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अर्द्ध सत्य

दिसम्बर महीने के दूसरे पक्ष का प्रथम रविवार

सुबह के ग्यारह बजे के लगभग का समय

गुनगुनी मीठी-सी धूप

ऐसी धूप का आनन्द लेने के लिए लॉन में बैठे सास-ससुर पार्वती और मनोज को नाश्ता करवाने के पश्चात् स्वयं नाश्ता करके रीमा ऊपर छत पर आ गई और कमरे से कुर्सी तथा स्टूल के साथ ट्रांजिस्टर भी उठा लाई। ट्रांजिस्टर पर ‘विविध भारती’ लगाकर आज का समाचार पत्र देखने लगी। मुकुल नाश्ता करने के बाद दुबारा रज़ाई में लेट गया था। डॉ. प्रेरणा द्वारा उद्घाटित तथ्य उसके अन्तर्मन को उद्वेलित किए हुए था। रात को पार्श्व में लेटी रीमा से भी मन की बात साझा करने का उसका हौसला नहीं हुआ था। ‘एक तेरा साथ हमको दो जहाँ से प्यारा है....’ गीत के बोल सुनकर उसने रज़ाई त्यागी और अपने लिए कुर्सी लेकर रीमा के पास आकर बैठ गया। गीत पूरा होने तक दत्तचित्त होकर सुनता रहा और गीत पूर्ण होने पर बोला - ‘रीमा, आज कैसे फ़ुर्सत में हो?’

‘अम्मा और बाऊ जी को नाश्ता आदि करवा दिया। वे लॉन में धूप सेक रहे हैं। नीचे रहती तो थोड़ी-थोड़ी देर में ‘बहू, यह कर लो’, 

‘बहू, वह कर लो’ सुनना पड़ता। इसलिए सोचा, थोड़ी देर मैं भी शान्ति से धूप सेक लूँ। लंच तो दो बजे बनेगा। आधा घंटा पहले जाकर बना लूँगी।’

‘अच्छा किया। बुजुर्गों में बढ़ती उम्र के साथ नुक्ताचीनी की आदत भी बढ़ जाती है। अपने समय की बातें याद नहीं रहती। ...... रीमा, तुम्हें याद है अपनी पहली मुलाक़ात?’ मुकुल ने अपनी बात उसे बताने से पहले जैसे भूमिका बाँधने की कोशिश करते हुए प्रश्न किया।

हर व्यक्ति के जीवन में कुछ पल ऐसे आते हैं जो जीवन भर गुदगुदाते रहते हैं। रीमा और मुकुल की पहली मुलाक़ात भी कुछ ऐसी ही थी, जिसका ज़िक्र होते ही रीमा ने समाचार पत्र स्टूल पर रखा और मुकुल की ओर मुँह घुमाते हुए कहा -

‘क्यों नहीं? ..... उस मुलाक़ात से ही तो हमारे प्यार की शुरुआत हुई थी। ...... अच्छी तरह याद है। मैं लाइब्रेरी में ‘गुनाहों का देवता’ ढूँढ रही थी और शायद तुम काफ़ी देर से देख रहे थे। तुम्हारे पूछने पर जब मैंने बताया तो तुमने कहा था -

‘गुनाहों का देवता’ के चाहने वाले बहुत हैं। लाइब्रेरी में वापस आते ही दूसरा कोई इशू करवा लेता है, लेकिन तुम घबराओ नहीं, मेरे पास अपना है, कल तुम्हें मिल जाएगा और अगर बीच की रात का इंतज़ार न करना हो तो शाम को घर से ले लेना। .... उन दिनों उस उपन्यास के लिए लड़के-लड़कियों में इतना क्रेज था कि मैं शाम को ही तुम्हारे घर पहुँच गई थी। .... बाक़ी कहानी दुहराने की ज़रूरत नहीं।’

मुकुल - ‘मैंने घर आकर ‘गुनाहों का देवता’ उठाकर उसके पहले पन्ने के पीछे उपन्यास में आई एक पंक्ति पेन से लिख दी थी - छह बरस से साठ बरस तक की कौन-सी स्त्री है जो अपने रूप की प्रशंसा पर बेहोश न हो जाए। ..... और जब दो दिन बाद ‘विभाग’ में तुमने उपन्यास वापस किया था, तो मैं उत्सुक था देखने के लिए कि कहीं तुमने भी कुछ लिखा है या उपन्यास की किन्हीं पंक्तियों को अंडरलाइन किया है। मुझे अधिक इंतज़ार नहीं करनी पड़ी थी। शुरू के चेप्टर में ही गेसू के सुधा के साथ संवाद में से तुमने अंडरलाइन करके साइड में अपना नाम लिख दिया था। याद आया कि संवाद का वो कौन-सा अंश था?’

‘गृहस्थी के झमेलों में ऐसा कुछ कहाँ याद रहता है?’

‘लेकिन, मुझे याद है....।’

‘अच्छा! तो मैं भी सुनूँ कि मेरा मन कहाँ अटक गया था?’

‘रीमा, तुमने जो अंडरलाइन किया था, वह था - आसमाँ के बादलों के दामन में अपने ख़्वाब टाँक लेना और उनके सहारे ज़िन्दगी बसर करने का ख़्याल है बड़ा नाज़ुक, मगर रानी, ख़तरनाक भी है।’

‘हाँ, याद आ गया। उस समय आसमाँ के बादलों के दामन में जो ख़्वाब टाँगे थे, उन्हीं के सहारे ज़िन्दगी बसर कर रही हूँ।.....’

‘अपने फ़ैसले पर कभी मन में सवाल उठा है?’

‘नहीं।’

रीमा के मुख से ‘नहीं’  सुनकर मुकुल के मन में उठ रही दुविधा लगभग समाप्त हो गई।

उसका मन अब भी अपनी बात रीमा के आगे रखने को तैयार नहीं हुआ। अतीत के सुनहरे पल उसकी आँखों के समक्ष डोलने लगे ......

रीमा द्वारा ‘गुनाहों का देवता’ लौटाने के कुछ दिन पश्चात् की बात है कि मुकुल विभागीय कैंटीन में चाय का कप लिए पत्थर की शिला का सहारा लेकर चाय की चुस्कियाँ ले रहा था कि रीमा भी अपना कप लिए उसके पास आकर खड़ी हो गई थी। बात रीमा ने ही शुरू की थी - ‘मुकुल, तुम्हें नहीं लगता,  चन्दर ने सुधा के साथ न्याय नहीं किया! जब दिल-ही-दिल में वह उसे चाहता था तो उसे अपने प्यार का इज़हार भी करना चाहिए था।’

‘रीमा, चन्दर पर सुधा के पिता के इतने अहसान थे कि वह कभी भी अपने मन की बात सुधा या उसके पिता के सामने नहीं रख पाया। दूसरे, लेखक यदि उनके प्रेम को परवान चढ़ा देता तो  प्रेम को लेकर जो द्वन्द्व कथानक के माध्यम से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है, वह कैसे सम्भव होता? ..... जिस समय का यह कथानक है, उस समय में चन्दर ने जो किया, उससे अलग वह कुछ भी करता तो कथानक का वह प्रभाव नहीं पड़ना था, जो वर्तमान स्वरूप में पड़ा है।’

‘गुनाहों का देवता’ के आदान-प्रदान और चाय पर उसके विषय में चर्चा के पश्चात् रीमा और मुकुल एक-दूसरे के क़रीब आते गए। उनकी नियति सुधा और चन्दर सी न रही। दोनों ने जीवन-भर एक-दूसरे का साथ निभाने की क़समें खाईं और निभाई भीं।

परीक्षा परिणाम घोषित हुआ। मुकुल ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। विभागाध्यक्ष ने उसे रिसर्च स्कॉलरशिप दिलवाने में अहम योगदान दिया। उसने रीमा के साथ विवाह करने की इच्छा बाऊ जी के समक्ष रखी। रीमा के पिता सरकारी नौकरी में तो थे, किन्तु उनकी आर्थिक स्थिति मुकुल के कारोबारी परिवार की तुलना में कहीं नहीं ठहरती थी। पिता के न मानने पर काफ़ी दिनों तक मनोज व मुकुल के मध्य बातचीत बंद रही। मुकुल के कहने पर पार्वती मनोज को बिना बताए रीमा से मिली। पार्वती को रीमा मुकुल के सर्वथा योग्य लगी। आख़िर उसके सद्प्रयास सफल हुए। मनोज को माँ-बेटे के निर्णय को स्वीकार करना पड़ा। रीमा के घरवाले तो पहले से ही इस रिश्ते के लिए रज़ामंद थे। इस प्रकार दो प्रेमी जीवन-भर के बँधन में बँध गए।

जीवन हँसी-ख़ुशी बीत रहा था, किन्तु घर के आँगन में बच्चे की किलकारियों की गूँज सुनाई नहीं देती थी। अम्मा के दबाव में आख़िर मुकुल ने रीमा की सहेली डॉक्टर प्रेरणा से चिकित्सीय जाँच करवाई। रीमा की जाँच रिपोर्ट में किसी तरह की कोई कमी नहीं पाई गई। डॉक्टर प्रेरणा ने रीमा को सलाह दी कि मुकुल भी अपनी जाँच करवा ले तो बेहतर होगा। रीमा ने जब डॉक्टर प्रेरणा का सुझाव मुकुल के सामने रखा तो उसने कहा, मुझे जाँच करवाने में कोई एतराज़ नहीं, लेकिन यह बात अम्मा के कानों तक न पहुँचे तो अच्छा होगा। रीमा को भला, इसमें क्या एतराज़ हो सकता था!

इन बातों को पाँच साल से अधिक हो गए।

कल डॉक्टर प्रेरणा यूनिवर्सिटी में अपनी बेटी के पीएचडी के गाइड से मिलने के लिए आई तो वह मुकुल को मिलने उसके विभाग में पहुँच गई थी। मुकुल अपने रूम में अकेला ही मिल गया था। औपचारिक शिष्टाचार के उपरान्त डॉक्टर प्रेरणा ने मुकुल को सम्बोधित करते हुए कहा था - ‘भाई साहब, पिछले काफ़ी समय से आपसे व्यक्तिगत बात करना चाह रही थी, किन्तु कर नहीं पाई क्योंकि उससे रीमा को दिया वचन भंग होता है......।’

‘डॉ. साहब, विचित्र-सी स्थिति लग रही है! आपके कथनानुसार आप मुझसे कोई व्यक्तिगत बात करना चाहती हैं, लेकिन नहीं कर पा रहीं, क्योंकि उससे रीमा को दिया वचन भंग होता है। मैं महसूस कर रहा हूँ कि जो भी बात है, वह अन्दर-ही-अन्दर आपको विचलित किए हुए है ..... आप हमारी यानी रीमा और मेरी शुभचिंतक हैं। यदि आपके कह देने से हम दोनों या किसी एक का भी हित होता है तो आपको वचन भंग होने की चिंता नहीं करनी चाहिए और बात कहकर अपना मन हल्का कर लेना चाहिए।’

डॉक्टर प्रेरणा मुकुल के इस कथन के बावजूद कुछ देर तक सोचती रही और मुकुल प्रतीक्षा करता रहा। आख़िर डॉक्टर प्रेरणा ने कहा -

‘भाई साहब, जब भी रीमा मिलती है, मुझे लगता है जैसे वह किसी मानसिक उलझन में से गुजर रही है। पूछने पर कभी स्पष्ट कुछ नहीं बताया, लेकिन मुझे लगता है कि आपके पारिवारिक सम्बन्धों में स्वाभाविकता नहीं है, रीमा को कुछ कचोटता रहता है।’

‘डॉ. साहब, आपको ऐसा क्यों लगता है?’

‘एक तो घर में बच्चे की कमी हो सकती है।....’

‘मैंने रीमा को इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा, न ही उसने कभी यह विषय उठाया है।’

‘भाई साहब, मैं आपको बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ, लेकिन.......’

‘लेकिन क्या?’

‘भाई साहब, मुझे लगता है कि रीमा को बुजुर्गों के ताने सहने पड़ते हैं। स्वयं में कोई कमी न होते हुए भी उसके लिए यह सब कुछ सहना ही उसकी मानसिक उलझन का वायस लगता है।’

‘डॉ. साहब, अकेले रीमा ही नहीं, उस लिहाज़ से तो मेरी चिकित्सीय जाँच रिपोर्ट भी ठीक आई थी।’

‘नहीं भाई साहब, नहीं। आपकी जाँच रिपोर्ट रीमा ने वचन लेकर बदलवाई थी। अपनी घनिष्ठ मित्र की ख़ुशी के लिए मैंने अपनी प्रोफेशनल इथिक्स के विरुद्ध जाकर भी उसकी मदद की थी, लेकिन अब मैं उसकी परेशानी और अधिक नहीं देख सकती, इसलिए बता रही हूँ।’

मुकुल को झटका लगा। किंकर्तव्यविमूढ़ावस्था में उसके मुख से निकला - ‘क्या ऽऽऽ?’

‘भाई साहब, आपकी रिपोर्ट में स्पर्म काउंट मिनीमम से भी बहुत कम था। मैंने आप लोगों को रिपोर्ट देने से पहले रीमा से फ़ोन पर बात की थी। तब उसने रिपोर्ट बदलने की रिक्वेस्ट की थी और कहा था कि मुझे वचन देना होगा कि मैं यह सीक्रेट अपने तक रखूँगी। .... आज मैंने अपनी फ़्रेंड की ख़ुशी के लिए उसको दिया वचन भंग किया है और मुझे विश्वास है कि आप इसे प्रॉपर परस्पेक्टिव में ही लेंगे।’

‘डॉ. साहब, देर से ही सही, आपने मुझे मेरी वास्तविकता से परिचित कराया। आपका धन्यवाद। ... आप निश्चिंत रहें, रीमा के साथ मेरे सम्बन्धों में कोई नकारात्मकता नहीं आएगी।’

मुकुल - ‘रीमा, कल यूनिवर्सिटी में डॉ. प्रेरणा आई थी। उसने जो बताया, उससे एक अँधी आशा पर पूर्ण-विराम लग गया है। ... न जाने क्या सोचकर तुमने डॉ. प्रेरणा को प्रोफेशनल इथिक्स के विरुद्ध उससे मेरी जाँच रिपोर्ट बदलवाई!’

मुकुल के इस उद्घाटन से रीमा सकते में आ गई। कुछ पल गुजरे, तब वह बोली - ‘मुकुल, मुझे लगा था कि सही रिपोर्ट जानकर कहीं तुम्हारे पुरुष-अहं को ठेस न पहुँचे, बस इसीलिए।’

‘और इसके एवज़ में इतने सालों तक अम्मा-बाऊ जी की नज़रों में दोषी बनी रही! ... रीमा, यह तुमने ठीक नहीं किया। .... तुम्हें मेरे प्यार पर अविश्वास करते समय ज़रा भी तुम्हारे मन ने तुम्हें रोका नहीं? .... कैसी विडम्बना है! ..... यदि संतान-सुख पाना होता तो हमारे पास अनेक विकल्प थे - हमारे शास्त्र ‘नियोग’ की आज्ञा देते हैं। वर्तमान विज्ञान की बदौलत स्पर्म-बैंक तक की सुविधा उपलब्ध है।’

‘मुकुल, मुझे क्षमा कर दो, मैंने अपने प्यार पर अविश्वास किया। तुमसे आत्मीय स्तर पर जुड़ने से पहले मैंने ‘नियोग’ पर डॉ. सुरेन्द्र वर्मा के नाटक ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की प्रथम किरण तक’ का मंचन देखा था। ‘स्पर्म बैंक’ की जानकारी भी मुझे है। लेकिन, मैंने संतान-सुख के लिए इनमें से किसी विकल्प की कभी कल्पना भी नहीं की। .... यदि यह सुख भाग्य में नहीं लिखा, न सही। हमारा प्यार किसी ज़रूरत की पूर्ति का मोहताज नहीं। असल में, ज़रूरतों पर आधारित रिश्ते स्थाई नहीं होते। ..... ‘एक तेरा साथ हमको दो जहाँ से प्यारा है, तू है तो हर सहारा है।’

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लाजपत राय गर्ग

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