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आँच - 3 - यहि ठइयाँ टिकुली हेराइ गई गोइयाँ! (भाग-1)

अध्याय तीन

यहि ठइयाँ टिकुली हेराइ गई गोइयाँ!


आयशा अब महकपरी बन गई। पर उसकी महक परीख़ाने से बाहर नहीं जा सकती। परीख़ाने में परियाँ हैं, पर उनके पंख कटे हुए। ‘क्या तेरे जीने का मक़सद यही था?’ आयशा ने अपने से पूछा। ‘तेरी हैसियत क्या है? माता-पिता ने क्या नाम रखा था? इसका भी तो पता नहीं। जिसने जन्म दिया उसने किसी दूसरे को दे दिया। उसने नाम रख दिया-राधा। अम्मी के कोठे पर आई तो नाम हो गया आयशा। आयशा से अब महकपरी। साथ की और परियों को देखती हूँ तो मन उदास हो जाता है। परीख़ाने क़ैदख़ाने में क्यों बदल जाते हैं? मुझे तो अभी आए हफ़्ता भर हुआ। हुजूर अभी तो मुझ पर मेहरबान हैं। आगे क्या होगा कौन जाने? हुजूर से निक़ाह हो गया है पर....। कभी मेरे मन में था कि कोई हमारा अपना हो जिसके साथ पूरी ज़िन्दगी बिता सकूँ ,पर परियों को यह कहाँ नसीब हो सकता है। ऐ महकपरी तूने यह निक़ाह किसी मजबूरी में किया या...? नहीं,नहीं...सिर्फ़ मजबूरी ही नहीं थी...तेरे मन में भी कहीं कोई राग पैदा हो गया था...साहिब-ए-आलम ने पूछा था...तुम्हें मंज़ूर है...तूने बिना बहुत सोचे ‘हाँ’ कह दिया था...ज़िन्दगी में हर काम नाप जोख कर कहाँ हो पाता है? अब तू इस परीख़ाने में आ गई। तुझे इसके कायदे कानून के तहत रहना है। हुज़ूर की नज़र-ए-इनायत तुझ पर है। देखती हूँ कितने दिन तक रहती है...। ज़िन्दगी इतनी छोटी तो नहीं होती...। अब परीख़ाने की परियों के साथ ज़िन्दगी बितानी है...हर तरफ ख़्वाजासरा की निगाहें तेरा पीछा करेंगी। परीख़ाने की चारदीवारी से बाहर जाने की इजाज़त नहीं है। देखती हूँ, बहुत दूर से पहरा देने वाली औरतें मँगाई गई हैं। क्या सिर्फ़ इसलिए कि किसी परी के पाँव बहक न जाएँ?...सुनती हूँ हुजूर शराब को हाथ नहीं लगाते, पर परीख़ाने का यह अजीब-सा शौक क्यों पाल लिया? दादा-परदादा को गर यह शौक था तो बच्चा भी क्या उसी की नकल करे? अच्छा खाना, अच्छा पहनना, बड़े-से महल में रहना...सोने चाँदी से खेलना क्या यही ज़िन्दगी है?...किसी गाँव में होती...गाँव नदी किनारे होता...छप छप नहाती...खुले मैदान में घूमती...कोई हमसफ़र मिल जाता तो ज़िन्दगी उसी के साथ एक झोपड़ी में काट देती पर यह सब सपना है अब...।’ वह इन्हीं विचारों में खोई हुई थी कि मलिका-ए-आलिया का संदेश आ गया। बाँदी ने बताया-मलिका-ए-आलिया ने बुलाया है। उसने एक क्षण अपने को आदमक़द आइने में देखा, लटों को हल्का-सा सँवारा, कपड़ों को ठीक किया। एक सदरी ऊपर डाल ली और बाँदी के साथ चल पड़ी। मलिका-ए-आलिया चाँदी के एक तख़्त पर बैठी थीं। उसने पहुँचकर तस्लीम अर्ज़ की। मलिका-ए-आलिया ने अपने पास ही कालीन पर बिठा लिया, पूछा ‘ख़ुश हो न?’ उसने तुरन्त कहा ‘‘जी आपकी इनायत है।’’ ‘कल मैंने तुमको साहब बहादुर के साथ गाते सुना, अच्छा लगा...मुझे लगा कि तुम ख़ुश हो तभी बेटे के साथ सुर में सुर मिला कर गा रही हो...तुम्हारा गाने का अंदाज़ भी बहुत दिलक़श था...बेटा दानिशमन्द है...हुस्न-ओ-मौशीकी का शौक है उसे। तुम्हें देखकर मुझे खुशी हो रही है...तुम उसे सँभाल लोगी।’

महकपरी की आँखें डबडबा आईं। वह कुछ कहना चाह रही थी पर शब्द नहीं निकले। हिचकी सी आ गई। अपने को सँभाला। मलिका को भी लगा कि कुछ कहना चाहती है। पूछ लिया, ‘क्या कहना चाहती हो? बिना डर के कहो। तेरी बातें सुनूँगी।’ उसका साहस हुआ कि कुछ कहे। धीरे से बोली, ‘माँ जी....।’ पर उसका साहस जवाब दे गया। मलिका ने फिर उत्साह बढ़ाया, ‘डरो नहीं, कहो।’ ‘डर लगता है माँ जी’,उसने कहा। ‘मेरी ओर से बेफ़िक्र रहो। जो कहना चाहती हो, कहो।’ ‘माँ जी...अगर परीख़ाने में परियाँ बढ़ती रहीं तो हुजूर को कोई कैसे सँभाल पाएगा?’ कहते हुए वह फफक पड़ी। मलिका ने एक क्षण सोचा,फिर कहा, ‘बेफ़िक्र रहो। मैं माँ हूँ। परीख़ाने की आबादी अब और नहीं बढ़ेगी।’ ‘सच माँ जी।...आप हुजूर-ए-आलिया हैं।’ आँसुओं के बीच उसका चेहरा खिल उठा। दुखी मन में सुख की एक हल्की किरण भी कितनी चमक पैदा करती है?

‘अच्छा जाओ। जो मैंने कहा है, ख़्याल रखना’, मलिका ने सचेत किया। ‘जी माँ जी।’ उसने आश्वस्त किया। वह धीरे से उठी और तस्लीम करती हुई बाहर आ गई। गलियारे से होती हुई परीख़ाने के अपने आवास पर आ गई।

‘चलो तुमने एक ज़िम्मेदारी और ओढ़ ली। जिसको सँभालने वाले तमाम लोग हों उसे तू क्या सँभालेगी?...मलिका से वादा किया है तो कुछ न कुछ करूँगी ही।’ वह सोचती रही।... सबसे पहले तो परीख़ाने को ही समझना होगा। परियाँ एक दूसरे को नीचा दिखाने में ही न मशगूल रहें। क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि वे भी खुशी खुशी अपनी ज़िन्दगी बिताएँ?... हुजूर की नज़रे इनायत है तो उसका कुछ सही इस्तेमाल कर सकूँ... सोचूँगी ।

एक दिन बाद उसने परीख़ाने की निगराँ नजीमुन्निसाँ से बात की। उसने भी सोचा-परियाँ काम में लगी रहती हैं तो उन्हें सँभालना आसान हो जाता है। पर हुजूर से कहे कौन? ‘मैं कहूँगी,’ उसने वादा कर लिया।

रात में जब साहिबे आलम से भेंट हुई, उसने चर्चा छेड़ी। ‘क्या खूब ख़याल है?’ कहकर साहिबे आलम हँस पडे़।

‘पर काम क्या होगा?’ उन्होंने पूछा।

‘कुछ हल्की-फुल्की कसरत, क़वायद।’ उसने बताया।

‘कसरत और क़वायद क्या खूब? क्यों न घाँघरा पलटन ही बन जाय?’

‘हुजूर जैसा सोचें?’ उसने मासूमियत से कहा।

‘तुम ठीक सोचती हो। परियों को भी मौक़ा मिलना चाहिए। इसका इन्तज़ाम होगा। पर सिपहसालार कौन होगा?’

‘हुजूर के अलावा दूसरा कौन हो सकता है?’ कहकर वह भी हँस पड़ी।

‘क्या ख़ूब?, क्या खूब?’ कहते हुए साहिबे आलम ने हँसते हुए उसे अपनी गोद में खींच लिया।

एक सप्ताह में परियों को क़वायद का अवसर मिला। हल्की कसरत कर लेना आसान था पर क़वायद में कुछ अधिक श्रम की ज़रूरत थी। सबने साहस कर कोशिश की। सफलता मिली। महकपरी ने भी क़वायद की। क़वायद के बाद सभी लौटीं। हमें कुछ इस तरह के कामों में रुचि लेनी चाहिए, सभी ने अनुभव किया। अपने को स्वस्थ रखने का यह सही ढंग है। इसके बाद उस्ताद आ गए। नृत्य और गायन का प्रशिक्षण चला।

शाम को परियों की महफ़िल जमी। झूमर, दादरा, कजली, सोहर, गीत, ग़ज़ल का दौर चला। हँसी खुशी के बीच पूरा दिन बीता था। न किसी की चुगली, न ईर्ष्या-द्वेष की बातें।

धीरे धीरे परियाँ सक्रिय हुईं। क़वायद, दौड़ में दक्षता बढ़ती गई। दौड़ और क़वायद में जो परियाँ आगे आईं उनमें महकपरी भी थी। एक पहरेदार ने तलवार का करतब दिखाया। ‘अपनी हिफ़ाज़त हम कर सकें, इतना तो सीखना ही चाहिए।’ महकपरी ने हँसते हुए कहा। इसका नतीजा भी सकारात्मक रहा। सभी परियाँ इन प्रशिक्षणों में रुचि लेने लगीं। एक दिन साहिबे आलम भी मैदान में आए। परियों को क़वायद करते देखा। शाम की महफ़िल में भी शरीक हुए। ‘सही रास्ते पर निकल पड़ी हैं परियाँ।’ उन्होंने कहा। ‘वे छुई-मुई नहीं बहादुर जंगजू हैं,’ सभी कहने लगे। ‘घाँघरिया पलटन तैयार हो रही है’, कहकर कुछ लोग मज़ाक भी करते। समाज कुछ न कुछ कहता ही रहता है। कुछ करो तो शिकायत। न करो तो भी शिकायत।

शिकायतों और विरोधों के बीच ही लोगों को काम करना पड़ता है। कोई शिकायत न होगी तभी हम काम करेंगे। ऐसा सोचने वाले कोई काम शुरू ही नहीं कर पाते। नए कामों का विरोध तो होता ही रहता है। पर उसी के बीच लोग काम भी करते हैं और आगे बढ़ते हैं।

परीख़ाने की निगराँ बहुत खुश हुईं। परियों के व्यस्त हो जाने से अब आपसी खींचतान, हसद और रश्क के लिए मौक़ा ही नहीं था। परियां जब खाली रहती थीं तो तरह तरह की शिकायतें आती थीं और निगराँ नजीमुन्निसाँ उन्हीं का हल ढूँढ़ने में परेशान रहती थीं। अब परियों को भी जैसे एक नई ज़िन्दगी मिल गई। जीने का एक मक़सद मिल गया। हम भी कुछ हैं, हमारा भी कोई वजूद है यह भाव उनके दिमाग़ में बैठने लगा। खाना-पीना-ऐश करना यही ज़िन्दगी का मक़सद नहीं होता। बामानी ज़िन्दगी का लुत्फ़ ही कुछ और है। मलिका को भी यह सब देखकर अच्छा लगा। वे अपने ख़बरग़ीरों से जानकारी प्राप्त करतीं और परियों के इस तरह के काम काज की तारीफ़ भी करतीं। एक महिला होने के नाते वे परियों का दर्द अच्छी तरह समझती थीं। साहिब-ए-आलम वाजिद अली शाह ने हुजूर बाग़ बनवाया। बाग़ में चश्मे बनवाए जिन्हें चश्मा-ए-शीरीन और चश्मा-ए-फै़ज नाम दिया। उसमें फलदार वृक्ष लगाए गए। बाग़ के चारों ओर चौड़ी सड़क भी। बाग़ में सड़क के किनारे किनारे केले के पौधे लगाए गए। बाग़ में घुसते ही हरेरी के दर्जनों रंग दिखते। कालीन बनाने वाले कलाकार विविध रंगों की बात करते हैं। वे प्रकृति से ही हरेरी के विविध रंगों को आत्मसात करते और उन्हें कालीनों में रूपायित करते। एक दिन हुजूर बाग़ को देखते हुए एक कारीगर ने माली को बताया कि हरेरी के सत्ताइस रंग वह बना चुका है, अट्ठाइसवें की तलाश में है। इसीलिए हुजूर बाग़ की पत्ती पत्ती को देख रहा है। ‘एक ही पेड़ के पत्तों में अलग-अलग हरेरी आप भी देखते हैं न’, उसने माली से कहा। ‘हमारे इस फ़न को क्या आगे के लोग समझेंगे? सुना है अंग्रेजों के बंगाल-बिहार में कारीगरों को भागना पड़ रहा है। कारीगर नहीं होंगे तो फ़न मर जाएगा। अपने यहाँ भी अंग्रेजों का दबदबा बढ़ता जा रहा है। विलायती माल के आगे देशी माल के क़द्रदाँ कम हो रहे हैं।’ एक छोटी सी डिब्बी में से उसने हरे रंग में सत्ताईस तागे निकाल कर दिखाया। माली भौचक था। ‘भाई साहब, हर तागे का रंग हरा ही है पर दूसरे से अलग। तुम्हारे बाग़ में भी ये सभी हरे रंग हैं। ज़रूरत है इन्हें पहचानने की। पाकड़ के पेड़ से जब कोंपलें निकलती हैं, उनके रंग देखना शुरू करो। उनका हरा रंग बराबर बदलता जाता है।’

‘ठीक कहते हो।’ माली ने सहमति जताई। ‘भाई साहब मैंने हरेरी के बारे में बात की। नीले, पीले, लाल, काले, बैगनी सभी की दर्जनों किस्में आपको मिलेंगी। पहचानने की समझ चाहिए।’ कारीगर को एक पौधे ने आकृष्ट किया। उसे अपने काम का कोई रंग दिख गया था। ‘क्या मैं बाग़ में आ सकता हूँ?’ उसने माली से पूछा। ‘बाग़ को कोई नुक़्सान न पहुँचाओ तो आ जाओ।’ माली ने कहा। कारीगर ने अपनी पनही उतारी और चुपचाप बाग़ में एक पौधे की ओर गया। ‘क्या इस पौधे की एक पत्ती आप मुझे दे सकेंगे?’ उसने माली से पूछा। माली पौधे के पास गया। जाँचा-परखा और एक छोटी सी पत्ती को निकाल कर दे दिया। कारीगर खुश हुआ। उसने माली से हाथ मिलाया और धीरे से बाहर हो गया।


वली अहद बहादुर का भी दर्बार लगता। राजकाज के कामों में वे दिलचस्पी लेते। वे कुछ सीखना चाहते थे पर अवसर कम थे। घोड़े की सवारी, तलवारबाज़ी का शौक पूरा करते ही, संगीत की महफ़िलों का भी आयोजन करते।

उन्होंने मौसमें गर्मा, मौसमें बारां और मौसमें सर्मा (गर्मी,बरसात,जाड़ा) के लिए अलग अलग भवन बनवाया। संगीतकारों, नर्तकों, गायकों का जमघट उनके दर्बार में लगा रहता। उसमें उनके उस्ताद भी होते। वे उस्ताद को भरपूर इज़्ज़त देते। उनके लिए वृत्ति का प्रबन्ध करते। राजकीय कार्यों में भी यदा कदा ध्यान लगाते। कलाकार दूर दूर से आकर दर्बार में हाज़िर होते। अपना हुनर दिखाते और इनाम पाते। उनके लिए निर्धारित धनराशि इन कामों में खर्च हो जाती। किसी कलाकार की मदद करने में उन्हें खुशी होती।

मलिका किश्वर आरा की नज़र वली अहद और परियों पर रहती। महकपरी को आए हुए सात महीने बीत गए थे। उसने अपने को नई स्थितियों में समायोजित कर लिया था। प्रायः सभी परियाँ क़वायद करती ही, गीत, ग़ज़ल, लोकगीत गातीं, नृत्य सीखतीं। इनके माध्यम से वली अहद को प्रभावित करना आसान लगता।

धीरे धीरे समय बीतता रहा। जाड़ा, गर्मी, बरसात अपना रंग दिखाते। जाड़े में दाँत कटकटाने लगते तो गर्मी में लू का असर। बरसात में गोमती का पानी लखनऊ की गलियों में आ जाता। बच्चे उसी में कागज़ की नाव खेते।

साहिबे आलम हमेशा नए प्रयोग करते रहे। ग़ज़ल कहने का शौक बढ़ा। महकपरी ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया। मलिका खुश हुईं। वली अहद बहादूर भी खुशी से फूले नहीं समाए। हाफिज़ से कान में अजान दिलाई गई। महकपरी की महक चारो ओर फैलने लगी। दादा नवाब अमजद शाह ने जश्न मनाया। महकपरी का नाम बदलकर इफ्तिख़ारुन्निसा बेगम रखा। उन्हें अलग आवास मिला। वे बच्चे को देखतीं और परवरदिगार को याद करतीं। ‘या रब तूने मुझे इज़्ज़त दी। जीने का एक सहारा दे दिया।’ इफ्तिख़ारुन्निसा बेगम कहे जाने पर उसे खुशी हुई। कितनी बार नाम बदला गया उसका? पर यह नाम इज़्ज़त बख़्श रहा है। ‘चलो अच्छा हुआ,‘परी’ से बेगम बन गई। उस पर शाही मुहर लग गई।’ उसने सोचा।

बच्चे को जो देखता यही कहता-बिलकुल बाप पर गया है। सुनकर बेगम खुश होती। जन्म की रिवायतें पूरी होने के बाद नामकरण हुआ। निछावर कर रूपये बांटे गए। नाम रखा गया बिर्जीस क़द्र। वली अहद वाजिद अली शाह के चार बेटे और थे। मिर्ज़ा नौशेरवाँ क़द्र सबसे बड़े थे पर वे ठीक से बोल और सुन नहीं पाते थे। उनकी बुद्धि का विकास कम हुआ था। उसके बाद मिर्ज़ा फ़लक क़द्र और कैंवा क़द्र थे। दोनों गोरे, स्वस्थ और दानिशमंद थे। एक अभी बहुत छोटे थे दार-उस-सेतवत और फिर बिर्जीस क़द्र।

फरवरी 1847 की तेरहवीं तारीख। नवाब अहमद अलीशाह को अचानक सीने में दर्द हुआ। खून की कै हुई। वैद्य और हकीम आए। दवा दी गई किन्तु कोई फ़ायदा नहीं हुआ। सायं पाँच बजे उन्होंने दुनिया छोड़ दी। राजमहल में हाहाकार मच गया। यह अफ़वाह भी उड़ी कि नवाब को किसीने ज़हर दे दिया है। किसने दिया? तरह तरह की चर्चाएँ। रईस, अधिकारी, शाही परिवार के लोग, सभी दौड़ पडे़। महिलाओं का रोते रोते बुरा हाल था। मलिका को लोगों ने सँभाला।

रेजीडेन्ट रिचमंड को जैसे ख़बर मिली, उन्होंने ब्रिगेडियर को आदेश भेजा कि दो पलटन पैदल चार बन्दूकों के साथ राजमहल पहुँचें। वे स्वयं भी राजमहल पहुँचे। रेजीडेन्ट के सहायक मि0 बर्ड उस समय उपलब्ध नहीं थे। इसलिए कप्तान होलिंग्स को वली अहद वाजिद अली शाह को बुलाने के लिए भेजा। रेजीडेन्ट के दिमाग़ में सारी योजना स्पष्ट थी। सबसे पहला काम है वली अहद को गद्दीनशीं करना। मलिका को अब राजमाता बनना था। ग़म के माहौल में ताजपोशी की तैयारी शुरू हुई। लोग थोड़ी देर के लिए ग़म को भूल गए। रईसों, अधिकारियों को बुलाया गया। बारादरी में दर्बार सजा। वाजिद अली शाह के आते ही कम्पनी की दो पलटनें भी बारादरी पहुँच गईं। एक नाव जैसी तश्तरी में मजीउद्दौला ताज को लाए। रेजीडेन्ट रिचमंड ने वाजिद अली शाह के सिर पर ताज रखा। रेजीडेन्ट ने घोषणा की,‘अब वाजिद अली शाह गद्दीनशीं हैं।’ ब्रिटिश और अवध की पलटनों ने तोपों की सलामी दी। इस समय नौ बजकर पैंतीस मिनट हो रहे थे। नवाब वाजिद अली शाह ने पाँच कागज़ों पर अपने हस्ताक्षर किए। महाउल महाम (प्रधान वज़ीर) अमीनुद्दौला खड़े हुए। राजभक्ति प्रदर्शित करते हुए नज़र पेश की। इसके बाद रईसों और अधिकारियों ने नज़रें पेश कीं। नवाब ने नज़रों को स्वीकार किया। बैंड ने धुन बजाई। इसके साथ ही ताजपोशी का संक्षिप्त कार्यक्रम समाप्त हुआ।

रेजीडेन्ट ने चार टुकड़ी पैदल और दो बन्दूक को छोड़कर शेष सभी पलटनों को छावनी में जाने का आदेश दिया। ये टुकड़ियाँ राजमहल की सुरक्षा के लिए रोकी गई थीं। दो बन्दूकें इसलिए रोक ली गईं जिससे दिवंगत शाह के दफ़नाए जाने पर उनके सम्मान में फायर किया जा सके। एक ओर वाजिद अली शाह की ताजपोशी की खुशी दूसरी ओर दिवंगत शाह का ग़म। क्या राजशक्ति अभिशप्त होती है? सुकूँ से खुशी मनाना उसके मिज़ाज में नहीं होता। ताजपोशी सदा खुशी-ग़म की सन्धि पर ही होती रही है। आम जन भी वाजिद अली शाह की ताजपोशी पर थोड़ी देर के लिए खुश हुआ, उसके बाद ग़म का ही माहौल। शाह को ज़हर देने की अफ़वाहें । अफ़वाहों का अपना मिज़ाज होता है। उन्हें रोक पाना आसान नहीं होता। परीख़ाने में भी खु़शी और ग़म तारी रहा। दिवंगत शाह को दफ़न करने की तैयारियाँ होने लगीं। दीवाने -आम के दरोगा ने नवाब के सामने दरख़्वास्त रखी-

एक मुसाफ़िर मुल्के-अबद का चन्द रोज़े-मुक़ीम-ए-सराय-ए-फ़ानी था। अब आज़िम वतन असली है। ज़ाद-ए-राह की ज़रूरत है जो इमदाद हो।

वाजिद अली शाह ने दिवंगत शाह की अन्तिम क्रिया के लिए एक लाख रुपये की इमदाद दी। अगले दिन चौदह फरवरी थी। इसी दिन दिवंगत शाह को दफ़नाया गया। शाह के जनाज़े में शहर के बहुत से लोग शरीक हुए। भारी भीड़ होते हुए भी कहीं कोई अशान्ति नहीं। एक ग़म का माहौल। जनाज़े की नमाज़ हुई। रिवायत के मुताबिक दान दिया गया। दिवंगत शाह की इच्छा के अनुसार हजरतगंज में मेंदू खाँ रिसालदार की छावनी में उन्हें दफ़नाया गया। इस अन्त्येष्टि में रेजीडेन्ट भी शामिल हुए। शाह उनचास वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए थे इसलिए ब्रिटिश सैनिकों ने उनचास बार गोलियाँ दाग करके उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। शाह की मज़ार पर बाद में दस लाख रुपये खर्च करके हुसैनाबाद इमामबाड़ा बनवाया गया। मज़ार का नाम शिब्तेनाबाद इमामबाड़ा रखा गया।

वाजिद अली शाह के सत्तासीन होने से संगीतकार, कलाकार जो उनके निकट थे, बहुत खुश हुए। आम जन में भी उनके प्रति लोगों में सद्भावना थी। लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे अपना शासन दानिशमंदी और रहमदिली से चलाएँगे। हर सत्ता के कुछ अपने अन्तर्विरोध होते हैं। कुछ लोग उसका समर्थन करते हैं तो कुछ उसका विरोध भी। वली अहद के रूप में कार्य करते हुए पाँच वर्ष बीत चुके थे अब वे स्वयं बादशाह थे। आमजन की अपेक्षाएँ उनसे जुड़ गईं थीं। दूसरे और तीसरे दिन उन्होंने अपना दर्बार लगाया। नवाब अमीनुद्दौला, महाराजाधिराज बालकृष्ण तथा अन्य अधिकारियों को नियुक्तियाँ और खि़लअतें अता कीं। उन्होंने ‘अबुल मंसूर नासिअद्दीन सिकन्दर जा पादशाह आदिल कैसर-ए-जमाँ सुल्तान-ए-आलम बादशाह अवघ’ की पदवी धारण की। चार हजार रुपये ताजपोशी और महल सुरक्षा के लिए तैनात फ़ौजी पलटनों में बाँटे। तेइसवीं पलटन के लेफ़्टिनेन्ट निकलसन और हिलियर्ड को, जो पलटनों का नेतृत्व कर रहे थे, एक-एक शाल और रूमाल भेंट दी गई। चोबदार फ़ज़ल हुसैन को भी एक शाल मिला।

वाजिद अली शाह के सत्तासीन होते ही वली अहद का मसला भी तय हो जाना था। पहले पुत्र नौशेरवां क़द्र को उनकी शारीरिक और मानसिक कमजोरियों के कारण इसके योग्य नहीं समझा गया। राज माता और शाह ने मिलकर तय किया कि कि मिर्ज़ा फ़लक क़द्र को वली अहद बना दिया जाय। गवर्नर जनरल से भी इसकी स्वीकृति ली गई और उन्हें खि़लअत बख़्शी गई। उस समय उनकी उम्र सात वर्ष थी। मिर्जा़ कैवां क़द्र, जो फ़लक क़द्र से एक साल छोटे थे, को मुख्य सेनापति बनाया गया। महकपरी से इफ्तिख़ारुन्निसा बेगम बनी, बिर्जीस की माँ को हज़रत महल का खि़ताब मिला। वाजिद अली शाह को एक परम्परा से चली आई व्यवस्था मिली, जिसमें, दीवान-ए-ख़ास, दीवान-ए-आम, दफ़्तरे-विजारत सहित दर्जनों दफ़्तर और महकमे थे। नए शाह को उन्हें अधिक क्रिया शील करना था जिससे जनता की अपेक्षा के अनुसार वे कार्य कर सकें। अवध की भूमि अत्यन्त उपजाऊ थी। अधिकांश भागों में पानी आसानी से उपलब्ध होता था। लोग खुशहाल थे। उनकी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति आसानी से हो जाती थी। अवध कम्पनी का मददगार रहा किन्तु कुछ दिनों बाद कम्पनी के आला अधिकारी अवध को कम्पनी हुकूमत में लाने की तरकीबें सोचने लगे। इसीलिए वाजिद अलीशाह की हर योजना को असफल बनाने में लग गए। यह काँटों का ताज था। वाजिद अली शाह ने कोशिश की कि सभी विभागों में कुछ न कुछ सुधार किया जाए। शिकायतें आ रही थीं कि लगान वसूलने वाले अधिकारी प्रायः रिश्वत लेते हैं। उन्होंने नैतिक दबाव बनाते हुए रिश्वत को ख़त्म करने की कोशिश की। फ़ौज को चुस्त रखने के लिए वे स्वयं परेड पर उपस्थित रहने लगे। यह नियम बना दिया कि जो भी टुकड़ी या अधिकारी देर से आएगा उस पर ज़ुर्माना किया जाएगा। उन्होंने अपने को भी इस नियम के अन्तर्गत रखा और कहा कि यदि मैं देर से आऊँगा तो दो हजार रुपये जुर्माना अदा करूँगा। उनके इस ऐलान के बाद कोई भी टुकड़ी या अधिकारी देर से नहीं आता। शाह भी रोज समय से आते और अन्त तक रहते। ऐसा लगने लगा कि सभी महकमे कुछ अधिक चुस्ती और ईमानदारी से काम करेंगे। यही बात कम्पनी के अधिकारियों को अखरने लगी। उन्होंने दबाव बनाया कि आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा का दायित्व कम्पनी का है। उन्हें बेकार इसमें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। कम्पनी के अधिकारी यह चाहते थे कि शाह स्वयं परेड ग्रांउड तक न आएँ। शाह के उपस्थित होने पर अंग्रेज अधिकारियों को भी अनुशासित होना पड़ता था। यह बात उन्हें खलती थी। उन्होंने समझाया-हुजूर को इन सब छोटे कामों में दख़ल देने की ज़रूरत नहीं।

प्रधान वज़ीर अमीनुद्दौला का भी कुछ लोग विरोध कर रहे थे। कुछ नए लोग प्रधान वज़ीर बनना चाहते थे। अमीनुद्दौला वाजिद अली के उस्ताद रह चुके थे। उनकी अवस्था भी अधिक हो गई थी। पूरे प्रशासन पर उनकी पकड़ कुछ ढीली हो रही थी। कहीं उनके कान में यह कहावत भी पड़ी-बाप का नौकर बेटे के किसी काम का नहीं होता। उन्होंने स्वयं ही इस्तीफ़ा देने का मन बनाया। रेजीडेन्ट से बात की। उन्होंने मना किया। नवाब वाजिद अली शाह से बात की। उन्होंने कहा कि अभी शासन सँभाले मुझे थोड़े ही दिन हुए हैं। आप अपना काम सँभालते रहें। उन्होंने राजमाता मलिका किश्वर से भी बात की पर पद न छोड़ने की सलाह उन्होंने भी दी। वे अपने काम पर लगे पर धीरे धीरे नवाब वाजिद अली शाह को लगने गला कि प्रधान वज़ीर लगान वसूली तथा अन्य प्रशासकीय कार्यां को कुशलता से नहीं सम्पन्न करा पा रहे हैं। उनके मन में प्रधान वज़ीर को मुक्त करने का विचार उठने लगा। वे मीर मेंहदी जो उनके वली अहद के कार्यकाल में विश्वास पात्र सहायक थे तथा जिन्हें तख़्तपोशी के बाद उन्होंने अमीरुद्दौला की पदवी अता की थी, को भी वज़ीर बनाने की बात सोच रहे थे। पर इसी बीच एक घटना ने हिन्दू मुस्लिमों के बीच तनाव पैदा कर दिया। उन्हें बताया गया कि आभूषण विक्रेता छोटे लाल ने पारसनाथ मंदिर में एक सात साल के ब्राह्मण की बलि चढ़ा दी है। ख़बर मिलते ही नवाब ने मीर मेंहदी को आवश्यक जाँच कर कार्यवाही करने का निर्देश दिया। मीर मेंहदी ने बिना कोई जाँच किए छज्जू खाँ और तबियत अली के साथ कुछ बेलदारों को भिजवाकर मंदिर गिरवा दिया। आभूषण विक्रेताओं में सनसनी फैल गई। उन्होंने एकजुट होकर नवाब से भेंट की। उन्हें बताया कि बलि की बात झूठी है। कुछ स्वार्थी तत्वों ने यह अफ़वाह जान बूझ कर फैलाई है। बादशाह दुखी हुए। उन्होंने कहा कि पूरी जाँच कराकर आवश्यक कार्यवाही करेंगे। आप लोगों के प्रति किसी तरह का अन्याय नहीं होगा। विक्रेताओं का दल आश्वस्त होकर लौटा पर इसी बीच छज्जू और तबियत ने तीन और मंदिरों को गिराकर उससे प्राप्त होने वाली सम्पत्ति को राजमहल पहुँचाया। मीर मेंहदी के ही कहने से फरजंद अली ने भुवन लाल, चुन्नी बनिया और हेमराज के पूजा स्थलों को भी घ्वस्त कर दिया। भुरजन, मुन्नू और सकटू का चबूतरा (पूजा स्थल) भी तोड़ दिया गया। यह चबूतरा मीर मेंहदी के घर के पास था।

शहर कोतवाल अलीरज़ा ने इन ग़लत हरकतों को देखते हुए बादशाह के पास एक अरदाश्त की जिसमें बताया कि दिवंगत बादशाह अमज़द अली शाह ने इन नए बने मंदिरों में मूर्ति स्थापित करने से मना कर दिया था लेकिन मंदिर साबुत था। इधर कुछ लोगों ने इन नए मंदिरो में घंटा बाँधना चाहा था किन्तु उन्हें अनुमति नहीं दी गई। उन्होंने बताया कि ब्राह्मण बालक की बलि देने की ख़बर झूठी है। ख़बर देने वाले से इसका सबूत माँगा जाय। हिन्दुओं के आभूषण विक्रेता बनिया मनुष्य को कौन कहे एक मक्खी भी नहीं मार सकते

हिन्दुओं में भी आक्रोश उभर रहा था। आठ-नौ सौ आभूषण विक्रेता इकट्ठे होकर राजमहल पहुँचे। रेजीडेंट के पास भी गुलाब राय के नेतृत्व में एक दल भेजा गया। रेजीडेन्ट ने आशंका व्यक्त की कि हिन्दू मुस्लिमों के बीच कोई दंगा भड़क सकता है। वज़ीर ने भी बादशाह से बात की। बादशाह ने फिर से जाँच का आदेश दिया और निर्देश दिया कि यदि ख़बर देने वाले की ख़बर झूठी है तो उसे सज़ा दी जाएगी। कर्मचारियों के ग़लत कामों से उन्हें तक़लीफ़ हुई। अमीनुद्दौला से पूछा कि आभूषण विक्रेताओं की निर्दोषता के बारे में उन्होंने पहले क्यों नहीं बताया। वज़ीर ने बताया कि वे उन्हीं आदेशों के प्रति ज़िम्मेदार हैं जो उनके कार्यालय के माध्यम से प्रसारित होते हैं। किसी अन्य माध्यम से प्रसारित आदेशों के लिए वे जवाब देह नहीं हैं। बादशाह को यह बात बहुत पसन्द नहीं आई। प्रशासकीय कुशलता के लिए सभी आदेश प्रधान वज़ीर के माध्यम से ही जाने चाहिए। ब्राह्मण बालक की बलि के सम्बन्ध में उन्होंने अलग से आदेश दे दिया था। उन्हें अपनी ग़लती का भी अहसास हुआ। पर प्रधान वज़ीर को पूरे राज्य की घटनाओं पर नज़र रखनी चाहिए, भले ही आदेश उनके माध्यम से न हुआ हो। बहरहाल प्रधान वज़ीर ने उसी शाम एक जाँच बिठा दी और एक आदमी को उन हिन्दुओं को वापस बुलाने के लिए भेजा जो दंगे के डर से छावनी रोड के पास के गाँवों में चले गए थे। उन्होंने सभी हिन्दुओें की सुरक्षा का आश्वासन दिया। इसके लिए इश्तहार जारी किया। अफ़वाहों पर थोड़ी लगाम लगी। जिन हिन्दुओं ने प्रतिरोध में दुकानें बन्द कर रक्खी थीं, उन्हें आश्वस्त किया गया कि उनकी जान और माल की हिफ़ाज़त का पूरा बन्दोबस्त किया जाएगा। जाँच में इस घटना से सम्बन्धित दोषियों को सज़ा दी जाएगी।