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बेटियों के लिए

बेटियों के लिए

ओम दत्त की पत्नी का देहांत हुए बाईस साल बीत गए थे, उस समय नमिता सिर्फ दो वर्ष की थी, छोटी बच्ची को भगवान ने बिना माँ का कर दिया था। गाँव वालों ने, परिवार वालों ने एवं सभी रिशतेदारों ने ओम दत्त पर काफी ज़ोर डाला था दूसरी शादी के किए, लेकिन ओम दत्त ने दूसरी शादी के लिए साफ मना कर दिया था। नमिता के नाना नानी भी कहने लगे, “बेटा ओम दत्त, तू दूसरी शादी कर ले, नमिता को भी माँ का प्यार मिल जाएगा और एक दो लड़के हो जाएंगे तो तेरे कुल का नाम भी आगे बढ़ेगा।” तब भी ओम दत्त ने एक ही बात कही थी, “मैं अपनी बेटी को माँ के प्यार की कमी कभी भी महसूस नहीं होने दूंगा, इसको मैं माँ व बाप दोनों बन कर पालूंगा और रही बात मेरे कुल के नाम की तो आप देखना मेरी बेटी ही मेरा और मेरे कुल दोनों का नाम आगे बढ़ाएगी।”

ओम दत्त गाँव मे रहने वाला सच्चरित्र, खुले दिमाग वाला ब्राह्मण परिवार का युवा था। स्नातक तक पढ़ाई करने के बाद भी गाँव में अपनी कृषि भूमि पर ही मेहनत से फसल उगाता था। पढ़ा लिखा होने के कारण उसका खेती करने का तरीका और रहन सहन सबसे अलग था। नमिता थोड़ी बड़ी हुई तो गाँव की प्राथमिक पाठशाला में पढ़ने जाने लगी। पढ़ाई मे शुरू से ही नमिता मेधावी थी अतः अपनी प्रत्येक कक्षा को प्रथम स्थान लेकर उत्तीर्ण होती रही। देखते देखते नमिता की पाँचवी कक्षा पास हो गयी। गाँव मे तो बस पाँचवी कक्षा तक ही स्कूल था अतः बाकी लड़कियों ने पाँचवी उत्तीर्ण करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी और घर के काम काज में हाथ बंटाने लगी। पाँचवी के बाद आठवीं कक्षा तक का एक स्कूल गाँव से तीन किलोमीटर दूर था। गाँव के लड़को ने उस स्कूल में दाखिला ले लिया और प्रतिदिन पैदल ही आने जाने लगे। ओम दत्त ने भी नमिता को आगे पढ़ने के लिए उसी स्कूल में दाखिला दिलवा दिया एवं स्वयं नमिता को साइकल से स्कूल छोडता एवं छुट्टी के समय स्कूल से लेकर आता था। नमिता इस स्कूल में भी प्रथम स्थान प्राप्त करके ही उत्तीर्ण होती थी। आठवीं कक्षा कब पास हो गयी ओम दत्त व नमिता को पता भी नहीं चला। आठवीं पास करने के पश्चात भी नमिता और आगे पढ़ना चाहती थी और ओम दत्त भी उसे ज्यादा से ज्यादा पढ़ाना चाहता था लेकिन कोई साधन नजर नहीं आ रहा था। ओम दत्त ने नगर में जाकर पता किया तो वहाँ एक बालिका विद्यालय जो बारहवीं तक था एवं बाहर से आने वाली लड़कियों के लिए छात्रावास भी था तब ओम दत्त ने नमिता को वहीं पर दाखिला दिलवा दिया।

नमिता छात्रावास में रहकर पढ़ रही थी लेकिन उसक मन नहीं लगता था, इधर ओम दत्त को भी घर सूना सूना लगता था, नमिता के बिना उसका मन नहीं लगता था, लेकिन नमिता के भविष्य का सवाल था अतः दोनों ने ही हृदय पर पत्थर रख कर स्वयं को मजबूत कर लिया था। बारहवीं पास करने के बाद नमिता बड़ी हो गयी थी और अब वह स्वयं अपने निर्णय ले सकती थी। नमिता ने विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर स्नातक और उसके बाद वकालत की पढ़ाई पूरी कर ली। सदैव प्रथम स्थान में उत्तीर्ण होने वाली नमिता को वकालत में स्वर्ण पदक मिला, ओम दत्त की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था, उसकी आँखों से खुशी के आँसू बहे जा रहे थे, बेटी को गले लगाकर बस यही कह सका, “तूने आज अपने पिता को प्रसन्न कर दिया है और पूरा गाँव तेरी इस खुशी को मनाना चाहता है, गाँव वालों ने तेरे स्वागत की पूरी तैयारी कर ली है, हम आज ही गाँव चलकर सभी लोगों का आशीर्वाद लेंगे आखिर तू हमारे गाँव की पहली लड़की है जिसने शहर में रहकर विश्वविद्यालय में पढ़कर स्नातक और वकालत की पढ़ाई पास की है।” तभी एक लड़का शादाब उनके पास आया और उसने नमिता को मुबारकबाद दी। नमिता ने शादाब का परिचय अपने पिताजी से करवाया और शादाब से कहा, “यह मेरे पिताजी हैं, मेरे आदर्श और हाँ, मेरी माँ भी यही हैं।”

ओम दत्त नमिता को लेकर गाँव आ गया जहां गाँव वालों ने नमिता के स्वागत में एक उत्सव रखा था, पूरा गाँव और गाँव के बच्चे एकत्रित थे, सभी छोटी लड़कियां नमिता पर पुष्प वर्षा कर रही थी और बड़े बुजुर्ग उसको आशीर्वाद दे रहे थे। नमिता ने सभी को अपने संघर्ष और अपनी पढ़ाई के बारे में बताया कि इस सब के पीछे मेरे पिताजी का सबसे बड़ा त्याग है, उन्होने अपनी बेटी को सफल बनाने के लिए अपना पूरा जीवन त्याग दिया और कहा, “मैं धन्य हूँ जो मुझे ऐसे पिता के यहाँ जन्म मिला जिनहोने मुझे कभी भी यह महसूस नहीं होने दिया कि माँ क्या होती है, माँ का प्यार क्या होता है।”

उत्सव समाप्त हुआ तो सोम दत्त नमिता को लेकर घर आ गया, बातों-बातों में सोम दत्त ने नमिता से शादाब के बारे पूछ लिया। नमिता बोली, “हाँ पिताजी, मैं आपको बताने ही वाली थी, मैं और शादाब वकालत में साथ ही पढ़ते थे अब हम दोनों ने मिलकर प्रैक्टिस करने का मन बनाया है।” नमिता थोड़ी सकुचाई, शरमाई और बोली, “हाँ पिताजी हम दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं, एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते अतः हमने शादी करने का फैसला किया है, वैसे शादाब एक अच्छे खानदान व खाते पीते अमीर घर का इकलौता बेटा है।” ओम दत्त खुले विचारों का व्यक्ति था अतः उसने बस इतना ही कहा, “बेटा नमिता मेरी खुशी उसमे ही है जिसमे तुम्हारी खुशी है, तुम्हें जो अच्छा लगे, जिसमे तुम्हें खुशी मिले वह सब करने की तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है लेकिन कल एक बार मेरे साथ चलना, मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ।” इतना कहकर ओम दत्त अपने बिस्तर में जाकर सो गया।

सुबह नमिता तैयार होकर ओम दत्त के साथ चल पड़ी, ओम दत्त उसको लेकर उसी प्राथमिक विद्यालय में आ गया जहां से नमिता ने पाँचवी पास की थी और अब गाँव की बहुत सारी बेटियाँ इसी स्कूल मे प्रथम कक्षा से पाँचवी कक्षा तक पढ़ रही थी।

गाँव के बच्चे गाँव की नमिता से ज्यादा कुछ नहीं जानते थे और उसे ही अपना आदर्श मान कर नमिता की तरह पढ़कर बड़ा आदमी बनने की सोचते थे। उन्ही लड़कियों के बीच बैठ कर नमिता जब बात करने लगी तो सभी लड़कियों ने एक स्वर में कहा, “दीदी हम आप जैसा बनना चाहते हैं आप हमें सही राह दिखाएंगी?” नमिता की आँखों में खुशी के आँसू आ गए और उसने वादा किया, “हाँ, मैं तुम सबको आगे पढ़ने मे भरपूर सहायता करूंगी।” ओम दत्त नमिता को लेकर घर वापस आ गया और कहने लगा, “बेटा नमिता, तुम अपने लिए कोई भी निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो लेकिन याद रखना अगर तुमने शादाब से शादी कर ली तो इस गाँव के लोग अपनी लड़कियों को आगे पढ़ने के लिए शहर में नहीं भेजेंगे, वो इनकी पढ़ाई इसी स्तर पर रोक देंगे और फिर ये सब लड़कियां जो आज तुम्हें अपना आदर्श मानती हैं, तुम्हारे जैसा बनना चाहती हैं, अनपढ़ ही रह जाएंगी, अब निर्णय तुम्हारे हाथ में है।”

नमिता शहर चली गयी, ओम दत्त ने सोचा कि वह शादाब के पास गयी है, लेकिन अगले ही दिन अपना सारा समान लेकर गाँव वापस आ गयी। नमिता ने पाँचवी पास करने वाली सभी लड़कियों को अपने ही घर पर आगे पढ़ाना शुरू कर दिया एवं भाग दौड़ करके अपने ही गाँव में लड़कियों के लिए आठवीं तक का स्कूल बनवा दिया। आठवीं के बाद दसवीं एवं दसवीं के बाद बारहवीं तक का स्कूल बनवा दिया। गाँव की सभी लड़कियों का वह ख्याल रखती और आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करती रहती थी। नमिता के मेहनत रंग लायी और उसने गाँव में ही विश्वविद्यालय से संबन्धित कॉलेज बनवा दिया, कॉलेज का नाम उसने अपने पिता के नाम पर, “ओम दत्त डिग्री कॉलेज रखवाया।” नमिता ने उदघाटन भाषण में बस इतना ही कहा, “मेरे पिता ने अपनी बेटी के लिए किया और मैंने गाँव की बेटियों के लिए किया है। आज मुझे स्वयं पर एक बेटी होने का गर्व है, अपने पिता पर गर्व है और अपने गाँव की सभी बेटियों पर गर्व है। हमारा जीवन बेटियों के लिए।” ओम दत्त के लिए ये पल बहुत ही भावुकता से भरे थे उसने अपने उद्गार इस तरह प्रकट किए, “आज मेरी बेटी ने मेरे नाम को हमेशा के लिए अमर कर दिया है मेरे कुल का नाम बड़ाकर मुझे धन्य कर दिया है। उस समय सभी लोगों ने मुझे दूसरी शादी करने की सलाह दी जिससे मेरे परिवार में एक लड़का पैदा हो सके और मेरे कुल का नाम आगे बड़ा सके, लेकिन मुझे अपनी बेटी पर गर्व था, गर्व है और गर्व रहेगा। हमारी बेटियों के लिए यह एक आदर्श बेटी के रूप मे जानी जाएगी।”