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वो चार दिन

वो चार दिन

(प्रतियोगिता के लिए)

आशीष कुमार त्रिवेदी

सभी ब्रेकफास्ट के लिए जमा थे। मेज़ पर ढेर सारी चीज़ें देख कर मानव समझ नहीं पा रहा था कि क्या खाए। कुछ देर तो वह यूं ही सभी डिशेज़ को देखता रहा। अंत में उसने थोड़ा सा उपमा अपनी प्लेट में परोस लिया।

चारों तरफ चहल पहल थी। कुछ जाने तो कुछ अनजाने चेहरे थे। मानव की आँखें उस चेहरे को खोज रही थीं जिसे उसने कल बस से उतरते हुए देखा था।

कंपनी ने अपने करीब पच्चीस चुनिंदा कर्मचारियों को छुट्टी मनाने का यह मौका ईनाम के तौर पर दिया था। चोरों ज़ोन से लोग चुने गए थे। उन्हें इस महंगे रिज़ार्ट में ठहराया गया था। अब तक तो मानव को सारी व्यवस्था अच्छी लगी थी।

वैसे कल शाम ही सब लोग इस रिज़ार्ट में आए। एयरपोर्ट से सबको एक लग्ज़री बस में बिठा कर यहाँ लाया गया था। बस में बैठे हुए तो वह अपने खयालों में ही उलझा रहा। लेकिन जब वह बस से उतरा तो उसके बाद एक लड़की भी उतरी। उतरते समय उसका दुपट्टा उसके ट्रॉली बैग में फंस गया। किनारे खड़े होकर वह उसे ही निकालने लगी। तभी मानव का ध्यान उसकी तरफ गया। सुंदर सलोना गोल सा चेहरा था उसका। हल्का सा मेकअप किया था। बाकी पहनावे में भी एक सादगी थी। बस वही मानव की आँखों में बस गई।

उपमा खाते हुए वह उसे ही खोज रहा था। तभी किसी की आवाज़ कानों में पड़ी।

"हे दीप्ती !"

"नकुल तुम.... वाट अ प्लेज़ेंट सरप्राइज़।"

मानव ने उस आवाज़ की तरफ देखा। वही कल वाली लड़की थी। मानव ने मन में सोंचा 'चलो नाम पता चल गया। दीप्ती... सुंदर नाम है।' वह बात करती हुई दीप्ती को देखता रहा। सुबह वह और भी खूबसूरत लग रही थी। मानव सोंचने लगा कि कैसे इस लड़की से बात की जाए। अपने शर्मीले स्वभाव के कारण वह लड़कों से ही जल्दी बात नहीं कर पाता था। किसी लड़की से सामने से जाकर बात करना तो और भी कठिन था।

"और भाई मानव कैसा चल रहा है?" मानव ने देखा सामने इमरान खड़ा था।

"सब अच्छा है? तुम बताओ सुना है गुपचुप शादी कर ली। हमें तो पूँछा भी नहीं।" मानव ने शिकायत की।

"बस यार गुपचुप नहीं जल्दबाज़ी में हुआ सब कुछ। माहिरा के अब्बा बीमार थे। इसलिए चाहते थे कि निकाह जल्दी हो जाए। अच्छा ही हुआ कि हमने बात मान ली। शादी के महीने भर के भीतर ही वह चलबसे। वरना बाद में अफसोस होता।"

"अब तो सब सही है ना?"

"हाँ खुदा का शुक्र है। तुम बताओ कब कर रहे हो शादी। आंटीजी ने कोई लड़की नहीं ढूंढ़ी।"

"उनका बस चले तो आज ही मेरी शादी करवा दें। पर मैंने ही कह रखा है कि शादी मैं अपनी पसंद की लड़की से करँगा।"

"और भाई वो लड़की मिलेगी कैसे? तुम तो लड़कियों से बात करते शर्माते हो।"

"ऐसा कुछ नहीं है। बस कोई अच्छी लगी तो उससे बात करूँगा।" मानव ने झेंपते हुए कहा।

"सच पर मैं तो इतनी देर से देख रहा हूँ कि तुम दीप्ती को घूर रहे हो लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हो।"

"तुम उसे जानते हो?"

"थोड़ा बहुत। कुछ दिन उसने मेरे अंडर ट्रेनिंग ली है।"

मानव की आँखों में उम्मीद की चमक आ गई। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। इमरान उसके मन की बात समझ गया।

"इंट्रो करवा दूँ?"

"नहीं, ठीक है।" मानव ने बस ऐसे ही दिखावे के लिए मना कर दिया। इमरान हंसने लगा। उसका हाथ पकड़ दीप्ती के पास ले गया।

"हैलो दीप्ती .... पहचाना।" इमरान ने पास जाकर कहा।

"बिल्कुल.... इमरान ठीक.... कैसे हो?" दीप्ती ने मुस्कुरा कर कहा।

"ठीक हूँ। तुम बताओ कैसा चल रहा है?"

"सुपर फाइन"

मानव चुपचाप खड़ा दीप्ती को ही देख रहा था। इमरान ने उसका परिचय कराते हुए कहा।

"ये हैं मानव भाटिया। हम दोनों कॉलेज से एक दूसरे को जानते हैं।"

"हैलो मानव, मैरा नाम दीप्ती अस्थाना है। मैं वेस्ट ज़ोन से हूँ।" दीप्ती ने अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया।

मानव ने कुछ संकोच के साथ उससे हाथ मिलाया।

"मैं नॉर्थ से हूँ। चंडीगढ़ में।"

"अरे वो तो मेरा घर है। मैं वहीं पली बढ़ी हूँ। मम्मी पापा वहीं हैं।"

इसके बाद इमरान के साथ कुछ पुरानी बातें करने के बाद दीप्ती नाश्ता करने चली गई।

नाश्ते के बाद पिकनिक का कार्यक्रम था। करीब एक घंटे के बाद सभी तैयार हो कर बस में सवार हो रहे थे। मानव बस में चढ़ा तो देखा कि दीप्ती के बगल वाली सीट खाली थी। वह जाकर उस पर बैठ गया। बात बढ़ाने के लिए वह बोला।

"जाने किस पुराने किले में ले जा रहे हैं हमें। आप कुछ जानती हैं उसके बारे में?"

"नहीं कुछ खास नहीं। हाँ मुझे बीते समय की चीज़ें देखना अच्छा लगता है।"

"तो आपको इतिहास में दिलचस्पी है।"

"इतिहास में नहीं लेकिन ऐसी जगहों पर मैं उन लोगों को महसूस करने की कोशिश करती हूँ जो कभी वहाँ रहते होंगे। कुछ अलग सा अनुभव करती हूँ मैं ऐसी जगहों पर।"

मानव की तरफ देख कर बोली।

"कुछ अलग तरह की हूँ मैं।"

उसकी बात सुनकर मानव हल्के से मुस्कुरा दिया। बस चल दी। करीब एक घंटे का सफर था। दीप्ती अपने साथ लाई किताब पढ़ने लगी। किले में पहुँच कर सभी अपने अपने गुट में बंट कर घूमने लगे। दीप्ती अकेली ही किले का निरीक्षण करने लगी। वह बड़े ध्यान से सभी चीज़ों को देख रही थी। दीवारों को इस तरह छू रही थी जैसे हांथों के माध्यम से उनकी सदियों की मूक दास्तान सुन रही हो।

मानव भी उसके आसपास ही था। एक जगह पर दोनों की नजरें मिलीं तो उसने पूँछा।

"तो क्या अनुभव किया आपने?"

"कोशिश कर रही हूँ। इस जगह दबी कहानियों को खोजने की।"

"तो क्या आप कहानियां भी लिखती हैं?"

"ऐसी कहानियां जिन्हें महसूस कर पाती हूँ उन्हें अपने लैपटॉप पर दर्ज़ कर लेती हूँ।"

"आप तो बहुत कुछ कर लेती हैं।"

उसकी बात पर दीप्ती हंस दी।

"आपके क्या शौक हैं?"

"मैं तो इन मामलों में बहुत आलसी हूँ। कुछ भी अधिक दिन तक नहीं चल पाता।"

दोनों बातें करते हुए किले में घूमने लगे। वहाँ की नैसर्गिक सुंदरता मन को मोह रही थी। दीप्ती उसे अपने मोबाइल कैमरे से कैद करने लगी।

"प्लीज़.. आप मेरी कुछ तस्वीरें खींच देंगे।" दीप्ती ने गुज़ारिश की।

"बिल्कुल.." कह कर मानव ने उसका मोबाइल लेकर उसकी कुछ तस्वीरें खींच दीं।

तभी किसी ने आवाज़ लगाई।

"आओ भाई... तुम लोगों को लंच नहीं करना है क्या।"

लंच के बाद तय हुआ कि एक गेम खेला जाएगा। गेम के मुताबिक एक डब्बे में से नाम लिखी हुई दो पर्चियां निकाली जाएंगी। जो दो नाम होंगे वह एक दूसरे के पार्टनर होंगे। उनसे जो कहा जाएगा उन्हें करना पड़ेगा। बारी बारी से पर्चियां निकाली जा रही थीं। दोनों पार्टनर मिल कर दिया गया टास्क करते थे। सभी को मज़ा आ रहा था।

गेम के दौरान दो पर्चियां निकाली गईं। एक पर्ची में मानव का भी नाम था। उसे उसके पार्टनर के साथ डांस करने को कहा गया। मानव झिझक रहा था। दीप्ती ने धीरे से पूँछा।

"क्या बात है? इतने नर्वस क्यों हैं?"

"दरअसल मुझे नाचना नहीं आता।"

"तो यह कौन सी डांस की प्रतियोगिता है। जैसा आए कर दीजिए।"

दीप्ती से हौसला पाकर मानव उठा और जैसा हो सका डांस कर दिया। "

बाकी तो उसका डांस देखकर मुंह दबा कर हंस रहे थे। लेकिन दीप्ती ने ताली बजा कर उसकी तारीफ की। मानव को उसकी यह बात बहुत अच्छी लगी।

इसके बाद दोनों एक दूसरे से बहुत खुल गए थे। सारा समय लगभग साथ ही रहते थे। एक दूसरे के परिवार के बारे में जान गए थे। लोग पीछे से बातें बनाते थे। किंतु दोनों एक दूसरे के साथ का आनंद ले रहे थे।

इस तरह उनके ठहरने के चार दिन बीत गए। लौटते समय दोनों ने एक दूसरे का नंबर लिया। फेसबुक पर मित्र बना लिया। एक दूसरे से संपर्क बनाए रखने के वादे के साथ अपने अपने घर लौट गए।

आरंभ में दोनों के मध्य कुछ औपचारिक छोटे छोटे संदेशों का आदान प्रदान होता रहा। उसके बाद बात कुछ आगे बढ़ी। अंततः दोनों लंबी चैटिंग करने लगे। एक दूसरे को अपनी समस्याएं बताते। सुख दुख साझा करते। धीरे धीरे दोनों ही एक नज़दीकी महसूस करने लगे।

इस तरह करीब दस माह बीत गए। एक दिन दीप्ती देर रात दीप्ती का फोन आया। वह बहुत परेशान थी।

"क्या हुआ दीप्ती... तुम बहुत परेशान लग रही हो।"

उधर से दीप्ती के रोने का स्वर सुनाई पड़ा।

"प्लीज़ दीप्ती रो मत। मुझे बताओ क्या बात है?"

"मानव पापा की तबीयत बहुत खराब हो गई थी। मम्मी उन्हें लेकर अस्पताल गई हैं। पापा को आई.सी.यू. में भर्ती किया गया है। मम्मी एकदम अकेली हैं। मुझे पहुँचते पहुँचते कल दोपहर हो जाएगी। मैं बहुत परेशान हूँ।"

"दीप्ती तुम बिल्कुल भी फिक्र ना करो। मैं फौरन आंटी के पास जा रहा हूँ।"

दीप्ती से अस्पताल का पता लेकर मानव तुरंत ही उसकी माँ की मदद के लिए निकल गया। अगले दिन दीप्ती के पहुँचने तक वह अस्पताल में ही रहा। दीप्ती जब अस्पताल पहुँची तब तक उसके पापा की स्थिति में बहुत सुधार आ चुका था। दीप्ती की माँ ने मानव की बहुत तारीफ की।

"बेटा अगर तुम्हारा दोस्त ना आता तो मैं अकेले घबरा गई होती। इसने तो एक बेटे की तरह मेरी मदद की।"

इस घटना के बाद से दीप्ती के मन में मानव का स्थान और ऊंचा हो गया। मानव अब पूरी तरह से दीप्ती के प्यार में डूब चुका था। जिस तरह उसने अपने पिता की सेवा की उसे देख कर वह बहुत प्रभावित हुआ।

अक्सर वह दीप्ती के पापा का हाल चाल लेने उनके घर जाता था। अब वह पूरी तरह ठीक हो गए थे। दीप्ती भी एक दो दिनों में अपने काम पर वापस जाने वाली थी। मानव उसे अपने मन की बात बताना चाहता था। उसने दीप्ती को साथ डिनर के लिए पूँछा। दीप्ती मान गई।

मानव अपनी बात कहने के अलग अलग तरीके सोंच कर आया था। लेकिन दीप्ती के सामने नर्वस हो गया था। वह यह मौका छोड़ना नहीं चाहता था। अतः हिम्मत कर उसने अपनी बात दीप्ती के सामने रख दी।

"दीप्ती मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ। क्या तुम मेरे साथ जीवन बिताना पसंद करोगी।"

मानव की बात सुनकर दीप्ती सोंच में पड़ गई। कुछ क्षणों तक वह चुप बैठी रही। उसकी चुप मानव को बहुत भारी लग रही थी।

"मानव क्या हम सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं रह सकते?"

उसका जवाब सुनकर मानव भी सोंच में पड़ गया।

"पर तुम मुझे यह बताओ कि हम जीवनसाथी क्यों नहीं बन सकते हैं? मैं तुम्हारे फैसले को स्वीकार करता हूँ। किंतु मुझे कारण तो बताओ।"

मानव की तरफ देख कर दीप्ती गंभीर स्वर में बोली।

"क्योंकी मैं एच. आई. वी. पॉज़िटिव हूँ।"

उसका जवाब सुनकर मानव सकते में आ गया।

"क्या ??.... एच. आई. वी.... पर तुम तो......"

"यही कि मैं तो एकदम सामान्य लगती हूँ। सब की तरह हंसती बोलती हूँ। मानव मेरे जैसे कई और लोग हैं जो इस वॉयरस के साथ भी सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हाँ कुछ सावधानी बरतनी पड़ती है और दवाएं समय पर लेनी होती हैं।"

"तुमने कभी बताया भी नहीं।"

"हाँ, लेकिन मेरा इरादा बात को छुपाने का भी नहीं था। बस यह बात ऐसी नहीं थी कि दोस्ती के रिश्ते में असर करती। पर जब बात शादी की आई तो तुम्हें बता दिया।"

मानव को सोंच में पड़ा देख कर वह बोली।

"अब तुम तय कर लो कि दोस्ती भी आगे बढ़ानी है कि नहीं।"

यह कह कर वह उठ कर चली गई। मानव कुछ देर तक वहीं बैठा रहा। अचानक लगे इस धक्के से वह कुछ सोंचने समझने की स्थिति में नहीं था।

मानव कई दिनों तक अपने आप से ही जंग लड़ता रहा। वह चाहता था कि दीप्ती के अध्याय को समाप्त कर आगे बढ़े किंतु दिल बार बार दीप्ती की तरफ ही खिंचता था। फिर भी उसने जबरन अपने मन को दूसरी तरफ लगाने का प्रयास किया। वह कुछ हद तक इसमें सफल भी हो रहा था।

इसी बीच एक दिन उसकी नज़र एक इश्तिहार पर पड़ी। उसके शहर में एक सेमीनार हो रहा था। जहाँ एच. आई. वी. एड्स पर एक वक्ता बोलने वाला था। पहले तो मानव ने इस विज्ञापन की अनदेखी करनी चाही किंतु उसका ध्यान बार बार ही उस पर जा रहा था। वह इस विषय में जानना चाहता था। अतः वह समय निकाल कर आयोजन स्थल पर पहुँच गया।

वक्ता का नाम प्रोफेसर निरंजन दीवान था। उन्होंने एच. आई. वी. एड्स के विषय में कई ज्ञानवर्धक जानकारियां दीं। प्रोफेसर निरंजन ने बताया कि एच. आई. वी. एक वायरस है। जो व्यक्ति इस वायरस से संक्रमित होता है उसे एच. आई. वी. पॉज़िटिव कहा जाता है। यह वायरस हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को कम करता है। यदि समय से पता चल जाए और सही तरीके से उपचार हो तो इस वायरस को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। किंतु अभी इसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। जबकी एड्स एक बीमारी है जो एच. आई. वी. के कारण होती है। हर एच. आई. वी. पॉज़िटिव को एड्स हो यह ज़रूरी नहीं है। वायरस को बढ़ने से रोक कर एड्स से बचा जा सकता है।

प्रोफेसर ने और भी बहुत सारी जानकारियां दीं। उन्होंने बताया कि एच. आई. वी. का वायरस संक्रमित व्यक्ति के साथ असुरक्षित यौन संबंध बनाने से, संक्रमित रक्त चढ़ाने से एवं गर्भवती संक्रमित महिला से उसके बच्चे में जा सकता है। अतः सावधानी बरतनी बहुत ज़रूरी है।

मानव ने महसूस किया कि बहुत कुछ था जो वह नहीं जानता था। घर आकर उसने इंटरनेट पर प्रोफेसर निरंजन के बारे में सर्च किया तो पता चला कि वह स्वयं एच. आई. वी. पॉज़िटिव हैं। मानव ने उनसे मिलने का मन बना लिया।

रविवार को वह प्रोफेसर के बंगले पर पहुँचा। वह बिना किसी पूर्व सूचना के आया था। इसलिए मना रहा था कि प्रोफेसर उससे मिलने को तैयार हो जाएं। प्रोफेसर निरंजन एक अच्छे इंसान थे। वह मानव को कुछ वक्त देने को तैयार हो गए।

मानव ने उन्हें अपना परिचय देकर कहा।

"सर मैं आपके सेमीनार में गया था। एच. आई. वी. एड्स के बारे में मुझे कई जानकारियां मिलीं। फिर भी मैं कुछ और बातें जानना चाहता हूँ।"

"पूँछिए... मि. मानव.."

"एच. आई. वी. पॉज़िटिव व्यक्ति के साथ रहते हुए किस प्रकार की सावधानी रखनी चाहिए?"

"मि. मानव एच. आई. वी. पॉज़िटिव व्यक्ति के साथ आप सामान्य तरीके से ही रह सकते हैं। वायरस साथ रहने, एक प्लेट में खाने या मच्छर के काटने से नहीं फैलता है। सावधानी यही रखें कि ऐसे व्यक्ति के साथ यौन संबंध से परहेज़ करें। उसका शेविंग किट प्रयोग ना करें। बाकी आप बिना भय के संक्रमित व्यक्ति के साथ रह सकते हैं। मैं स्वयं संक्रमित हूँ लेकिन अपनी पत्नी और बच्ची के साथ खुशी से रहता हूँ। उन्हें मुझसे कोई खतरा नहीं।"

मानव दीप्ती के बारे में सोंचने लगा। प्रोफेसर को एहसास हो गया कि वह किसी व्यक्तिगत समस्या के कारण यहाँ आया है।

"मि. मानव लगता है कि आप किसी व्यक्तिगत उलझन में हैं।"

मानव ने उन्हें अपने और दीप्ती के बारे में सब कुछ बता दिया।

"निर्णय तो आपको ही करना होगा मि. मानव।"

मानव ने सकुचाते हुए पूँछा।

"सर आपको विवाह के बाद अपने संक्रमित होने का पता चला।"

प्रोफेसर निरंजन ने उसके चेहरे को देखा जैसे कुछ पढ़ने का प्रयास कर रहे हों।

"नहीं मेरे संक्रमित होने की जानकारी विवाह से पहले ही मिल गई थी।"

मानव के चेहरे पर आश्चर्य देख कर प्रोफेसर ने उसे अपनी पूरी कहानी सुनाई।

"दरअसल हमारे परिवार एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। अतः उन्होंने हमारा रिश्ता तय कर दिया। उसके बाद हमारे बीच भी जान पहचान बढ़ी और हम एक दूसरे को पसंद करने लगे। विवाह से कुछ दिन पहले ही मेरे एक रिश्तेदार को खून की ज़रूरत पड़ी। मेरे खून की जाँच की गई तो डॉक्टर ने रक्तदान करने से मना कर दिया। मुझे एच. आई. वी. के कुछ टेस्ट कराने को कहा गया। तब मुझे पता चला कि मैं संक्रमित हूँ। मुझे भी एक वर्ष पहले रक्त की ज़रूरत पड़ी थी। लेकिन मेरी किस्मत का दोष की बिना जाँच के मुझे रक्त चढ़ा दिया गया।

रिपोर्ट देखते ही मुझे अपना जीवन अंधकारमय लगने लगा। तब मेरे डॉक्टर ने मुझे समझाया कि सही इलाज से मैं वायरस को बढ़ने से रोक सकता हूँ। उन्होंने ऐसे लोगों से मिलवाया जो वायरस के साथ भी सामान्य जीवन बिता रहे थे। मैंने भी सकारात्मक नज़रिए के साथ जीने का फैसला कर लिया। लोगों में इस विषय में जागरूकता फैलाने लगा। इन सबके बीच मैंने विवाह का विचार मन से निकाल दिया।"

मानव बड़े ध्यान से सब कुछ सुन रहा था।

"मैं वायरस के साथ जीवन में आगे बढ़ गया। लेकिन नीलिमा मेरी पत्नी किसी और| से विवाह को तैयार नहीं हुई। घरवालों के लाख समझाने पर भी नहीं मानी। उसका तर्क था कि यदि विवाह के बाद संक्रमण का पता चलता तो क्या मैं निरंजन को छोड़ देती। पहले पता चल जाने से अब हम सावधानी से रिश्ते को आगे बढ़ा सकते हैं। अपने तर्कों से उसने घरवालों के साथ मुझे भी मना लिया। हमारा विवाह हो गया।"

"पर सर आपने बच्ची के बारे में कहा था।"

"हाँ उसे हमने गोद लिया है।"

मानव जब चलने को हुआ तो प्रोफेसर निरंजन ने उसे समझाते हुए कहा।

"मि. मानव मेरी सलाह तो यही है कि कोई भी फैसला लेने से पहले खूब अच्छी तरह सोंच लें। यह फैसला आसान नहीं होगा। वैवाहिक जीवन के एक पक्ष से आपको महरूम रहना होगा। ऐसे में अपनी भावनाओं को काबू करना एक कठिन काम होगा।"

प्रोफेसर निरंजन से मिलने के बाद मानव अपने फैसले पर विचार करने लगा। वह कोई भी निर्णय जल्दबाज़ी में नहीं करना चाहता था। प्रोफेसर की हिदायत मान कर वह हर पक्ष पर गौर कर रहा था। वह नहीं चाहता था कि बाद में अपने फैसले के कारण वह दीप्ती को और भी दुख पहुँचाए।

बहुत सोंच विचार कर वह अपने निर्णय पर पहुँच ही गया।

उस दिन दीप्ती कह कर चली आई थी कि मानव फैसला कर ले कि उसे दोस्ती आगे बढ़ानी है कि नहीं। उसके बाद मानव ने उससे कोई बात नहीं की। इतना अच्छा दोस्त खो जाने का उसे बहुत दुख हुआ। चाहती तो वह भी मानव को थी किंतु अपनी चाहत को उसने काबू कर लिया था।

उसने भी बड़ी कठिनाई से अपना मन मानव की तरफ से हटा लिया था।

छुट्टी का दिन था। वह अपने कुछ काम निपटा रही थी। तभी कॉलबेल बजी। उसने जाकर दरवाज़ा खोला तो आवाक रह गई।

"मुझे अंदर आने को भी नहीं कहोगी।" बुत बनी दीप्ती से मानव बोला। वह एक ओर खिसक गई। अंदर जाकर मानव सोफे पर बैठ गया। दीप्ती अभी भी उसे आश्चर्य से देख रही थी। मानव ने उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लिया।

"तुमने उस दिन कहा था कि मैं तय कर लूँ कि दोस्ती आगे बढ़ानी है या नहीं। मैंने इस बारे में बहुत सोंचा। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अब हम दोस्त नहीं रह सकते।"

उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला।

"मैंने महसूस किया कि हम सिर्फ अच्छे दोस्त नहीं बल्कि अच्छे जीवनसाथी बन सकते हैं।"

"यह कोई मज़ाक नहीं है मानव। मेरे भीतर जो वायरस है वह तुम्हारे भीतर भी आ सकता है। मैं तुम्हें पत्नी का सुख नहीं दे सकती।"

"इतने दिन मैंने इसी सब पर विचार किया है। मैंने खूब सोंच समझ कर ही फैसला लिया है। अपने भीतर के वायरस से अब तुम अकेली नहीं लड़ोगी। मैं भी तुम्हारे साथ मिलकर इसे हराऊंगा।"

वह सोफे के नीचे घुटनों पर बैठ कर बोला।

"क्या तुम मुझे अपनी इस जंग का सिपाही बनाओगी।"

दीप्ती ने महसूस किया कि मानव जो भी कह रहा है वह दिल की गहराई से कह रहा है। उसका निर्णय सोंच समझ कर लिया गया है। वह उठी और मानव के हाथ को चूम कर सहमति दे दी।