगा अंतिम पड़ाव को शांति से व्यतीत कर सकें। " इट विल बी ए सॉर्ट ऑफ़ टर्मिनेशन वॉर्ड यू नो। " ( वह एक प्रकार का मरीजों के अंतिम समय का स्थान होगा ) फाल्गुनी ने सब कुछ सुना, फिर एक मुस्कान अधरों पर ओढ़कर बोली, " जानती हूं, आप मुझसे दूर भागना चाह रहे हैं, क्योंकि अब भी आप स्वंय को मेरा दोषी मानते हैं। आप निश्चिन्त होकर इस नेक काम का श्रीगणेश करें। आपके इस काम के लिए यदि मैं कुछ सहयोग कर सकूं तो ये मेरा सौभाग्य होगा, किंतु ईश्वर के लिए अपनी आत्मा पर ग्लानिबोध का बोझ उतार दीजिए। "

" फाल्गुनी तुम महान हो। मैं वैसे भी तुम्हें कुछ दे तो नहीं सकता, इसलिए मेरा तुम्हारे पास होना न होना कोई मायने भी नहीं रखता। यूं भी तुम्हारी उपस्थिति से मैं और अधिक ग्लानिबोध से भर जाता हूं और मुझे अपने बौनेपन का एहसास कचोटता रहता है। " पति की बातें सुन फाल्गुनी तड़प उठी।

" प्लीज, ऐसा ना कहें ! मैंने तो आप ही को प्रेम किया है। मैं तो अभिशप्त अहिल्या सी पाषणा हो चुकी हूं, परंतु जानती हूं उसकी तरह, श्राप मुक्त होने के लिए मेरी तक़दीर में राम का स्पर्श नहीं और आजीवन पाषाण बनकर ही अपना वर्तमान और शायद भविष्य भी मुझे स्पर्शहीन होकर गुजरना पड़ेगा। नियति कि इस भेंट को मैंने सहर्ष स्वीकार भी कर लिया है अब तो .... हां ये बात सच है कि आप आंखों के सामने रहते हैं तो जी उठती हूं। शायद पुरुष के प्रेम और स्त्री के प्रेम में यही पार्थक्य है। " फाल्गुनी ये सब कह तो गई, परंतु क्या वास्तव में उसका भीतर प्रेम कि भावनाओं कि लहरें हैं तो स्पर्श कि कामनाओं के आवेग को भी नकारा नहीं जा सकता। हां यदि हम स्त्री और पुरुष के स्वभाव-चरित्र कि बातें करते हैं तो अंतर शायद इतना है कि पुरुष का प्रेम, स्पर्श यानी कामना से शुरू होता है, भावनाओं से, स्पर्श कि भावना तत्पश्चात होती है। इसमें दोष हम पुरुष वर्ग को दे भी नहीं सकते, क्योंकि ईष्वर ने पुरुष और स्त्री के चारित्र्य और विचार का निर्माण किया ही है इसी तरह से।

फाल्गुनी कि आंखें लग चुकी थीं। अब तो व्यर्थ के तानों-बानों में सिर खपाना वह लघभग छोड़ चुकी थी। गहरी नींद में उसे यूं प्रतीत हुआ मानो कोई बांसुरी बिरहा का राग छेड़ रही हो रात के गहन सन्नाटे में। उसने उनींदी पलकों को हौले से खोला तो देखा स्मारक बाल्कनी में बैठ हुआ बड़ी तन्यमयता से बांसुरी बजा रहा था। इस मुरली के संग फाल्गुनी का अद्भुत प्रेम और घृणा का संबंध था। कभी इस मुरली के सप्त सुरों कि श्रुति समझा करती थी वह स्वंय को और यही मुरली आज उनकी बैरन बन बैठी थी। कितनी खुशनसीब थी ये बांसुरी, जो बिना किसी झिझक के उन अधरों के संग इतरा-इतराकर खेल रही थी, जिस पर कहने को तो एकछत्र आधिपत्य फाल्गुनी का था, फिर भी उनके स्पर्श से अछूती थी। वह चुपके से पति के पीछे आ खड़ी हुई। रात्रि की स्निग्ध मंद बयार से स्मारक के केश की लटें किसी आवारा भंवरे-सी उड़-उड़कर उसके उन्नत ललाट को चूम जाती। फाल्गुनी को इच्छा हुई उन लटों को सहलाए, चौड़े गौर ललाट को हौले से चूम ले बादल बनकर पति पर चुंबनों की वर्षा करे। कैसी विडंबना थी की साहिल पर खड़े रहने का दंड और आजीवन प्यासी रहने के अभिशाप से वह शायद कभी न उबर पाएगी। खैर, तृष्णाओं पर अंकुश लगाते हुए उसने अपनी कांपती हथेलियां, पति के कंधे पर रख दीं। स्मारक उन हथेलियों के स्पर्श से चौंका उठा ----

"अरे ! तुम सोई नहीं फाल्गु ? "

" तो आप भी कहां सोए ? बांसुरी की धुन में आपकी व्यथा का अनुभव हुआ, सो चली आई उठकर। " फाल्गुनी ने उत्तर दिया। स्मारक तारों भरे आकाश की ओर देखते हुए कहने लगा, " फाल्गु मैं अपने आपसे मुंह छिपाते हुए तक गया हूं, शायद इसलिए तुमसे दूर जाना चाहता हूं। काश ! मैं भी अन्य साधारण पुरुषों की तरह होता तो तुम्हारे जैसी पत्नी पाकर धन्य हो जाता। तुम्हारी दशा देखकर और भी हीन भावना से ग्रस्त हो उठा हूं। "

फाल्गुनी ने बीच में ही टोकते हुए कहा, " छि:-छि: ऐसा नहीं कहते। तुम्हारी मजबूरियों को अब समझने लगी हूं और किसने कहा तुम साधारण नहीं ? तुम मुझसे नहीं, अपने आपसे भाग रहे हो। भला जीवन की उलझनों का समाधान भाग के होता है कभी। तब तो फिर मुझे भी भागना चाहिए था, लेकिन मैं तो पलायनवादी नहीं हूं। परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता और शक्ति दोनों रखती हूं। हम मन से और वचन से तो पति-पत्नी है ही। फिर मुझे अपने स्त्री धर्म का पालन करने दीजिये और आप भी मेरे सम्मान को आधात पहुंचाए बिना अपना पति-धर्म निभाइए। पति-पत्नी के बीच में दैहिक संबंधों के साथ-साथ अन्य सांसारिक जिम्मेदारियों की भी तो अहमियत है। फिर उन अन्य जिम्मेदारियों को पति की हैसियत से तो आप निभा सकते हैं। बस, हो गया ना आपकी दुविधा का समाधान। चलिए, रात बहुत बीत चुकी, अब जाकर सो जाइए। " उस नाजुक सी युवती के बुद्धियुक्त तर्कों के समक्ष आज स्मारक हार के भी जीत गया।

दो-महीने देखते-देखते बीत गए। स्मारक के विदेश जाने का समय भी आ गया। फाल्गुनी को सम्पूर्णतया पत्नी का दर्जा भले ही न मिला हो, इस बात का मलाल तो जीवन भर का था, परंतु उसे संतुष्टि इस बात से थी कि शनै:-शनै: वह अपने पति को उसकी हीन-भावना से मुक्त करने में सफल हुई थी और इसी कारण आज वह पति कि द्रष्टि में सम्मान कि पात्र थी। पति स्पर्श से वंचित वह अभागी अपने प्रीतम का श्रीमुख देख के ही संतोष कर लेती थी, परंतु आत्मतुष्टि का वह संबल भी एक कभी न समाप्त होनेवाले युग की तरह उसके हाथों से छूटता चला गया और उसका आराध्य देव विरह वेदना को भोगने अकेला छोड़ दूर पराए देश में जा उड़ा।

एयरपोर्ट पर भी दोनों-मौन थे, शायद भीतर की हलचल से जूझ रहे थे दोनों ही। सास-ससुर दोनों को कुछ देर अकेला छोड़कर काफी पीने के बहाने वहां से हट गए। फाल्गुनी जी-भर के प्रियतम का मुखमंडल देखना चाह रही थी, परंतु अपने चेहरे पर स्मारक की द्रष्टि को टिकी हुई देखकर लजिज्त हो उठी। स्मारक ने गुरु गंभीर कंठ से कहा, " फाल्गु तुमने मुझे नए सिरे से जीने की दिशा दिखाई है। मैं हमेशा दामन फैलाए याचक ही बना रहा और तुम दाता। जब लौट के आऊंगा तो साथ में एक उददेश रहेगा। मेरी तरह तीसरे किस्म के लोगों को सिर उठाकर जीने की राह दिखाने का, परंतु अब की बार तुम्हें जाने के लिए नहीं कहूंगा। तुम्हारे साथ की आवश्यकता मुझे हर कदम पर पड़ेगी। कहो दोगी ना साथ ? " फिर मोहक हँसी के साथ मजाकिया लहजे में कह उठा, " देखा, इस संधर्भ में तो मैं बिलकुल सामान्य पुरुष हूं, जिसने सदा स्त्री को अपने स्वार्थसिद्धि के लिए इस्तेमाल किया। मैं तो वही कर रहा हूं। "

फाल्गुनी मचलकर बोल उठी, " बस-बस ! और तारीफ मत कीजिए। हां ! आपने मेरी भावनाओं की कदर की, मुझे इस लायक समझा कि आपके काम आ सकूं, बस मुझे और क्या चाहिए ? " तब तक बा-बाबूजी भी आ गए थे। उन्होंने पुत्र को आवशयक हिदायतें दी। स्मारक कि फ्लाइट कि घोषणा हो चुकी थी। उसने पहली बार फाल्गुनी कि नाजुक हथेलियों को अपने हाथ में लेते हुए हौलेसे दबा दिया। स्मारक के लिए तो ये एक साधारण-सी प्रक्रिया थी स्नेह सहानुभूति जताने की, जो एक मित्र दूसरे मित्र के लिए होता है, परंतु फाल्गुनी को प्रियतम का यह स्पर्श अंदर तक सिहरा गया। उसका अंग-अंग मधुर झंकार से झंकृत हो उठा। विवाह के पश्चात पति द्वारा किया हुआ अपनत्वभरा स्पर्श उसके लिए एक अनमोल उपहार था। स्मारक ने उसका हाथ छोड़ते हुए विदाई ली। श्रद्धा, समपर्ण और प्रेम की ऐसी अद्भुत मिसाल क्या इस युग में संभव है ? शायद आज भी हमारे समाज इ संस्कार नारी की इस अद्भुत क्षमा-शक्ति, सहन-शक्ति और सम्पूर्ण प्रकृति के कारण ही जीवित है। दंड देने का जन्मसिद्ध अधिकार यदि पुरुष का है तो क्षमा दान का कर्तव्य स्त्री ही निभाती चली आई है। युगों के बदलाव के साथ-साथ हमारी सामाजिक प्रथाओं, कुप्रथाओं और मान्यताओं में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं, परंतु कमोबेश, नारी की दशा सतयुग की सीता, त्रेता की द्रौपदी और कलयुग की कितनी ही फाल्गुनियों की सी ही रही है।

पुरुष प्रधान समाज ने अपना अस्तित्व टटोलनेवाली स्त्री का बहिष्कार ही किया है। न कोई बदलाव, न कोई ठहराव। शायद हम सभी औरतों के भीतर फाल्गुनी कहीं न कहीं मौजूद है, तभी तो पुरुष की परछाई बनकर जीने में ही अपना सौभाग्य समझती है। फाल्गुनी भी कोई अपवाद नहीं थी। आधुनिक समाज में स्त्री-पुरुषों के " कंधे से कंधा मिलाकर चलो ' की नारेबाजी करनेवाले पुरुषों की फितरत को वह अच्छी तरह जानती थी। अब इसे हम फाल्गुनी का नि:स्वार्थ प्रेम कहें, पति के प्रति अथवा लोकलाज और समाज का भय। शायद दोनों ही वजह थी की फाल्गुनी ने बजाय पौरुषहीन पति को छोड़ने के, उसका साथ निभाने का रास्ता अपनाया।

पति की अपने प्रति शारीरिक अक्षमता और उदासीनता से आहत हो शुरू के दिनों में उसके भी मन में विचार आया था पितृग्रह की शरण में पुन: जाने का, पर उस बुद्धिमता युवती को अपने अंतस की आवाज़ सुनाई दी, " फाल्गुनी ससुराल की दहलीज़ लांघने का दुस्साहस कर भी लेगी तो क्या तेरा पुरुष समाज बाहें फैलाकर तुझे स्वीकार करेगा ? इस समाज में विधवा स्त्री के लिए सम्मान और सहनुभूति है, परंतु परित्यक्ता स्त्री के लिए कोई जगह नहीं। " जब-जब उसके भीतर हृदय और मस्तिष्क का द्वंदयुद्ध छिड़ा, तब उसने हमेशा मस्तिष्क की ही सुनी। समस्त सामजिक और सांसारिक पहलुओं पर गौर करने के पशचात उसने तय किया की चाहे जो भी हो, अपने पति को समाज में परिहास का पात्र कभी न बनने देगी। जिस व्यक्ति से वह इतना प्रेम करता है, उसे वह एक दीन-हीन याचक के रूप में नहीं देख सकती। उसके भीतर डीएम तोड़ते आत्मविश्वास को अब उसे ही जिलाना होगा, क्योंकि अब वह समझ गई थी की उसका पति उसके लिए पौरुषहीन था, परंतु वह नपुंसक कदापि न था, हां, उसकी चाहते लकीर से हटकर असामान्य थीं।