Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 177 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 177

जीवन सूत्र 551 जैसी करनी वैसी भरनी


गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है:-


कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।

रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्।(14/16)।

इसका अर्थ है:-

सात्विक कर्म का फल सात्विक और पवित्र होता है। रजोगुण का फल दुःख और तमोगुण का फल अज्ञान होता है।


मनुष्य अगर सात्विक कर्मों का आचरण करता है तो वह धैर्य और एकाग्र चित्त होकर किसी कार्य को करता है। ऐसा करते समय उसके मन में लोभ की भावना नहीं होती। वह परमात्मा के अभिमुख होता है। उसका मन निर्मल और शांत होता है। फलों की कामना से किए जाने वाले कर्म राजस कर्म होते हैं,जिनके उद्देश्य सांसारिक सुखों, भोगों और उपलब्धियों की कामना से होते हैं। जब मनुष्य तामसिक कर्म करता है तो वह नकारात्मकता से भरा होता है।असत्य भाषण, निंदा, चोरी, दूसरों को पीड़ा देना, अत्याचार आदि इसके अंतर्गत आते हैं।


जीवन सूत्र 552 कर्मों में सात्विकता रखें



अगर मनुष्य के कर्म केवल निज लक्ष्य केंद्रित व फल की इच्छा से होते हैं और कामनाओं की पूर्ति में बाधा होने व असफलता पर अगर मनुष्य संतुलित नहीं रहा तो वह नकारात्मकता की ओर मुड़ जाता है।यह मनुष्य को तामसिकता की ओर ले जाती है। अगर हमारे कर्म सात्विक होंगे तो फल भी वैसे ही प्राप्त होंगे।सात्विक फल वे माने जाएंगे, जिनकी प्राप्ति पर मन में एक स्थायी आनंद और संतोष का भाव हो।जिसकी प्राप्ति भौतिक साधनों और भोगों पर निर्भर न हो।यहां अपनी संकल्प शक्ति से हम मन को तामसिक वृत्ति पर नियंत्रण लगाकर राजस कर्मों के आकर्षण से बचाने की कोशिश करेंगे तो जीवन में चहुँ ओर सात्विकता ही होगी।


जीवन सूत्र 553 सात्विक,तामसिक और राजसिक गुणों में संतुलन रखें


एक सामान्य मनुष्य को सात्विक, राजसिक और तामसिक इस तीन वर्गीकरण से क्या मतलब। वास्तव में कर्म की शुरुआत करने के समय मनुष्य यह निश्चय कर कर्म नहीं करता कि वह सात्विक कर्म कर रहा है,राजसी या तामसिक।वास्तव में जीवन पथ के सभी कर्म मूल रूप से सात्विक ही होते हैं और मनुष्य के इन पर नियंत्रण नहीं रख पाने के कारण विकृति आते-आते ये राजस और तामस बन जाते हैं और इनका रूप पूरी तरह परिवर्तित हो जाता है।



(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय