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व्यथा गुलामी की

बात 1920 और 1930 के दशक की है। यह वह समय था जब भारत गुलामी की चरम सीमा पर था। गरीबी भी अपने चरम सीमा पर थी। अधिकांश किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे।परंतु अंग्रेजी शासक वर्ग को इसकी कोई चिंता नहीं थी। ओपनबेशक शासन को भारतीय गरीबी से कोई मतलब नहीं था। इंग्लैंड के प्रधामंत्री श्री डोनल्ड भारतीयों को घ्रणा की दृष्टि से देखे ते धे। वे भारत के कट्टर विरोधी धे और उनके हृदय में भारतीयों के प्रति कोई दया भाव नहीं था।

बहुदा सूखा पड़ जाता था और किसान लगान देने में असमर्थ हो जाता था । परंतु इस से अंग्रेजी शासन को कोई लेना देना नहीं। अंग्रेजों को लगान चाहिए, चाहे किसान बैल बिक्री करें या घर, लगान अवश्य अदा करें। अंग्रेजों की कार्य प्रणाली उसी प्रकार की थी जैसे मर्चेंट ऑफ वेनिस में शायलोक की मांग। शायलोक का किरदार उधार पैसा ना देने की असमर्थता व्यक्त करता है। परंतु शायलोक का कहना है कि करार नामे के अनुसार उधार पैसे न अदा करने की स्थिति में उसे कलेजा का एक पाउंड टुकडा काटने का अधिकार है। अंग्रेज भी शायलोक से कम नहीं थे। वे भारतीय किसान को किसी भी प्रकार की छूट नही देना चाहते थे। अंग्रेजों की शर्तं इतनी कठोर थी कि बहुत सारे किसान उन शर्तों के दबाव से अपना सर्वस्व खो बैठे।अनगिनत अपनी जान भी गंवां बैठे।

लगान ना देने के कारण अंग्रेज अक्सर जबरदस्ती किया करते थे । वे किसान के बैल तथा घर के बर्तन वगैरह ले जाते थे । गरीब किसानों के बैल, गाय और गृहस्त के बर्तन वगैर जानेसे स्थिती और गंभीर हो जाती थी। कैसा निर्दयी समय था।

बर्तन भांडे तो अंग्रेज ले गए और उसके साथ साथ खेती में सहायता करने वाले बैलों को भी। अब खाना कैसे बनाएं और खेती कैसे करें। यह जीवन मरण का सवाल था। अधिकांश किसानों का दिन, भूख प्यास मैं ही गुर्जर जाता था । बड़े बूढ़े तो भूख कुछ हद तक सहन कर लेते थे परंतु भूख से तड़प ते हुए बच्चों को नहीं देखा जा सकता था। जिनकी सहनशक्ति अधिक थी, वे बच गए और जो शारीरिक दृष्टि से कमजोर थे वे भगवान को प्यारे हो गए । उनकी याद मेें मां बाप केवल दो आंसू बहा कर शोक मना लिया करते थे। इस भयानक और हृदय विदारक स्थिति का वर्णन केवल वे मनुष्य कर सकते हैं जो 90 वर्ष की आयु से ऊपर हैं।


ऊपर तो किसानों की दयनीय स्थिति का वर्णन है परंतु उनका क्या हाल था जो निम्न वर्ग के थे। यह वर्ग वंचित वर्ग था। कुए के पास बैठकर इस वर्ग की महिलाएं तथा पुरुष इस इंतजार में बैठे रहते थे कि कोई उच्च वर्ग का दयालु आएगा और इनको भी एक बाल्टी पानी मिल जायेगा। ये लोग कभी-कभी पानी के भी मोहताज हो जाया करते थे। फसल कटने के पश्चात ये लोग खेत में जा कर वहां से गेहूं की पड़ी हुई वाले चने जौ आदि एकत्र करके ले आया करते थे। इससे इनका थोड़ा बहत गुजारा हो जाता था। वैसे इनके पास आमदनी का और कोई स्थायी साधन नहीं था । परंतु एक व्यवस्था अच्छी थी कि किसान इस वर्ग को प्रतिदिन एक रोटी दे दिया करता था । किसान वर्ग इसके साथ वैसा ही व्यवहार करता था जैसा अंग्रेज किसानों के साथ किया करते थे। सच कहा जाए तो निम्न वर्ग बहुत ही दयनीय स्थिति में था।

कोई वर्ग सुखी नहीं था परंतु दिन कट रहे थे इस उम्मीद में की कब य निरंकुश अंग्रेज जाएंगे। यदि कोई प्रसन्न था तो केवल मुट्ठी भर धनाढ्य लोग।


किसानों का खून चूसने वाले एक और परजीवी थे और वे थे साहूकार। ये अंग्रेजों से कम नहीं थे । अंग्रेजों से अत्याचार करने में ये दो कदम आगे थे। जो किसान लगान देने में असमर्थ थे साहू कार किसान की युवा पत्नी और बेटी का शारीरिक शोषण करने में कम नहीं थे। साहूकारों द्वारा महिलाओं का मानसिक और शारीरिक शोषण निरंतर चलता रहता था।

इस प्रकार के अत्याचार से तंग आकर कभी कभी महिलाएं आत्महत्या भी कर लिया कर लिया करती थीं। ये अपनी किस्मत कोस कर रह जाते थे। वे अपने भाग्य से समझौता कर लिया करते थे। शाम के समय महिलाएं मिलकर अपनी किस्मत पर आंसू बहा लिया करती थी ।


1920 और 30 के दशक में न जाने कितने लाखों गरीब किसानों की बहन बेटियों के आंसू निकले होंगे, इसकी कोई गणना नहीं है। हमारे पडोस में रहने वाली ताई कलावती अपने ससुर और ससुर के पिता के साथ रहती थी। एक दिन अंग्रेजों आ धमके और समान समेटने ने लगे। ताई कलावती अंग्रेजो के सामने बहुत गिड़गिड़ाई। मैंने ताई को अनेकों प्रकार से हाथ जोड़ते हुए और कई प्रकार से हाथों की क्षमा याचना मांगते हुए देखा था । हमारी ताई ससुर को क्षमा करने की अंग्रेजों से भीख मांग रही थी। परंतु मजाल है की अंग्रेज क्षमा करें । अंग्रेज उनके बैलों को ले गए। गनीमत है की वे उनके बर्तन भांडे नहीं ले गए। उस दिन तो उनका खाना बन गया था ।

शाम के समय आस पडोस के प्रियजन मिले बैठे। पास पड़ोस के भी कुछ प्रिय जन आ गए थे। एक दूसरे का दर्द सुन कर मन हल्का हुआ किसी के आंसू निकले, तो कोई फफक फफक कर रो गया।

उस समय की सबसे सुंदरता यह थी की आपस में भाईचारा प्यार मोहब्बत बहुत अधिक था। मुसीबत के समय प्रियजनों से मिल कर दिल को थोडी सी सांत्वना मिल जाती थी। खेद है की मुसीबतों का कोई अंत नहीं दिख रहा था।

गांव में हम अकेले नहीं थे जो एसे दुख से पीड़ित थे। हमारे जैसे और भी अनेक भाई थे और प्रत्येक परिवार अपने ढंग से अपने दुखों का निवारण करने में लगा हुआ था । परंतु यह सत्य है कि समय हृदय विदारक था और आंसू रुुुकने का नाम नही लेेते थे। कहां तक इस दुख का वर्णन किया जाए? यह एक अंत हीन व्यथा थी जिसमें केवल आंसू बहाने के अलावा कुछ और नहीं था।

गरीबी थी भुखमरी थी खाने पीने का भी अभाव था परंतु इन सब के होते हुए भी प्रति परिवार बच्चों की संख्या अधिक थी। ऐसा कहते हैं की अमीरों के कम संतान होती है और गरीबों के अधिक।


जब कभी भी मुसीबत आती है वह अकेली नहीं आती, इंसान को वह चारों तरफ से घेर लेती है और निकलने के सब रास्ते बन्द हो जाते है।
सबसे अच्छी और सुंदर बात उस समय की यह थी की प्रत्येक प्राणी या मनुष्य को ईश्वर पर अटूट विश्वास था। कुछ भी हो जाने के पश्चात शाम के समय परिवार के सभी सदस्य भगवान का नाम अवश्य लेते थे। आज ये सब कुछ मिटता जा रहा है।

समस्याएं आज भी हैं, और पहले भी थीं और भविष्य में भी रहेंगी। आज समस्याओं का रूप बदला हुआ है, भयानकता तो उससे भी अधिक है। अंतर केवल इतना है कि पहले समस्याओं से आदमी अकेला नहीं लड़ता था बल्की उसके पड़ोसी भी उसकी सहायता करते थे।
यदि पिछले 40 साल का इतिहास देखा जाए तो हम पाएंगे कि मनुष्य अपने आप में अकेला हो गया है। 1930 के दशक में आदमी अपने आप को ईश्वर से जोड़ता था परंतु आज का मानव अपने आप को भौतिक वस्तुऑ से जोडता जा रहा है, इसलिए उसके जीवन में मानसिक और शारीरिक समस्याएं अधिक है। यह अकेला कारण नहीं है और भी कई कारण है। 70,80 साल पहले मानव प्रकृति प्रेमी था, प्रकृति से जुड़ा रहता था परंतु आज मानव अपने आप को प्रकृती से अलग मान रहा है । सब से अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि आज मानव अपने शास्वत मूल्यों तथा समय पर खरे सिद्धांतों को भूलता जा रहा है। इतना ही नहीं इन सिद्धांतों को वह रूढ़िवादी कहकर त्याग रहा है। यह उसकी सबसे बड़ी भूल है और इसी कारण आज मानव समस्याओं से घिरा हुआ है।

समस्याएं कभी भी समाप्त नहीं होंगी। यह सोचना की समस्या शून्य समाज होगा, कोरी कल्पना है। आवश्यकता इस बात की है कि हमको अपने आप को मानसिक और शारीरिक रूप से बलवान बनाना होगा जिससे समस्याओं का समाधान कर सकें। स अक्षर से समाधान है और स अक्षर से ही समस्या है। आवश्यकता इस बात की है कि हमें कौन से सा पर अधिक ध्यान देना है। समय आ गया है कि हम अपने दृष्टिकोण को बदलें और प्रगति पथ पर अग्रसर रहें।
L.M. Sharma