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विवाह संस्कार का महत्व

जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे सनातन समाज में बहुत से संस्कार हैं। प्रत्येक संस्कार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। हमारा जीवन पवित्रता और मर्यादा से भरा रहे, इसके लिए हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने, बहुत से जप-तप किए। और हमारे लिए बहुत से संस्कारों का आविष्कार किया। हमारे संस्कार ना केवल धर्म पर आधारित हैं अपितु उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी देखने को मिलता है। उनमें से एक महत्वपूर्ण संस्कार है विवाह संस्कार। शादी के बाद वर-वधु साथ रहकर, धर्म का पालन करते हुए जीवन यापन करते हैं और सृष्टि के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं। स्त्री और पुरुष के मिलन से परिवार बनता है। परिवार से समाज बनता है। हम जिस सभ्य समाज में रहते हैं उसके प्रति हमारी भी बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। हमारा परम कर्तव्य बनता है कि हम उसके सभी रीति-रिवाजों और मान्यताओं को अपनाएं तथा जीवन पर्यंत उनका अनुसरण करें।
शादी एक बंधन है, वह समाज का बंधन है, परिवार का बंधन है, लड़के-लड़की की जिम्मेदारी का बंधन है। दोनों एक सूत्र से बंधते हैं। यह वह अदृश्य बंधन होता है, जो हमारे परिवार को जोड़ता है, समाज को जोड़ता है और आने वाली पीढ़ी को जोड़ता है। बहुत सारी चीजों का त्याग करना पड़ता है तो यह बंधन मजबूत होता है। शादी की मजबूती बच्चों को समझनी चाहिए। आज का समाज शादी को शादी नहीं समझ रहा, उसे उपभोग समझ रहा है। पुराने रीति-रिवाजों को रूढ़िवादिता का नाम दे दिया जाता है और नई पीढ़ी से यह सुनने को जब-तब मिल ही जाता है कि अब जमाना बदल गया है। सच! जमाना तो बहुत बदल ही रहा है। पर बदलते जमाने में क्यों टूट रहे हैं यह बंधन ? क्यों आजकल के बच्चे अपनी शादियां संभाल नहीं पा रहे हैं ? पहले बंधन की पवित्रता को नहीं समझते, रिश्तों की मजबूती को नहीं स्वीकारते, तो फिर बाद में रोते क्यों हो ?
सुखी जीवन के लिए बंधन का महत्व तो दोनों को समझना होगा। बहुत सारी चीजें छोड़नी पड़ती है, स्वयं को बदलना पड़ता है, तो बंधन सुदृढ़ होता है। जैसे रस्सी को बटना पड़ता है, तभी वह मजबूत बनती है। सबसे पहले किसान 'सन' खेतों में लगाता है और फिर बड़े ही धैर्य से उस 'सन' को बटता है। तब कहीं जाकर मजबूत रस्सी का निर्माण होता है। फिर उस रस्सी का प्रयोग जीवन में सब जगह होता है चाहे सुख के पल हों या दुःख के। सब जगह इस्तेमाल में लाई जाती है यह अद्भुत रस्सी। फिर चाहे वह मृत्यु शैय्या पर हो या विवाह सूत्र का बंधन, हर जगह यह अपना धर्म मजबूती से निभाती है। ठीक उसी तरह अगर आज की पीढ़ी वैवाहिक रिश्तों की मजबूती को समझने लगे, शादी के बंधन की पवित्रता को समझने लगे कोई कारण नहीं है कि वह जीवन पर्यंत ना चलें।
आधुनिक पीढ़ी अगर अपनी समझ-बूझ और जिम्मेदारी से विवाह संस्कार के महत्व को समझ ले, तो संबंधों की मधुरता पति-पत्नी को जीवन के नए आयाम देगी। वो कहा जाता है ना कि जहां दो बर्तन होंगे तो टकराएंगे ही। छोटी-मोटी तकरार तो साहिब, एक ही मां-बाप के जाए(जन्मे), सगे भाई-बहनों में भी हो जाती है, फिर पति-पत्नी तो दो अलग-अलग परिवार, अलग-अलग परिवेश से आए हैं। दोनों का ही पालन-पोषण भिन्न-भिन्न तरीके से हुआ है, तो थोड़ा-बहुत टकराव तो होगा ही। जीवन एक ही रंग, एक ही रूप, एक ही रस का चलता रहे, तो नीरस हो जाता है। थोड़ा खट्टा-मीठा रिश्तों में चलता रहेगा, तो रिश्तों की मधुरता और अधिक बनी रहती है। बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि पति और पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिए होते हैं। दोनों के मध्य एक दूसरे के लिए बराबर का प्यार, विश्वास और सम्मान होना अवश्यंभावी है। तभी परिवार नामक संस्था सुचारू रूप से चलती है।
इसी आस्था के साथ अगर विवाह संबंधों को निभाया जाएगा तो परिवारों में शादियों के टूटने का प्रचलन शायद कम हो जाए और सुदृढ़ समाज के निर्माण में हम अपना महत्वपूर्ण योगदान दे पाएं।