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रहमत चूड़ीवाला

परिचय

रिया शर्मा

जन्म - रानीखेत (उत्तराखंड) अब दिल्ली में स्थायी निवास

शिक्षा - बी एस सी, बी एड, एल एल बी

लेखन - कलरव, दृष्टिपात, आधारशिला, कथाबिंब, समाज कल्याण पत्रिका, जनसत्ता वार्षिक

अंक, मधुमती, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती आदि पत्रिकाओं में प्रकाशन

कहानी संग्रह - उम्र से लंबी सड़कें

संप्रति - प्रबंधक, स्वतंत्र लेखन

संपर्क - ,

दूरभाष - 9958381602

दिल्ली

रहमत चूड़ीवाला

"सतरंगी चूड़ियाँ ……"
"खनकती चूड़ियाँ ……"
"महबूब की चूड़ियाँ......... "

सप्ताह के किसी भी एक दिन अचानक सुनाई देने वाली इस संगीतमय आवाज़ पर घरों की जवान लड़कियाँ, सुहागन औरतें और बच्चे हाथ का काम वहीं पर छोड़ कर दौड़ी चली आतीं थीं।

"रहमत भाई रुको, आ रहें हैं।"

कह कर कुछ ही वक्त में न जाने कितनी ही औरतें रहमत को घेर लेती थीं। कभी वे छोटे बच्चों से उसे रुकने के लिए कहलवा देतीं थीं। बच्चे भी उसकी रंगबिरंगी चूड़ियों की पेटी को देखने के लिए खुशी से उछलते - कूदते दौड़े चले आते थे। और रहमत को जोर से आवाज देने लगते।

"रैमत बाबा…रुको...माँ को चूड़ियाँ पैन्नी हैं। जाना मत, माँ आ रही हैं। रुको…"

वे उसकी पेटी खुलवाने और उसमें झाँकने के चक्कर में फिर जल्दी से चिल्लाते हुए माँ को भी आवाज देने लगते।

"ओ माँ जल्दी से आ जाओ। रैमत बाबा रुक गए हैं।"

तब रहमत अपनी चूड़ियों की पेटी को जमीन पर रख कर वहीं पर बैठ जाता था। जब तक औरतें आना शुरू करतीं, सारे बच्चे उसे घेर लेते और उसकी पेटी के ऊपर लगे कांच से भीतर रखी चमचमाती हुई चूड़ियों को निहारते रहते। शीशे के ऊपर से ही उन पर उँगलियाँ रख कर बच्चे अपना -अपना रंग ज्ञान सुधारते।

"देख सोनी ये लाल वाली चूड़ियाँ कित्ती सुन्दर है। मेरी माँ ये वाली पहनेगी।"

"हाँ और मेरी अम्मी हरी वाली पहनेगी। दिख रही है न तुझे? वो वाली, जिस में चमचम लगी है।"

"देखना टिन्नू इनके नीचे सीटी और बॉल भी होगी। है ना रैमत बाबा?" सोनी उत्सुकता से बोला।

एक -दो बार बच्चों ने उसकी चूड़ियाँ देखने - दिखाने के चक्कर में उसकी पेटी के ऊपर इतनी जोर से दबाव डाल दिया था कि उसका शीशा ही चटक गया था। इसलिए अब रहमत उन्हें ऐसा करने पर टोक देता था।"बबुआ लोग चलो दूर से देखो। शीशा गंदा मत करो। इस पर हाथ रखोगे न, तो ये गंदा हो जाएगा। फिर तुम लोग चूड़ियाँ कैसे देखोगे?"

जब तक ग्राहक नहीं आ जाते थे वह कंधे पर लटके काले -सफ़ेद चेक वाले अंगोछे को उतार कर उससे पेटी का शीशा साफ़ करने लगता। पहले ग्राहक के आते ही रहमत पेटी खोलता और उनको सामान दिखाने लगता। छनकती, चमकती चूड़ियों से सारा माहौल जगमगा उठता था। चूड़ियों की सतरंगी आभा देख कर सभी औरतों के चेहरे पूर्णिमा के चाँद से खिल उठते थे।

"कितनी सुन्दर हैं। इस बार तू बहुत ही सुन्दर चूड़ियाँ लाया रहमत।"

औरतें हर बार की तरह अपना कथन दुहरा देतीं थीं। फिर कोई हरी चूड़ियाँ पहनती तो कोई लाल। किसी को नीला भाता तो किसी को आसमानी। कोई चमकदार लश्कारे वाली पहनती तो कोई सादी पाकीज़ा चूड़ियाँ। औरतें जानती हैं कि रहमत वाज़िब दाम लगाता है फिर भी उससे बेवजह मोलभाव और हंसी ठठ्ठा करती हुई खूब चहकती थीं। वे हाथ भर -भर कर चूड़ियाँ पहनती और साथ में सुहाग के नाम की मुफ्त की एक चूड़ी डलवाना कभी कोई सी औरत नहीं भूलतीं थीं।

रहमत की उसी पेटी के एक तरफ कोने में छोटी बच्चियों के लिए लाल -पीले रिबन, प्लास्टिक की प्यारी सी चूड़ियाँ और कंगन भी रखे होते थे। उनकी माँ जब चूड़ियाँ पहन लेतीं तो बेटियां भी अपने छोटे -छोटे हाथों को आगे बढ़ा देतीं। रहमत दुलार से नन्ही बच्चियों को पुचकारता और उन्हें भी कंगन पहना देता था। छोटे लड़के मात्र टकटकी लगाए ये सब कुछ देखते रहते थे। बालकों को बचपन से ही न जाने कैसे मालूम हो जाता है कि ये सब उनके लिए नहीं होता। ये लड़कियाँ ही पहनती हैं। कभी भी कोई बालक उनके लिए ज़िद नहीं करता था। परन्तु बालक रहमत से अन्य वस्तुओं के लिए फ़रियाद करते रहते थे।

"रैमत बाबा हमारे लिए सीटी लेकर क्यों नहीं आए? अगली बार ला दोगे? हैं.……ले आओगे क्या?…… हाँ बाबा?"

"हाँ और बॉल भी लाना और कंचे भी लाना।" बच्चे एक के बाद एक फरमाइश करते रहते।

"अगली बार गुड्डू, मुन्नू, पप्पू, सोनी, टिंकू सभी के लिए सामान लाऊंगा। जाओ अभी तुम सब बच्चे लोग उधर जाकर खेलो और मुझे चूड़ियाँ पहनाने दो।" रहमत बच्चों का मन रखने के लिए हामी भर देता था। परन्तु अपनी उस छोटी सी पिटारी में वह भला रखे भी तो क्या -क्या।

रहमत करीब पचास वर्ष का लम्बी -चौड़ी कद -काठी वाला व्यक्ति था। अचकन पायजामा उसका पहरावा था। जिसे सिर पर पहनी सफ़ेद रंग की छोटी गोल टोपी और गले में लटका काले -सफ़ेद चेक वाला अंगोछा पूरा कर देता था। उसके सांवले चेहरे पर उगी हुई लम्बी, काली -सफ़ेद दाढ़ी उसे उम्र से थोड़ा बड़ा दिखा देती थी। परन्तु हर तरह के व्यसन से दूर रहने से वह स्वस्थ्य और सजीला दिखता था। प्रेम और अपनेपन से बोलता हुआ रहमत सभी के साथ घुल -मिल कर बात करता था। दादी, बहनजी, माँजी, दीदी आदि कहता हुआ खूब खुशियां और आदर बिखेरता था। औरतें भी उसके इस व्यवहार और हंसमुख स्वभाव की वजह से उसे खासा पसंद करतीं थीं। कभी उसे आने में ज्यादा दिन हो जाते तो उसका इंतज़ार शुरू हो जाता और उसके आने पर वे तगादे करने लगतीं।
"क्यों रे रहमत बड़े दिन बाद दिखाई दिया। कहाँ रह गया था? कोई दिक्कत परेशानी थी या फिर दूसरे शहर - गांव की जनानियां ज्यादा चूड़ियाँ पहनतीं हैं?"

वह हँसता, मज़ाक करता हुआ उनकी सभी दलीलें खारिज़ करता रहता था। उसकी जीवन गाथा उन्हें तब मालूम हुई जब एक बार कभी किसी ने पूछ दिया था।

"रहमत बड़े दिन लगा कर आया इस बार। अपने वतन -गांव हो आया लगता है। सब ठीक तो हैं वहाँ पर?"

तब उस ने बताया था कि उसके पैदा होते ही उसकी अम्मी गुज़र गई थी। फिर जब वह ग्यारह वर्ष का होने को था, अब्बु भी इस दुनिया में उसे अकेला छोड़ कर चले गए। उसे अपना बचपना ठीक से याद नहीं था। कब, कैसे और किसके साथ वह हिन्दुस्तान की सरजमीं में आया। वह भी उसे ठीक से ध्यान नहीं। वह यहीं पला -बढ़ा और यहीं उसने अपनी ज़िंदगी बसर की है। इसलिए अब यही उसका वतन है। चूड़ियाँ बेचने से ही उसे बहुत अपनापन और एक बड़ा परिवार मिला है। बड़ी- बूढ़ियाँ उससे अपनापन रखते हुए उसे राय -मश्वरा देतीं रहतीं थीं।

"यूँ कब तक फेरी लगाता रहेगा रहमत? कहीं पर एक दुकान क्यों नहीं डाल लेता? फिर आराम से बैठ कर चूड़ियाँ बेचना। आखिर शरीर है, आज नहीं तो कल, वक्त और उम्र के साथ जब थकने लगेगा। तब क्या करेगा?"

"शादी करके घर -परिवार बसा ले। आखिर कोई तो हो अपना जिस के साथ दो घड़ी दुख -सुख बाँटें जाए।"

"अच्छा बीबी, आप लोग परेशान हो गए मुझसे? अरे इस तरह फेरी लगाने के बहाने मेरी कितनों से मेल -मुलाक़ात हो जाती है। आप सभी लोगों का प्रेम और अपनापन मुझे परिवार की कमी महसूस होने ही कहाँ देता है। मेरा परिवार इतना बड़ा है कि मिलते -मिलाते हँसते -गाते कुछ समय कट गया है और इसी तरह आगे का भी कट जाएगा। इसके सिवा मुझे और कुछ नहीं चाहिए। पीछे किसके लिए जोड़ना और किसके लिए छोड़ना? रमता जोगी और बहता पानी, ऐसा ही हाल है मेरा।"

औरतें उससे हमदर्दी जतातीं रहतीं और वह उनके स्नेह से प्रसन्न रहता था। लोग उसके बारे में बताते हैं कि बहुत पहले जब वह करीब बाईस वर्ष का था, तब दूसरे गांव की एक जवान विधवा स्त्री ललिता से उसे हमदर्दी हो गई थी। मासूम ललिता के ससुराल वाले उस पर बहुत जुल्म ढाते थे। छुपते -छुपाते दोनों सड़को और खेतों की पगडंडियों में चलते - टकराते एक -दूसरे को दिल दे बैठे थे। रूढ़िवादी समाज और जाति के भेद भाव के चलते हिन्दू विधवा औरत और मुसलमान रहमत का मिलन असंभव था। ये बात दोनों ही जानते थे।

मिलने पर कनखियों से एक -दूसरे को देख लेते थे। रहमत उसे चुपके से पैसे और खाने पहनने का थोड़ा बहुत सामान दे जाता था। और वह अपने बदरंग जीवन के ही तरह अपनी सफ़ेद बदरंग हो चुकी धोती के आँचल में छुपाकर उसके लिए कुछ पका -बना कर ले आती थी। विरह में दोनों तड़पते और आंसू बहाते थे। जब यह रिश्ता करीब वर्ष भर का हो गया। रहमत बहुत शिद्दत से उससे प्रेम करने लगा। उसने बहुत बार ललिता को समझाते हुए कहा था। "ललिता चल यहाँ से कहीं दूर निकल चलते हैं और वहीं चैन की ज़िंदगी बसर करेंगे।"

परन्तु ललिता डरती थी। वह अच्छी तरह जानती थी उसके ससुराल वाले दरोगा, पुलिस लोग अपनी ऊंची नाक के खातिर उन्हें कहीं से भी ढूंढ निकालेंगे और फिर उन्हें मौत ही नसीब होगी। उसने रहमत को समझाया।

"जाने दे रहमत प्रेम की जो चंद साँसें हमें मिली हैं उसे रब की दुआ समझ कर खुशी से जी लेते हैं। क्या मालूम ज़िंदगी कितनी और बची है।" ऐसा कहते हुए उसने रहमत की छाती पर अपना सिर टिका दिया था।

एक दिन उसे अथाह सम्पत्ति के वारिस की प्राप्ति के लिए जबरदस्ती संतान विहीन देवर के नाम की चुन्नी ओढ़ा दी गई। रोने -धोने और जुल्म सहन करने के अलावा उसके पास और कोई चारा नहीं रह गया था। रहमत की जान पर कोई संकट न आए इसलिए उसने अपने प्रेम की दुहाई देते हुए उससे वहाँ से दूर चले जाने की कसम ले ली। कहते हैं उसके बाद दो वर्ष तक रहमत को किसी ने नहीं देखा। अपने दुःख से उबर कर जब वह वापस आया तब वह इस चूड़ीवाले के नए रूप में आया। उसे जीने का मकसद मिल चुका था। उसने ललिता को पत्नी मान कर कभी किसी और से शादी न करने का फैसला कर लिया था। उसने मान लिया था कि जिस हाल मालिक रखना चाहे वही ठीक।

सभी ये भी कहते हैं कि आज भी वह अक्सर वेश बदल कर ललिता को देख भर आता है। ललिता भी अपनी घर -गृहस्थी और बाल बच्चों के बीच कभी - कभी उसके नाम के आंसू बहा लेती है। जुदा होकर भी प्रेम दोनों के दिलों में आज भी ज़िंदा है। बहुत पूछने पर भी वह हंस कर इस बात को पूरी तरह से नकार देता है। ये सच्चाई है या फिर कोई मनगढंत कहानी साफ़ तौर पर कोई नहीं जानता। ये या तो रहमत ही जानता है या फिर उसका ख़ुदा।

रहमत के पास चूड़ियाँ पहनाने का हुनर कमाल का था। हाथों की कौन सी हड्डी और कौन से जोड़ पर कितना दबाव डालना है, उसे खूब आता था। मुलायम,-खुरदुरे, बड़े - छोटे, मोटे- पतले हर हाथ पर ऐसी नफासत से चूड़ियाँ फिट बैठा देता कि देखने वाले दंग रह जाते थे। इतनी छोटी माप की चूड़ी आखिर उसने उनके हाथों में चढ़ाई किस तरह? उन्हें चढ़ाते वक्त मजाल उससे एक भी चूड़ी मैोल जाए। किसी का हड्डियों वाला सख्त हाथ देखता था तो दबता और जांच करता हुआ मश्वरा दे डालता था। "दीदी, ये देखो अब……कैसा सख्त हाथ हो रखा है? घर -गृहस्थी तो ज़िंदगी भर की हुई। काम - धंधों से निबट कर इन पर थोड़ा घी -तेल और बोरोलीन से मालिश कर लिया करो। देखो तो कैसे मर्दाना हाथ हो रखें हैं। जनानियों को जनानियों वाली लोच -लचक और नाज़ -नखरों से ही रहना चाहिए। तभी वे खूबसूरत लगतीं हैं।"

"तुझे कैसे पता है रे ये सब? तेरा न घर न जनानी। आया बड़ा।" औरतें शरमाते हुए झूठे रोष से कहतीं। तब मज़ाकिया अंदाज में वह ठहाका लगा कर फिर बोलता।

"मेरी बात मान जा बहना। श्रृंगार करना औरत का पहला शौक होना चाहिए। खूबसूरत, सजी, संवरी बीबी हो तो बाबू लोग घर का रास्ता नहीं भूलते।" वह भी हँस देता था।

औरतें उससे इस तरह का खूब हंसी -मज़ाक करतीं थीं। वे खिलखिलाती और उसमे बात जोड़तीं चली जातीं। जितनी देर वह सबको चूड़ियाँ पहनाता रहता उतनी देर माहौल में हंसी -ठहाके गूंजते रहते। वह बेहद खुशदिल इंसान था इसलिए औरतों का उसके साथ खूब दिल लगा रहता था। औरतें कभी उसे चाय पिला देतीं तो कभी खाना - पानी पूछ लेतीं और बातें करतीं हुई उससे इधर - उधर के किस्से -कहानियाँ भी सुन लेतीं थीं। शहर, क़स्बे, गाँव, बस्ती, मोहल्ले, गलियों आदि में घूमते, फेरी लगाते, अलग - अलग भाषा और सोच के लोगों से मिलते बतियाते अब तक उसे न जाने कितनी ही भाषाएँ आ गईं थीं। अब जितनी रंगबिरंगी उसके पास चूड़ियाँ थीं उतने ही उसके पास किस्से -कहानियाँ। वह बारी -बारी से उनको झिलमिलाती, खनकती चूड़ियाँ पहनाता जाता और लज़्ज़तदार किस्सों से सबका दिल बहलाता था। महिलाएं घर -गृहस्थी की रोजमर्रा की परेशानियों को कुछ समय के लिए भूल जातीं थीं। चूड़ियाँ पहनने के बहाने मिल बैठ लेती। आपस में बातें करतीं और हंसती - खिलखिलातीं। जितनी देर रहमत चूड़ियाँ पहनता, उतनी देर वहाँ पर रौनकें बरसतीं थीं। जब तक कोई बड़ी -बुजुर्ग उन्हें टोक नहीं देतीं, तब तक वे रहमत को छेड़तीं रहतीं थीं ।

"रहमत तभी तो कह रहें हैं। तू अब भी शादी कर ले। जब तू दिन -भर फेरी लगा कर शाम को थक -हार कर घर पहुंचेगा, तब वह खूब सज -संवर कर तुझे तेरे इंतज़ार में बैठी मिलेगी।"

"फिर तो रहमत अपनी बेगम के आस -पास ही मंडराता रहेगा।" दुसरी औरत कहती।

"हो गई रहमत फिर तो तेरी दुकानदारी।" कोई अन्य बोलती।

जब से वह जवान हुआ है तभी से उसके प्रति हमदर्दी रखतीं बुजुर्ग औरतें आज तक उससे कहतीं रहतीं हैं। "घर बसा ले बेटा। कब तक इस तरह भटकता रहेगा?"

तब वह अपने को बचाता हुआ कहता। "कौन करेगा मुझ खानाबदोश से निकाह माता जी? न घर न ठौर न ठिकाना। मस्त मलंग रहता हूँ। न कोई आगे न पीछे।"

उसकी इस बात पर चुहल करती हुई औरतें उससे कहतीं। "अरे रहमत भाई इसमें कौन सी बड़ी दिक्कत है। चूड़ियाँ पहनाते हुए कोई नाज़ुक सी कलाई थाम ले। तू आज भी देखने -भालने में घना अच्छा है। तुझे भला क्या कमी है? घरवाली आ जाएगी तो घर भी बस जाएगा और ठौर -ठिकाने का भी आसरा हो जाएगा।"

वह घबरा कर जीभ निकाल कर झट से कानों को हाथ लगा कर कहता। "ना बहनजी। ये सब कभी नहीं कर सकूँगा। ऐसा ख़याल भी आने से मुझे मरने के बाद दोज़ख में जगह मिलेगी। ऊपर बैठे उस मालिक को क्या मुँह दिखाऊँगा? कहेंगे रहमत तू बदनीयत होकर चूड़ियाँ पहनाता रहा? तुझे दोजख की आग में जलना होगा।"

उस दिन जब शहर में दंगे भड़के थे तब औरतें चिन्तावश उसे सलामती की बातें समझाने लगीं थीं। "रहमत ध्यान रखा कर अपना। वक्त रहते देख -भाल कर घर पहुँच जाया कर। देर शाम को और रात अंधेरों में बाहर क्यों निकलना हुआ। बेकार हुआ सब। इन मरे दंगाईयों का कोई दीन - ईमान तो होता नहीं है। कमबख्त जब देखो लड़ने -मरने पर उतारू रहते हैं। खामख्वाह तुझे और फँसा देंगे। मार -मूर कर कहीं नाले में फेंक देंगे। तू इनसे बच कर रहा कर।"

हमेशा हँसने - मुस्कुराने वाला रहमत इस बात पर संज़ीदा हो जाता और शांत होकर कहता था। "मैं किसी को क्या कर रहा हूँ जो मेरी जान आफत में आएगी? फिर इस तरह जान चली भी जाए तो कोई गम नहीं। इस मुल्क ने मुझे बहुत वर्षों से रोटी और आसरा दिया है। मेरी किसी कुर्बानी से यदि दंगाइयों की आँखें खुल सकें, इनके भीतर का अन्धेरा मिट जाए, इन्हें नज़र आ जाए कि सभी के लहू का रंग लाल ही होता है, तो मैं अपने आप को धन्य समझुँगा। नेक मकसद के लिए कुर्बान हो जाऊं इससे अच्छी मौत और कुछ नहीं। रोज़ ऊपरवाले से दुआ करता हूँ। या अल्लाह इन दहशतगर्दों की आँखों का अन्धेरा दूर कर। इस मुल्क में सभी भाई -चारे से रहें। अमन चैन से रहें।"

कहता हुआ वह सज़दे में झुक जाता है। फिर सिर उठा कर अपनी नम आँखों से ऊपर आकाश की तरफ देखता है और दुआ में हाथ ऊपर उठा कर बुदबुदाते हुए कहता है। "मेरे मौला सब पर रहम करना। सुकून और दुआ बरसाना……आमीन "

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