Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 71 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 71

भाग 70 जीवन सूत्र 81,82

 

जीवन सूत्र 81:श्रद्धा का अर्थ अंधभक्ति नहीं

 

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है: -

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।।3/31।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धा रखते हुए मेरे इस मत का सदा पालन करते हैं,वे कर्मों से(अर्थात कर्मों के बन्धन से)मुक्त हो जाते हैं।

पूर्व के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो मार्ग बताया है,उस पर श्रद्धा भक्ति पूर्वक चलने की आवश्यकता है।मनुष्य तार्किक होता है और अनेक तरह के तर्क-वितर्क में वह उलझा होता है। किसी व्यक्ति या मत क्या, यहां तक कि भगवान में श्रद्धा उत्पन्न करना अत्यंत कठिन है।

श्रद्धा की बड़ी महिमा है।स्कंद पुराण में कहा गया है-श्रद्धैव सर्वधर्मस्य चातीव हितकारिणी।अर्थात श्रद्धा ही समस्त धर्मों के लिए हितकर है।श्रद्धा से ही मनुष्य को दोनों लोकों में सिद्धि प्राप्त होती है। श्रद्धापूर्वक पूजन करने वाले को पत्थर की मूर्ति भी फल देने वाली होती है।भक्ति से पूजने पर अज्ञानी गुरु भी सिद्धि देने वाला हो जाता है।

यह आवश्यक नहीं कि अंधश्रद्धा का पालन किया जाए।वहीं दूसरों की बातों में आकर भी किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर लेना मूर्खता है। श्रद्धा भाव से उत्पन्न होती है और भाव एक बार विश्वास जमने के बाद ही पैदा होंगे। ईश्वर की बनाई हुई व्यवस्था में हर जगह सकारात्मकता ढूंढने की कोशिश करेंगे और किसी विपरीत जा रहे परिणाम का भी दूरदर्शिता से विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि जीवन में नकारात्मक कुछ भी नहीं है।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि देवता न तो काष्ठ में मौजूद रहता है, न पाषाण में और न मिट्टी की मूर्ति में।देवता भाव में रहता है।अतः भाव ही कारण है।

 

जीवन सूत्र: 82:केवल दोष देखते रहने की आदत को भी छोड़ना होगा

 

ईश्वर के बताए मार्ग पर चलने के लिए हमें केवल दोष देखते रहने की आदत को भी छोड़ना होगा।श्रद्धा हमारे कार्यों को शुद्ध बनाती है,इसीलिए हमारे द्वारा किए जा रहे अभीष्ट कार्यों में पवित्रता और सच्चाई आती है और हम भगवान कृष्ण के निर्देशों के अनुसार कर्ता रहित कर्म और आसक्ति रहित कर्म की ओर एक कदम आगे बढ़ा लेते हैं।

 

पूर्व के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि कर्म के पथ पर दृढ़ता से चलने के लिए अपने कर्मों को सब कुछ जानने वाले ईश्वर में चित्त को लगाए हुए व्यक्ति द्वारा अर्पित कर दिया जाना और उसका आशा रहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध करना आवश्यक है। श्री कृष्ण ने इस श्लोक में कर्मों के बंधन से मुक्त होने के लिए दोष दृष्टि से रहित होकर श्रद्धा पूर्वक ईश्वर के बताए मार्ग का अनुसरण करने के लिए कहा है।

दोषदृष्टि से रहित होना इतना आसान नहीं है। मनुष्य की यह स्वभावगत विशेषता है कि उसे अपनी कमियां समझ में नहीं आती और वह दूसरों में दोष ढूंढने लगता है। संत कबीर ने कहा है,

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।

जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।

अगर व्यक्ति स्वयं के भीतर झांकना शुरू करे, तो उसे यह समझ में आएगा कि जिन दोषों को वह दूसरे में देख रहा है और इसके कारण उस व्यक्ति के प्रति मन में तिरस्कार की भावना रख रहा है, स्वयं उसके भीतर भी अनेक दोष हैं।ऐसी दृष्टि विकसित होने पर फिर उसके मन में लोगों के प्रति जो अतिरेक तिरस्कार के भाव आते हैं, वे धीरे-धीरे तिरोहित होने लगेंगे। दूसरी बात श्री कृष्ण ने श्रद्धा की कहीं है। श्रद्धा केवल ईश्वर के पथ पर आगे बढ़ने के लिए आध्यात्मिक उन्नति, अपने मानसिक शांति और आत्मिक आनंद के लिए ही आवश्यक नहीं, बल्कि जिन कामों को हम करते हैं अगर उनमें श्रद्धा दृष्टि नहीं रखेंगे तो वह कार्य हम पर सवार होने लगेंगे। अतः उन कार्यों के प्रति मन में सम्मान भाव रखना आवश्यक है। इससे एक गौरव बोध की उत्पत्ति होगी जो मनुष्य के कार्य को स्वत: ही उपासना में बदल देती है।

 

डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय