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बंधक

मेरी ननिहाल में शाम गहराते ही पाँचों बच्चे मुझे आ घेरते, ’’तुमसे तुम्हारे दादा की कहानी सुनेंगे....’’

उनमें कुक्कू और हिरणी मुझसे बड़े थे। कुक्कू दो साल और हिरणी एक साल। टीपू मेरे बराबर का था और बाकी दोनों मुझसे छोटे। बच्चों के जमा होते ही मेरी दोनों मामियाँ भी मेरे पास आ बैठतीं। वे दोनों सगी बहनें थीं और एक-एक काम एक साथ किया करतीं। बैठते ही वे बच्चों को उकसाने लगतीं, ’’कहानी शुरू कराओ न! फिर तुम लोगों को सोना है।"

लेकिन मैं रूका रहता। अपनी नानी के इंतजार में।

इधर मुझे अकेले भेजते समय मेरी माँ अपनी हिदायत देना न भूलतीं, ’’उधर तुझे होशियार रहना है। बच्चे जब भी तुम्हारी नानी से बदतमीजी दिखाएँ उन्हें शर्मिन्दा करना है, बड़ों का लिहाज न रखोगे?’’

उस शाम उन्हें मैंने अपने दादा की आपबीती सुनाने की सोची। दादा को अगोचर रखकर......

’’सन् 1947 के लाहौर के मेयो मेडिकल काॅलेज में एक नौजवान अपनी डाॅक्टरी की पढ़ाई के आखिरी साल में था,’’ मैंने कहानी शुरू की, ’’वहीं अस्पताल में बने होस्टल में रहता था....’’

’’नौजवान तेरे दादा का बेली (मित्र) था?’’ मेरी नानी हँसने लगीं। वे जानती थीं बटवारे से पहले मेरे दादा मेयो अस्पताल में ही पढ़ते थे।

’’हमने सच्ची कहानी नहीं सुननी,’’ तेरह वर्षीय टीपू चिल्लाया।

’’लाहौर की तो कतई नहीं!’’ कुक्कू मुँह बिचकाने लगा।

’’न?’’ नानी ताव खा गई, वे खुद लाहौर की थीं, ’’लाहौर बुरी जगह है क्या? पहले तो बल्कि लोगबाग कहा करते, लाहौर राजा, अमृतसर वजीर और लुधियाणा फकीर......’’

’’हाँ,’’ मैंने हामी भरी, ’’पंजाब के सभी शहरों में लाहौर ही सबसे बड़ा था......’’

’’पीछे उधर तो यह भी कहा जाता था,’’ नानी उत्साह में बह लीं, ’’जिहणे लाहौर नहीं देखिया औह नहीं हाले जन्मियाँ.....(जिसने लाहौर नहीं देखा उसका जन्म लेना अभी बाकी    है....)।’’

’’आप पहले और पीछे की बात मत करिए,’’ हिरणी ने नानी को फटकार दिया, ’’हम कोई नई बात सुनेंगे....’’

मेरी दोनों मामियाँ फक्क से हँसने लगीं।

’’चल, चिन्ती, उठ यहाँ से,’’ अपने प्रति मेरी लिहाजदारी पर नानी अक्सर इतरातीं और ढोल बजाकर मुझ पर अपना अधिकार प्रकट किया करतीं, ’’कैसे गुस्ताख लोगों को कहानी सुना रहे हो?’’

’’नहीं,’’ कहानी सुनने का दस वर्षीया गुणी को कुछ ज्यादा ही शौक रहा, ’’तुम कहानी सुनाओ, भाई । अब बीच में न कोई बोलेगा और न ही कोई हँसेगा....’’

’’13 जून, 1947 को उस मेयो अस्पताल में एक अंग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल एक हेड अन्जरी केस लाया,’’ मैं शुरू हो लिया, ’’लाहौर के भुजंग इलाके में किसी के चाकू ने उसके नाक का बाँसा चीर डाला था और दायीं आँख बहनापे में बन्द हो गई थी। लेकिन उसके दाँत, गाल और माथा जरूर पूरे के पूरे बच गए थे। शायद इसीलिए वह बात खूब करता था। उम्र उसकी सोलह-सत्रह के बीच की थी और हमारे उस नौजवान कच्चे डाॅक्टर का वह कुछ ही दिनों में अच्छा दोस्त बन गया था।

"  उसकी सुबह, आज की खबर ? पूछने से शुरू हुआ करती और हमारे नौजवान की उसके सवाल के जवाब की तैयारी में।

"खबरें उन दिनों अजीब लचीली और टेढ़ी-मेढ़ी रहा करतीं। सभी लोग दस बार सोच कर मुँह खोलते ! सन 1946 की अगस्त की ’कलकत्ता किलिंग्स’ से शुरू हुआ हिन्दू-मुसलमान फसाद बंगाल और बिहार से होता हुआ जनवरी तक पंजाब में भी उतर चुका था। 24 जनवरी के दिन पंजाब असेम्बली के प्राइम मिनिस्टर सर खिज़र टिवाना ने पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज की मंजूरी में मुस्लिम लीग नैशनल गारॅडज और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर जो रोक लगाई थी, वह तीसरे ही दिन यानी 27 जनवरी के दिन वापस लेनी पड़ी थी। मुल्तान, लाहौर, गुजरात और अमृतसर में फिर भी ’खिज़र वज़ारत मुर्दाबाद’ के नारे बन्द न हुए थे। असल में यूनियनिस्ट पार्टी के लीडर खिज़र हयात खान टिवाना 175 सीटों वाली पंजाब असेम्बली में सिर्फ 18 विधायक रखते थे जबकि सन् 1946 के उस चुनाव में मुस्लिम लीग को 75 सीटें मिली थीं, कांग्रेस को 51 और सिक्खों को 22। मुस्लिम लीग खुद सरकार बनानी चाहती थी और 2 मार्च के आते-आते उसने खिज़र के संग एक समझौता भी कर लिया था और उस दिन को विक्टरी डे (विजय दिवस) की तरह पंजाब भर में मनाया भी गया था।

"तीन मार्च को खिज़र ने अपना इस्तीफा असेम्बली में रख दिया था। और इस तरह लगभग बीस साल से चला आ रहा यूनियनिस्ट पार्टी का राज खत्म हो गया था। यह पार्टी सन् 1923 में सिकन्दर हयात खान ने सर छोटू राम के साथ मिलकर बनाई थी और दिसम्बर, सन् 1942 को जब सिकन्दर चल बसे थे तो सर उमर हयात की अंग्रेजों के प्रति भक्ति पंजाब-भर में मशहूर थी। सन् 1919 के अमृतसर के असहयोग आन्दोलन को कुचलने के लिए उन्होंने अपनी अस्तबल के 150 घोड़े ब्रिटिश सरकार को इस्तेमाल के लिए देकर अपने लिए तरफ़दारी तो जीत ही ली थी। ऐसे में पंजाब के गवर्नर इवान जेनकिन्ज भी मुस्लिम लीग को सरकार नहीं बनाने देना चाहते थे। उन्हें शक था पंजाब मुस्लिम लीग को सरकार में समर्थन देने का दावा पेश कर रहे थे, वह दावा उनका झूठा साबित होगा। अभी यह मीटिंग चल ही रही थी कि असेम्बली के बाहर ’पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे बुंलन्द हो उठे थे।

"चार मार्च को लाहौर और अमृतसर में कहर एक साथ टूटा था और जब तक जून की तीन तारीख में ’माउन्टबेटेन प्लैन’ ने बंगाल और पंजाब के बँटवारे की पुष्टि की थी, लाहौर में तीन पैरामिलिट्री दल तैयार हो चुके थे। जून ही की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड्ज की संख्या 39,000 तक पहुँच चुकी थी, आर.एस.एस. की 58,000 और सिक्ख अकाली फौज की 8,000...’’

’’तुम फिर आँकड़े फड़फड़ाने लगे, ’’कुक्कू ने मुझे आँखें दिखाई, ’’कहानी तुम्हारे पास है या नहीं?’’

’’है,’’ मैं हँसा, ’’13 अगस्त सन् 1947 के दिन अब मरीज लड़के ने हमारे कच्चे डाॅक्टर से पूछा, ’आज की खबर?’ तो डाक्टर ने सिर हिला दिया, ’शहर में आज कफ्र्यू है और अखबार नहीं आई....’

"तो लड़का हँस पड़ा, ’आज मेरे पापा भी नहीं आए.....?’ पिछली 13 जून से लेकर 12 अगस्त तक लड़के को अस्पताल में दाखिला दिलाने वाला वह अंग्रेज़ पुलिस कांस्टेबल हर रोज उसे देखने आता रहा था।

’’ ’कैसे आते?’ हमारे डाॅक्टर ने कहा, ’हमारे अस्पताल की मौच्र्युरी (मुरदाघर) की तरफ आने वाली सभी गलियाँ उतारी हुई लाशों से भरी हैं। लोगों का अनुमान है वे तीन साढ़े तीन सौ से कम क्या होंगी?....’

’’शाम पाँच बजे जब हमारा नौजवान लड़के से दोबारा मिलने गया तो वह अजीब उत्तेजना से भरा था, ’मेरी अलमारी का ताला खोल सकोगे?’ उसका पापा अभी तक न उसे मिलने आया था.....’

"'अलमारी में क्या है?’ प्राइवेट वार्ड के मरीजों को एक निजी अलमारी अस्पताल की तरफ से दी जाती थी जिसमें अपना निजी ताला लगाने की उन्हें पूरी तरह छूट थी.....’’

’’एक पुलिस कांस्टेबल और प्राइवेट वार्ड?’’ टीपू हँसा।

’’वह कांस्टेबल एक अंग्रेज जो था और अंग्रेजों को अस्पताल में भी ज्यादा सुविधाएँ मिला ही करती थीं,’’ मैंने कहा।

’’कहानी सुनने दो, टीपू,’’ कुक्कू ने टापू को आँखें दिखाईं।

’’उस अलमारी में अस्पताल के ताले की जगह एक दूसरा ताला लटक रहा था.....’इसकी चाबी देना’, हमारे नौजवान ने लड़के से कहा.....मगर लड़के के पास चाबी न थी....’मेरे लिए तुम क्या यह अलमारी खोल सकते हो?' लड़के ने जिद की…..

"  पेचकस की मदद से हमारे नौजवान ने अलमारी की कुन्डी दोनों तरफ से अलमारी से अलग कर दी.....

"अलमारी खुली तो उसमें नोटों की गड्डियों को अपनी मुहरों में छिपाए पाँच लिफाफे मिले और लिफाफों के नीचे मिली एक संदूकड़ी, जिसका तल चपटा था और जिसके बीच में से उठे हुए उसके ढलवाँ ढक्कन में एक और कुंडी थी जिस पर पीतल का एक मजबूत ताला पड़ा था।

"' इसे भी खोलो तो' लड़के ने कहा।

अंदर एक सन्दूकड़ी थी जिस की सात तहें एक-एक करके खुलती चली गईं....सभी में बेशकीमती गहने धरे थे....

तभी दरवाजे पर एक तेज दस्तक हुई..

..’दरवाजा खोलने से पहले अलमारी बन्द कर देना,’ कहकर लड़का रह-रहकर काँपने लगा....

’तुम क्यों घबरा रहे हो? यह जरूर तुम्हारे पापा हैं,’ हमारे नौजवान ने उसे तसल्ली देनी चाही....

".लड़का फूट-फूटकर रोने लगा.....

".रूलाई के बीच उसने अपना रहस्य खोला। वह अनाथ था और उसे मेयो अस्पताल पहुँचाने वाला वह पुलिस कांस्टेबल उसका पिता न था, अगुवा था। लड़के को जख्मी भी उसी कांस्टेबल ने किया था ताकि उसके इलाज के नाम से वह इस अस्पताल में यह वार्ड पा सके.....

" दरवाजा खोलने पर छह पुलिस बूट धम्म-धम्म वार्ड में आ दाखिल हुए....

"  तीनों ने पुलिस कांस्टेबलों की वर्दी पहन रखी थी और तीनों ही अंग्रेज थे.....और अजनबी थे....’’

’’पंजाब पुलिस में इतने अंग्रेज रहे क्या?’’ दस वर्षीय चुन्नू गहरी जिज्ञासा रखता था।

"’बस कांस्टेबुल ही तो रहे,’’ मैंने कहा, ’’बँटवारे के समय पंजाब पुलिस में कांस्टेबुलों की कुल गिनती 24,095 थी जिनमें 17,848 मुसलमान थे और 6,167 सिक्ख और हिन्दू। और यूरोपीय और एंग्लाइंडियन मिलाकर 80......’’

’’तुम फिर बहक रहे हो,’’ कुक्कू ने मुझे चेताया, ’’हमें कहानी सुननी है.....इतिहास से बाहर....’’

’’मगर यह कहानी तो इतिहास के छत्ते के नीचे खड़ी है, छत्ते की बात तो फिर करनी ही पड़ेगी....’’

’’तीनों सीधे आलमारी की तरफ लपक लिए.....

.’मेरे पापा कहाँ हैं?’ लड़के ने पूछा। " वे  तुम्हें और तुम्हारी अलमारी के सामान को यहाँ से हटाना चाहते हैं,’ उनमें से एक ने कहा.....

"’यह नामुमकिन है,’ हमारे नौजवान ने हिम्मत बटोरी, ’इस अलमारी में जो लूट का सामान धरा है, उसकी खबर आपके डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट, मिस्टर यूसटेस को दी जा चुकी है और उन्हीं के हुक्म पर मैं इस लड़के के हिरासत पर जाने तक इसे अपनी निगरानी में रखे हूँ,....पलक झपकते ही तीनों चम्पत हो गए....’’

’’वह कच्चा डाॅक्टर भी अंग्रेज था क्या?’’ चुन्नू ने पूछा।

’’हम उसे किसी भी देश, जाति या धर्म का कह सकते हैं,’’ मैंने टाल जाना चाहा, ’’उस जैसे लोगों को उनका देश या धम अपना बंधक बनाकर नहीं रखता....’’

’’अच्छा यह बताओ,’’ हिरणी चतुर थी, ’’वह आजकल कहाँ है ? इंग्लैंड में, भारत में, या फिर लाहौर ही में ?’’

’’इधर भारत में,’’ सच छुपाना मेरे लिए मुश्किल हो गया, ’’उन कांस्टेबुलों के गायब होते ही वह सीधा अपने मेयो अस्पताल के प्रशासक के पास गया। प्रशासक ने उसे मार्गरक्षी एक दल के साथ लाहौर रेलवे स्टेशन पर पहुँचवाया। लाहौर से अमृतसर जाने वाली फ्रंटियर मेल बस छूटने ही जा रही थी और यह भी संयोग ही था कि 13 अगस्त की यह फ्रंटियर मेल लाहौर से भारत आने वाली आखिरी रेलगाड़ी थी। रास्ते-भर हमारे नौजवान ने बरछों, बाणों, बल्लों, तलवारों, हथगोलों और बम-बंदूकों का प्रतिशोधी और नाशी संग्राम देखा।

’’बाद में खबरों ने भी पुष्टि की कि पाकिस्तान छोड़ने की कोशिश में बीस-पच्चीस लाख लोग अगर उधर जान से हाथ धो बैठे थे तो पाकिस्तान पहुँचने की कोशिश में भी हूबहू उतने ही लोग इधर भी जान गँवा बैठे थे। बेघर होने वाले लोगों की गिनती भी दोनों तरफ एक जैसी रही थी, सत्तर से अस्सी लाख....’’

’’वह लड़का वहीं लाहौर में रह गया?’’ चुन्नू ने पूछा।

’’हाँ,’’ मैंने कहा, ’’मेयो अस्पताल के सभी डाॅक्टर अपने मरीजों के साथ अच्छा सुलूक ही रखते थे.....उनमें भी कोई अपने देश या जाति-धर्म का बंधक न था.....’’