Jitna chhodoge utana jodoge books and stories free download online pdf in Hindi

जितना छोड़ोगे उतना जोड़ोगे

जो देगा वही पाएगा

कंजूस बनिया एक भी पाई किसी को भी देने को तैयार नहीं होता था, उसकी इस आदत से उसकी घर वाली बड़ी दुखी थी, वह समझाती मगर उल्टा उसको ही डांट देता और कहता, “मैंने एक एक पाई बड़ी मेहनत से कमाई है, कैसे मैं किसी और को दे दूँ और वह भी बिना किसी काम के।” लालाजी की ऐसी बातें सुनकर पत्नी बेचारी चुप हो जाती।

लालाजी ने घर में कुछ कंकड़ रखे हुए थे, जिनको वह नमक के पानी में उबाल लेता और उस पानी से ही रोटी खा लिया करता था।

एक दिन पत्नी ने लाला जी से गंगा स्नान की इच्छा जताई तो लाला जी अपनी पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए बैलगाड़ी में बैठाकर गंगाजी ले गए। स्नान करने के बाद पंडित जी ने कुछ दान करने के लिए कहा तो पहले तो लाला जी तैयार ही नहीं हुए, लेकिन बाद में पत्नी के कहने पर दो पाई दान करने को तैयार हो गए।

पंडितजी ने गंगा जल लालाजी के हाथ में रखा और दो पाई दान करने का संकल्प छुड्वा लिया, लेकिन लाला जी ने पंडित जी को दो पाई दी नहीं और अपना पीछा छुड़ाने के लिए कहने लगे, “पंडित जी! यहाँ तो मेरे पास धन है नहीं, मैं अपने घर पहुंच कर आपको दो पाई दे दूंगा।”

लाला जी ने तो ऐसा यह सोच कर कहा था कि पंडित जी अपना घाट छोड़ कर मेरे साथ मेरे घर तो आने से रहे और इस तरह मुझे दो पाई भी नहीं देनी पड़ेगी व कोई पाप भी नहीं लगेगा लेकिन पंडित जी तो लाला जी के साथ साथ उनके घर तक पहुँच गए और अपनी दो पाई मांगने लगे। पंडित जी को इस तरह अपने साथ अपने घर आया देख लाला जी आश्चर्यचकित रह गए और कोई तरकीब सोचने लगे जिससे पंडित जी को दो पाई न देनी पड़े।

लाला जी बोले, “पंडित जी! अभी मेरे पास धन है नहीं, मैं तीन दिन बाद दूंगा।” पंडित जी बोले, “कोई बात नहीं, मैं तीन दिन बाद आ जाऊंगा तब तक यहीं शिव मंदिर में ठहर जाता हूँ।”

तीन दिन निकल जाने के बाद लाला जी ने शिव मंदिर में ठहरे पंडित जी को खबर भिजवा दी कि लाला जी बीमार हैं, लेकिन पंडित जी ने कहा कि वह लाला जी के ठीक होने तक यहीं प्रतीक्षा करेंगे।

लाला जी अपने मेहनत से कमाए हुए और पाई पाई जोड़े हुए अपने धन में से दो पाई भी नहीं देना चाहते थे व मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि संकल्प छोड़ा हुआ था, वो भी गंगा जल हाथ में लेकर अतः पाप करने से भी डर रहे थे।

उधर पंडितजी किसी भी हालत में दो पाई दक्षिणा लिए बिना जा ही नहीं रहे थे तो इस बार लालाजी ने संदेश भिजवा दिया कि लाला जी मर गए और सोचा कि अब तो पंडित जी मुझे छोड़ कर चले जाएंगे।

जब पंडित जी को पता चला कि लालाजी तो मर गए तो कहने लगे, “भाई! मैं भी लालाजी के मृत शरीर को जलाने के लिए लकड़ी चड़ाऊंगा और उनका अंतिम संस्कार करके ही यहाँ से जाऊंगा”

अब लाला जी अपनी दो पाई बचाने के लिए शमशान में चिता पर लेट गए एवं अपने ऊपर लकड़ी का ढेर लगवा लिया। पंडित जी ने भी लालाजी की चिता पर लकड़ी चढ़ा दी एवं हाथ जोड़ कर विनती कि, “हे कंजूस लाला, मैं तुम्हें अपनी दो पाई से मुक्त करता हूँ।”

जैसे ही पंडित जी ने मुक्त करने की वाणी बोली तो लाला चिता से निकल कर खड़ा हो गया एवं घर वालों को सभी लकड़ियाँ चुन कर वापस घर लाने को कहा।

लाला जी ने अपनी तरकीब और प्रयासों से अपनी दो पाई बचा ली थी लेकिन पण्डित जी को अपनी यह हार हजम नहीं हो पा रही थी वो स्वयं को ठगा सा महसूस कर रहे थे।

पंडित जी ने कंजूस लाला को सबक सिखाने की योजना बनाई एवं लाला का रूप बना कर लाला के घर आ गया। लाला के वेश में पंडित जी ने सभी घर वालों को बताया कि वो पंडित मेरा वेश बना कर हमारे घर में आएगा, सभी मिल कर उसे सही सबक सिखाना एवं घर के बाहर फेंक देना।

थोड़ी देर बाद असली लाला जी घर आए तो सभी घर वालों ने उसको बहरूपिया समझ कर खूब मारा एवं घर से बाहर फेंक दिया। लाला रोता पीटता राजा के दरबार में जा पहुंचा एवं शिकायत की कि एक बहरूपिया मेरा रूप बनाकर मेरे घर में रह रहा है। मेरी सारी धन संपाति का मालिक बन गया और मुझे मेरे ही परिवार वाले बहरूपिया समझ कर घर में नहीं घुसने दे रहे, मैं तो लुट गया, कंगाल हो गया, मेरी सारी जीवन भर की कमाई का मालिक कोई दूसरा बन गया, मुझे न्याय चाहिए।

राजा ने शिकायत सुन कर लाला के सभी घर वालों को दरबार में बुला लिया एवं लाला और लाला के बहरूपिये पंडित दोनों से ही उस दिन तक के बारे में पूछा। लाला ने तो अपने जीवन की कुछ विशेष बातें बता दीं लेकिन पंडित बने लाला जी ने तो बचपन से तब तक की सभी साधारण व असाधारण बातें बता दीं।

राजा ने निर्णय लाला बने पंडित जी के हक में दिया और असली लाला को बेदखल कर दिया। बहरूपिया लाला की पूरी संपाति का मालिक बन गया और मालिक कंगाल होकर भीख मांगने लगा।

पंडित जी लाला के पास गए और कहने लगे, “लाला जी! आप मुझे दो पाई भी नहीं दे रहे थे, जिनको देने का आपने संकल्प भी छोड़ा था और वह भी गंगा जल हाथ में लेकर, लेकिन आज आपके पास आपकी जोड़ी हुई अपार धन संपाति में से कुछ भी नहीं है इसलिए मैं कहता हूँ जितना जोड़ोगे, उतना छोड़ोगे और जितना छोड़ोगे उससे कई गुना पाओगे।”

पंडित जी ने कहा, “मैं आपको दो वृतांत सुनाता हूँ,…… जब सुदामा अपने मित्र कृष्ण से मिलने द्वारका नगरी गया तो पोटली में थोड़े से चावल ले गया, लेकिन वह कृष्ण को चावल नहीं दे रहा था, पोटली छोड़ ही नहीं रहा था। कृष्ण को पता था कि जब तक सुदामा देगा नहीं तो मैं उसको कैसे दूंगा यानि जब तक छोड़ेगा नहीं तो उसको मिलेगा कैसे, अतः कृष्ण ने सुदामा के हाथ से चावल की पोटली ले ली और खोल कर चावल खाने लगे, अभी दो मुट्ठी चावल ही खाये थे कि रुक्मणी ने तीसरी मुट्ठी में चावल भरने से पहले ही कृष्ण का हाथ पकड़ लिया और बोली, “क्या तीनों लोक ही दे दोगे?”

क्योंकि रुक्मणी सब जानती थी और वही हुआ, सुदामा ने छोड़ा तभी उसको कई गुना मिला।

ऐसे ही द्रोपदी गंगा स्नान करने गयी तो वहाँ एक अंधा साधू स्नान कर रहा था जो अंधा होने के कारण गलती से महिला घाट पर चला आया और स्नान करने लगा।

द्रोपदी ने सोचा साधू महाराज स्नान कर के निकल आयें तो मैं स्नान करने जाऊँ, काफी समय बीत गया लेकिन साधू महाराज बाहर ही नहीं आ रहे थे, बल्कि और अंदर को जाने लगे। द्रोपदी को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ लेकिन शीघ्र ही वह जान गयी कि पानी के तेज धार में साधू का लंगोटा बह गया, यही कारण था कि साधू महाराज जल से बाहर नहीं आ रहे थे।

द्रोपदी को लगा कि ऐसे तो साधू महाराज जल से बाहर ही नहीं आएंगे और बीमार हो जाएंगे, हो सकता है बीमार होकर इनकी मृत्यु हो जाए तो द्रोपदी ने अपना चीर फाड़ कर जल धारा में फेंका जिससे साधू महाराज उसका लंगोट बनाकर पहन लें और जल धारा से बाहर आ जाएँ, लेकिन वह वस्त्र साधू महाराज तक पहुंचा ही नहीं। द्रोपदी बार बार कोशिश करती रही मगर साधू महाराज बार बार उस वस्त्र को पकड़ पाने में विफल हो रहे थे।

अब द्रोपदी के पास आखिरी चीर बचा था और इसको वह किसी भी तरह साधू महाराज के पास पहुंचाना चाह रही थी अतः उसने उस आखिरी चीर को एक लंबी लकड़ी के एक सिरे पर लपेट कर साधू महाराज को भेजा। साधू महाराज ने उस चीर का लंगोट बना कर पहा लिया और आशीर्वाद दिया कि जिस तरह आज तूने अपना चीर देकर मेरी इज्जत बचा ली, एक दिन जरूरत पड़ने पर कोई अपना चीर देकर तेरी इज्जत बचा लेगा। आशीर्वाद देकर साधू महाराज तो चले गए लेकिन उनका वह आशीर्वाद द्रोपदी को तब फलित हुआ जब दुर्योधन ने भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण करने की कोशिश की थी। द्रोपदी ने छोड़ा तो उसको भी कई गुना मिला, यह संसार का नियम है कि जितना जोड़ोगे उतना छोड़ोगे और जितना छोड़ोगे उससे कई गुना पाओगे।”

अब पंडित जी लाला जी से पूछने लगे, “लाला जी! आपने यह जो सारा धन जोड़ लिया इसको एक दिन तो छोड़ कर ही जाओगे, अगर इस धन को अभी से छोडना शुरू कर दो तो इसका कई गुना आपको आगे मिलेगा।”

लालाजी की समझ में बात आ गयी, पंडितजी वापस गंगा घाट चले गए और लालाजी सब कुछ दान करके भगत बन गए जिनको लोगों ने नरसी भगत कहा, वही नरसी भगत जिसके पास अपनी बहन के यहाँ भात देने को एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी, लेकिन जैसे ही वह भात देने के लिए चौकी पर चढ़ा तो पूरे नगर में सोने की बारिश होने लगी तब उसकी समझ में आया, “जोड़ोगे तो छोड़ोगे, छोड़ोगे तो जोड़ोगे।”