The Sun of Hindi in Karnataka: B. S. Shanta Bai books and stories free download online pdf in Hindi

कर्नाटक का हिंदी का सूरज : बी. एस. शांता बाई

साक्षात्कार

" कर्नाटक का हिंदी का सूरज : बी. एस. शांता बाई "

[ नीलम कुलश्रेष्ठ  ]

[ 15 मार्च 2024 को 97 की उम्र में निधन ]

“हिंदी राजभाषा है तो राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन सकती ? किसी अहिन्दी क्षेत्र में राष्ट्रीय महत्व की कोई हिंदी संस्था स्थापित हो जाए तो प्रांतीय भाषा को किसी प्रकार का नुक्सान नहीं होता। परन्तु उस प्रांतीय भाषा का महत्व और बढ़ जाता है, हिंदी के माध्यम से उस प्रांत की संस्कृति, भाषा, साहित्य, कला आदि क सारे भारत में प्रचार होता है। " ये विचार किसी हिन्दीभाषी के नहीं हैं बल्कि बैंगलोर में कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति की प्रमुख बी. एस. शांताबाई के हैं जो कोंकणी भाषी हैं। काश ! ये विचार भारत में शीर्षस्थ लोगों के होते तो अब तक हिंदी राष्ट्र भाषा बन चुकी होगी। जो भारत में कभी कभी हिंदी विरोधी विस्फ़ोट होतें हैं, वे बंद हो गए होते। मेरी तकदीर मुझ पर मेहरबान हुई -- बैंगलोर साहित्य अकादमी में मेरी मुलाक़ात हिंदी विद्वान ललिताम्बा जी से हुई जो आग्रह से वे मुझे सत्तासी वर्षीय शांता बाई जी से हिंदी के तीर्थस्थल इस समिति में मिलवाने ले गईं।

मैं अभिभूत हूँ पहले किसकी बात करूँ इस उम्र में चुस्त दुरस्त कर्मठ शांता जी की, या उन्तालीस वर्ष से निरंतर प्रकाशित होने वाली समिति की हिंदी पत्रिका ' हिंदी प्रचार वाणी 'या इनके ऑफ़िस की एक दीवार के शो केस में सजे देश विदेश के प्रतीक चिन्हों व ट्रॉफ़ीज़ की, तीनों दीवारों पर लगे प्रशस्ति पत्रों की व माला लगी उन तस्वीरों की जिन्होंने इस प्रदेश में हिंदी प्रतिष्ठा के लिए अपना जीवन होम कर दिया। मेरे लिए उस तीन चार वर्षीय बच्ची की कल्पना करना बेहद मुश्किल हो रहा है जो अपने पिता की मृत्यु के बाद एक धार्मिक आश्रम में अपने बहिन भाइयों के साथ आ गई थी। किसी चाची के साथ घर घर घूमकर दाल चावल इकठ्ठा करती थी और जोआज इस समिति की प्रमुख के रूप में सामने बैठी है।

कर्नाटक महिला हिंदी समिति की स्थापना स्वर्गीय पी. आर. श्रीनिवास शास्त्री ने सन १९५३ की थी। तबसे वे हिंदी प्रचारक की तरह इससे जुड़ गईं थीं। स्कूल की नौकरी के साथ यहां सुबह शाम हिंदी वर्ग चलाया करतीं थीं। सन १९७६ से पूर्ण कालीन समिति की प्रधान सचिव के तौर पर सेवा देने लगीं लेकिन सन १९६८ में समिति के लिये लिए भवन ख़रीदने में रात दिन श्रम करके धन जुटाया।

बड़ी बहिन बी. एस. मीराबाई व भाई स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने लगे। भाई ने शिवानंद स्वामी से हिंदी सीखकर १९५० -५५ तक हज़ारों विद्यार्थियों को परीक्षा मे बिठाया। इन्हीं की प्रेरणा से शांता बाई जी के मन में हिंदी प्रेम जागा और उन्होंने हिंदी की अनेक परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के साथ हिंदी में ही एम .ए .किया। सरकारी माध्यमिक शाला में सन १९५७ तक पढ़ाया। आज तक शान्ता बाई इसी समिति पर अपना सब कुछ न्योछावर करती रहीं है, यहां तक कि अमेरिका में बैठे भांजे ने इनके निजी फ़्लेट के लिए रूपये भेजे तो इन्होने वह सब पैसा समिति में लगा दिया।

"आपकी और कौन हिंदी प्रेम के लिए प्रेरणा बने ?"

"मेरे भाई स्वतन्त्रता आंदोलन में जेल गए तो जेल में भी हिंदी पढ़ाया करते थे। समिति में एक अध्यापक वेदप्रताप वैदिक सुबह आठ बजे अपना खाना लेकर आते थे व रात को नौ बजे घर जाते थे। हिंदी मेरी बड़ी बहिन स्वर्गीय बी एस मीराबाई सरकारी हिंदी अध्यापिका थीं जिन्होंने समिति के कार्यालय में सन १९८० में नया भवन बनाने के लिए अपना संचित धन १, ५०, ००० दान कर दिया था। तब समिति ने ये तीन मंज़िल इमारत बनवाई थी। मैंने हिंदी के लिए इतने समर्पित लोगों को नज़दीक से देखा है तो फिर कैसे मैं इस प्रेम से अछूती रहती ?"

"समिति का मुख्य उद्देश्य क्या है ?"

"हमारा पूरा ध्यान स्त्रियों व गरीब बच्चों को हिंदी ज्ञान देना है।इस इमारत में स्थित स्कूल में कन्नड़ के साथ हिंदी भाषा की परीक्षा भी दिलवाई जाती है। स्वर्गीय अध्यापक श्री वेदप्रताप वैदिक स्कूल में सुबह आठ बजे अपना खाना लेकर आते थे व रात में नौ बजे घर जाते थे। ऐसे समर्पित लोग इस संस्था से जुड़े हुए थे। "

ये समिति इन वर्षों में इतना विकास करती गई कि इसके समस्त प्रदेश में सरकारी मान्यता प्राप्त सात हिंदी प्रशिक्षण कॉलेज हैं। शांता बाई स्वयं इन शहरों में जाकर कॉलेज के लिए ईमारत बनवाने के लिए आस पास का माहौल देखकर ज़मीन खरींदतीं थीं। छात्रों की फ़ीस से इन्हें संचालित किया जाता रहा लेकिन जैसे जैसे हिंदी प्रेम घटता गया तो कभी इस केंद्र से भी कॉलेजेज़ के लिए आर्थिक भेजी गई।

शांता बाई जी की शायद ये आस्था हो कि जब तक किसी भाषा में साहित्य द्वारा संस्कार ना दिए जायें तब तक उसका ज्ञान अधूरा ही रहता है इसलिए वे उन्तालीस वर्षों से एक साहित्यिक पत्रिका 'हिंदी प्रचार वाणी 'प्रकशित कर रहीं हैं। ये पत्रिका बिना सरकारी अनुदान या विज्ञापनों के निरंतर प्रति माह एक अहिन्दी भाषा प्रदेश में प्रकाशित होती रही है। मुख्यपृष्ठ पर अक्सर होतें हैं साहित्यकारों के फोटोज़ ---भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, -रामधारी सिंह दिनकर, रामविलास शर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, बच्चन जी डॉ रामकुमार वर्मा, वगैरहा। उधर वैज्ञानिक होमी जहांगीर भामा के साथ संगीतज्ञ भीमसेन जोशी देंगे। अक्सर इसमें आपको अहिंदी भाषियों की कविताये, लेख व कहानियां व समीक्षाएं पढ़ने को मिलेंगी। मैं एक प्रति में उदयप्रकाश की कहानियों की समीक्षा पढ़कर हैरान रह गई थी।

" शांता जी ! मैं ऐसी दुर्लभ पत्रिका देखकर हैरान हूँ जिसके मुख्यपृष्ठ पर साहित्यकारों या फिर राष्ट्रीय नायकों के छायाचित्र हैं। "

वे शांत भाव से उत्तर देतीं हैं, "हमारी पत्रिका देखकर कर्णाटक में और पत्रिकाओं ने भी मुख्यपृष्ठ पर साहित्यकारों के फोटोज़ देने आरम्भ कर दिए थे।आपको आपको जानकार खुशी होगी कि ये समिति की अपनी प्रेस में प्रकाशित होती है. इस प्रेस की व हमारे सातों क़ॉलेज की लगभग महिला कर्मचारी हैं। कभी कर्मचारी कम हों तो मैं प्रेस में प्रिंटिंग मशीन चलाने चलीं जातीं हूँ । मुझे नहीं पता लेकिन लोग बतातें हैं कि ये विश्व की पहली व इतनी अनोखी हिंदी संस्था है। "

आपने भारत के प्रथम विश्व हिंदी सम्मलेन सन १९७५ में भाग लिया था।कर्नाटक व महाराष्ट्र में आप हिंदी का पर्याय बनती चलीं गईं। स्कूल्स या संस्थानों में इन्हें हिंदी दिवस पर भाषण के लिए तो आमंत्रित किया जाता रहा है। सम्मान में जब प्राप्त हुई उसे इन्होने समिति के खाते में जमा कर दिया. ये अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ, नई दिल्ली की सन १९६८ से अब तक और १९९५ से १९९८ तक सचिव की हैसियत से काम करतीं रहीं।

मैसूर विश्वविद्ध्यलय से एम ए करने वाली शांता जी से मेरा प्रश्न है "आपने एक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ किया तो आपकी रूचि साहित्य में होगी ?"

"मैं कन्नड़ व हिंदी के बीच सेतु निर्माण करती रहीं हूँ .बच्चों के अनेक पुस्तकें अनुवादित कीं हैं। मेरे कुछ अपने हिंदी के एकांकी व गद्य पद्य संग्रह हैं। "

इनके अनेक देशों के भ्रमण के अनुभवों से हिंदी व कन्नड़ भाषा लाभान्वित हुईं हैं व 'हिंदी प्रचार वाणी 'पत्रिका ने बहुत से अहिन्दीभाषियों को हिंदी में रचना करने की प्रेरणा दी है, वह भी उन्तालीस वर्ष से लगातार। साहित्य प्रेम से अनुराग के अतिरिक्त इन्हें संगीत से भी प्रेम है इसलिए इन्होने सितार वादन सीखा।

नि :संदेह इनके हिंदी के लिए किये गए कार्यों से केंद्रीय सरकार प्रभावित रही इसलिए ये केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की सन १९९८ से २००१ तक सलाहकार रहीं । भारत सरकार के ऊर्जा मंत्रालय, कल्याण मंत्रालय, विध्युत मंत्रालय, खाद्य मंत्रालय, जल संसाधन मंत्रालय, योजना मन्त्रालय, कृषि मंत्रालय सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्रालय आदि की सलाहकार समिति में रहीं.

इन आश्चर्यजनक उपलब्धियों के विषय में वे बहुत हैं , " अपनी वकालत करने हम कहीं नहीं जाते, कोई सम्मान देकर बुलाता है तो मना भी नहीं करते। "

"कर्नाटक सरकार क्या त्रिभाषा सूत्र को लागू कर रही है ?"

" सरकार त्रिभाषा सूत्र को अनदेखा कर रही है। मुझे बहुत तकलीफ़ हुई है कि सरकार ने मेट्रो में से हिंदी नाम हटा दिए हैं। बाहर से आया कोई अल्पशिक्षित अंग्रेज़ी या कन्नड़ पढ़ सकता है ?सबको अपनी कुर्सी व पैसा खाने की पड़ी है। क्या कोई पैसा ऊपर अपने साथ ले जा है ? "

और एक अहिन्दीभाषी प्रदेश में शांता जी के हिंदी प्रेम का परिणाम ? सरकार ने न वर्षों की बेपनाह तपस्या को देखा, न हिंदी लोकप्रियता को, उसने इसी वर्ष ६ जून को होने वाली हिंदी परीक्षा पर रोक लगा दी थी.मजबूरन शांता बाई को कोर्ट में जाना पड़ा। मुकदमा तो वे जीत गईं लेकिन जहां सात कॉलेजेज़ के ७८० विद्यार्थी परीक्षा देने वाले थे इस आपाधापी में अब सिर्फ़ ५५ विद्यार्थी परीक्षा दे रहे हैं। किसका नुक़्सान हो रहा है ? क्या सिर्फ़ हिंदी का ?या कर्नाटक व हिंदी के बीच एक सांस्कृतिक सेतु का ?

सुश्री बी एस शांता बाई जी नहीं रहीं। 97 वर्षों के लंबे जीवन में उन्होंने कर्नाटक की महिलाओं में हिंदी भाषा के प्रति जो अनुराग का दीप जलाया, उसकी रोशनी घर-घर में पहुंची। ऐसा समर्पित हिंदी सेवी शायद ही अब कोई हो । 15 मार्च 2024 को उन्होंने ये नश्वर शरीर त्याग दिया था।

 

श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

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