Kataasraj.. The Silent Witness - 99 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 99

भाग 99

पुरवा के मामा के लिए बहन के बच्चों से बढ़ कर कुछ नही था। वो अपना सारा काम काज बड़े भाई के भरोसे छोड़ कर बच्चों, अशोक और खेती की देख भाल के लिए यही रुक गए।

अमन वहीं गांव के बाहर खड़ा बस से जाती हुई पुरवा को देखता रहा। दो घड़ी में वो ओझल हो गई। आज करीब दो महीने का साथ छूट गया। अब जाने कब वो इस मासूम चेहरे पाएगा..! कभी देख पाएगा भी या नही। जैसे बस गई थी वैसे ही तुरंत पुरवा और उसके बाऊ जी को उतार कर लौट आई।

अमन के बैठते ही पूरी रफ्तार से जलसे वाली जगह की ओर चल पड़ी। करीब एक बजे तक कार्यक्रम समाप्त हो गया और अमन सब के साथ गोरखपुर के लिए चल पड़ा।

यहां पहुंचते पहुंचते ट्रेन के छूटने का समय हो गया था।

विक्टर हरी झंडी थामे उसी की प्रतीक्षा कर रहा था। अमन अकेला था। (उसके मनोभाव का अंदाजा विक्टर को भी था। प्रेम कोई छुपा नही सकता। बिना बताए ही सब को पता चल जाता है। ऐसा ही अमन और पुरवा के साथ भी हुआ था। वैरोनिका ने तो कई दिन साथ गुजारे थे इन दोनों के। पर विक्टर का तो कुछ देर का ही साथ पड़ा था। लेकिन वो भी उनकी भाषा को बिना बताए समझ गया था। इस मुश्किल दौर में उसे अपने प्यार को छोड़ कर आना पड़ रहा था।) सब समझते हुए विक्टर ने अमन को सोने वाले डिब्बे में ही बिठा लिया। अमन के ट्रेन में चढ़ते ही विक्टर ने झंडी दिखा ही। ट्रेन अपनी मंजिल की ओर चल पड़ी।

इस बीच अमन ने तीन बार लंबी रेल यात्रा की थी। हर सफर का अनुभव एक दूसरे से बिलकुल अलग और खुशनुमा था। पर इस सफर में तो जैसे उसके दिल और दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया हो। बस हर घड़ी, हर पल पुरवा का चेहरा घूम रहा था। पहली मुलाकात में बाल बिखेरे पुरवा, फिर कोयल के साथ कुकती पुरवा, साड़ी को ऊपर कर पल्ला लपेटे पुरवा, फिर अम्मा को घसीट कर ले जाते हुए बेबसी से देखती पुरवा, बख्तावर के घर में उसको उसके किए की सजा देती पुरवा, बाऊ जी को अस्पताल में खोजती पुरवा…. ना जाने कितने रूप पुरवा के उसके दिल दिमाग में कौंध रहे थे। फिर उसकी ओर निहारती आखिरी बार उससे दूर जाती पुरवा। अमन बेचैन था। बस नाम ही अमन था। शांति तो उसे रंच मात्र भी महसूस नहीं ही रही थी।

उसकी बेचैनी देख विक्टर ने लेट कर सो जाने को कहा। देर तक विक्टर की सीट पर लेटे लेटे कब आंखों में नींद उतर आई उसे पता ही नही चला।

देश परिवर्तन की बड़े ही अजीब दौर से गुजर रहा था। अंग्रेज आजादी देने से पहले अपना खेल कर गए थे। देश दो टुकड़ों में बंट गया था। लाहौर चकवाल पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। अमन को पुरानी यादों में घुट कर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला था। ये उसने अपने दिल को किसी तरह समझाया। अपने सपनों के कालेज में दाखिला तो वो करवा ही चुका था। बस अपने दर्द और पुरवा की यादों को दिल के एक कोने में सहेज कर रख लिया और एक काबिल डॉक्टर बनने के सफर की शुरुआत कर दी।

विक्टर के लाख दबाव के बावजूद वैरोनिका ने लाहौर को नही छोड़ा। अमन और वैरोनिका का ऐसा प्रगाढ़ रिश्ता कायम हो गया था इन चंद दिनों के साथ में ही उसे अपनी औलाद ना होने का कोई दुख नहीं था अब।

अमन का हर सप्ताहांत उसकी प्यारी आंटी के साथ ही बीतने लगा।

साजिद बहुत परेशान हुए अमन के इस तरह घर वापस नहीं लौटने से। पता लगाते लगाते वो लाहौर आए। जब उन्हें पता लगा कि अमन ने डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए दाखिला ले लिया है तो पहले उन्होंने उसे समझाने कि बहुत कोशिश की। पर जब अमन ना तो डाक्टरी का फैसला बदला, ना घर का वापस नहीं जाने को राजी हुआ तो वो नाराज़ हो कर अपना सब कुछ चमन के नाम करने को बोल कर चले आए।

अमन का जवाब था कि आप सब कुछ भाई को दे दो मेरा भी को कुछ आपके अनुसार हो। मैं लाहौर में ही रहूंगा।

विक्टर ने भी अपना फैसला नही बदला। वो पाकिस्तान रेल सेवा की बजाय भारतीय रेल सेवा में आ गया।

पुरवा की शादी अगहन एकादशी को तय हो ही गई थी। उसे किसी के किसी भी फैसले से इंकार नहीं था। उसने सब कुछ भाग्य पर छोड़ दिया था। बस बाऊ जी की देख भाल, समय से दवाई, खाना खिलाना, चंदू नंदू की पढ़ाई के साथ साथ बाकी की जिम्मेदारी पूरी करना, उन्हें किसी भी तरह अम्मा की कमी नही महसूस होने देना ही उसके जीवन का मकसद हो गया था।

गुलाब बुआ जल्दी से उसे अपने घर ले जाना चाहती थीं। महेश को अचानक ही अपने शादी तय होने की खबर मिली जब वो दीपावली की छुट्टियों में घर आया था। अभी वो जब तक पढ़ाई पूरी ना हो जाए शादी नही करना चाहता था। पर उसके इनकार का कोई मतलब नहीं था। पिता जवाहर ने उसके विचार जान कर एक घुड़की दी और बोले,

"तुम पढ़ो ना.. क्या वो तुम्हारे किताब कापी छीन लेगी… फाड़ देगी..! या तुम पढ़ने बैठोगे तो शोर मचाएगी..! मत आना जाना घर। तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना। और हां..! कान खोल कर सुन लो.. पटना लॉ कॉलेज में पढ़ा रहा हूं, दुनिया को कानून बताने के लिए। घर में.. मुझ पर ही नही। हमारे खानदान में बच्चे अपनी ब्याह के बारे में बातें नही करते। शहर का रंग खुद पर मत चढ़ने देना। यही तुम्हारे लिए और सभी के लिए अच्छा होगा।"

इसके बाग चेहरे पर खिन्नता के भाव लिए कचहरी चले गए।

गुलाब को बेटे और पति दोनों से सामंजस्य बिठा कर रखना था। पति को समझाया कि जवान बेटे को इस तरह नही डांटते, कल को इसकी दुल्हन आ जायेगी उसके सामने भी ऐसे ही डांटोगे। क्या अच्छा लगेगा…!

फिर जब वो चले गए तो महेश को समझाते हुए बोली,

"बेटा… हम तुम्हारे मां बाप है। जो भी फैसला लेंगे तुम्हारे भले के लिए ही लेंगे। हम भी अगले साल ही तुम्हारा ब्याह करते। तुम्हारी पढ़ाई भी पूरी हो जाती तब तक। पर क्या करे..! बिन मां के उसे ज्यादा दिन उसके घर छोड़ना ठीक नही। ठीक ही तो कह रहे हैं तुम्हारे बाऊ जी.. तुम मत रखना मतलब। शहर में अपनी पढ़ाई करना।"