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उस रात की गंध

कहानी

उस रात की गंध

धीरेन्द्र अस्थाना

लड़की मेरी आंखों में किसी अश्लील इच्छा की तरह नाच रही थी।

‘पेट्रोल भरवा लें।‘ कह कर कमल ने अपनी लाल मारुति जुहू बीच जाने वाली सड़क के किनारे बने पेट्रोल पंप पर रोक दी थी और दरवाजा खोल कर बाहर उतर गया था।

शहर में अभी—अभी दाखिल हुए किसी अजनबी के कौतुहल की तरह मेरी नजरें सड़क पर थिर थीं कि उन नजरों में एक टैक्सी उभर आई। टैक्सी का पिछला दरवाजा खुला और वह लड़की बाहर निकली। उसने बिल चुकाया और पर्स बंद किया। टैक्सी आगे बढ़ गई। लड़की पीछे रह गई।

यह लड़की है? विस्मय मेरी आंख से कोहरे सा टपकने लगा।

मैं कार से बाहर आ गया।

कोहरा आसमान से भी झर रहा था। हमेशा की तरह निःशब्द और गतिहीन। कार की छत बताती थी कि कोहरा गिरने लगा है। मैंने घड़ी देखी। रात के साढ़े दस बजने जा रहे थे।

रात के साढ़े दस बजे मैं कोहरे में चुपचाप भीगती लड़की को देखने लगा। घुटनों से बहुत बहुत ऊपर रह गया सफेद स्कर्ट और गले से बहुत बहुत नीचे चला आया सफेद टॉप पहने वह लड़की उसे गीले अंधेरे में चारों तरफ दूधिया रौशनी की तरह चमक रही थी। अपनी सुडौल, चिकनी और आकर्षक टांगों को वह जिस लयात्मक अंदाज में एक दूसरे से छुआ रही थी उसे देख कोई भी फिसल पड़ने को आतुर हो सकता था।

जैसे कि मैं। लेकिन ठीक उसी क्षण, जब मैं लड़की की तरफ एक अजाने सम्मोहन सा खिंचने को था, कमल गाड़ी में आ बैठा। न सिर्फ आ बैठा बल्कि उसने गाड़ी भी स्टार्ट कर दी।

मैं चुपचाप कमल के बगल में आ बैठा और तंद्रिल आवाज में बोला, ‘लड़की देखी?‘

‘लिफ्ट चाहती है।‘ कमल ने लापरवाही से कहा और गाड़ी बैक करने लगा।

‘पर यह अभी अभी टैक्सी से उतरी है।‘ मैंने प्रतिवाद किया।

‘लिफ्ट के ही लिए।‘ कमल ने किसी अनुभवी गाइड की तरह किसी ऐतिहासिक इमारत के महत्वपूर्ण लगते तथ्य के मामूलीपन को उद्‌घाटित करने वाले अंदाज में बताया और गाड़ी सड़क पर ले आया।

‘अरे, तो उसे लिफ्ट दो न यार!‘ मैंने चिरौरी सी की।

जुहू बीच जाने वाली सड़क पर कमल ने अपनी लाल मारुति सर्र से आगे बढ़ा दी और लड़की के बगल से निकल गया। मेरी आंखों के हिस्से में लड़की के उड़ते हुए बाल आए। मैंने पीछे मुड़ कर देखा—लड़की जल्दी में नहीं थी और किसी—किसी कार को देख लिफ्ट के लिए अपना हाथ लहरा देती थी।

‘अपन लिफ्ट दे देते तो...‘ मेरे शब्द अफसोस की तरह उभर रहे थे।

‘माई डियर! रात के साढ़े दस बजे इस सुनसान सड़क पर, टैक्सी से उतर कर यह जो हसीन परी लिफ्ट मांगने खड़ी है न, यह अपुन को खलास भी करने को सकता। क्या?‘ कमल मवालियों की तरह मुस्कराया।

अपने पसंदीदा पॉइंट पर पहुंच कर कमल ने गाड़ी रोकी।

दुुकानें इस तरह उजाड़ थीं, जैसे लुट गई हों। तट निर्जन था। समुद्र वापस जा रहा था।

‘दो गिलास मिलेंगे?‘ कमल ने एक दुकानदार से पूछा।

‘नहीं साब, अब्बी सख्ती है इधर, पन ठंडा चलेगा। दूर...समंदर में जा के पीने का।‘ दुकानदार ने रटा—रटाया सा जवाब दिया। उस जवाब में लेकिन एक टूटता सा दुख और साबुत सी चिढ़ भी शामिल थी।

‘क्या हुआ?‘ कमल चकित रह गया। ‘पहले तो बहुत रौनक होती थी इधर। बेवड़े कहां चले गए?‘

‘पुलिस रेड मारता अब्बी। धंधा खराब कर दिया साला लोक।‘ दुकानदार ने सूचना दी और दुकान के पट बंद करने लगा। बाकी दुकानें भी बुझ रही थीं।

‘कमाल है?‘ कमल बुदबुदाया, ‘अभी छह महीने पहले तक शहर के इंटलैक्चुअल यहीं बैठे रहते थे। वो, उस जगह। वहां एक दुकान थी। चलो।‘ कमल मुड़ गया, ‘पाम ग्रोव वाले तट पर चलते हैं।‘

हम फिर गाड़ी में बैठ गए। तय हुआ था कि आज देर रात तक मस्ती मारेंगे, अगले दिन इतवार था—दोनों का अवकाश। फिर, हम करीब महीने भर बाद मिल रहे थे—अपनी—अपनी व्यस्तताओं से छूट कर। चाहते थे कि अपनी—अपनी बदहवासी और बेचैनी को समुद्र में डुबो दिया जाए आज की रात। समुद्र किनारे शराब पीने का कार्यक्रम इसीलिए बना था।

गाड़ी के रुकते ही दो—चार लड़के मंडराने लगे। कमल ने एक को बुलाया, ‘गिलास मिलेगा?‘

‘और?‘ लड़का व्यवसाय पर था।

‘दो सोडे, चार अंडे की भुज्जी, एक विल्स का पैकेट।‘ कमल ने आदेश प्रसारित कर दिया।

थोड़ी ही दूरी पर पुलिस चौकी थी, भय की तरह लेकिन मारुति की भव्यता उस भय के ऊपर थी। सारा सामान आ गया था। हमने अपना डीएसपी का हाफ खोल लिया था।

दूर तक कई कारें एक दूसरे से सम्मानजनक दूरी बनाए खड़ी थीं—मयखानों की शक्ल में। किसी किसी कार की पिछली सीट पर कोई नवयौवना अलमस्त सी पड़ी थी—प्रतीक्षा में।

सड़क पर भी कितना निजी है जीवन। मैं सोच रहा था और देख रहा था। देख रहा था और शहर के प्यार में डूब रहा था। आइ लव बांबे। मैं बुदबुदाया। किसी दुआ को दोहराने की तरह और सिगरेट सुलगाने लगा। हवा में ठंडक बढ़ गई थी।

कमल को एक फिलीस्तीनी कहानी याद आ गई थी, जिसका अधेड़ नायक अपने युवा साथी से कहता है —‘तुम अभी कमसिन हो याकूब, लेकिन तुम बूढ़े लोगों से सुनोगे कि सब औरतें एक जैसी होती हैंं, कि आखिरकार उनमें कोई फर्क नहीं होता। इस बात को मत सुनना क्योंकि यह झूठ है। हरेक औरत का अपना स्वाद और अपनी खुशबू होती है।‘

‘पर यह सच नहीं है यार।‘ कमल कह रहा था, ‘इस मारुति की पिछली सीट पर कई औरतें लेटी हैं, लेकिन जब वे रुपयों को पर्स में ठूंसती हुई, हंसकर निकलती हैं, तो एक ही जैसी गंध छोड़ जाती हैं। बीवी की गंध हो सकता है, कुछ अलग होती हो। क्या खयाल है तुम्हारा?‘

मुझे अनुभव नहीं था। चुप रहा। बीवी के नाम से मेरी स्मृति में अचानक अपनी पत्नी कौंध गई, जो एक छोटे शहर में अपने मायके में छूट गई थी—इस इंतजार में कि एक दिन मुझे यहां रहने के लिए कायदे का घर मिल जाएगा और तब वह भी यहां चली आएगी। अपना यह दुख याद आते ही शहर के प्रति मेरा प्यार क्रमशः बुझने लगा।

हमारा डीएसपी का हाफ खत्म हो गया तो हमें समुद्र की याद आई। गाड़ी बंद कर हमने पैसे चुकाए तो सर्विस करने वाला छोकरा बायीं आंख दबा कर बोला, ‘माल मंगता है?‘

‘नहीं!‘ कमल ने इनकार कर दिया और हम समुद्र की तरफ बढ़ने लगे, जो पीछे हट रहा था। लड़का अभी तक चिपका हुआ था।

‘छोकरी जोरदार है सेठ। दोनों का खाली सौ रुपए।‘

‘नई बोला तो?‘ कमल ने छोकरे को डपट दिया। तट निर्जन हो चला था। परिवार अपने अपने ठिकानों पर लौट गए थे। दूर...कोई अकेला बैठा दुख सा जाग रहा था।

‘जुहू भी उजड़ गया स्साला।‘ कमल ने हवा में गाली उछाली और हल्का होने के लिए दीवार की तरफ चला गया—निपट अंधकार में।

तभी वह औरत सामने आ गई। बददुआ की तरह।

‘लेटना मांगता है?‘ वह पूछ रही थी।

एक क्वार्टर शराब मेरे जिस्म में जा चुकी थी। फिर भी मुझे झुरझुरी सी चढ़ गई।

वह औरत मेरी मां की उम्र की थी। पूरी नहीं तो करीब—करीब।

रात के ग्यारह बजे, समुद्र की गवाही में, उस औरत के सामने मैंने शर्म की तरह छुपने की कोशिश की लेकिन तुरंत ही धर लिया गया।

मेरी शर्म को औरत अपनी उपेक्षा समझ आहत हो गई थी। झटके से मेरा हाथ पकड़ अपने वक्ष पर रखते हुए वह फुसफुसायी, ‘एकदम कड़क है। खाली दस रुपिया देना। क्या? अपुन को खाना खाने का।‘

‘वो...उधर मेरा दोस्त है।‘ मैं हकलाने लगा।

‘वांदा नईं। दोनों ईच चलेगा।‘

‘शटअप।‘ सहसा मैं चीखा और अपना हाथ छुड़ा कर तेजी से भागा—कार की तरफ। कार की बॉडी से लग कर मैं हांफने लगा—रौशनी में। पीछे, समुद्री अंधेरे में वह औरत अकेली छूट गई थी—हतप्रभ। शायद आहत भी। औरत की गंध मेरे पीछे—पीछे आई थी। मैंने अपनी हथेली को नाक के पास ला कर सूंघा—उस औरत की गंध हथेली में बस गई थी।

‘क्या हुआ?‘ कमल आ गया था।

‘कुछ नहीं।‘ मैंने थका—थका सा जवाब दिया, ‘मुझे घर ले चलो। आई...आई हेट दिस सिटी। कितनी गरीबी है यहां।‘

‘चलो, कहीं शराब पीते हैं।‘ कमल मुस्कराने लगा था।

तीन फुट ऊंचे, संगमरमर के फर्श पर, बहुत कम कपड़ों में, चीखते आर्केस्ट्रा के बीच वह लड़की हंस हंस कर नाच रही थी। बीच—बीच में कोई दस—बीस या पचास का नोट दिखाता था और लड़की उस ऊंचे, गोल फर्श से नीचे उतर लहराती हुई नोट पकड़ने के लिए लपक जाती थी। कोई नोट उसके वक्ष में ठूंस देता था, कोई होठों में दबा कर होठों से ही लेने का आग्रह करता था और नोट बड़ा हो तो लड़की एक या दो सैकेंड के लिए गोद में भी बैठ जाती थी। उत्तेजना वहां शर्म पर भारी थी और वीभत्स मुस्कराहटों के उस बनैले परिदृश्य में सहानुभूति या संवेदना का एक भी कतरा शेष नहीं बचा था। पैसे के दावानल में लड़की सूखे बांस सी जल रही थी।

उस जले बांस की गंध से कमरे का मौसम लगातार बोझिल और कसैला होता जा रहा था। मैं उठ खड़ा हुआ। ‘नीचे बैठेंगे।‘ मैंने अल्टीमेटम सा दिया।

‘क्यों?‘

‘मुझे लगता है, लड़की मेरी धमनियों में विलाप की तरह उतर रही है।‘

‘शरीफ बोले तो? चुगद!‘ कमल ने कहकहा उछाला और हम सीढ़ियां उतरने लगे।

नीचे वाले हॉल का एक अंधेरा कोना हमने तेजी से थाम लिया, जहां से अभी अभी कोई उठा था—दिन भर की थकान, चिढ़, नफरत और क्रोध को मेज पर छोड़कर—घर जाने के लिए।

मुझे घर याद आ गया। घर यानी मालाड के एक सस्ते गैस्ट हाउस का दस बाई दस का वह उदास कमरा जहां मैं अपनी आक्रामक और तीखी रातों से दो—चार होता था। मुझे लगा, मेरी चिट्‌ठी आई होगी वहां, जिसमें पत्नी ने फिर पूछा होगा कि ‘घर कब तक मिल रहा है यहां?‘

मैं फिर बार में लौट आया। हमारी मेज पर जो लड़की शराब सर्व कर रही थी, वह खासी आकर्षक थी। इस अंधेरे कोने में भी उसकी सांवली दमक कौंध कौंध जाती थी।

डीएसपी के दो लार्ज हमारी मेज पर रख कर, उनमें सोडा डाल वह मुस्कराई, ‘खाने को?‘

‘बॉइल्ड एग‘, कमल ने उसके उभारों की तरफ इशारा किया।

‘धत्त।‘ वह शर्मा गयी और काउंटर की तरफ चली गई।

‘धांसू है न?‘ कमल ने अपनी मुट्‌ठी मेरी पीठ पर मार दी।

‘हां। चेहरे में कशिश है।‘ मैं एक बड़ा सिप लेने के बाद सिगरेट सुलगा रहा था।

‘सिर्फ चेहरे में?‘ कमल खिलखिला दिया।

मुझे ताज्जुब हुआ। हर समय खिलखिलाना इसका स्वभाव है या इसके भीतरी दुख बहुत नुकीले हो चुके हैं? मैंने फिर एक बड़ा सिप लिया और बगल वाली मेज को देखने लगा जहां एक खूबसूरत सा लड़का गिलास हाथ में थामे अपने भीतर उतर गया था। किसी और मेज पर शराब सर्व करती एक लड़की बीच बीच में उसे थपथपा देती थी और वह चौंक कर अपने भीतर से निकल आता था। लड़की की थपथपाहट में जो अवसाद ग्रस्त आत्मीयता थी उसे महसूस कर लगता था कि लड़का ग्राहक नहीं है। इस लड़के में जीवन में कोई पक्का सा, गाढ़ा सा दुख है। मैंने सोचा।

‘इस बार में कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।‘ कमल के भीतर सोया गाइड जागने लगा, ‘फाइट सीन ऊपर होते हैं, सैड सीन नीचे।‘

‘हम दुखी दृश्य के हिस्से हैं?‘ मैंने पूछा और कमल फिर खिलखिलाने लगा।

शराब खत्म होते ही लड़की फिर आ गई।

‘रिपीट।‘ कमल ने कहा, ‘बॉइल्ड एग का क्या हुआ?‘

‘धत्त।‘ लड़की फिर इठलाई और चली गई।

उसके बाद मैं ध्वस्त हो गया। मैंने कश लिया और लड़की का इंतजार करने लगा।

लड़की फिर आई। वह दो लार्ज पैग लाई थी। बॉइल्ड एग उसके पीछे—पीछे एक पुरुष वेटर दे गया।

अंडों पर नमक छिड़कते समय वह मुस्करा रही थी। सहसा मुझसे उसकी आंख मिली।

‘अंडे खाओगी?‘ मैंने पूछा।

मैंनेे ऐसा क्यों पूछा होगा? मैंने सोचा। मैं भीतर से किसी किस्म के अश्लील उत्साह से भरा हुआ नहीं था। तो फिर?

तभी लड़की ने अपनी गर्दन ‘हां‘ में हिलायी, मेरे भीतर एक गुमनाम, अजाना सा सुख तिर आया।

‘ले लो।‘ मैंने कहा।

उसने एक नजर काउंटर की तरफ देखा फिर चुपके से दो पीस उठाकर मुंह में डाल लिए। अंडे चबा कर वह बोली, ‘यहां का चिली चिकन बहुत टेस्टी है, मंगवाऊ?‘

‘मंगवा लो।‘ जवाब कमल ने दिया, ‘बहुत अच्छी हिंदी बोलती हो। यूपी की हो?‘

लड़की ने जवाब नहीं दिया। तेजी से लौट गई। मुझे लगा, कमल ने शायद उसके किसी रहस्य पर उंगली रख दी है।

चिली चिकन के पीछे पीछे वह फिर आई। इस बार अपनी साड़ी की किसी तह में छिपा कर वह एक कांच का गिलास भी लाई थी।

‘थोड़ी सी दो न?‘ उसने मेरी आंखों में देखते हुए बड़े अधिकार और मान भरे स्वर में कहा। उसके शब्दों की आंच में मेरा मन तपने लगा। मुझे लगा, मैं इस लड़की के तमाम रहस्यों को पा लूंगा। मैंने काउंटर की तरफ देखा कि कोई देख तो नहीं रहा। दरअसल उस वक्त मैं लड़की को तमाम तरह की आपदाओं से बचाने की इच्छा से भर उठा था। अपनी सारी शराब उसके गिलास में डाल कर मैं बोला, ‘मेरे लिए एक और लाना।‘

एक सांस में पूरी शराब गटक कर और चिकन का एक टुकड़ा चबा कर वह मेरे लिए शराब लेने चली गई। उसका खाली गिलास मेज पर रह गया। मैं चोरों की तरह, गिलास पर छूटे रह गए उसके हाेंठ अपने रूमाल से उठाने लगा।

‘भावुक हो रहे हो।‘ कमल ने टोका। मैंने चौंक कर देखा, वह गंभीर था।

हमारे दो लार्ज खत्म करने तक, हमारे खाते में वह भी दो लार्ज खत्म कर चुकी थी। मैंने ‘रिपीट‘ कहा तो वह बोली, ‘मैं अब नहीं लूंगी। आप तो चले जाएंगे। मुझे अभी नौकरी करनी है।‘

मेरा नशा उतर गया। धीमे शब्दों में उच्चारी गयी उसकी चीख बार के उस नीम अंधेरे में कराह की तरह कांप रही थी।

‘तुम्हारा पति नहीं है?‘ मैंने नकारत्मक सवाल से शुरूआत की, शायद इसलिए कि वह कुंआरी लड़की का जिस्म नहीं था, न उसकी महक ही कुंवारी थी।

‘मर गया।‘ वह संक्षिप्त हो गई—कटु भी। मानो पति का मर जाना किसी विश्वासघात सा हो।

‘इस धंधे में क्यों आ गई?‘ मेरे मुंह से निकल पड़ा। हालांकि यह पूछते ही मैं समझ गया कि मुझसे एक नंगी और अपमानजनक शुरूआत हो चुकी है।

‘क्या करती मैं?‘ वह क्रोधित होने के बजाय रूआंसी हो गई, ‘शुरू में बर्तन मांजे थे मैंने, कपड़े भी धोए थे अपने मकान मालिक के यहां। देखो, मेरे हाथ देखो।‘ उसने अपनी दोनों हथेलियां मेरी हथलियों पर रगड़ दीं। उसकी हथेलियां खुरदुरी थीं—कटी फटी।

‘इन हथेलियों का गम नहीं था मुझे जब आदमी ही नहीं रहा तो...‘ वह अपने अतीत के अंधेरे में खड़ी खुल रही थी, ‘बर्तन मांज कर जीवन काट लेती मैं लेकिन वहां भी तो...‘ उसने अपने होठ काट लिए। उसे याद आ गया था कि वह ‘नौकरी‘ पर है और रोने के लिए नहीं, हंसने के लिए रखी गई है।

‘और पीने का?...‘ वह पेशेवर हो गई। कठोर भी।

‘मैं तुम्हारे हाथ चूम सकता हूं?‘ मैंने पूछा।

‘हुंह।‘ लड़की ने इतनी तीखी उपेक्षा के साथ कहा कि मेरी भावुकता चटख गई। लगा कि एक लार्ज और पीना चाहिए।

अपमान का दंश और शराब की इच्छा लिए, लेकिन मैं उठ खड़ा हुआ और कमल का हाथ थाम बाहर चला आया। पीछे, अंधेरे कोने वाली मेज पर, चिली चिकन की खाली प्लेट के नीचे सौ—सौ के तीन नोट देर तक फड़फड़ाते रहे—उस लड़की की तरह।

बाहर आकर गाड़ी के भीतर घुसने पर मैंने पाया—उस लड़की की गंध भी मेरे साथ चली आई है। मैंने अपनी हथेलियां देखीं—लड़की मेरी हथेलियों पर पसरी हुई थी।

पता नहीं कहां कहां के चक्कर काटते हुए जब हम रुके तो मारुति खार स्टेशन के बाहर खड़ी थी। रात का सवा बज रहा था।

कह नहीं सकता कि रात भर बाहर रहने का कार्यक्रम तय करने के बावजूद हम स्टेशन पर क्यों आ गए थे। शायद मैं थक गया था। या शायद घबरा गया था। या फिर शायद अपने कमरे के एकांत में पहुंच कर चुपचाप रोना चाहता था। जो भी हो, हम स्टेशन के बाहर थे—एक—दूसरे से विदा होने का दर्द थामे।

उसी समय कमल के ठीक बगल में, खिड़की के बाहर, एक आकृति उभर आई। वह एक दीन—हीन बुढ़िया थी। बदतमीज होंठों से निकली भद्‌दी गाली की तरह वह हमारे सामने उपस्थित हो गई थी और गंदे इशारे करने लगी थी।

मुझे उबकाई आने लगी।

‘क्या चाहिए?‘ कमल ने हंस कर पूछा।

‘चार रुपए।‘

‘एकदम चार। क्यों भला?‘

‘दारू पीने का है, दो मेरे वास्ते, दो उसके वास्ते,‘ बुढ़िया ने एक अंधेरे कोने की तरफ इशारा किया।

‘वौ कौन?‘ कमल पूछ रहा था।

‘छक्का है। मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने इशारे से भी बताया कि उसका साथी हिजड़ा है।

‘बच्चा नहीं तेरे को?‘ कमल ने पूछा।

‘हैं न!‘ बुढ़िया की आंखें चमकने लगीं, ‘लड़की है। उसकी शादी हो गई माहीम की झोंपड़पट्‌टी में। लड़का चला गया अपनी घरवाली को लेकर। धारावी में धंधा है उसका।‘

‘तेरे को सड़क पर छोड़ गए?‘ मेरी ऊब के भीतर एक कौतुहल ने जन्म लिया, ‘पति क्या हुआ तेरा?‘

‘बुड्‌ढा परसोईं मरेला है। पी के कट गया फास्ट से, उधर दादर में। अब्बी मैं उसकेइच साथ रहती।‘ बुढ़िया ने फिर अपने साथी की तरफ इशारा किया और पिंड छुड़ाती सी बोली, ‘अब्बी चार रुपिया दे न! ‘

‘तेरा घर नहीं है?‘ कमल ने पर्स निकाल कर चार रुपए बाहर निकाले।

‘अख्खा बंबई तो अपना झोंपड़पट्‌टी है।‘ बुढ़िया ने ऐसे अभिमान में भर कर कहा कि उसके जीवट पर मैं चौंक उठा। कमल के हाथ से रुपए छीन बुढ़िया अपने साथी की तरफ फिसल गई, जो एक झोंपड़ी के पास खड़ा था—प्रतीक्षातुर।

मैं पेशाब करने उतरा। झोंपड़ी किनारे अंधेरे में मैं हल्का होने लगा।

झोंपड़ी के भीतर बुढ़िया और उसका साथी कच्ची शराब खरीद कर पी रहे थे। बुढ़िया अपने साथी से कह रही थी, ‘खाली पीली रौब नईं मारने का। अपुन भी तेरे को पिला सकता, क्या? ओ कार वाले सेठ ने दिया। रात रात भर कार में घूमता साला लोक, रहने को घर नईं साला लोक के पास और अपनु से पूछता, तेरे को सड़क पे छोड़ गए क्या?‘ बुढ़िया मेरा मजाक उड़ा रही थी।

दारू गटक कर दोनों एक दूसरे के गले में बांहें डाले, झूमते हुए झोंपड़ी के बाहर आ रहे थे।

‘थू!‘ बुढ़िया ने सड़क पर ढेर सा बलगम थूक दिया और कड़वाहट से बोली, ‘चार रुपिया दे के साला सोचता कि अपुन को खरीद लिया।‘

मैं अभी तक अंधेरे में था, हतप्रभ। मारुति को अभी तक खड़े देख बुढ़िया ठिठकी फिर अपने साथी से बोली, ‘वो देख गाड़ी अब्बी भी खड़ेला है। मैं तेरे को बोली न, घर नईं साला लोक के पास।‘

‘सच्ची बोली रे तू।‘ बुढ़िया के साथी ने सहमति जतायी और दोनों हंसते हुए दूसरी तरफ निकल गए।

कलेजा चाक हो चुका था। खून से लथ—पथ मैं मारुति की तरफ बढ़ा। बाहर खड़े खड़े ही मैंने अपना निर्जीव हाथ कमल के हाथ में दिया और फिर तेजी से दौड़ पड़ा प्लेटफार्म की तरफ।

‘क्या हुआ? सुनो!‘ कमल चिल्लाया मगर तब तक मैं ट्रेन के पायदान पर लटक गया था।

सीट पर बैठ कर अपनी उनींदी और आहत आंखें मैंने छत पर चिपका दीं। और यह देख कर डर गया कि ट्रेन की छत से बुढ़िया की गंध लटकी हुई थी।

मैंने घबरा कर अपनी हथेलियां देखीं—अब वहां बुढ़िया नाच रही थी।

(रचनाकाल : मार्च 1991)

कहानी

विचित्र देश की प्रेम कथा

धीरेन्द्र अस्थाना

इस कहानी के नायक कालीचरण माथुर, जो खुद को के.सी. माथुर कहना पसंद करता है, में ऐसा एक भी गुण नहीं कि उसे नायक का दर्जा दिया जाये। लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूं कि जो कहानी मैं लिखने जा रहा हूं वह कालीचरण माथुर की ही है। अगर पाठकगण अनिवार्य सहानुभूति के साथ विचार करें तो तथ्य यह प्रकाशित होगा कि गुणहीनता की जिम्मेदारी बिचारे के.सी. पर नहीं जाती। इस गुणहीनता का दारोमदार है उस विचित्र किस्म के देश पर जिसमें के.सी. ने अपनी चाहतों और तमन्नाओं को मूर्त रूप देना चाहा और जिसमें कुछ भी यथास्थान नहीं रह गया था — न गुण, न धर्म और न ही जीवन।

सचमुच वह एक विचित्र देश था। वहां इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि जो शख्स सुबह अपने घर से दफ्तर के लिए निकला है वह शाम को सही—सलामत लौट भी आयेगा। वहां दवाई खाकर आदमी मर सकता था और जहर खाने के बावजूद बचा रह सकता था।

ऐसे विचित्र देश में कालीचरण माथुर उर्फ के.सी. को अपने साथ पढ़ने वाली जीनत से विवाह करने की इच्छा हुई। इस इच्छा के जीनत और के.सी. के मन में रहने तक तो सब ठीक—ठाक रहा। लेकिन जैसे ही यह इच्छा सार्वजनिक हुई के.सी. की मां ने आत्मदाह करने की और के.सी. के पिता ने के.सी. को धक्के मारकर घर से निकाल देने की धमकी दे डाली। के.सी. इस समस्या से निपट भी नहीं पाया था कि एक शाम जीनत के भाइयों ने गली के मुहाने पर के.सी. को रोक उसकी गर्दन पर चाकू रख दिया और गुर्राकर बोले, ‘खैरियत चाहता है तो इसी वक्त शहर से दफा हो जा।‘

के.सी. कहना चाहता था—प्रजातंत्र, आजादी, प्रेम वगैरह—वगैरह लेकिन गर्दन पर चाकू की नोक प्रतिपल चुभती जा रही थी सो इन शब्दों को कहने के प्रयत्न में उसके गले से एक घिघियाहट—सी उभरी और डूब गयी। आश्चर्य और दुःख में डूबा के.सी. जीनत के भाइयों के साथ बस अड्‌डे आया और राजधानी जाने वाली बस में बैठ गया। टिकट जीनत के भाइयों ने ही खरीद दिया। जब तक बस चल न दी, जीनत के भाई वहीं खड़े रहे।

उस शहर से चलने वाली यह बस जब किसी खराबी के कारण पास के एक कस्बे में रुकी तो इस सारे घटनाक्रम से हैरान और परेशान के.सी. ने सोचा कि वह उतर ले और भाग कर जीनत के पास पहुंच जाये। लेकिन दूसरे ही क्षण इस इच्छा का दमन करती उदासीनता की एक तेज लहर के.सी. के दिमाग से उठी और दिल को दबोच कर बैठ गयी। के.सी. ने कुछ देर संघर्ष किया और अंततः इब्ने इंशा के इस शेर में शरण ली——‘इशा जी उठ्‌ठो, कूच करो, इस शहर में जी का लगाना क्या?‘

इस प्रकार इस कहानी के नायक ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ खाली हाथ और क्षुब्ध मन देश की राजधानी में कदम रखा और खरामा—खरामा पैदल चलता हुआ अपने चाचा के घर पहुंचा। चाचा एक फर्म में सेल्स मैनेजर थे और तीन बच्चों के पिता तथा एक मरियल—सी निस्तेज चेहरे वाली औरत के पति थे। उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किये थे। वह क्लर्क से विक्रय प्रतिनिधि और विक्रय प्रतिनिधि से विक्रय अधिकारी की सीढ़ियां चढ़ते हुए पूरे बीस वर्षों की कठिन तपस्या और हाड़—तोड़ मेहनत के बाद विक्रय प्रबंधक बने थे। उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया था और पी.एच.डी. करने की तमन्ना लिये लिये क्लर्की में आ लगे थे। इतिहास, दर्शन, राजनीति और साहित्य की एक हजार से ऊपर किताबें उनकी निजी मिल्कियत थीं और वह चौड़े फ्रेम का मोटे शीशों वाला नजर का चश्मा पहनते थे। वह समझ गये कि के.सी. झूठ बोल रहा है।

के.सी. ने चाचा से कहा था कि वह घूमने—फिरने आया है।

‘बिना कपड़े—लत्तों के?‘ चाचा ने सव्यंग्य पूछा और कहा, ‘मैंने दुनिया देखी है, मुझे बनाने की कोशिश मत करो।‘ और के.सी. ने बनाने की कोशिश छोड़ उगल दिया कि उसके साथ क्या हादसा हुआ है।

फिर के.सी. ने इस हादसे की सूचना जीनत और अपनी मां को भेजी और मां से प्रार्थना की कि कम से कम दो सौ रुपये और दो जोड़ी कपड़े उसे तुरंत भिजवा दे।

एक हफ्ते बाद मां का खत आया जिसमें सूचना दी गयी थी कि सौ रुपये मनीऑर्डर से और कपड़े पार्सल से भेजे जा रहे हैं। आगे लिखा था कि ‘तूने अच्छा ही किया जो शहर छोड़ दिया। जान है तो जहान है। तेरे बाऊ जी को भी जीनत के भाई धमका गये थे। तुझे तो पता ही है कि यहां दंगे होते ही रहते हैं। तेरे बाऊजी ने अपने ट्रांसफर के लिए अर्जी दी है। तुझसे वे बहुत खफा हैं। घर की हालत तो तुझे पता ही है इसलिए दो सौ रुपये नहीं भेज सकी। अच्छा हो कि तू अब वहीं जमने की सोचे। अपने चाचा से कहना कि तेरे लिए किसी काम का जुगाड़ कर दें। पत्र डालते रहना। तेरी मां।‘

जीनत के नाम के.सी. ने जो पत्र भेजा वह जब उसके घर पहुंचा तो जीनत के भाई दोपहर का भोजन कर रहे थे और जीनत कॉलेज गयी थी। जीनत के नाम चूंकि कहीं से भी आने वाला यह पहला पत्र था और के.सी. कांड अभी ताजा था इसलिए भाइयों ने पत्र के ऊपर ‘व्यक्तिगत‘ लिखे होने के बावजूद पत्र खोला, पढ़ा और के.सी. का पता नोट करने के बाद पत्र को फाड़कर नाली में बहा दिया।

जिस दिन के.सी. को मां द्वारा भेजे सौ रुपये का मनीआर्डर और कपड़ों का पार्सल प्राप्त हुआ उसी शाम उसे जीनत के भाइयों द्वारा भेजा एक खत भी मिला जिसमें सूचना दी गई थी कि वे राजधानी आकर भी के.सी. को जमीन में जिंदा गाड़ सकते हैं इसलिए के.सी. अपनी हरकतों से बाज आये और पठानों की इज्जत से खेलने की जुर्रत न करे।

के.सी. इस पत्र को पढ़कर डर गया और चाचा से सलाह लेने उपस्थित हुआ। चाचा ने सलाह दी कि जीनत के भाई ठीक कहते हैं और अगर के.सी. को विवाह करने की ही इच्छा है तो बिरादरी में लड़कियों की भीड़ खड़ी है। के.सी. कहे तो बात चलायी जाये। के.सी. को पता नहीं है कि कायस्थों में आजकल लड़के की कीमत एक लाख को छू रही है कि उस रुपये से अपना कोई व्यापार किया जा सकता है, के.सी. जीनत को मन से निकाल दे और राजधानी में रहकर कम से कम अपना एम.ए. ही पूरा कर ले।

इस सलाह को सुनकर के.सी. को गहरा सदमा पहुंचा और उसने बड़े गहरे अविश्वास से चाचा को देखा। उसे नहीं पता था कि जिन चाचा को वह सुलझे हुए विचारों का प्रगतिशील आदमी समझता था वह भी ठीक उसके पिता के दकियानूसी विचारों की लीक पर चल सकते हैं। चाचा की सलाह के विपरीत के.सी. को जीनत और तेजी से याद आने लगी।

थक कर के.सी. ने चाचा की किताबों में शरण ली। वह सारा—सारा दिन किताबों में डूबा रहता और सारी—सारी रात जीनत में। हफ्तों तक उसे दाढ़ी बनाने का ख्याल नहीं आता। चाची खाना दे देती तो खा लेता, भूल जाती तो याद नहीं दिलाता। एक अजीब किस्म का वीतरागी भाव उसके चेहरे पर हरदम चिपका रहता। उसके इस व्यवहार पर चाची को कभी क्रोध आता और कभी एक भावुक किस्म की करुणा में भर कर वह ‘च्च—च्च‘ कर उठतीं। चाचा के दस, बारह और पंद्रह वर्ष के तीनों लड़के उसे इस बीच अजूबा समझने लगे थे। और इसी बीच के.सी. ने जीनत के नाम करीब—करीब तीन दर्जन पत्र लिख कर अपने पास जमा कर लिये थे।

इस तरह तीन महीने गुजरे और इन तीन महीनों में के.सी. का शरीर आधा हो गया। अब चाचा को चिंता हुई और उन्होंने के.सी. के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वह चाहे तो उसे अपनी फर्म में क्लर्की दिला दें। के.सी. ने दो दिन का वक्त मांगा लेकिन दो ही घंटे के भीतर अपनी सहमति दे दी।

इस तत्काल निर्णय का कारण बना के.सी. की बहन का पत्र जो ऐन उसी वक्त पहुंचा जिस वक्त के.सी. चाचा का प्रस्ताव गर्दन झुका कर सुन रहा था। के.सी. उस पत्र को लेकर कमरे में गया। पत्र पढ़ने के बाद वह पूरे डेढ़ घंटे सचमुच रोया और उसके आधे घंटे बाद उसने चाचा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

के.सी की बहन ने लिखा था —‘पिछले दिनों जीनत का निकाह बहुत धूमधाम के साथ किन्हीं प्रो. असलम के साथ हो गया। वह अपने शौहर के संग यहां से चली गयी है।‘ जीनत ने यह संदेश भिजवाया था कि ‘उसे मरते दम तक यह अफसोस रहेगा कि के.सी. इतने कायरतापूर्ण ढंग से भाग निकला। भागते समय क्या के.सी. को एक पल के लिए भी यह ख्याल नहीं आया कि एक बार उसने बहुत आत्मविश्वास के साथ कहा था कि उन दोनों का विवाह इस समाज के सामने एक आदर्श उपस्थित करेगा।‘ जीनत ने यह भी पुछवाया था कि ‘उनका प्रेम बड़ा था या प्रेम के बीच में आ जाने वाला चाकू? के.सी. ने यह कैसे सोच लिया कि अगर वह मर जाता तो जीनत जिंदा रह जाती।‘ इसके बाद जीनत ने लिखवाया था कि ‘वह चाहती तो निकाह के वक्त भी घर से भागकर के.सी. के पास राजधानी आ सकती थी लेकिन किस विश्वास पर?‘ और अंत में के.सी. के नाम अपने अंतिम संदेश के बतौर जीनत ने कहलवाया था कि ‘वह के.सी. के कायरतापूर्ण रवैये के विरोध में यह निकाह कर रही है कि यह सब लिखाते हुए उसे कोई भय अथवा संकोच नहीं है। के.सी. चाहे तो यह पत्र उसके शौहर को भेज सकता है।‘ पत्र के अंत में बहन ने पुनश्चः लिखकर सूचना दी थी कि पिताजी का ट्रांसफर ऑर्डर आ गया है और वह लोग एक सप्ताह के भीतर यह शहर छोड़कर जा रहे हैं। नये शहर का पता लिखने के बाद के.सी. की बहन ने जीनत के शौहर का पता भी लिखा हुआ था।

और यही एक बात ऐसी थी कि के.सी. फूट—फूट कर डेढ़ घंटे तक लगातार रोया। अगर पत्र में जीनत का नया पता न होता तो के.सी. इस पत्र को बड़ी सहजता से ‘तिरिया चरित्र‘ की संज्ञा से विभूषित कर जीनत को भूल जा सकता था लेकिन जीनत ने अपना पता भेज कर के.सी. को के.सी. के अनुसार न सिर्फ अपने प्रेम की गहराई का सबूत दिया था बल्कि जीवन—भर के लिए उसे एक जलील किस्म के पछतावे में तड़पने के लिए भी छोड़ दिया था।

बहन का पत्र पढ़ने के तुरंत बाद के.सी. के मन में दो विचार उठे। पहला यह कि उसे फौरन जीनत के पास पहुंचना चाहिए, कि उसका प्रेम देह की पवित्रता अपवित्रता के आग्रहों—दुराग्रहों से कहीं ज्यादा ऊंचा है कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा और वह अगर चाहे तो जीनत को अपने साथ राजधानी ले आ सकता है। दूसरा यह कि वह इस पत्र को तो नहीं, बल्कि उन तीन दर्जन पत्रों को जीनत के पते पर रवाना कर दे जो इन दिनों उसने लिखकर अपने पास रख लिये हैं। ये पत्र जीनत को उसकी मजबूरियों और प्रतिबद्धता की कहानी सुना सकेंगे। यह दूसरा विचार के.सी. को खुद ही मूर्खतापूर्ण और कायरतापूर्ण लगा और पहले विचार की प्रतिक्रियास्वरूप उसकी एक आंख में वे चाकू उतर आये जो जीनत के भाइयों ने उसकी गर्दन पर टिकाये थे और दूसरी आंख में कुछ अरसा पहले हुए उस दंगे के दृश्य उभरने लगे जिसमें दो संप्रदाय के लोग एक पागल जुनून में एक दूसरे को तलवारों की नोंक पर उछालने लगे थे। गर्दन झटककर दोनों आंखों के खौफनाक दृश्यों को भूल के.सी. ने अपने सूखे होठों पर जीभ फिरायी थी, कुर्सी के हत्थे से टिककर डेढ़ घंटे रोया था और रोने के आधा घंटे बाद कमरे से बाहर निकल चाचा से बोला था —‘मैं नौकरी करना चाहता हूं।‘

पाठकगण क्षमा करेंगे कि इस कहानी को लिखते समय मेरी कलम किंचित संकोच में पड़ ठिठक गयी है। मैं, जो कालीचरण माथुर उर्फ के.सी. की असली कहानी लिखने बैठा हूं, इस पसोपेश में पड़ गया हूं कि जो घटा है के.सी. के साथ, वैसा ही वर्णन करूं या के.सी. जैसा है उसे वैसा ही दिखाया जाये या एक कहानी के नायक को जैसा होना चाहिए, वैसा चित्रित किया जाये?

मसलन जिस समय के.सी. जीनत के भाइयों के चाकू दिखाये जाने पर ‘बड़ा बेआबरू होकर जीनत के कूचे से निकल रहा था‘ और उसकी बस पास के एक कस्बे में खराब हो गयी थी और उसने सोचा था कि वापस जीनत के पास दौड़ चले, उस वक्त इस इच्छा का दमन करता इब्ने इंशा का एक शेर उसे याद आया, ‘इंशाजी, उट्‌ठो कूच करो, इस शहर में जी का लगाना क्या‘ और वह चुपचाप राजधानी आ गया था, उस स्थल पर मेरे अपने मन में आया था कि वास्तविक जीवन में के.सी. ने भले ही कुछ भी किया हो लेकिन अब जबकि वह एक कहानी का नायक बन कर उतरा है और सैकड़ों—हजारों लोग उससे प्रेरणा लेने को उंकड़ू बैठे हैं तो उसकी प्रतिक्रिया भी नायकों जैसी होनी चाहिए। और मैंने सोचा कि इसे वापस जीनत के पास लिये चलता हूं और जीनत के भाइयों से भिड़ा देता हूं। इब्ने इंशा के पलायनवादी शेर की टक्कर में मेरे पास फैज अहमद फैज की वे पंक्तियां भी थीं जो मैं उससे गवा सकता था — —‘अब टूट गिरेंगी जंजीरें, अब जिंदानों की खैर नहीं, जो दरिया झूम के उट्‌ठे हैं, तिनकों से न टाले जायेंगे।‘

लेकिन जब इस स्थल पर आ, कहानी लिखना छोड़, मैं अपना यह प्रस्ताव ले के.सी. के पास गया तो उसने बड़े ही बदतमीज लहजे में कहा, ‘कहानी मेरी लिखी जा रही है या मेरे नाम पर किसी और की?‘

पाठकगण फिर क्षमा करेंगे कि मैं इस प्रश्न के जवाब में कोई सैद्धांतिक बहस छेड़ने के बजाय सिर्फ ‘हें हें हें‘ ही कर सका था और के.सी. की अक्ल पर सिर धुनता हुआ चुप लौट आया था।

इसी प्रकार अब जबकि जीनत का संदेश पढ़कर के.सी. ने नायकोचित व्यवहार नहीं किया तब मैं भी इस कहानी के अनेक पाठकों की तरह व्यक्तिगत रूप में क्षुब्ध हूं लेकिन प्रश्न यही है कि कहानी कालीचरण माथुर की लिखी जा रही है या उसके नाम पर किसी और की? और जब कहानी कालीचरण माथुर की लिखी जा रही है तो साहित्य और लेखक के दायित्वों का तकाजा कुछ भी हो, हम वही देखने झेलने के लिए अभिशप्त हैं जो कालीचरण माथुर ने किया——जिया है।

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तो, राजधानी में तीन वर्ष के क्लर्कीय जीवन ने के.सी को तीन चीजें भेंट कीं। नंबर एक—नजर का चश्मा। नंबर दो—डायरी लिखने की आदत। नंबर तीन—एक ऐसी समझदार स्त्री दोस्त की उत्कट चाह जिसकी उपस्थिति को के.सी. अपने रक्त में बजता महसूस कर सके।

जिन दिनों के.सी. के मन में इस चाह ने जन्म लिया उन दिनों मुल्क के रक्त में एक दूसरी ही स्त्री बज रही थी। उन दिनों के.सी. चाचा का घर छोड़ अपना एक अलग किराये का कमरा ले उसमें शिफ्ट कर गया था और देर रात तक या तो पढ़ता रहता था या डायरी लिखता था। के.सी. ने खुद को सोलह—सोलह और सत्रह—सत्रह घंटे दफ्तर के काम में डुबोया हुआ था इसलिए मुल्क के रक्त में बजती स्त्री का अहसास भी उसे बहुत देर बाद जाकर हुआ और जब हुआ तो वह बहुत भीतर तक काठ होता चला गया।

हुआ यूं कि एक रोज वह रात के करीब ग्यारह बजे अपने कमरे में लेटा जार्ज आर्वेल का उपन्यास ‘1984‘ पढ़ रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। किताब को खाट पर उल्टा रख उसने दरवाजा खोला और बाहर से पड़े तेज धक्के के परिणामस्वरूप जमीन पर गिर पड़ा। आने वाले चार शख्स थे। तीन खाकी वर्दी में, बंदूकों के साथ और चौथा सादी वर्दी में। उठने से पहले ही के.सी. वर्दीधारियों की गिरफ्त में आ चुका था और हैरानी से सादी वर्दीधारी की गतिविधियां देखता रहा था। सादी वर्दीधारी ने कमरे का सामान उलट—पुलट कर दिया था। ‘1984‘ तथा उसकी डायरी समेत कुछ अन्य किताबों को कब्जे में लिया था और खाकी वर्दी वालों को इशारा कर बाहर निकल आया था। बाहर वैन थी और खामोशी थी। अगल—बगल के तमाम मकान गहरे सन्नाटे और अंधेरे में डूबे हुए थे। के.सी. ने जिस जगह ‘1984‘ को पढ़ना छोड़ा था उस जगह लिखा था—‘सावधान, बड़े भाई तुम्हें देख रहे हैं?‘ अब, चलती हुई वैन से बाहर झांकने पर उसने पाया था कि राजधानी के हर चौराहे पर एक स्त्री के बहुत बड़े—बड़े पोस्टर अंधेरे में भी चमक रहे थे। ठीक उसी तरह जैसे ‘1984‘ में पूरे मुल्क के चौराहों पर बड़े भाई के बड़े—बड़े पोस्टर अंधेरे में चमकते थे। पोस्टरों में मुस्कराती स्त्री का हंसता हुआ चेहरा के.सी. के रक्त में सनसनी पैदा करने लगा। अपने सुन्न हुए चेहरे को घुमा कर उसने उन चारों आदमियों को देखा और डर गया। वे पोस्टर वाली स्त्री की तरह मुस्करा रहे थे। उन चारों की दबी बातचीत के उड़ते हुए टुकड़ों से के.सी. को जानकारी मिली कि उस पर कई दिन से नजर रखी जा रही थी, कि उसकी गतिविधियां संदिग्ध थीं, कि उसका अस्तित्व देश के लिए एक बड़ा खतरा बन गया था, कि एक ऐसे वक्त में जब समूचा मुल्क शाम के छह बजे ही बिस्तरों में दुबक जाता था, के.सी. रात के ग्यारह—ग्यारह बजे तक लाइट जलाकर क्या करता था, यह जानने के लिए हुकूमत बेचैन थी, कि आखिर वह पकड़ा ही गया। और यह सब सुन के. सी. हंसा। राजधानी के अपने तीन वर्षीय जीवन में के.सी. पहली बार हंसा और हंसता ही चला गया। वह तब तक हंसता रहा जब तक एक खाकी वर्दी ने उसके मुंह पर बंदूक का कुंदा न मार दिया। कुंदे की चोट से के.सी. का एक दांत टूट गया और मुंह से खून बहने लगा। मुंह से बहते रक्त को पोछते हुए भी के.सी. मुस्कराया। उसे अचानक ही पोस्टरों में मुस्कराती स्त्री के साथ सहानुभूति हो आयी। के.सी. की सहानुभूति से निरपेक्ष और अप्रभावित वैन से बाहर पोस्टर वाली स्त्री का चेहरा उसी तरह मुस्कराता रहा।

पंद्रह दिन की सख्त पूछताछ और मारपीट के बाद के.सी. को छोड़ दिया गया। यहां भी चाचा ही के.सी. के काम आये जिन्होंने पूरा किस्सा फर्म के मालिक से बयान किया और अपने भतीजे को छुड़ाने की प्रार्थना की। फर्म के मालिक के उस देश के साथ व्यापारिक संबंध थे जिस देश के द्वारा दिये गये कर्जों में के.सी. का देश गले—गले तक डूबा हुआ था। सो, उच्चस्तरीय टेलीफोन खड़कने के बाद के.सी. मुक्त हुआ। मुक्ति से पहले उसे यह लिखकर देना पड़ा कि वह आपत्तिजनक किताबों से दूर रहेगा और रात के आठ बजे के बाद उसके कमरे की बत्ती जलती हुई नहीं पायी जायेगी।

और ताज्जुब! इस करार पर दस्तखत करने के बावजूद के.सी. ने जेल से निकलते ही चाचा से पहला वाक्य जो कहा उसका अर्थ था ‘इस औरत की हुकूमत नष्ट होनी चाहिए।‘ चाचा ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, सिर्फ हैरानी से के.सी. को ताका क्योंकि के.सी. का वाक्य उन्हें समझ नहीं आया था। क्योंकि के.सी. ने 1984 के नायक की तरह कहा था —‘बड़े भाई का नाश हो।‘

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के.सी. को उम्मीद थी कि दफ्तर पहुंचते ही वह अपने साथियों के तरह—तरह के प्रश्नों से घिर जायेगा लेकिन यह देखकर उसका चश्मा नाक से फिसलने लगा कि समूचा दफ्तर एक ठोस सन्नाटे की विस्मयकारी गिरफ्त में था। उसका स्वागत करना तो दूर, किसी ने उसे विश भी नहीं किया। यहां तक कि उसके मित्र रामकुमार और कृष्णकांत भी उसके पास नहीं फटके। पूरे दिन में सिर्फ एक बार फर्म के मालिक मिस्टर लालवानी ने उसे अपने केबिन में बुलाया और हिदायत देते हुए कहा, ‘तुम मेहनती आदमी हो इसलिए इस बार तुम्हें छुड़वा लिया। आइंदा के लिए ध्यान रहे कि कोई ऊटपटांग हरकत अब मत करना। इस बार कुछ हुआ तो मैं भी कुछ नहीं कर पाऊंगा।‘

के.सी. पूछना चाहता था कि उसने क्या किया? वह तो एक उपन्यास पढ़ रहा था लेकिन लालवानी साहब ने उसकी बात सुनने से पहले ही उसे बाहर जाने का इशारा कर दिया था। बाहर निकलते वक्त उसके कानों में लालवानी साहब की आवाज गूंजी थी, ‘मैडम इज कंट्री एंड कंट्री इज मैडम। अंडरस्टैंड?‘

मैडम? के.सी. ने बाहर निकलते ही सोचा था और यह देखकर उसकी घिग्घी—सी बंधने लगी थी कि पोस्टर वाली स्त्री के चार आदमकद चित्र दफ्तर की चारों दीवारों पर लगे हुए थे। अपनी सीट पर आकर के.सी. ने देखा था कि चाचा समेत हर शख्स का चेहरा फाइलों, रजिस्टरों या टाइपराइटरों में घुसा हुआ था और दरवाजे पर खड़े दरबान की आंखें अखबार में थीं।

अखबार, के.सी. ने अखबारों में शरण ली लेकिन अखबारों के मुखपृष्ठों पर इस सिरे से उस सिरे तक पोस्टर वाली स्त्री की मुस्कान नाच रही थी। वह पढ़ने बैठता तो किताबों के पृष्ठों पर स्त्री का चेहरा उग आता। सोचने बैठता तो दिमाग में स्त्री का अट्‌ठाहस गूंजने लगता और सोने लगता तो स्त्री की मुस्कान से डर कर जाग जाता। समूचा मुल्क स्त्रीमय हो उठा था। के.सी. चाहता था कि कोई हो जिसे वह बता सके कि स्त्री का जादू कैसे तोड़ा जा सकता है, लेकिन दूर—दूर तक कोई नहीं था। लोग या तो दफ्तरों में कैद थे या जेलों में। लाचार के.सी. ने पुनः किताबों में शरण लेनी चाही लेकिन यह देखकर उसकी आंखें कोनों तक फट गयीं कि उसकी दिलचस्पी की तमाम किताबें जब्त की जा चुकी थीं। नयी किताबें छप नहीं रही थीं और पुरानी किताबें अपने—अपने स्थानों से हटायी जा चुकी थीं। मसलन चाचा के पास आचार्य रजनीश की किताबें तो थीं लेकिन राहुल सांकृत्यायन नहीं थे। रामायण थी लेकिन गीता नहीं थी। राजधानी के तमाम पुस्तकालयों में ताले थे और छापेखाने ‘बातें कम, काम ज्यादा‘ के पोस्टर छापने में व्यस्त थे। देश आगे बढ़ रहा था। के.सी. पीछे छूट रहा था।

और पीछे छूटते हुए के.सी. के पास न किताबें थीं, न अखबार, न हमजुबां थे, न हमदर्द और न ही डायरी थी। पुरानी डायरी जब्त की जा चुकी थी और उसी के साथ के.सी. के तीन वर्षों का इतिहास भी जब्त हो गया था। अपने घनघोर एकांत में सिर धुनती हुई के.सी. की हताशा पर पुनः एक वीतरागी भाव क्रमशः चिपकने लगा। उसे लगने लगा कि यह मुर्दों का देश है और यहां का पहला और आखिरी सच है पोस्टर वाली स्त्री।

असल में के.सी. गलती पर था। क्योंकि पोस्टर वाली स्त्री के बावजूद मुल्क में भूमिगत तौर पर पर्चे भी बंट रहे थे और लड़ाई भी चल रही थी। इस सच का अहसास हुआ के.सी. को उस रोज जब उसने देखा कि खतरनाक ढंग से चुप लोगों ने पोस्टर वाली स्त्री के हाथों से सत्ता छीन ली है। के.सी. को ताज्जुब भी हुआ और खुशी भी कि अंततः इस मुल्क के लोगों ने एक नया इतिहास लिख ही डाला। वह आश्वस्त हुआ।

लेकिन यह आश्वस्ति बहुत देर नहीं चल पायी। पोस्टर वाली स्त्री फिर से उसी तरह मुस्कराने लगी। लोगों को शायद अपने ही हाथों लिखा नया इतिहास पसंद नहीं आया था इसलिए उन्होंने उसे फाड़ कर फिर पुराना इतिहास अपने सीने से चिपका लिया था। तब पहली बार के.सी. ने लोगों के खिलाफ सोचा—‘यहां के लोगों को जुल्मों में जीने की सख्त आदत है।‘

जिस शाम के.सी. ने नयी डायरी खरीदकर उसके पहले पृष्ठ पर यह वाक्य लिखा उसके अगले रोज उसे दो संदेश मिले। पहला मां की तरफ से कि उसकी बहन का विवाह फलां तारीख को तय है कि वह कम से कम एक सप्ताह की छुट्‌टी और कुछ पैसों को लेकर आ जाये और दूसरा यह कि लालवानी साहब उसे क्लर्कीं में ही नहीं फंसाये रखना चाहते, इसलिए उसे पंद्रह दिन के टूर पर फर्म के काम से बाहर भेजा जा रहा है। बहन के विवाह और टूर की तारीखें आपस में टकरा रही थीं इसलिए के.सी. पुनः चाचा की शरण में उपस्थित हुआ। वह चाचा ही नहीं उसके बॉस भी थे। चाचा ने चाचा की हैसियत से कहा कि उसे बहन के विवाह में इसलिए भी शामिल होना चाहिए क्योंकि वह जब से घर छोड़ कर आया है तब से एक बार भी वहां नहीं गया और बॉस की हैसियत से कहा कि आदेश चूंकि सीधे लालवानी साहब का है इसलिए वह कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते, कि उसे इस टूर पर निश्चित रूप से जाना चाहिए। फिर के.सी. को दुविधा में देख उन्होंने बीच का रास्ता तलाशते हुए कहा, ‘तुम टूर पर चले जाओ, मैं विवाह अटैंड कर लेता हूं और भाई साहब व भाभी को तुम्हारी मजबूरी समझा दूंगा।‘

इन्हीं बातों को विस्तार के साथ चाचा ने के.सी. को घर पर समझाया और उसे बताया कि किस प्रकार किन—किन मौकों पर उन्होंने फर्म के हितों की खातिर अपने को कहां—कहां मारा है, कि आज वे जहां हैं वहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने क्या—क्या कुर्बानियां दी हैं कि जिंदगी इसी विरोधाभास का नाम है कि गीता में एक जगह लिखा है...।

उस रात के.सी. पहली बार शराब पीकर लौटा और बहुत देर तक बैठा अपनी नयी डायरी के पन्नों पर नशे में थरथराते हाथ से, टेढ़े—मेढ़े अक्षरों में एक ही वाक्य लिखता रहा —‘बड़े भाई का नाश हो।‘

सुबह उठकर वह पंद्रह दिन के टूर पर चला गया।

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राजधानी की सबसे महंगी और व्यस्त सड़क पर विश्व विजेता सिकंदर की तरह सिर ताने खड़ी दस मंजिला इमारत के चौथे माले पर थी लालवानी साहब की फर्म। सत्तावन कर्मचारियों के स्टाफ वाली इस फर्म में ग्यारह लड़कियां भी थीं। लेकिन के.सी. ने इनमें से किसी लड़की की ओर आंखें उठाकर नहीं देखा था। लेकिन अब उसकी आंखें बरबस ही उस बारहवीं लड़की की ओर उठ गयी थीं जो पिछले ही महीने निकाले गये स्टेनोग्राफर खन्ना की जगह नियुक्त हुई थी और ठीक के.सी. के सामने वाली सीट पर बैठती थी। उत्तेजक उभारों, खूबसूरत अंडाकार चेहरे और मासूम—सी आंखों वाली गीता भसीन नामक इस लड़की को जब के.सी. ने पहली बार देखा तो उसके दिमाग के तार झनझना उठे और कान तपने लगे। उसने घबराकर अपनी आंखें झुका लीं। फिर यह रोजाना का नियम—सा बन गया। के.सी. रोज सुबह उससे आंखें मिलाता और फिर पूरे दिन अपनी फाइलों में डूबा रहता। लंच टाइम में लड़कियां अपने ग्रुपों में तथा पुरुष अपने ग्रुपों में खाना खाते थे। के.सी. चूंकि दोपहर का खाना सुबह—सुबह चाचा के घर ही खा आता था इसलिए वह बैठा—बैठा किताब पढ़ा करता था। किताब पढ़ने के दौरान वह बीच—बीच में नजर उठाकर गीता भसीन को भी देख लिया करता था जो सबसे अलग अपनी सीट पर बैठकर लंच लेती थी। गीता भसीन फर्म में काम करने वाली अन्य लड़कियों की अपेक्षा के.सी. को अधिक संजीदा नजर आती थी। के.सी. ने न तो कभी उसे टपर—टपर बोलते सुना था और न ही अन्य जवान लड़कियों की तरह इठला या इतरा कर चलते हुए ही देखा था। वह चलती थी तो के.सी. को लगता था जैसे अपने सौंदर्य से वह खुद ही शर्मसार है। बोलती थी तो के.सी. को महसूस होता था, दूर कहीं गिरजाघर में प्रार्थना हो रही हो।

इस गीता भसीन को देखते—देखते एक रोज के.सी. के मन में मुद्‌दत से दबी स्त्री दोस्त की चाह ने अंगड़ाई ली और वह हिम्मत करके लंच टाइम में गीता भसीन की सीट पर पहुंच गया। खाना खाती गीता ने नजर उठाकर के.सी. को देखा और संकोच के मारे उसका चलता हुआ मुंह रुक गया। के.सी. ने जितने भी वाक्य बोलने की तैयारी अपने मन में की थी वे सभी वाक्य उसे अपने भीतर कहीं गहरे में डूबते लगे और उसने रुक—रुक कर आहिस्ता से कहा, ‘मेरा नाम के.सी. माथुर है।‘

‘मैं जानती हूं।‘ गीता ने कहा और के.सी. के कान गर्म हो गये।

‘खाना लीजिए।‘ गीता ने फिर कहा और के.सी. ‘धन्यवाद‘ कहकर अपनी सीट पर लौट आया। अचानक उसका दिल भर आया था। उसे सहसा ही जीनत याद आ गयी थी जो कॉलेज में उसके लिए अपने लंच बॉक्स में उसका भी खाना लेकर आती थी।

जिस रोज के.सी. की गीता से यह संक्षिप्त—सी बातचीत हुई उस रात के.सी. ने अपनी डायरी में एक प्रेम—कविता लिखने की कोशिश में कई पृष्ठ बरबाद किये और जिस रोज गीता भसीन लंच टाइम में अपना टिफिन लेकर के.सी. की सीट पर आ गयी और उससे जिद करने लगी कि वह भी उसके साथ खाना खाये उस रात के.सी. ने अपनी डायरी में कम से कम तीन दर्जन बार गीता भसीन का नाम लिख डाला।

जाहिर है कि कालीचरण माथुर एक बार फिर प्रेम की दुनिया में उतर गया था।

यह उन दिनों की बात है जब उस अखंड राष्ट्र के एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले कुछ लोग अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य की मांग करने लगे थे और एक संप्रदाय विशेष के लोगों को बसों से उतार—उतार कर गोलियों से भून रहे थे। अपने इस खूनी जुनून में उन्होंने न सिर्फ निहत्थे और निर्दोष नागरिकों को गोली से उड़ाया बल्कि देश के एक सम्मानित पत्रकार, प्रोफेसर और पुलिस अधिकारी को भी गोलियों से भून दिया।

मुल्क के लोग उन दिनों पोस्टर वाली स्त्री से प्रार्थना कर रहे थे कि वह जल्दी ही इस समस्या का कोई समाधान करे और मुल्क के बुद्धिजीवी इस तरह खामोश थे मानों इस सबसे उनका दूर का भी रिश्ता नहीं है। उन्हीं दिनों के.सी. का प्रेम क्रमशः विकसित हो रहा था और उसे लगने लगा था कि जीनत का विकल्प गीता भसीन हो सकती है। दफ्तर के बाद वह गीता भसीन के साथ राजधानी के दिल में स्थित सेंट्रल पार्क में घूमता था या महंगे बाजारों की भव्य दुकानों के बारामदों में। वे महंगी दुकानों से छोटी—छोटी चीजें खरीदकर एक—दूसरे को भेंट करते थे। मसलन गीता भसीन ने के.सी. को बॉलपेन, सेफ्टी—रेजर, डायरी और कुछ किताबें भेंट की थीं और के.सी. ने गीता को खूबसूरत—सा लंच बॉक्स, शांतिनिकेतनी बैग और कोल्हापुरी चप्पलें उपहार में दी थीं। वे चाट खाने के बजाय पाइनएप्पल जूस पीना पसंद करते थे और फिल्में देखने के बजाए नाटक देखते थे। संक्षेप में यह कि मुल्क में हो रही गोलीबारी की घटनाओं और तेजी से घटते राजनैतिक घटनाचक्र के प्रति वे उतने ही निरपेक्ष थे जितना मुल्क के बुद्धिजीवी। इस बीच के.सी. गीता भसीन को जीनत कांड से लेकर जेल जाने तक की यात्रा—कथा बयान कर चुका था और गीता भसीन ने कोई आपत्ति व्यक्त नहीं की थी।

और इसी बीच पोस्टर वाली स्त्री लोगों की प्रार्थना से पसीज गयी थी। लोगों की प्रार्थना, जो अब तक लगभग आर्तनाद में बदल चुकी थी, से पसीज कर वह मुस्करायी और समस्या का समाधान हो गया।

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‘यह ठीक नहीं हुआ?‘ भव्य दुकानों के लंबे बारामदों में घूमते वक्त गीता भसीन ने बहुत उदास होकर कहा।

‘क्या ठीक नहीं हुआ?‘ के.सी. अचानक चौंक गया। वह अनायास ही एक ऐसी लड़की को देखने लगा था जो अभी—अभी सफेद रंग की पारदर्शी ड्रेस में लिपटी ऊंची एड़ियों की सैंडल में खट—खट करती तेज—तेज गुजरी थी। वह समझा कि उस लड़की को देखने का गीता भसीन बुरा मान गयी है।

‘तुम्हारी फौज हमारे पवित्र पूजा—स्थल में जूते पहनकर घुस गयी।‘ गीता ने तिक्त और क्षुब्ध स्वर में कहा।

‘क्या?‘ के.सी. बौखला गया। उसने हैरान होकर आंखें चौड़ी कीं और आहिस्ता से बोला, ‘यह हम दोनों के बीच हमारा—तुम्हारा कहां से आ गया?‘

‘मैंने तो एक बात कही है।‘ गीता लज्जित हो गयी।

‘पर यह बात हमें शोभा नहीं देती।‘ के.सी. ने समझाया।

उसके बाद वे दोनों ब्रेख्त का नाटक ‘काकेशियन चाक सर्कल‘ देखने थियेटर में घुस गये।

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के.सी. बीस दिन के टूर से लौटकर आया तो उसे पता चला कि एक हफ्ता हुआ, उसके पिता का देहांत हो गया, चाचा वहां गये हुए हैं। के.सी. अपनी सीट पर कटे पेड़—सा गिरा (मुहावरा पुराना है पर के.सी. वास्तव में इसी तरह गिरा जैसे कटा हुआ पेड़ गिरता है)। गीता भसीन ने अपनी सुंदर नर्म हथेलियों से दफ्तर की परवाह किये बगैर के.सी. की नम आंखें साफ कीं और धीमे से कहा, ‘बी ब्रेव, वी ऑल आर इन द सेम बोट।‘ लालवानी साहब ने उसकी सीट पर आकर अफसोस जाहिर किया और सूचना दी कि उसके कमिटमेंट को देखते हुए उस प्रमोट कर सेल्स ऑफीसर बनाया जा रहा है।

के.सी. उसी दम मां के पास जाने के लिए उठ खड़ा हुआ और सफर के दौरान उसने अपनी डायरी में अपनी नौकरी के बारे में लिखा, ‘तुम्हें जीते हुए भी मैं तुमसे घृणा कर रहा हूं।‘

पता पूछते—पाछते जब के.सी. रात के वक्त घर पहुंचा तो चाचा खाट पर लेटे हुए थे और मां एक कुर्सी पर बैठी छत की कड़ियां ताक रही थी। क्षणांश के लिए के.सी. के मन में आया कि वह उल्टे पांव लौट चले। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतने अरसे बाद, अपना सब कुछ खो चुकी मां का सामना कैसे करे? निश्चित रूप से वह पिता का ही नहीं मां का भी अपराधी है। अकेली मां ने कैसे सहा—जिया होगा यह हादसा। चाचा भी पता नहीं कब पहुंचे होंगे। और बिट्‌टो? सहसा उसे याद आया कि घर में बहन तो दिखाई ही नहीं दे रही है। कौन—कौन शामिल हुआ होगा पिता की अर्थी में? कपाल क्रिया किसने की होगी? तो क्या अब पिता की आत्मा ताउम्र भटकती फिरेगी। कहते हैं : बेटा कपाल क्रिया न करे तो पिता की आत्मा दर—दर भटकती है और रात—रात भर आर्तनाद करती है। के.सी. का कलेजा लरजने लगा। वह धीरे से मां के पास जाकर खड़ा हो गया। मां उसी तरह छत की कड़ियां ताकती रही तो उसने मां के सिर पर हाथ रख दिया जैसे मां छोटी—सी बच्ची हो और के.सी. मां का संरक्षक।

हाथ के स्पर्श से चौंककर मां ने के.सी. को देखा। देर तक देखती रही और फिर गूंजा उसका आर्तनाद। दीवारों को तोड़ता, छत को फोड़ता एक सहनशील औरत का असहनीय विलाप। चाचा चौंक कर जाग गये और के.सी. को देख आहिस्ता से बोले, ‘आ गया काली। बहुत देर कर दी। भाई साहब के साथ बुरा हुआ, वह लावारिस की तरह जले।‘

के.सी. की आंख रोने लगी और उसने मां का चेहरा अपने सीने में कसकर चिपटा लिया। फिर वह चाचा से बोला, ‘क्या बिट्‌टो भी नहीं आयी?‘

‘बिट्‌टो आयी थी दो दिन बाद, आज सुबह चली गयी। जंवाई साहब साथ नहीं थे। वह खुद बीमार हैं‘ चाचा ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, ‘यह तो अच्छा हुआ कि मैं फूल चुनने वाले रोज पहुंच गया था वरना...‘ चाचा ने कश लिया और छत घूरने लगे। मां अभी तक बिलख रही थी।

तब तक कुछ पड़ोसी भी आ गये थे। एक औरत दूसरी के कान में फुसफुसा रही थी, ‘यो बड़ा लड़का दिक्खे। हाय राम! ऐसे लड़कों से तो निपूते भले।‘

के.सी. ने उस औरत को बड़ी ही कातर निगाहों से देखा। फिर उसका सिर झुक गया। औरत अपनी जगह ठीक थी।

जिसे पलक झपकाये बगैर जागना कहते हैं, के.सी. उस रात ठीक वैसे ही अपलक जागता रहा। उसके पास न पड़ोसियों के प्रश्नों का जवाब था, न ही मां के आहत मन का। मां ने पूछा था कि वह इतना कठोर कैसे हो गया? वह कह ही नहीं सका कि वह कभी भी कठोर नहीं रहा। मां ने बताया था कि अंत समय तक पिता की जुबान पर उसी का नाम रहा। उन्होंने तो उसे माफ कर दिया था। वे तो चाहते थे, रिटायर होने के बाद काली के ही पास जाकर रहेंगे। के.सी. चुप सब सुनता रहा था और बेआवाज बेआंसू रोता रहा था। उसने तय किया था कि तेरहवीं के बाद मां को अपने साथ ही ले जायेगा।

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के.सी. दफ्तर पहुंचा तो वहां एक अफवाह सबकी मेज पर चिपकी हुई थी कि पोस्टर वाली स्त्री का कत्ल हो गया। लालवानी साहब अखबारों के टेलीफोन खड़का रहे थे लेकिन वहां से सिर्फ यही कहा जा रहा था ‘सुनते हैं।‘

आखिर तीन बजे सांध्यकालीन अखबार दफ्तर में आ ही गया। यह अफवाह नहीं सच्चाई थी कि पोस्टर वाली स्त्री को उसके अंगरक्षकों ने उसके ही घर में गोलियों से भून दिया था।

पांच बजे शाम लालवानी साहब ने घोषणा कर दी कि अगले तीन दिन दफ्तर बंद रहेगा। के.सी. और गीता भसीन चुप—चुप दफ्तर से बाहर निकले और देर तक खड़े रहे।

‘अब?‘ के.सी. ने सहसा पूछा।

‘हां अब?‘ गीता ने जवाब दिया।

‘यह सचमुच बुरा हुआ।‘ के.सी. ने यूं ही कहा।

‘हां, यह सचमुच ही ज्यादा बुरा इसलिए हुआ कि हत्यारे हमारी बिरादरी के थे।‘ गीता ने अफसोस के साथ कहा।

‘हत्यारों की कोई बिरादरी नहीं होती।‘के.सी. ने गीता के कंधे पर हाथ रख दिया।

‘काश ऐसा ही हो।‘ गीता ने जवाब दिया और के.सी. की हथेली को अपने हाथों में ले लिया।

‘तो अब हम तीन दिनों तक मिलेंगे नहीं क्या?‘ के.सी. ने हंसते हुए पूछा।

‘क्यों नहीं मिलेंगे?‘ गीता ने तत्परता से जवाब दिया और मुस्करायी।

‘ऐसा करें, कल मैं तुम्हारे घर आऊं, वहां से अपने घर चलेंगे। तुम्हें मां से मिला देता हूं।‘

‘कितने बजे?‘

‘शाम तीन बजे तक आता हूं।‘

‘ओ.के.‘ गीता ने कहा और के.सी. की हथेली दबाकर छोड़ते हुए बोली, ‘तो फिर कल का पक्का।‘ इसके बाद वह अपने बस स्टॉप की तरफ मुड़ गयी।

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सुबह नौ बजे मां के झिंझोड़ने पर के.सी. जागा। मां थर—थर कांप रही थी।

‘क्या हुआ?‘ के.सी. हड़बड़ाकर उठ बैठा।

मां ने खिड़की की तरफ इशारा किया। उसका चेहरा सफेद था और आंखें बाहर को निकली पड़ रही थीं। लगता था, मां की आवाज डूब रही है। उसके गले से एक विचित्र किस्म की गों—गों निकल रही थी।

के.सी. झपटकर खिड़की की तरफ भागा और उसकी आंखें फट गयीं। सामने वाले प्रीतम सिंह जी का मकान धू—धू करके जल रहा था। मकान ही नहीं, खुद प्रीतम सिंह जी भी जल रहे थे और चीखते हुए इधर से उधर भाग रहे थे। उन्हें एक भीड़ ने घेरा हुआ था। भीड़, जिसके हाथ में लोहे की छड़ें, मिट्‌टी के तेल के पीपे और सरिये थे। भीड़ चीख रही थी —‘खून का बदला खून से लेंगे...‘ और जलते हुए प्रीतम सिंह जी पर सरियों की बारिश कर रही थी। आखिर प्रीतम सिंह जी ऐंठ कर गिरे और उनका समूचा बदन कोयले की तरह काला पड़ गया। उत्तेजित भीड़ अब कोछड़ साहब के घर की तरफ बढ़ रही थी। कोछड़ साहब मुल्क के माने हुए चित्रकार थे। के.सी. के मुंह से चीख निकली और वह तेजी से कपड़े पहनकर तैयार होने लगा। उसे सहसा ही गीता भसीन की याद आ गयी थी।

मां ने झपटकर के.सी. को पकड़ा और बिस्तर पर बिठा दिया। के.सी. कसमसाया और हांफते स्वर में बोला, ‘मां मुझे रोको मत, गीता की जान खतरे में है। वह तुम्हारी बहू है मां।‘

‘क्या?‘ मां ने चौंककर कहा और के.सी. दौड़ता हुआ घर से बाहर निकल गया। बाहर कोछड़ साहब और उसकी पत्नी के ऊपर मिट्‌टी का तेल छिड़का जा रहा था और उनका मकान उनकी पेंटिंग्स सहित धू—धू कर रहा था। के.सी. घबरा गया। उसका एक पांव तेज तेज चल बस स्टॉप तक पहुंचना चाहता था और दूसरा पांव लकवे की—सी स्थिति में में आगे बढ़ने से लाचार था। के.सी. जलते हुए मकानों, स्कूटरों और इंसानों के सामने से होता हुआ माथे पर पसीना और हलक में कांटे संभाले हुए बस स्टॉप तक पहुंच ही गया। उसका दिल ‘धड़ धड़‘ कर रहा था और टांगे कांप रही थीं।

बसें चल नहीं रही थीं। बस स्टॉप पर चिड़िया का बच्चा भी नहीं था। पीछे कॉलोनी से उत्तेजित भीड़ का शोर सुनाई पड़ रहा था। सड़क के दोनों ओर ट्रक जल रहे थे। के.सी. का दिल जोर से रोया। तभी एक स्कूटर वहां से गुजरा। के.सी. जोर से चीखा —‘रोको।‘

स्कूटर ‘च्चीं च्चींं‘ कर रुक गया। स्कूटर ड्राइवर ने पीछे झांककर देखा और के.सी. को देख स्कूटर नजदीक ले आया। गीता भसीन का घर के.सी. के घर से सिर्फ दस किलोमीटर दूर था लेकिन स्कूटर वाला पचास रुपये मांग रहा था।

‘दूंगा।‘ के.सी. ने कहा और उछलकर स्कूटर में बैठ गया।

रास्ते भर के.सी. थर—थर कांपता रहा। भीड़ ने स्कूटर को कई जगह रुकवाया और भीतर बैठे के.सी. को देख जाने की स्वीकृति दे दी।

जहां गीता भसीन का मकान था वहां एक जला हुआ खंडहर खड़ा था। मकान के सामने तीन जली हुई लाशें थीं। के.सी. पागलों की तरह लाशों पर झुका और एक लाश के पास बैठते ही उसकी रुलाई कंठ तोड़ कर गूंजी। वह गीता भसीन थी। उत्तेजक उभारों, खूबसूरत अंडाकार चेहरे वाली गीता भसीन जो चलती थी तो लगता था जैसे अपने सौंदर्य पर खुद ही शर्मसार है। बोलती थी तो लगता था मानों दूर कहीं गिरजाघर में प्रार्थना हो रही हो। जिसकी हथेलियां नर्म थीं और पांव कोमल। जिसका दिल मोम—सा मुलायम था और जिसका मस्तिष्क स्वस्थ था। जो सर से पांव तक प्यार में डूबी हुई थी और जिसने के.सी. को इस असहनीय दुनिया में भी जीने का संबल दिया हुआ था। के.सी. ने उसे पहचाना उस अंगूठी से जो आग की शिकार होने से पहले काफी खूबसूरत थी और जिसमें नग की जगह खुदा हुआ था——‘के।‘

यह अंगूठी के.सी. ने पिछले दिनों गीता को राजधानी की एक महंगी दुकान से पांच सौ रुपये में खरीद कर दी थी। ये पांच सौ रुपये के.सी. ने पांच महीने की बचत से जमा किये थे। अंगूठी गीता भसीन की जली हुई उंगली की जली हुई हड्‌डी में फंसी हुई थी और उसके नग की जगह खुदा ‘के‘ अक्षर आग में झुलसने के बावजूद पढ़ा जा सकता था।

के.सी. से उठा नहीं गया।

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फिर के.सी. से कई दिन तक उठा नहीं गया।

जब वह उठा तो मुल्क में चुनाव हो रहे थे।

के.सी. ने चाहा कि इस बार के चुनाव में पोस्टरवाली स्त्री की पार्टी नेस्तनाबूद हो जाये। देश के बुद्धिजीवी भी यही चाहते थे। अखबार भी यही चाहते थे और विरोधी दल तो चाहते ही थे।

लेकिन परिणाम आया तो के.सी. के मस्तिष्क और हृदय पर इतने जोर का घूंसा पड़ा कि उसके बदन का जर्रा—जर्रा हिल गया और रेशा—रेशा बिखर गया।

पोस्टरवाली स्त्री की पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीत गयी थी और विरोधी दलों के छोटे तो छोटे, बड़े—बड़े नेताओं की जमानतें जब्त हो गयी थीं।

यह उस विचित्र देश के विचित्र नागरिकों का विचित्र जनादेश था।

सचमुच, वह एक विचित्र देश था। वहां प्रेम करने वाले लोग जिंदा जलाये जा सकते थे और नफरत करने वाले लोगों का राजतिलक किया जा सकता था।

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सचमुच, वह एक विचित्र देश था जिसमें इस कहानी के नायक कालीचरण माथुर ने प्रेम करना चाहा था।

रचनाकाल : 1985

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कहानी

सूखा

धीरेन्द्र अस्थाना

राजधानी की सबसे महंगी और व्यस्त सड़क पर विश्वविजेता सिकंदर की तरह सिर ताने खड़े विशालकाय, कई मंजिला भवन के चौथे माले पर था, देश के उस सबसे बड़े और प्रतिष्ठित साप्ताहिक का कार्यालय जिसकी सेवा में मुल्क के नामीगिरामी आला दर्जे के दिमाग दिन—रात लगे हुए थे। तीन केंद्रीय मंत्रियों, पांच मुख्यमंत्रियों, दर्जनों अधिकारियों और बीसियों संस्थाओं के निदेशकों को सत्ताच्युत कर देने वाले इस साप्ताहिक का बौद्धिक दबदबा भी उन्नीस नहीं था।

जिस व्यक्ति के हाथ में साप्ताहिक दिखायी पड़ जाता था, उसे विशिष्ट होने का गौरव अनायास ही प्राप्त हो जाता था। साप्ताहिक के ‘चिट्‌ठी मिली‘ कॉलम में जिस शख्स की प्रतिक्रिया छप जाती थी, उसे महीने भर तक यह सपना आया करता था कि वह महान हो चुका है। अनेक उदीयमान पत्रकारों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों, कलाकारों, फिल्मकारों, अभिनेताओं, राजनेताओं और संगीतकारों को ‘स्टार‘ बना देने की भूमिका साप्ताहिक निभा चुका था। साक्षात्कार न देने वाले अकड़ू मंत्रियों का राजनैतिक जीवन साप्ताहिक ने नष्ट कर दिया था। पी. एम. हाउस में साप्ताहिक की सीधी पहुंच थी।

साप्ताहिक में एक चीफ था जिसके करीब एक दर्जन सहयोगी थे। इन्हें स्तंभ संपादकों का दर्जा प्राप्त था। चीफ अभिव्यक्ति की सवतंत्रता और जनतंत्र का कट्‌टर समर्थक था जिसके कारण प्रत्येक स्तंभ संपादक अपने स्तंभ का बेताज बादशाह था।

लब्बो लुबाब यह कि आदमी की आंखों के आकाश में टंग जाने, पांवों के डेढ़ इंच ऊपर उठ जाने और गर्दन के अकड़ जाने के पूरे इंतजामात थे। मोटी तनख्वाहें थीं, रेडियो, टेलीविजन, किताबों, नाटकों, पत्रिकाओं, सम्मेलनों आदि—आदि से होने वाली अतिरिक्त आय थी। पचास प्रतिशत स्तंभ संपादकों के पास (जिन्हें साप्ताहिक की सेवा करते—करते एक दशक पूरा हो चुका था) अपनी कारें या स्कूटर थे, फोन थे, मकान थे, फ्रिज थे, वीडियो थे, बीबियां थीं, बच्चे थे, व्हिस्की थी।

यह था सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और बौद्धिक दुनिया के ग्लैमर की चकाचौंध में डूबा साप्ताहिक का वह चेहरा, जो राजधानी के आसमान में कोहेनूर की तरह झिलमिलाया करता था।

साप्ताहिक के स्तंभ संपादकों की गर्दनें महानता के बोझ से इतनी भारी हो चुकी थीं कि आसानी से ऊपर नहीं उठ पाती थीं और दूसरे शहरों से उनसे मिलने आये कम महान लोगों को उनकी एक नजर पा जाने के लिए उनके सामने बैठकर कई दफा आधा—आधा और पौन—पौन घंटा इंतजार करना पड़ता था। उनके शब्द इतने कीमती थे, कि उनकी जुबानें बोलना भूल चुकी थीं। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा हो चुका था कि वे अकेले रह गये थे। यह था उनके जीवन का वह सुनहरा पक्ष जो दूसरों के लिए या तो आदर्श या कुंठा और ईर्ष्या पैदा करने वाला था।

दूसरा पक्ष विस्मयकारी तरीके से उदास और क्षत—विक्षत था। इंटरनेशनल डेस्क का संपादक मूलतः कवि था, लेकिन उसके दिमाग में चौबीसों घंटे ईरान—इराक युद्ध, दो महाशक्तियों की होड़, रेगन की चीनी—यात्रा के नतीजे, श्रीलंका में तमिलों का नरसंहार, और पाकिस्तान में लोकतंत्र की हत्या जैसी चीजें कलाबाजियां खाया करती थीं और उसके कवि को पटखनी दे—देकर गिराती रहती थीं। ओ. के. पेज में कोई अशुद्धि न चली जाये इसका खयाल रखते—रखते उसके सिर के बाल तीस बरस की उम्र में ही उड़ने लगे थे। ‘रेगन‘ सही नाम है या ‘रीगन‘, ‘स्पानी‘ सही है या ‘इस्पहानी, ‘पीकिंग लिखना चाहिए या ‘पेकिंग‘‘ लिखना चाहिए, ‘बेजिंग‘ लिखना चाहिए या ‘बीजिंग‘ लिखना चाहिए, ‘डी लॉरेन‘ शुद्ध है या ‘डी लॉरेयन, यह सब कन्फर्म करने के लिए दूतावासों के फोन नंबर घुमाते—घुमाते उसके सीधे हाथ की अंगूठे के बगल वाली पहली उंगली को चक्राकार घूमने की आदत पड़ गयी थी। रोज रात को व्हिस्की के साथ कबाब निगलते हुए वह तय करता था कि कल सुबह से अपने नये कविता—संग्रह पर काम करेगा, लेकिन रोज सुबह दफ्तर की तरफ से मुफ्त आने वाले आधा दर्जन हिंदी अंग्रेजी अखबार उसे या तो मार्गरेट थैचर की गोद में पटक देते थे या जिया उल—हक के पीछे लगा देते थे। दफ्तर में वह ‘विश्व‘ के नाम से जाना जाता था।

लिटरेचर की डेस्क संभालने वाला संपादक, जो ‘साहित्य‘ के नाम से विख्यात था, खुद भी एक कहानीकार था लेकिन उसने पिछले तीन बरस से एक भी कहानी नहीं लिखी थी। दूसरे लेखकों पर लिखते—लिखते और उस लिखे हुए के प्रूफ पढ़ते—पढ़ते उसके चश्मे का लैंस लगातार मुटा रहा था। रात को घर पहुंचकर खाना खाते समय या सोते समय वह अक्सर ही चौंककर उछल पड़ता था और उसे याद आता था कि जिस पेज को वह ओ. के. कर आया है, उस पेज के फोटोग्राफ तो उसकी दराज में ही छूट गये हैं। ऐसी स्थिति में उसे पुनः दफ्तर भागना पड़ता था, टैक्सी या स्कूटर लेकर।

‘खेल और खिलाड़ी‘ स्तंभ का संपादक भी कवि था और कविता लिखने का ही समय और मूड उसके पास उपलब्ध नहीं रहता था। उसका सारा समय स्टेडियमों में मैच देखने, कमेंट्री सुनने, खिलाड़ियों के इंटरव्यू लेने और विभिन्न क्लबों में कॉकटेल पार्टियां अटैंड करने में ही निकल जाता था। कविताएं लिखना स्थगित कर—करके अपने कॉलम को ज्यादा से ज्यादा समृद्ध करने के प्रयत्न में उसका चेहरा सूख गया था और बियर पी—पीकर तोंद निकल आयी थी। कविता न लिख पाने की पीड़ा ने उसे लगभग परपीड़क बना दिया था। अक्सर ही पॉकेट ट्रांजिस्टर कान में लगाये रखने के कारण वह ऊंचा सुनने और कम बोलने लगा था।

कमोबेश यही स्थिति स्वास्थ्य, विज्ञान, फिल्म, कला, प्रदेश, रंगमंच, अपराध और अन्य स्तंभों के संपादकों की भी थी। प्रोडक्शन इंचार्ज, जिसे सर्वज्ञ के नाम से जाना जाता था, एक दर्जन लोगों के स्टाफ में अकेला ऐसा शख्स था जो हंसमुख था, सबका दोस्त था और जिसकी आंखें चढ़ी हुई नहीं रहती थीं।

रंगमंच दफ्तर में नया—नया भर्ती हुआ था। पतला—दुबला कुछ—कुछ मासूम और कुछ—कुछ चुगद जैसे चेहरे का वह 23—24 साल का कुंवारा लड़का था। साप्ताहिक में नौकरी पा गया था इससे यह तो प्रमाणित होता था कि वह प्रतिभाशाली रहा होगा, लेकिन प्रसिद्ध पत्रकार या चित्रकार या साहित्यकार या कवि नहीं था इसलिए बड़े—बड़े नामों के बीच में फंसकर लगातार अकेला, कमजोर और हताश महसूस करने लगा था। उसे अभी परमानेंट भी होना था। इसलिए असुरक्षा की तलवार उसे अतिरिक्त चौकन्ना रखती थी जिसके कारण वह जब—तब कोई—न—कोई गलती कर बैठता था और परिणामतः उसका प्रोबेशन पीरियड कुछ और लंबा खिंच जाता था।

रंगमंच शराब नहीं पीता था इसलिए सो नहीं पाता था, सिगरेट नहीं पीता था इसलिए आत्मकेंद्रित नहीं हो पाता था और शादीशुदा नहीं था इसलिए अपनी कुंठा और तनाव को बहा नहीं पाता था। उसे लगता था कि न सिर्फ दफ्तर में वरन्‌ इतनी बड़ी दिल्ली में वह एकदम तनहा है। और ठीक इसी जगह पहुंचकर वह फिर गलती करता था, क्योंकि वस्तुस्थिति यह थी कि साप्ताहिक के सभी लोग तनहा थे। नौकरी, घर, बीवी, बच्चों, टी. वी., फ्रिज, स्कूटर, फोन, सम्मान, किताबों, संगीत और शराब के बावजूद तनहा थे।

स्टाफ के आपसी संबंधों की स्थितियां भी खासी रोचक थीं। मसलन चीफ के कमरे में मीटिंग वाले वक्त को छोड़कर बाकी किसी भी दिन या समय कोई किसी के साथ उठता—बैठता नहीं था। असली बात यह थी कि हर आदमी दूसरे आदमी से बेतरह चिढ़ा और और ऊबा हुआ था। सब एक ही दफ्तर में नौकरी करने को अभिशप्त थे इसलिए उनका वश केवल यहीं तक चलता था कि सुबह—सुबह आकर अपनी—अपनी कुर्सियों पर जम जायें और गर्दन झुका लें।

वे आपस में अगर बतियाते भी थे तो नुकीले और दूर तक मार करने वाले शब्दों के जरिये। सभी लोग सजग शब्दशिल्पी थे इसलिए अक्सर ही संवाद अपनी सहजता खो देते थे। मसलन साहित्य अगर सहज भाव से एकअर्थी वाक्य उच्चारता हुआ विश्व से कहता, ‘कल तुम नागार्जुन के एकल काव्य पाठ में नहीं दिखाई दिये,‘ तो विश्व इसे बहुअर्थी वाक्य की तरह लेता था और प्रत्याक्रमण करते हुए कहता था, ‘मैं कल रात ग्यारह बजे तक पेज ओ. के. कर रहा था, लेकिन तुम तो परसों शाम पांच बजे ही फ्री हो गये थे फिर भी सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम में दिखायी नहीं पड़े। पन्नालाल पटेल को ज्ञानपीठ मिला है। तुम्हें रिपोर्टिंग करनी चाहिए थी।‘

तो इस कारण संवाद की स्थितियां अक्सर ही बन नहीं पाती थीं। अज्ञानवश एक बार नया—नया भर्ती रंगमंच खिलाड़ी के पास जाकर बैठ गया। खिलाड़ी ने काफी देर तक तो गर्दन ही नहीं उठायी, लेकिन रंगमंच फिर भी बैठा ही रहा तो खिलाड़ी को असुविधा होने लगी। आखिर खिलाड़ी ने गर्दन उठायी और आहिस्ता से पूछा, ‘लगता है आज कोई काम नहीं है, तुम्हारे मजे हैं।‘

रंगमंच डर गया और तुरंत उठ गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई कि वह किसी और के सामने जाकर बैठे।

बहरहाल! देश के इस सबसे बड़े साप्ताहिक के दफ्तर में एक दिन टाइपिस्ट खन्ना की मेज पर एक कम उम्र, खूबसूरत, उत्तेजक उभारों लेकिन मासूम—से चेहरे वाली लड़की बैठी नजर आयी।

सबसे पहले उसे विश्व ने देखा। वह दफ्तर में सबसे पहले आनेवाला कारिंदा था। लड़की को देखता—देखता ही विश्व अपनी मेज तक गया, परिणामतः टेलीफोन के तार से उलझ गया जिससे सर्वज्ञ की मेज पर रखा टेलीफोन जमीन पर गिर पड़ा। रंगमंच होता तो इसी बात पर घबड़ा जाता जबकि विश्व खिसियाया तक नहीं, टेलीफोन गिरने के प्रति पूर्णतः उदासीन वह मेज पर बैठ गया और घंटा बजा दी। चपरासी ने आकर टेलीफोन यथास्थान रख दिया और बोला, ‘हां साहब!‘

‘चाय ले आओ।‘ विश्व ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा, ‘अपने लिए भी। और सुनो, यह लड़की कौन है?‘

‘खन्ना छुट्‌टी गया है न साहब,‘ चपरासी ने बत्तीसी निकाल दी, ‘लीव वैकेंसी पर आयी है। हफ्ते भर के लिए।‘

तभी खिलाड़ी ने प्रवेश किया। लड़की को देखते ही खिलाड़ी का कवि मन उछल—कूद करने लगा और लॉयड के शतक की जगह लंबी कविता ने ले ली। वह लगभग लड़की की परिक्रमा—सा करता हुआ अपनी सीट की तरफ बढ़ा। विश्व ने अपनी चौकन्नी आंखों से खिलाड़ी की आंखों में उतर आयी चमक को कैच कर लिया और पहलू बदलने लगा। विश्व को माओ के चीन में कोकाकोला संस्कृति पर लेख लिखना था जबकि उसके दिमाग में लोर्का की प्रेम कविताओं ने आसन जमा लिया था। सहसा ही विश्व के सामने अभिव्यक्ति के संप्रेषण का संकट उपस्थित हो गया। वह बड़ी देर से लड़की की आंखों पर कोई खूबसूरत—सी टिप्पणी करने के लिए बेचैन था। लेकिन आसपास कोई सुपात्र नहीं था। खिलाड़ी की आंखों में जो चमक उसे दिखायी दी थी वह खिलाड़ी को चीख—चीखकर विश्व का रकीब घोषित कर रही थी। विश्व पानी पीने के लिए मुड़ा और पुनः अपनी सीट पर बैठा तो दृश्य थोड़ा समृद्ध हो गया था। लड़की के ठीक पीछे वाली मेज पर रखे हाजिरी रजिस्टर में ‘कला‘ अपने दस्तखत जड़ रही थी। कला को दस्तखत करते देख खिलाड़ी और विश्व दोनों को एक साथ खयाल आया कि उन्होंने कई दिनों से अपनी हाजिरी नहीं भरी है। दोनों अपने—अपने बॉलपेन लेकर एक साथ उठे और लड़की की परिक्रमा करते हुए कला के पास पहुंच गये जो लड़की को देखकर अपनी साड़ी की सलवटें ठीक करने लगी थी।

दस्तखत करते समय खिलाड़ी ने पाया कि लड़की की गर्दन भी खासी उत्तेजक है और विश्व को लगा कि समूचा रीतिकालीन साहित्य लड़की के आगे निष्प्राण है, कि प्रेम करने के लिए इससे आदर्श स्त्री संसार में दूसरी नहीं हो सकती। विश्व और खिलाड़ी द्वारा लड़की को आसक्त नजरों से देखे जाने पर कला केे गंभीर चेहरे पर क्रोध की एक लकीर ने जन्म लिया और उसके नारी स्वातंत्र्‌य आंदोलन वाले मस्तिष्क में एक ही वाक्य चकराने लगा—सब पुरुष एक जैसे होते हैं। लोलुप और कामांध और गिरे हुए।

तीनों के अपनी—अपनी सीटों पर बैठते ही ‘सर्वज्ञ‘ का खिलता मुस्कराता चेहरा उपस्थित हुआ और लड़की को देखते ही अवाक्‌ रह गया। सर्वज्ञ के पीछे—पीछे ही बदहवास—सा रंगमंच भी अवतरित हुआ था। और लड़की पर नजर जाते ही उसकी आंखें चुंधिया गयी थीं। खुद को अभी तक कुंवारा पाने का सुख उसके भीतर इतने जोर से उमड़ा कि कान लाल हो गये और दिल लंबी छलांग लेकर हलक में आ फंसा। उन दोनों के सीट पर बैठते ही दुबले—पतले, सिगरेट के हर कश के साथ खांसते, पीले, निस्तेज चेहरे वाले स्वास्थ्य का आगमन हुआ। अपने सामने अचानक ही इतनी सुंदर लड़की को पाकर स्वास्थ्य लड़खड़ा गया और बुरी तरह खांसने लगा। अपनी पीठ पीछे लगातार गूंजती खांसी को सुन लड़की ने कनखियों से पीछे देखा और स्वास्थ्य का दिमाग घूमने लगा। उसने मन—ही—मन अपनी नौकरी की लानत—मलामत करते हुए तय किया कि कल ही छुट्‌टी लेकर वह मेडिकल इंस्टीट्‌यूट में अपना चैकअप करा डालेगा। फिर आया साहित्य, गमगीन चेहरे और सूनी आंखों के साथ, कंधे पर थैला लटकाये, एक तरफ को झुका—झुका और लगभग लड़खड़ाता—सा। लड़की को उसने अपने मोटे लैंस वाले चश्मे के पीछे से देखा और उसके कदम जाम हो गये। उसके मार्क्सवादी दिमाग में तत्काल ही ‘अकहानी‘ वाले दिनों की एक अश्लील इच्छा ने जन्म लिया और वह नोबेल पुरस्कार के पीछे छिपे अमेरिकी साम्राज्यवाद के इरादों को यक—ब—यक भूल गया। इससे पहले कि वह लड़की के शारीरिक सौष्ठव को अपनी गहरी आंखों से पूरी तरह पी पाता, विज्ञान ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया। उसने पलटकर गुस्से से देखा और सामने विज्ञान को खड़ा देख हंसकर हैलो कर दिया। विज्ञान ने लड़की को देखा ही नहीं जिससे विश्व को विज्ञान के सौंदर्यबोध पर सख्त अफसोस हुआ।

दरअसल, यह विश्व का जल्दबाजी में लिया गया निर्णय था क्योंकि वस्तुस्थति यह थी कि विज्ञान को इस बार परखनली शिशुओं के बारे में आवरण—कथा लिखनी थी जिसका कि मैटर वह अभी तक प्रेस नहीं भेज पाया था और मैटर भेजने की डैडलाइन कल निकल गयी थी। उस पर हालत यह थी कि कल रात सोवियत दूतावास में जो पार्टी थी उसमें विज्ञान ने जरूरत से ज्यादा वोदका पी ली थी जिस कारण उसका दिमाग अभी भी नशे से आक्रांत था।

विश्व को अभी तक सुपात्र नहीं मिल पाया था। आखिर उसने तय किया कि लड़की की आंखों पर अपनी टिप्पणी वह कला के सामने अभिव्यक्त करेगा। पहले तो वह बहुत शालीन ढंग से मुस्कराया, फिर उतनी ही शालीनता से वह कुर्सी घसीटकर कला के सामने बैठ गया। फिर उसने चपरासी को आवाज देकर दो कॉफी लाने के लिए कहा। इतनी खुशामद पर्याप्त थी, कला का गर्वोन्नत चेहरा मुस्कराने लगा। विश्व का का हौसला दो फुटा हो गया, सो उसने कह ही दिया, ‘लड़की की आंखें उदास झील की तरह नजर आती हैं।‘

इतनी खूबसूरत छायावादी उपमा को एक मामूली—सी टाइपिस्ट पर खर्च होते देख कला का चेहरा विकृत हो गया। उसने तन्नाकर कहा, ‘बस, निकले न शुद्ध पुरुष। लड़की देखी और फिसल गये। टाइपिस्ट है वो।‘

विश्व को अपने इस बेवजह अपमान से गहरा दुख हुआ लेकिन कॉफी का ऑर्डर जा चुका था इसलिए मजबूरन उसे वहीं बैठे रहना पड़ा। कॉफी आने तक उसकी यह धारणा दृढ़ हो चुकी थी कि बुद्धिजीवी होने के बावजूद कला साधारण औरत की तरह स्त्री—सुलभ ईर्ष्या का शिकार हो गयी है। कला के इस पतन से उसे अपने पतन का अफसोस कुछ कम होता जान पड़ा।

तभी एक चमत्कार हुआ।

रंगमंच अपनी सीट से उठा और लड़की की बगल में जाकर बैठ गया। वह लड़की को डिक्टेशन देने आया था।

स्वास्थ्य को खांसी आ गयी और विश्व का चेहरा फीका पड़ने लगा। साहित्य को लगा कि यह ठीक नहीं हुआ। किसी कुंवारी लड़की के लिए कुंवारे लड़के की संगत ठीक नहीं है। वह जल्दी से डिक्टेशन देने के लिए अगले अंक का मैटर तय करने लगा। खिलाड़ी को यही सोच—सोचकर आश्चर्य हो रहा था कि बित्ते—भर के रंगमंच की हिम्मत इतनी विशाल हुई तो कैसे और क्यों?

दरअसल रंगमंच ने यह कदम सोच—समझकर ही उठाया था। वह एक लंबे अर्से से एक अदद कंधे की तलाश में था। उसकी ठहरी हुई, नीरस और एकाकी जिंदगी को तरंग और धड़कनों की सख्त जरूरत थी, इसलिए उसे पूरी गंभीरता से यह इलहाम हुआ था कि इस लड़की का आगमन केवल और केवल उसी के लिए हुआ है। दूसरे, उसने यह भी मान लिया था कि लड़की से प्रेम करने का सबसे अधिकारी पात्र एकमात्र वही है। इन सब कारणों पर कई कोणों से विचार करने के बाद उसने तय किया कि इससे पहले लड़की किसी और के इश्क में गर्क हो जाये, उसे लड़की से गंभीरतापूर्वक प्रेम करना शुरू कर देना चाहिए। उसके कुंवारेपन ने उसके प्रेम की संभावित विजय को एक के बाद एक जो तर्क प्रदान किये उनसे उसके चेहरे पर एक साबुत आत्मविश्वास आकर पसर गया। हनुमान की तरह यह जानकारी मिलते ही कि वह समुद्र पार कर सकता है, रंगमंच उठा और लड़की की बगल में जाकर बैठ गया।

अचानक दूसरा चमत्कार हुआ।

सर्वज्ञ की मेज पर क्रमशः विश्व, स्वास्थ्य, खिलाड़ी और साहित्य आकर बैठ गये। सर्वज्ञ को चाय मंगानी पड़ी। कला भी धीरे से सर्वज्ञ की मेज पर चली आयी। सर्वज्ञ को एक चाय बढ़वानी पड़ी।

दफ्तर में प्रवेश करती फिल्म को लगा कि कोई हादसा घटा है, वह भी सीधे ही सर्वज्ञ की मेज पर चली आयी। सर्वज्ञ को एक चाय और बढ़वानी पड़ी। विश्व इस बीच लड़की के ऊपर एक कविता लिख चुका था और उसका पाठ करने की मुद्रा में आ गया था।

कविता पूरी होने के बाद एक जोरदार सम्मिलित ठहाका सर्वज्ञ की मेज से उठा और चारों तरफ की दीवारों तथा छत से चिपक गया।

फिल्म, जो कविता सुनने के दौरान ही मामले की तह में पहुंच चुकी थी, इस बीच लड़की का नखशिख दर्शन कर चुकी थी और इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि विश्व का दिमाग सड़क छाप हो गया है। उसे पक्का यकीन था कि उसकी अपनी आंखें लड़की से कहीं ज्यादा आकर्षक हैं और अपनी देहयष्टि पर तो वह बेतरह फिदा थी ही। यूं भी, वह अभी—अभी मृणाल सेन से इंटरव्यू लेकर आयी थी, जो अपनी एक नयी फिल्म के सिलसिले में दिल्ली आये हुए थे। इसलिए उसने विश्व का एक मामूली—सी टाइपिस्ट लड़की पर आसक्त हो जाना सख्त नापसंद किया, साथ ही कविता चूंकि बहुत ही खूबसूरत थी इसलिए उसे यह अफसोस भी हुआ कि अगर वह शादीशुदा न होती तो यह कविता यकीनन उसी पर लिखी जाती। फिल्म को पहली बार अपने इंजीनियर पति पर गुस्सा आया जो कविता नहीं, बिल्डिगें और बांध बनाता था। अपने वैवाहिक जीवन की और भी बहुत सारी विसंगतियां कविता सुनने के बाद फिल्म के सामने खुलने लगीं। मसलन फिल्म कामू, काफ्का और दॉस्तोयेवस्की की दीवानी थी जबकि उसके पति ने इन लोगों का नाम भी नहीं सुना था। फिल्म प्यारेलाल भवन में एक दिन के लिए आयी मणि कौल की ‘दुविधा‘ देखने का प्रस्ताव रखती और उसका पति कमाल अमरोही की ‘रजिया सुल्तान‘ के टिकट सामने रख देता। वह अचानक ही उदास हो गयी और चुपचाप अपनी सीट पर जाकर मृणाल सेन के इंटरव्यू का टेप सुनने लगी।

रंगमंच नर्वस हो चुका था, डिक्टेशन देते हुए उसकी जुबान लड़खड़ाने लगी थी। दरअसल, लड़की इतनी मासूम नहीं थी जितना रंगमंच ने समझा था। वह लीव वैकेंसी पर जरूर आयी थी लेकिन सीधे ही टाइपिंग इंस्टीट्‌यूट से उठकर नहीं आ गयी थी। इससे पहले वह एक दैनिक के कार्यालय में थी। इसलिए जब अचानक ही लड़की की नजर रंगमंच के मैटर पर पड़ी तो उसने टाइप करना रोककर अपनी महीन आवाज में पूछ लिया, ‘इसकी तो प्रेस कॉपी तक बनी हुई है।‘

रंगमंच की जगह यही प्रश्न अगर साहित्य को झेलना होता तो वह लापरवाह अंदाज में, आवाज को थोड़ा सख्त करके लड़की को जवाब थमा देता कि ‘इस स्क्रिप्ट को चीफ ने रिजेक्ट कर दिया है।‘ लेकिन रंगमंच जबाव नहीं दे पाया। वह अक्लमंद जरूर था लेकिन अनुभवहीन था इसीलिए हकलाने लगा। हकलाने की दूसरी वजह सर्वज्ञ की मेज पर मजमा लगाये लोग थे जो बीच—बीच में रंगमंच और लड़की की तरफ देख—देखकर मुस्करा दिया करते थे। इन मुस्कराहटों से रंगमंच की हलक सूखने लगी थी। अंततः वह मैदान से भाग खड़ा हुआ।

रंगमंच के सीट छोड़ते ही विश्व सर्वज्ञ की मेज से उठा और लड़की की बगल में जाकर बैठ गया। लोग उसे देखकर मुस्कराये तो वह भी मुस्करा दिया। रंगमंच को बाजी पलट जाने का गम सताने लगा।

विश्व ‘माओ के चीन में कोकाकोला संस्कृति‘ पर डिक्टेशन दे रहा था और वह भी मुंहजबानी। टाइप करती लड़की इस रहस्य से परिचित नहीं थी कि विश्व कल रात चार घंटे तक इसी विषय पर पैंग्विन से प्रकाशित किताब का अध्ययन करता रहा था, इसलिए वह विश्व की इस भयानक प्रतिभा से बुरी तरह प्रभावित हो गयी। उसने शायद, विश्व से मुस्कराकर कुछ कहा और विश्व ने तत्काल ही दो कॉफी तथा बटर स्लाइस का आदेश प्रसारित कर दिया। साथ ही वह विजेता के भाव से मुस्कराया। रंगमंच की हथेलियां पसीने से भीगने लगीं। इस बीच सर्वज्ञ को चीफ ने याद किया था। बाकी लोग अपनी—अपनी मेजों पर चले गये थे।

तभी हॉल में विश्व का ठहाका और लड़की की खिलखिलाहट एक साथ पैदा हुए। फिल्म तत्काल ही अपने नाखून देखने लगी, कला ने अपने होंठ काटे, खिलाड़ी अपनी सीट से उठकर टहलने लगा, स्वास्थ्य खांसने लगा, साहित्य का चश्मा नाक से फिसल गया और रंगमंच का चेहरा स्याह पड़ने लगा। विज्ञान पूरे घटनाक्रम से निरपेक्ष, टाइपिस्ट आनंद को अपनी आवरण कथा डिक्टेट करा रहा था। असल में विज्ञान को यह उथल—पुथल सिरे से ही गलत लग रही थी। विज्ञान जिंदगी के हर क्षेत्र में स्तरीयता का मारा हुआ था। उसे सर्वाधिक कष्ट रंगमंच की मानसिकता को लेकर हुआ था जो बाकी लोगों की अपेक्षा लड़की को लेकर ज्यादा गंभीर था। विज्ञान को रंगमंच पर की गयी अपनी पंद्रह दिवसीय मेहनत अकारथ होती लग रही थी।

लड़की फिर खिलखिलायी और रंगमंच को लगा कि वह उसी पर हंसी है। वह तेजी से उठा और बाहर चला गया।

लंबे अर्से बाद विश्व, कला, रंगमंच, साहित्य, खिलाड़ी, सर्वज्ञ और फिल्म ने एक साथ लंच लिया। लंच में ही यह बात खुल गयी कि रंगमंच लड़की के प्यार में बेतरह और गंभीरतापूर्वक फंस गया है। इस गंभीरता का प्रमाण यह था कि रंगमंच ने ‘फंस गया‘ जैसे सड़कछाप शब्द पर आपत्ति की। उसका तर्क था कि बुद्धिजीवियों के मुंह से इतने घटिया शब्द शोभा नहीं देते। यह लगभग विस्फोट जैसा था। सभी को अचानक अपनी—अपनी गरिमा का बेतरह खयाल हो आया।

इस बीच साहित्य चुपके से खिसक लिया था। जब तक बाकी लोग खाना खाकर हॉल में पहुंचे, साहित्य की डिक्टेशन चालू हो चुकी थी। अब रंगमंच को पक्का यकीन हो गया कि वह षड्‌यंत्रकारियों के बीच फंसा हुआ है। खिलाड़ी को अफसोस हुआ कि वह चूक गया। साहित्य लड़की को स्त्री—पुरुष संबंधों पर डिक्टेशन दे रहा था, जो कि उसका प्रिय विषय था और जाहिर था कि इस विषय में लड़की को प्रभावित करने और आकर्षित करने की भरपूर गुंजाइश थी।

डिक्टेशन के दौरान साहित्य लड़की को सूचना दे चुका था कि वह कितनी भाग्यशाली है कि इतने बड़े—बड़े इंटेलेक्चुअल्स उसे पसंद कर रहे हैं। उसने यह भी बता दिया था कि विश्व को पिछले बरस कविता का बहुत बड़ा सम्मान प्रधानमंत्री के हाथ से मिल चुका है, कि उससे पिछले बरस यही सम्मान खिलाड़ी को प्राप्त हुआ था कि सर्वज्ञ का नाम देश के चुनिंदा पत्रकारों में लिया जाता है कि शबाना आजमी और रेखा जैसी अभिनेत्रियां फिल्म की सहेली हैं कि कला की शामें हुसैन, रामकुमार और हिम्मत शाह जैसी हस्तियों के साथ गुजरती हैं कि विज्ञान तीन बार विदेश हो आया है और सबसे अंत में उसने बड़ी विनम्रता और संकोच के साथ यह भी उगल दिया कि वह खुद एक प्रसिद्ध कहानीकार है और उसकी चार किताबें छपकर खत्म हो चकी हैं और दो कहानियों पर श्याम बेनेगल तथा बासु चटर्जी जैसे निर्देशक फिल्में बना रहे हैं।

मतलब यह कि रंगमंच के अलावा बाकी सबके लिए साहित्य जमीन तैयार कर आया और रंगमंच को जड़ समेत उखाड़ आया। लड़की ने विस्मित होकर सारी बातें सुनी थीं और मुग्धा की तरह साहित्य का चेहरा निहारने लगी थी। लड़की द्वारा खुद को इतने प्यार से देखे जाने पर साहित्य का दिल कलाबाजियां खाने लगा था और उसे जिंदगी फिर से सुहानी लगने लगी थी।

लेकिन कमाल, कि अपनी इस विजय—यात्रा से साहित्य की प्रसन्नता थोड़ी ही देर में मुर्झा गयी। लड़की द्वारा टाइप किये गये मैटर की अशुद्धियां ठीक करते—करते उसका दिल लड़की के मानसिक दिवालियेपन को देख बुरी तरह रोने—चीखने लगा। मैटर प्रेस भेजने के बाद उसने सर्वज्ञ की मेज पर आकर घोषणा की कि इस दौड़ से वह खुद को हटा रहा है कि लड़की की अपर स्टोरी खाली है कि ऐसी मूर्ख लड़की जो मोहन राकेश का नाम नहीं जानती, प्यार करने के काबिल नहीं है। असल में साहित्य गेटे के इस सिद्धांत को तो मानता था कि ‘प्यार में हम सब समान रूप से मूर्ख हैं,‘ लेकिन यह उसे गवारा नहीं था कि जिस लड़की से वह प्रेम करे, वह लड़की उसकी दुनिया के मशहूर लोगों से कतई अनजान हो।

साहित्य की घोषणा से रंगमंच का डूबता हुआ दिल सहसा ही खड़ा हो गया और तेजी से धड़कने लगा। उसे लगा कि अभी उम्मीद बाकी है, कला और फिल्म को साहित्य की इस ‘घर वापसी‘ से सुकून की अनुभूति हुई और दोनों को साहित्य पर, थोड़ा—सा प्यार आ गया। लेकिन खिलाड़ी का उत्साह भंग नहीं हुआ। साहित्य की तरह खिलाड़ी एक ही दुनिया में नहीं जीता था। उसे पक्का यकीन था कि लड़की भले ही मोहन राकेश, शमशेर और मुक्तिबोध को न जानती हो, लेकिन कपिलदेव और गावस्कर से तो हर हाल में परिचित होगी ही। खिलाड़ी को कपिलदेव और गावस्कर से कई बार इंटरव्यू लेने का श्रेय प्राप्त था। सो इस बार लड़की की बगल में खिलाड़ी था। शाम हो रही थी जब खिलाड़ी ने डिक्टेशन समाप्त की। इस बीच बाकी लोग दोनों पर बराबर नजर नहीं रख पाये, क्योंकि एक तो यह प्रकरण लंबा खिंच गया था, दूसरे इस सारे चक्कर में काम का बहुत हर्ज हुआ था। इसलिए लोग गर्दन झुकाये अपनी—अपनी मेजों पर प्रूफ और प्रेस कॉपी से आंखें फोड़ने में हमेशा की तरह तल्लीन हो गये थे।

रंंगमंच ने जब खिलाड़ी, विश्व और लड़की को एक साथ बाहर जाते पाया तो उसका दिल बैठ गया। उसे लगा कि वह हार गया है।

चौथा दिन बीतते—बीतते स्थितियां क्रांतिकारी तरीके से बदल गयीं। रंगमंच ने सिगरेट और शराब शुरू कर दी और साहित्य ने छोड़ दी। इस बीच साहित्य विश्व और खिलाड़ी के इस तर्क से सहमत हो गया था कि एक हफ्ते के लिए आयी लड़की की अपर स्टोरी से क्या लेना—देना। परिणामतः साहित्य पुनः मैदान में लौट आया था और खिलाड़़ी तथा विश्व की तरह लड़की के साथ एक शाम गेलार्ड के सुखकारी माहौल में जाकर कोल्ड कॉफी पी आया था। वह महसूस कर रहा था कि अब रात को सोते समय उसे आत्महत्या कर लेने का खयाल नहीं आता, दफ्तर आते समय कहानी न लिख पाने की कसक दिल में दर्द की लहरें पैदा नहीं करती, जिंदगी जीने लायक लगती है और चिड़ियों की चहचहाहट सुनायी पड़ती है। फूल फूलों की ही तरह दिखते हैं और ठहाका दिल से निकलता है। प्रूफ पढ़ने में गलती नहीं होती और होंठ गुनगुनाते रहते हैं। लगभग उसी तरह के परिवर्तन खिलाड़ी और विश्व ने भी अपने भीतर महसूस किये थे।

लेकिन रंगमंच की दुनिया लुट चुकी थी। वह चिड़चिड़ाया—चिड़चिड़ाया सा रहने लगा था और हरदम दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर सुख पाने का मौका ढूंढ़ता रहता था। ज्यादा मात्रा में शराब पीने के कारण उसकी आंखें पिछले दो दिन से लाल थीं और वह दिन में भी महकता रहता था। उसने अखबार और पत्रिकाएं पढ़ना छोड़कर गुलाम अली की गमजदा गजलें सुननी आरंभ कर दी थीं, और अपनी शाम अमेरिकन लाइब्रेरी में बिताने के बजाय कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क में गुजारने लगा था। आखिर जब पराजित हो जाने की पीड़ा सहनशक्ति की सीमा क्रॉस कर गयी तो उसने अपनी समस्या सर्वज्ञ के सामने रखी। सर्वज्ञ ने अपनी नेक सलाह इस प्रकार दी, ‘लड़की तुम्हें प्रेम करने लगे, इसमें मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता। हां, अगर लड़की से विवाह करना चाहो तो मैं बात करूं। प्रेम शादी के बाद भी किया जा सकता है।‘

दरअसल सर्वज्ञ मजाक कर रहा था लेकिन रंगमंच ने कहा, ‘मंजूर है।‘

यह छठे दिन की बात है। लड़की की नौकरी का एक दिन बाकी था।

अगले यानी सातवें दिन रंगमंच शेव बनाकर और नये कपड़े पहनकर आया। सर्वज्ञ चूंकि सलाह देकर फंस गया था इसलिए कोशिश करके देख लेना चाहता था। उसने आदेश कर दिया था कि लड़की को कोई डिक्टेशन न दे। सर्वज्ञ का इशारा साहित्य, खिलाड़ी और विश्व की तरफ था।

लेकिन रंगमंच को पता नहीं था कि साहित्य, विश्व और खिलाड़ी की दिलचस्पी लड़की में खत्म हो चुकी थी। तीनों इस बात पर सहमत हो चुके थे कि लड़की का आज अंतिम दिन है इसलिए अब अपने पांव पीछे हटा लेने चाहिए। वे प्रीत करके दुख नहीं पाना चाहते थे। उन्होंने अपनी—अपनी पसंदीदा लड़कियों से प्रेम—विवाह किया था और दुख उठा रहे थे। वे इस बात पर प्रसन्न थे कि उनके छः दिन प्रफुल्लता से भरे—पूरे गुजर गये। कल से फिर वही शामे गम, वही गैलियां, प्रूफ, प्रेस कॉपी, डमी पेस्टिंग, अकेलापन, शराब और विद्वेष शुरू होना था। इसलिए तीनों यथास्थिति में लौट गये थे—अपनी अपनी मेजों पर, अकेले, अपरिचित और ऊबे हुए, सो, रंगमंच के लिए हरी झंडी थी। लेकिन दोपहर के एक बजे तक लड़की नहीं आयी, उसका फोन आया कि वह आज से ही नहीं आ पायेगी। संयोग कि फोन रंगमंच ने ही सुना।

‘हम कहां मिलेंगे?‘ रंगमंच ने पूछा।

‘कहीं नहीं।‘ उधर से आवाज आयी और फोन कट गया।

रंंगमंच कटे पेड़ की तरह सर्वज्ञ की मेज पर गिरा।

तभी विश्व अपनी मेज से उठा और सर्वज्ञ के पास आकर दनाक से से बोला, ‘अंतिम कविता अर्ज है :

हम तेरे आभारी हैं, ओ अनजान लड़की

अपने 365 दिनों की उदास डायरी में

तेरी उपस्थिति के

छह ताजा गुलाब से दिन

हम अपने खून से लिखेंगे

और किसी भी वर्ष सूखने नहीं देंगे

हम पुनः आभारी हैं

ओ अनजान लड़की।‘

आश्चर्य कि इस बार कोई नहीं हंसा। खिलाड़ी अपने भीतर कुछ और दूर तक खिसक गया। साहित्य ने जेब से रूमाल निकालकर पहले अपनी आंखें, फिर चश्मा साफ किया और गाब्रियल गार्सिया मारखेज का उपन्यास ‘हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्‌यूड‘ पढ़ने लगा, फिल्म अपना इकलौता पेज ओ. के. करने लगी, सर्वज्ञ चीफ के पास चला गया और कला पुनः नदी की द्वीप बन गयी।

लेकिन डूबते रंगमंच को शायद यह नहीं पता था कि लड़की के चले जाने का उससे भी ज्यादा अफसोस अगर किसी को था तो कैंटीन के पंडित जी को, जिनके पास अभी तक एक भी कॉफी का ऑर्डर नहीं पहुंचा था।

रचनाकाल : 1986