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प्रपंच

प्रपंच

"पाँच बज गये, संध्या अभी तक लौटकर नहीं आयी !" माँ ने घड़ी की ओर देखकर चिंतित स्वर में स्वगत कथन किया और घर का दरवाजा बंद करके यंत्रचालित-सी गाँव के बाहर स्थित कौशल-विकास केंद्र की ओर चल पड़ी, जहां पर उसकी बेटी कंप्यूटर सीखने के लिए जाती थी । माँ के कदम सामान्य से अधिक तेज चल रहे थे, इसलिए मार्ग में मिलने वाले लोग उन्हें विचित्र-सी शंकित दृष्टि से देख रहे थे । एक-दो स्त्रियों ने उनके चेहरे के हाव-भाव देखकर चिन्ता का कारण जानने का प्रयास भी किया था । माँ ने मुस्कुराते हुए "कुछ नहीं" कहकर उनका मुँह बंद कर दिया ।

कौशल विकास-केंद्र के निकट जाकर वह ठिठककर रुक गयी । तीन-चार किशोरवयः लड़के वहाँ पर खड़े हँसी-ठिठोली कर रहे थे । माँ थोड़ी-सी आगे बढ़ी, तो कौशल विकास-केंद्र पर ताला लटका हुआ देखकर उनके होश उड़ गये । खेल रहे बच्चों से उन्होंने पूछा -

"बिटवा, कम्पूटर वाला सकूल कितनी देर पहले बन्द हुआ है ?"

"आज कमपूटर वाले मास्टर जी छुट्टी पे हैं !" बच्चों ने अपने व्यस्त समय से कुछ क्षण निकालकर बताया । बच्चों का उत्तर सुनते ही संध्या की माँ का सिर घूम गया - "सकूल की छुट्टी है, तो फिर संध्या कहाँ है ? दुपहरिया बारह बजे की घर से गयी हुई, अब तक कहाँ हैं ? कहीं कुछ ...!"

माँ बेटी की चिन्ता करते हुए उदास मन और धीमें कदमों से घर वापिस लौट आयी । जिन लोगों ने उनको तेज गति से जाते हुए देखा था, अब धीमी गति से लौटते देखकर उन्हें संदेह हुआ । अपने संदेह को पुष्ट करने के लिए उन्होंने पुनः प्रश्न किया -

"सन्ध्या की माँ का हुई गयो ? भौत परेसान दीख रई ओ !" संध्या की माँ ने इस बार भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया । घर लौटकर माँ ने उसके पिता-भाई को बताया -

"बारह बजे कम्पूटर सीखने गयी, अभी तक बगदके नाहीं आयी है ! आज के पहले तो तीन-चार बजे लौं घर बगद आवें ईं ! मैं उसके सकूल में भी देखने गयी, पता चला, कमपूटर का मास्टर छुट्टी पे गया है । मेरा तो कालजा (कलेजा) धकधक कर रया है, मेरी बच्ची के साथ कहीं कुछ अनहोनी ...!"

संध्या के घर से गायब होने की सूचना से उसके पिता और भाई को भी चिंता होने लगी । रात के आठ बजे तक चुप-चुप रहकर वे संध्या को तलाशते रहे । अगले दिन थाने में जाकर दरोगा जी को परिस्थिति से अवगत कराया और सामाजिक मान-प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखते हुए बेटी को ढूँढने की गुहार लगायी । सरपंच की बेटी का मामला था, इसलिए संध्या को ढूँढने के लिए पुलिस तुरंत सक्रिय हो गयी ।

दस दिन पश्चात् पुलिस को विश्वसनीय सूत्रों से सूचना मिली कि संध्या गाँव के कौशल विकास-केंद्र में नियुक्त कंप्यूटर-शिक्षक के साथ देहरादून के होटल में हनीमून मना रही है । उसी दिन सरपंच साहब को साथ लेकर पुलिस वहाँ पहुँच गयी । पुलिस के साथ अपने पिता को होटल में देखकर क्षण-भर के लिए संध्या हतप्रभ रह गयी । पर अगले ही क्षण वह आत्मविश्वास से तनकर खड़ी हो गयी । आज तक जो लड़की कभी पिता के समक्ष सिर उठाकर बोली भी नहीं थी, पुलिस की उपस्थिति में आज उसने वरुण के साथ अपने विवाह का प्रमाण-पत्र पिता के हाथ में थमाते हुए कहा -

"पापा जी हम दोनों प्यार करते हैं, सो हमने ब्याह कर लिया । अब हमारे बीच में कोई आवेगा, तो अच्छा ना होवेगा !" अपनी बेटी से उसके प्रेम-विवाह की सूचना सुनकर सरपंच जी क्रोध से तिलमिला गये । बेटी को कंप्यूटर सीखने के लिए भेजने के अपने ही निर्णय पर वह उस दिन बहुत पछताए थे । बेटी के जन्म के बाद उनका हृदय आज पहली बार रक्त के आँसू रो रहा था । परंतु, सरपंच जी सुलझे हुए समझदार व्यक्ति थे । सोचा, "गैर-बिरादरी का और संस्कार-विहीन ही सही, पर वरुण शिक्षित लड़का है । हम मानें या ना मानें, यह हमारा दामाद तो बन ही चुका है ! अपनी इज्जत बचाने का अब एक ही रास्ता बचा है, वरुण को दामाद के रूप में स्वीकार करना !"

अपने भावों-विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए सरपंच जी ने अपने गले में पड़ा हुआ अंगोछा उतारकर बेटी के चरणों में रख दिया - मैं वरुण को दामाद के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ, पर समाज में अपने पिता के मान-सम्मान को बचाए रखने के लिए सामाजिक रीति-रिवाज से विवाह संपन्न करा लो !" बेटी ने भी अपनी सहृदयता का परिचय देते हुए पिता की विनती सहज स्वीकार कर ली । पिता की मान-प्रतिष्ठा के भ्रम को बनाए रखने के लिए गाँव में अपनी स्थानीय हिंदू संस्कृति के अनुसार वरुण के साथ पुरोहित जी के मंत्रोच्चारण के बीच अग्नि के साथ फेरे लिये थे । यह अलग बात है कि उनकी मस्तिष्क-तरंगों को पंडित जी द्वारा संस्कृत भाषा में उच्चारित मंत्रों के अर्थ का आभासमात्र भी नहीं था ।

प्रातः काल तारों की छाँव में सन्ध्या की विदाई हुई, तो आँखों से गंगा यमुना की धारा बहाते हुए वह इतना अधिक रोयी थी कि वहाँ पर उपस्थित अनेक पाषाण-हृदय लोग भी मोम बनने के लिए विवश हो गये और उनमें से अधिकांश की आँखों में आँसू भी छलक आये थे । संध्या को इतना अधिक रोते हुए देखकर उसकी अस्सी वर्षीय दादी अपनी चारपाई पर बैठी हुई प्रलाप रही थी -

"बिटिया, काहे इत्ती रोय रई है ? हमारे जमाने में माई-बाप छोरियों को बालि उमिर में ब्याहके ससुराल भेजै रहै ! बालि उमिर में सालों-साल ससुराल में रहिके पीहर के दरसन ना हो सकै, ई सोच-सोचकर पीहर से बिदा होती छोरी रो-रोकै अपनी आँखिन लाल कर लेबै ! अब तो बीस-बाईस ते पहले कोई छोरी का ब्याह नाहीं ना करै ! ससुराल में रहके लाड़ो फोन पे बात कर लेबैं ; जब जी करे, बस में टरेन में बैठके माँ-बाप से मिल जाबै ! अब इतना सुख होके बी तू रोय रई है, तो तेरे रोय का मतबल हमें तो कुछ समझ मे ना आवे !"

दादी के उपदेशों का संध्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह यथावत् विलाप-प्रलाप करती रही ; मल्हार-मल्हारकर रोती रही । दादी ने एक बार पुनः स्वगत संभाषण किया - " तेरा बाप तेरी मर्जी के छोरे से तेरा ब्याह कररया है, फेर रोने का का मतबल है ? म्हारी तो समझ से परे है !"

दूसरी और संध्या की सहेली उसको सजाते-सँवारते, शृंगार करते हुए झुंझलाकर उससे कह रही थी - "सारा मेकअप धुल गया ! क्या जरूरत थी, इतना रोने की ?"

"जरूरत थी ! वरना मैं क्यूँ रोती ? तू जानती है ना, दादी दिन-भर खाट पर पड़ी-पड़ी बड़बड़ करती रहती है ! मैं नहीं रोती, तो दादी के साथ-साथ यहाँ की सारी औरतें खुसर-फुसर करती कि मैं नहीं ! संध्या ने भौंहे सिकोडकर उत्तर दिया ।

"तो तू दादी को और इन औरतों को दिखाने के लिए रो रही थी !"

"हां, और नहीं तो क्या ! कुछ ऐसा ही समझ सकती है !" संध्या ने उत्तर दिया ।

उसकी सहेली ने संध्या की ओर से उसके उसी उत्तर को अग्रसारित करते हुए दादी से कहा - "दादी, संध्या नहीं रोती, तो आप कहतीं कि यह रोयी नहीं ! अब रो रही है, तो इसके रोने का मतलब आपकी समझ से परे हो गया है !" तत्पश्चात् संध्या की सहेली ने उसके आँसुओं से धुले शृंगार को पुनः सँवारने के लिए फेस पाउडर लगाते हुए कहा - "अब बिल्कुल मत रोना ! वरना सारा मेकअप बिगड़ जाएगा !"

"मन तो नहीं है रोने का, पर रीति-रिवाज निभाना दुल्हन की मजबूरी है ! तू समझ सकती है, विदाई के समय डोली में बैठते हुए रोना भी जरूरी है !" कहकर संध्या हल्का-सा ठहाका मारकर हँस पड़ी । उसकी सहेली ने उसको चेताया - "दादी की दृष्टि यहीं पर है !" उसी समय वर पक्ष की ओर से दुल्हन को शीघ्र विदा करने का आग्रह हुआ, तो संध्या ने पुनः ऊँचे स्वर में रोना आरंभ कर दिया । संध्या का रूदन-स्वर सुनकर उसकी छह वर्षीय नटखट भतीजी कुक्कु आयी और सहानुभूति प्रकट करते हुए बोली -

"बुआ जी, आप छबछे दूल लहना मुझे भी अच्छा नहीं लगता ; मुझे भी लोना आता है ! हम छबको छोड़कल जाना आपको अच्छा नहीं लग लहा है न ? आप इछीलिए लो लही है ना ? मैं फूफा जी छे जाकल कह देती हूँ, बुआ जी आज नहीं जा लही हैं !" यह कहकर कुक्कू बाहर की ओर दौड़ने के लिए तत्पर हुई, तभी अत्यंत फुर्ती के साथ संध्या ने उसका हाथ पकड़कर उसके कान में कहा -

"फूफा जी से कुछ नहीं कहना है ! यह ले दस रुपये, चॉकलेट खा लेना !" कुक्कू दस का नोट लेकर उछलती-कूदती हुई भाग गयी । "इन फूफा-भतीजी का कुछ भरोसा नहीं है ! भतीजे जाकर वही सब कहेगी, जो अभी यहाँ कह रही थी, तो वरुण विदाई का प्रोग्राम कैंसिल कर देंगे !" यह कहते हुए अपनी सहेलियों से घिरी हुई संध्या आँखों से आँसू बहाते हुए प्रसन्न-मन फूलों से सुसज्जित डोली की ओर बढ़ गयी ।

परिजनों के शुभाशीष और मंगलकामना को आँचल में भरकर संध्या ससुराल चली गयी । दादी अपनी पोती संध्या का वियोग सहन नहीं कर सकी । परिणामस्वरूप उसकी विदाई के तुरंत पश्चात् दादी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा । तीन महीने तक दादी का अच्छे-से-अच्छे अस्पताल में बढ़िया डॉक्टर से इलाज चलता रहा, किंतु उनका स्वास्थ निरन्तर बिगड़ता ही जा रहा था । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अपनी पोती का विवाह-संस्कार संपन्न करने के लिए ही उनके शरीर में प्राण बसे हुए हुए थे ! पोती की विदाई के पश्चात् दादी के प्राण भी अब उनके शरीर से मुक्त होना चाहते थे । दादी की दशा ऐसी दयनीय हो चली थी कि न खाने की चेतना थी, न शोच का होश था । हर कोई कहने लगा था, "दादी को ईश्वर अपने पास बुला ले, तो उसकी बड़ी कृपा होगी, दादी पर भी और उसके तीमारदारों पर भी ! अन्यथा अब से आगे दादी की मिट्टी खराब ही होगी !" परंतु, दादी की एक इच्छा अभी शेष थी - संध्या को उसके पति के साथ गँठ-जोड़े में जी-भर देखकर उसको फलने-फूलने का आशीर्वाद देना !

सरपंच जी ने अपनी माँ की अन्तिम इच्छा से बेटी संध्या को अवगत कराया और पूर्ण करने के लिए संध्या से विनम्र आग्रह किया । संध्या अपनी दाम्पत्य-जीवन के आनन्द-उपभोग में इतनी व्यस्त थी कि न तो उसको दादी का आशीर्वाद लेने का अवकाश था, न ही उनकी भावनाओं का एहसास था । अपनी अन्तिम इच्छा पूरी न होने की पीड़ा को हृदय में समेटे हुए दादी ने एक दिन घोषणा कर दी कि अब उनका अंतिम समय आ गया है और वह अस्पताल में नहीं मारना चाहती हैं,बल्कि अपने भरे-पूरे घर-स्वर्ग से परम-लोक के लिए प्रस्थान करना चाहती हैं। माँ के आग्रह पर सरपंच जी उन्हें घर ले आये ।

घर आने के अगले दिन ही दादी के प्राण परम तत्व में में विलीन हो गये । दादी की मृत्यु का शोक-समाचार पाकर अगले दिन संध्या अपने ससुराल पक्ष के पूरे कुटुम्ब-परिवार के साथ मायके आ पहुँची । कार से उतरते ही उसने विलाप करना आरंभ कर दिया । उसका सामूहिक विलाप सुनकर उसके घर में प्रवेश करते-करते आधे गाँव को पता चल गया था कि सरपंच की बेटी आ पहुँची है । कुछ ही क्षणों में उसके शोक में शामिल होने के लिए पूरा मोहल्ला उसके घर पर एकत्र हो गया । दो दिन से जिनकी आँखों में आँसू की एक बूंद नहीं थी ; जो यह कहते नहीं थक रही थी कि अच्छा हुआ भगवान ने उठा लिया, अब अपने अच्छे कर्मों के चलते बुढ़िया को ज्यादा दिन खाट गोड़नी नहीं पड़ी, आज वे सब स्त्रियाँ संध्या के साथ शोक-संवाद लम्बी लय में गा-गाकर विलाप कर रही थी । लगभग दस-पन्द्रह मिनट तक विलाप-मल्हार का उपक्रम चलने के पश्चात् शनैः शनैः सब शांत हो गयी और वातावरण सामान्य होने लगा ।

अतिथियों का चाय-नाश्ता आरंभ हो गया था । नाश्ता करते-करते अब हँसी के फव्वारे छूटने लगे थे । हँसी-ठिठोली के प्रवाह में संध्या की ज़ुबान फिसल गयी - "जब से होश संभाला था, तब से दादी की बड़बड़ सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे ! मैं ब्याहकर ससुराल चली गयी, तब भी उन्हें शांति नहीं हुई । मैं फोन पर माँ से बात करती थी, तो दादी अपना राग अलापने लगती थी । अब जाकर दादी की बड़बड़ से मुक्ति मिली है !" संध्या के एक-एक शब्द को कुक्कू बड़े ध्यान से सुन रही थी । उसने अवसर देखकर बहुत ही मासूमियत से पूछा -

"बुआ जी ! आप दादी के मरने से बहुत दुखी नहीं हो, तो फिर रोई क्यों थी ? संध्या ने भौंह सिकोड़ते हुए उसके गाल खींचकर कहा -

"तू बड़े सवाल पूछती है !"

"बताइए ना, बुआ जी !" कुक्कु ने बाल-हट करते हुए कहा ।

"घर में किसी की मौत होती है, तो सभी रोते हैं ! रोना जरूरी होता है !"

"पर क्यों ?" कुक्कु ने पुनः प्रश्न किया ।

"यह तो मुझे भी नहीं पता, क्यों रोते हैं ?

"पता नहीं, आप फिर भी रोयी ! क्यों ?

"बस यूँ ही !"

"बस यूँ ही ? मतलब आप झूठ-मूठ रो रही थी ? इसलिए कि कोई यह न कहे, इन्हें अपनी दादी की मृत्यु का शोक नहीं है ? है ना ? बुआ जी, मैं सही कह रही हूँ ना ? शादी हो तब भी ; घर में किसी की मृत्यु हो तब भी, आप झूठ-मूठ रोती हैं ? मुझे झूठ-मूठ रोना नहीं आता ! मम्मी की डाँट या पिटाई पड़ती है, तभी रोना आता है !"

"सीख जाएगी !"

"पर कैसे ?"

"मैं हूँ ना ! सब-कुछ सिखा दूँगी !" दो दिन पश्चात् संध्या ने कुक्कु को अपने साथ सोने के लिए अपने कमरे में बुलाया । रात के लगभग ग्यारह बजे संध्या के कमरे से रोने का स्वर सुनाई दिया । रूदन-स्वर सुनकर पूरा परिवार घबराकर क्षणभर में उसके कमरे में इकट्ठा हो गया और समवेत स्वर में "क्या हुआ ?" प्रश्नात्मक शब्दों से कुक्कु के रोने का कारण पूछा । परिवार के प्रत्येक सदस्य की चिंताग्रस्त भाव-भंगिमा और उनके समवेत प्रश्न से एक क्षण के लिए कुक्कु किंकर्तव्यविमूढं-सी खड़ी रही । अगले क्षण वह खिलखिलाकर हँस पड़ी - "मैं तो रोना सीख रही थी ।"

मैंने आश्चर्यचकित होकर क्रोधावेश में कहा - "रोना सीख रही थी ? बेटा रोना सीखने के लिए रोने का अभ्यास करने की जरूरत नहीं पड़ती ! जब जीवन में दुख पड़ता है, आदमी रोना सीख जाता है ; हँसना भूल जाता है !"

"दुख नई पलता, तब भी तो लोना होता है ! बड़ी दादी की मौत हुई थी, पापा जी औल दादा जी के छिवा कोई दुखी नहीं था, फिल भी छब लो लई थी । अपनी छादी में बुआ बहुत खुछ थी, फिल भी रोयी थी !" कुक्कु का अकाट्य तर्क सुनकर पूरा परिवार आश्चर्यचकित और मौन था । किसी के पास उसके प्रश्न का उत्तर नहीं था । वातावरण का मौन भंग करते हुए कुक्कु ने पुनः कहा - "कोई मुझे बताएगा, छादी में भी औल मौत में भी झूठ-मूठ क्यों लोते हैं ? झूठ-मूठ लोना जलूली क्यों हैं ? क्यों ???" कुछ क्षणों तक मैं उसके प्रश्न के विषय में गंभीरतापूर्वक सोचती रही । तत्पश्चात् मैंने कुक्कु से कहा -

"झूठ-मूठ रोना आवश्यक नहीं, अनावश्यक है ; व्यर्थ का तमाशा है ; नाटकबाजी है ! किसी कष्ट अथवा विपत्ति में भी रोने की नहीं, धैर्य साहस और संघर्ष की आवश्यकता होती है ! जो कोई भी मनुष्य विपत्ति में रोता है, दु्र्बल होता है । उसके आँसू और अधिक दुर्बल बनाते हैं । सफल व्यक्ति वही होता है, जो प्रतिकूल परिस्थिति में भी धैर्य और साहस के साथ परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाता है ।" यह कहकर मेरे होंठ बंद हो गये, परन्तु मेरे मस्तिष्क के एक कोने से मेरे अपने ही कथन का क्षीण-सा विरोध होने लगा था -

"समाज में रूढ़ियों का विरोध करने वाले सक्षम व्यक्तियों के संयमित आचार-व्यवहार पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया जाता जाता है ; उनका उपहास किया जाता है ।" किन्तु, इस विरोधाभासी स्थिति में भी कुक्कू के प्रश्न के झरोखे से झाँकते हुए मेरा मनःमस्तिष्क, मेरा जीवन-दर्शन और मेरे पारिवारिक संस्कार चीख-चीखकर कह रहे थे - "विपत्ति में आँसू बहाना कायरों का स्वभाव होता है और कृत्रिम आँसू बहाकर दूसरों से सहानुभूति बटोरना धूर्तता है ! मैं अपनी कुक्कु को न कायर देखना चाहती हूँ, न ही धूर्त ! मैं यही चाहती हूँ कि रूढ़ियों को ढोने के लिए वह दिखावटी रोना-चीखना, आँसू बहाना न सीखे ! वह संवेदनशील बने ; जीवन के यथार्थ को समझे ; भावों की यथार्थ अनुभूति और अभिव्यक्ति करें, प्रपंच नहीं !"

मैं अपनी कुक्कु को जीवन के यथार्थ से अवगत कराते हुए आदर्श पथ पर चलना सिखा ही रही थी कि कुछ ही दिनों पश्चात् पुनः मेरे कार्य में अवरोध उत्पन्न हुआ । उस दिन सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन और पूरे परिवार के कपड़े धोकर उन्हें इस्तरी करके लगभग दो बजे मैं एक साहित्यिक पत्रिका पढ़ने के लिए बैठ गयी । घर के सारे कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् थकान के कारण शीघ्र ही नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया और मैं सपनों की दुनिया में विचरण करने लगी । अपराह्न लगभग तीन बजे अचानक मेरे कानों में रोने-चीखने का स्वर पड़ा । मैं चौक कर उठ बैठी । मेरे हृदय की धड़कन बढ़ गयी । किसी अनिष्ट की आशंका से मेरे होंठ अनायास ही बड़बड़ाने लगे - "हे प्रभु ! कृपा करना ! सबको कुशल-मंगल रखना !" इश्वर से सबकी मंगलकामना करती हुई मैं यथाशीघ्र उठी और कमरे से बाहर निकल कर आंगन में आयी । बाहर आकर मैंने देखा, सासू माँ के सीने से लिपटकर मल्हार-मल्हारकर संध्या रो रही थी । मुझे निकट देखकर वह माँ के सीने से हटी और "भा-भी-ई-ई-ई" चिल्लाती हुई मेरे सीने से लिपट गयी । उसका रूदन-स्वर और आँखों से बहते हुए आँसूओं को देखकर एक क्षण के लिए मेरा हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से जड़ीभूत-सा हो गया । किंतु, अगले ही क्षण मुझे संध्या की विवाहोपरांत प्रथम विदाई की वेला तथा दादी की मृत्यु के पश्चात् उनकी शोक-सभा का स्मरण हो आया । मैं कुछ कहती, इससे पहले ही उसके भाई ने आकर हँसते हुए कहा - "सब कुछ तेरे मन का हुआ है, फिर भी प्रपंच करना नहीं छोड़ेंगी !" भाई के आते ही संध्या मेरे सीने से हटकर भाई के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी और कुछ मिनट पश्चात् ही सब ठहाके मार-मार कर हँसने लगे ।