Bhaktimati Shri Karamaiti books and stories free download online pdf in Hindi

भक्तिमती श्री करमैती

श्रीकरमैतीजी इस घोर कलिकालमें उत्पन्न होकर भी सर्वथा निष्कलंक रही। इन्होंने अपने शरीर के पतिके प्रति नश्वर प्रेमको छोड़कर आत्मा के पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के श्रीचरणोंमें सच्चा प्रेम किया। अपने तर्को के द्वारा सोच-विचारकर संसार के सभी बन्धनों को तोड़ डाला। निर्मल कुल काँथड्या और उनके पिता श्रीपरशुराम जी धन्य हैं, जिन्होंने श्रीकरमैती-सरीखी भक्ता पुत्री को जन्म दिया। सर्वविदित है कि श्रीकरमैतीजी ने घरको छोड़कर श्रीवृन्दावनधाममें निवास किया। सन्तजन इनके त्याग, वैराग्य और भक्ति की बड़ाई करते थे। इन्होंने सांसारिक विषयोंके भोगोंसे प्राप्त होनेवाले सभी सुखों को वमन की तरह त्याग दिया।

श्रीकरमैतीजी के विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है— श्रीकरमैतीबाई शेखावत राजा के पुरोहित श्रीपरशुरामजी की पुत्री थीं। इनका निवास स्थान खंडेला (सीकर-राजस्थान) था। करोड़ों कामदेवों से भी अधिक मनोहर श्रीश्यामसुन्दर श्रीकरमैतीबाई के हृदयमें बस गये थे। इसलिये इन्हें घर और घरके काम-काज सब भूल गये थे। नित्य भगवान् की मानसी-सेवा करती थीं। जब ये ध्यान लगाकर बैठ जातीं तो कई प्रहर बैठे बीत जाते। इनके मन और बुद्धि की वृत्ति सर्वदा श्रीकृष्ण की शोभामें पगी रहती थी। विवाह हो चुका था। उसके कुछ दिन बाद आपके पतिदेव गौना कराने के लिये आये। इससे इनके पिता-माताके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बड़े चाव के साथ वस्त्र और आभूषणों का संग्रह करने लगे, परंतु गौनेकी चर्चा सुनकर श्रीकरमैती जी बड़े सोच-विचारमें पड़ गयीं कि अब हमको क्या करना चाहिये? हड्डी और चमड़े से बना यह मानव-शरीर प्रेम करने के योग्य नहीं है, अतः इसको त्याग देना चाहिये। पुनः श्रीकरमैती जी अपने मनको समझाती हुई कहने लगीं– “अरे मन! अब तू मत सो, जाग जा। जागने से ही तेरे भीतरके मैल धुलेंगे। श्रीश्यामसुन्दरकी प्रीति ही सच्ची और सुख देने वाली है। संसारमें प्रीति मिथ्या और दुःख देने वाली है। यदि व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण को प्राप्त करने की चाह है तो लोक-लज्जा की क्या आवश्यकता?” इस प्रकार श्रीकरमैतीजी ने मनसे पतिदेव के साथ न जाने का निश्चय किया, क्योंकि ये पूर्णरूप से कृष्णानुराग के रंगमें रँगी हुई थीं। इनके साथ वही एक श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही थे और कोई न था। श्रीकरमैतीजी की बुद्धि भक्तिरस से सरस हो गयी थी, अतः वे सबके सो जाने पर आधीरात को घर से निकलीं। सबेरा होते ही गाँव-घरमें सर्वत्र शोर मच गया कि “करमैती का पता नहीं है।” पितामाता को बड़ा भारी दुःख हुआ, उन्होंने जहाँ-तहाँ ढूँढ़ा तथा पता लगाने के अनेक उपाय किये। बहुत-से लोग चारों ओर दौड़े। जब श्रीकरमैतीजी ने देखा कि मुझे ढूँढ़ने वाले घुड़सवार लोग अब बिलकुल समीप आ गये हैं, तब उन्होंने वहीं पर मरे पड़े हुए एक ऊँट के कंकालमें अपने शरीर को छिपा दिया। भगवान्में मन लगा हुआ था, अतः उन्हें विषयी संसार की दुर्गन्ध ऐसी खराब लगी कि उसकी तुलनामें ऊँट के कंकाल की वह सड़ी दुर्गन्ध सुगन्ध के समान अच्छी लगी।

श्रीकरमैतीजी को ऊँट के कंकालमें ही रहते हुए तीन दिन व्यतीत हो गये। तीन दिन के बाद चौथे दिन ऊँट के कंकाल से निकलकर चलीं तो आपको तीर्थयात्रियों का साथ मिल गया। उनके साथ आप श्रीगंगाजी के किनारे आयीं। वहाँ स्नानकर आपने अपने सब आभूषण ब्राह्मणोंको दान कर दिये। उसके पश्चात् आप श्रीधाम वृन्दावन आ गयीं। आपके पिता श्रीपरशुरामजी आपको ढूँढ़ते हुए मथुरा आये। वहाँ लोगों ने श्री करमैती जी का पता बताया। तदनुसार मथुरा के पण्डों के साथ आप श्रीवृन्दावन गये। उन दिनों ब्रह्मकुण्डपर अत्यन्त घना जंगल था। वहाँ एक वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर देखने से श्रीकरमैती जी दिखलायी पड़ीं। वे प्रियविरहमें बैठी रुदन कर रही थीं। उनके आँसुओं से वहाँ की पृथ्वी भीग गयी थी।

श्रीकरमैतीजी के पिता वटवृक्ष से नीचे उतरकर आये। उन्होंने अपनी पुत्रीकी वेश-भूषा और श्रीकृष्णप्रेम को देखा और उसके चरणोंमें लिपट गये। पुनः धैर्य धारणकर बोले– “बेटी ! इस प्रकार गौने के अवसरपर घर से छिपकर तुम्हारे भाग आने से संसारमें मेरी नाक कट गयी। मैं मुख दिखाने के योग्य नहीं रह गया। अब तुम चलकर घरमें ही रहो, जिससे संसारमें हमारी हँसी और निन्दा जो हुई है, वह मिट जाय। तुम ससुराल मत जाना, घरमें रहकर भगवान् की सेवा में मन लगाना। यहाँ इस घोर वनमें कोई बाघ-सिंह तुम्हारे शरीर को नष्ट कर देगा। मुझे इस बात का बड़ा डर लग रहा है। अतः अपने घर चलो और मृतप्राय मुझे तथा अपनी माता को जीवनदान दो।” यह सुनकर श्रीकरमैतीबाई ने कहा– “पिताजी! आपने सत्य कहा। बिना भगवद्भक्ति के शरीर मृतक ही समझिये। यदि आप जीवन चाहते हैं तो भगवान्में भक्ति और उनकी कीर्ति का गान कीजिये।”

श्रीकरमैतीजी पुनः पिताजी से बोलीं कि आपने जो यह कहा कि मेरी नाक कट गयी। नाक कटे तो तब जब हो, जब है ही नहीं तो कटेगी क्या? नाक अर्थात् प्रतिष्ठा तो केवल भगवद्-भक्ति है, आप अपने मनमें विचारिये-पचास वर्षों से आप विषयोंमें आसक्त हैं, फिर भी आपको उनसे वैराग्य नहीं हुआ। भोगे हुए विषयों को ही बार-बार भोग रहे हैं। मैंने सब भोगों को देखते हुए भी उनको नहीं देखा। मैंने तो केवल एक श्यामसुन्दर को देखा है, अतः अब संसार की ओर मेरी दृष्टि नहीं जा सकती है। आप भी सब कामोंको छोड़कर भगवान् की सेवामें ही तन-मन और धन को लगाइये। श्रीकरमैतीजी के इस उपदेश को सुनकर पिता श्रीपरशुरामजी का अज्ञान उसी समय नष्ट हो गया। जब वे घर को चलने लगे, तब श्रीकरमैतीजी ने श्रीयमुनाजी से प्राप्त उन्हें एक कृष्णभगवान् की मूर्ति दी, उसे लेकर वे घर को चले आये। श्रीकरमैतीजी ने जो कुछ कहा, वह उनके हृदयमें आ गया।

श्रीपरशुरामजी रात को घरमें आये। बड़े चाव के साथ उन्होंने घर में भगवत् मूर्ति को पधराया और मन लगाकर सेवा करने लगे। अब उन्हें भगवत्कैंकर्य ही अच्छा लगता था। कहीं आना-जाना या लोगों से मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता था। कुछ दिनों के बाद राजा को अपने पुरोहित श्रीपरशुरामजी की याद आयी, तब उसने लोगों से पूछा– “पण्डितजी कहाँ हैं?” यह सुनकर किसी ने राजा को बताया कि अब वे अपने घरमें ही भगवत्सेवा और सत्संगमें मग्न रहते हैं। ऐसा सुनकर राजा को श्रीपरशुरामजी के प्रति अत्यन्त अनुराग हुआ। तब उसने एक सेवक को भेजकर उनका समाचार मँगवाया। श्रीपरशुरामजी ने राजसेवक से कहा-तुम जाकर राजा से कह दो कि– “हे राजन्! मैं (आपका पुरोहित) यहाँ अपने घरपर रहता हुआ ही आपको आशीर्वाद देता हूँ, भगवत्-चरणों में तुम्हारा प्रेम बढ़े। सानन्द सकुशल रहो। परंतु अब दरबारमें नहीं आ सकता।” यह सुनकर राजाके मनमें श्रीपरशुरामजी ਮ के प्रति बड़ा प्रेम हुआ और उनके दर्शनों की इच्छा हुई, तब राजा आया।

राजा ने श्रीपरशुरामजी का अद्भुत प्रेम देखा और उनकी सेवा की रीति देखी। राजा ने श्रीकरमैतीबाई जी का समाचार पूछा। तब श्रीपरशुरामजी ने रोते-रोते सब बात कही कि वे तो भगवान् श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के प्रेमरंगमें रँग गयी हैं। राजा के नेत्रों से आँसू गिरने लगे, उसने कहा– “मुझे श्रीवृन्दावन जाकर दर्शन करने की आज्ञा दीजिये।” श्रीपरशुरामजीने मना किया, तब राजा ने पुनः कहा– “मुझे जाने दीजिये, मैं जाकर समझाबुझाकर यहाँ ले आऊँगा तो मेरा बड़ा सौभाग्य होगा, अन्यथा दर्शन कर आऊँगा। मेरे मनमें दर्शनकी बड़ी भारी इच्छा हो रही है।” ऐसा कहकर राजा श्रीवृन्दावन को आया और उसने यहाँ आकर देखा कि श्रीकरमैती जी यमुनाजी के तटपर खड़ी हैं, उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही है। उनका रूप कुछ और ही प्रकार का हो गया है। प्रेम के उमंग में डूब रही हैं। अब राजा कहें तो क्या कहें? राजा ने प्रार्थना की कि “कुछ सेवा करने की आज्ञा दो।”

श्रीकरमैतीजी ने कहा– “तुम्हारी किसी भी प्रकारकी सेवा की आवश्यकता नहीं है।”
इनके बार-बार बहुत मना करनेपर भी राजा ने अपनी इच्छा से ब्रह्मकुण्ड के निकट ही एक कुटी बनवा दी और उसके बाद अपने देश को लौट आये। श्रीकरमैतीजी के दिव्य भगवत्प्रेम एवं उपदेश को स्मरण करके राजा भी प्रेमरंगमें रँग गया और भगवद्भजन करने लगा।

श्रीकरमैतीजी पर प्रभुकृपा
श्रीकरमैतीजी की भगवान् श्रीकृष्णमें अनन्य निष्ठा थी। एक बार वे भजन- ध्यानमें इस प्रकार मग्न रहीं कि उन्होंने अठारह दिनतक कुछ भी नहीं खाया-पीया। इनके शरीर को अत्यन्त शिथिल देखकर स्वयं श्यामसुन्दर एक सन्त का रूप धारण करके आये और बोले– “बाई! लो, यह प्रसाद पा लो।” इन्होंने हाथ जोड़कर कहा– “महाराज ! कृपा करके ऐसा दिव्य प्रसाद दीजिये, जिससे फिर कभी भूख-प्यास भगवत्स्मरणमें बाधा न करे।” सन्त रूपधारी भगवान्ने कहा– “ऐसा ही होगा।” प्रसाद पाकर देखो। एक ग्रास को लेते ही श्रीकरमैतीजी के मनमें बड़ा आह्लाद हुआ, वे प्रभु के चरणों में पड़ गयीं। प्रभु ने दर्शन देकर कृतार्थ किया। तबसे इन्हें भूख-प्यास कभी बाधा न करती और प्रभु की झाँकी होती ही रहती। इस प्रकार तपस्विनी करमैती देवी ने प्रभु-कृपा से महान् तप करके प्रेममय वृन्दावनधाम को प्राप्त किया।