Chinhat ki ladai aur Rejidensi ki gherabandi books and stories free download online pdf in Hindi

चिनहट की लड़ाई और रेज़िडेंसी की घेराबंदी

Untold war stories

चिनहट की लड़ाई और रेज़िडेंसी की घेराबंदी

आशीष कुमार त्रिवेदी

व्यापार करने के इरादे से भारत आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे धीरे इस देश पर अपना आधिपत्य जमाना आरंभ कर दिया। सन 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हरा कर अंग्रेज़ों ने हमारे देश पर अपने राज की शुरुआत कर दी।

उसके बाद उन्होंने भारत की अन्य रियासतों पर कब्ज़ा करना आरंभ कर दिया। मुगलों की शक्ति में धीरे धीरे ह्रास हो रहा था। इस कारण भारत के उत्तर में स्थित अवध की रियासत मुगल शासन के प्रभाव से मुक्त होकर एक संपन्न रियासत बन गई थी। कलकत्ता में स्थित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की निगाहें बहुत समय से अवध की रियासत पर जमी हुई थीं। सन 1856 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अवध की रियासत पर कब्ज़ा कर उसके नवाब वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर कलकत्ता भेज दिया।

वाजिद अली शाह अपनी रंगीन मिजाज़ी के कारण रंगीले पिया के नाम से मशहूर थे। उन्हें गीत संगीत का बहुत शौक था। यद्यपि वह एक दयालु और उदार शासक थे। उन्होंने अपनी रियाया की भलाई के बहुत से काम किए थे। लेकिन अंग्रेज़ों ने उन्हें एक विलासी शासक के तौर पर विख्यात कर दिया। इसका लाभ उठा कर उन्होंने अवध की रियासत पर अधिकार कर लिया।

अवध की प्रजा अंग्रेज़ों के इस फैसले से खुश नहीं थी। जनता में अंग्रेज़ों के लिए अविश्वास का भाव बढ़ रहा था। उन्हें लगता था कि अंग्रेज़ उनके धर्म और परंपराओं को समाप्त करना चाहते हैं। वह उनके पुरखों की विरासत को खत्म कर अपनी सभ्यता उन पर लादना चाहते हैं। अतः लोगों के भीतर अंग्रेज़ों के लिए गुस्सा पनपने लगा था। वजिद अली शाह ने अवध छोड़ते हुए कहा था।

''दरो दीवार पे हसरत से नजर करते हैं।

खुश रहो अहलेवतन हम तो सफर करते हैं।''

लेकिन उनकी प्रजा कंपनी के राज से खुश नहीं थी। उनके दिलों में अपने नए शासकों को लेकर बहुत अधिक असंतोष था। अवध के कंपनी राज में विलय के कारण नवाबी राज के कई अधिकारी सत्ताहीन हो गए थे। महाजनों व दुकानदारों पर भी इसकी आँच आई। उनका कारोबार चौपट होने लगा। यही नहीं नवाबी फौज को भंग करने के कारण बहुत से सैनिक बेरोजगार हो गए। नतीजतन असमाजिक तत्वों ने सर उठाना शुरू कर दिया।

नए राज की न्याय व्वस्था से भी जनता नाखुश थी। न्याय पाने के लिए विभिन्न स्तर के न्यायालयों से गुजरना, कानून की पेचीदगी तथा न्याय व्वस्था से संबंधित अधिकारियों के दंभपूर्ण व्यवहार जनता के लिए असह्य थे।

कंपनी शासन में अनेक प्रकार के कर लगाए गए। इन करों के कारण लोगों के जरूरत की वस्तुओं की कीमतें बहुत बढ़ गईं। इसने प्रजा का जीवन बहुत कष्टमय बना दिया। कंपनी सरकार का उद्देश्य भारत को लूटना और इंग्लैंड को समृद्ध करना था।

अंग्रेज़ों ने अच्छी अच्छी इमारतों पर कब्ज़ा कर उन्हें अपने लिए प्रयोग करना आरंभ कर दिया। कहीं अंग्रेज़ अफसर रहते थे। कहीं उनके घोड़ों के अस्तबल थे तो कहीं अंग्रेज़ी सेना का निवास था। हर स्थान पर फौज की मौजूदगी से आम जनता त्रस्त व डरी हुई रहती थी।

आम जनता में दिन पर दिन अंग्रेज़ों के लिए गुस्सा बढ़ रहा था। जो कभी भी ज्वालामुखी की तरह फट सकता था। अंदर ही अंदर लोग अंग्रेज़ों को बाहर करने के लिए योजनाएं बना रहे थे। आम जनता अंग्रेज़ी अधिकारियों को अपना आका नहीं बल्कि दुश्मन समझती थी। वह चाहते थे कि अंग्रेज़ों को हटा कर नवाब के वंश के किसी व्यक्ति को तख्त पर बिठा दिया जाए।

अंग्रेज़ी सेना में काम करने वाले भारतीय सिपाहियों में भी अंग्रेज़ों के लिए नाराज़गी पनप रही थी। इन सिपाहियों का मानना था कि अंग्रज़ हुकूमत उन्हें उनके धर्म से भ्रष्ट करना चाहती है। खबर यह थी कि उन्हें जो कारतूस प्रयोग के लिए दिए जाते हैं उनमें गाय तथा सुअर की चर्बी लगी होती है। सिपाहियों को इन कारतूसों को अपने दांतों से काटकर इस्तेमाल करना होता था। सिपाहियों का मानना था कि जानबूझकर अंग्रेज़ यह हरकत कर रहे हैं। अतः उनके दिलों में विद्रोह की चिंगारी भड़क रही थी। जो कभी भी एक दावानल बन सकती थी।

आखिरकार 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में बगावत की आग भड़क उठी। उसके बाद तो कई छावनियों में बगावत आरंभ हो गई। यह आग दिन पर दिन बढ़ने लगी। कई जगह अंग्रेज़ी सेना में काम करने वाले सिपाहियों ने हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया।

अंग्रेज़ी हुकूमत ने भी इस बगावत को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिन पर दिन माहौल गर्माता जा रहा था। अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ आम जनता में भी बगावत की चिंगारियां भड़कने लगीं। हर कोई अंग्रेज़ों को खदेड़ कर भगा देना चाहता था।

बगावत की आग देश के कई हिस्सों में जल रही थी। मेरठ, दिल्ली अवध के कई हिस्से अंग्रेज़ी हुकूमत से मुक्त हो चुके थे। उस समय अवध की राजधानी भी इससे अछूती नहीं थी। ईद के दिन अंग्रेज़ों को लखनऊ में कुछ गड़बड़ी होने की आशंका थी।

अवध में अंग्रेज़ों का प्रमुख आयुक्त सर हेनरी लॉरेंस बहुत ही दूरदर्शी व्यक्ति था। वह सतर्क हो गया उसने मच्छी भवन का किला मरम्त करवा कर युद्ध करने के लायक बना दिया। उसने रेज़िडेंसी में अंग्रेज़ों के छिप सकने की व्वस्था करनी आरंभ कर दी। कई दिनों तक काम चलाया जा सके इसके लिए रसद एकत्र करना आरंभ कर दिया। आसपास के जिलों के डरे हुए अंग्रेज़ अधिकारी आकर रेज़िडेंसी में शरण लेने लगे।

आवश्यक्ता पड़ने पर बागियों से लोहा लिया जा सके इसके लिए हेनरी लॉरेंस ने गोला बारूद और अन्य असलहा इकट्ठा करना शुरू कर दिया। आसपास की कई इमारतों को गिरा दिया गया। पेड़ों को काटकर मैदान बनाया गया ताकि तोपों को लाया जा सके।

भारतीय सिपाही भी पूरी तैयारी में थे। योजना के अनुसार 30 मई को रात 9 बजे तोप के दगते ही हाजिरी के लिए परेड में उपस्थित 71 वीं पसटन के लाइट कंपनी के सिपाहियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। लगभग 40 लोगों की एक टोली भोजनालय की तरफ बढ़ी। 7वीं लाइट घुड़सवारों की एक टुकड़ी फाटक को भी घेर लिया। किंतु सारे अफसर पहले ही सावधान हो गए थे। वे सब भोजनालय छोड़ कर चले गए थे।

हेनरी ने तोपों से हमला शुरू कर दिया। साधारण हथियारों वाले सैनिक इस हमले के सामने ठहर नहीं सके। वह भाग खड़े हुए। हेनरी ने इन विद्रोहियों को पकड़वाने के लिए ईनाम की घोषणा कर दी। कई विद्रोही पकड़े गए व कई मारे गए।

30 मई को लखनऊ में जो बगावत शुरू हुई वह अवध के कई हिस्सों में फैल गई। सीतापुर, मुहम्मदी, औरंगाबाद,, गोंडा, बहराइच, मल्लापुर, फैजाबाद, सुल्तानपुर, सलोन, बेगमगंज दरियाबाद आदि कई स्थानों पर अंग्रेज़ अधिकारियों उनकी स्त्रियों व बच्चों को लोगों के क्रोध का सामना करना पड़ा। अवध की राजधानी लखनऊ को छोड़ कर उसके कई हिस्सों को कंपनी राज से मुक्त करा लिया गया था।

10 मई से अंग्रेज़ों की डाक सेवा बंद थी किंतु उनके जासूसों के माध्यम से उन्हें जो समाचार मिल रहे थे वे अच्छे नहीं थे। इन सब के बीच 25 जून को अंग्रेज़ों को एक अच्छी खबर हाथ लगी। अलीरज़ा खान जो कभी वाजिद अली शाह के विश्वासपात्रों में गिना जाता था ने कंपनी राज होते ही अपनी वफादारी बदल दी। ईनाम के तौर पर उसे डिप्टी कलेक्टर बना दिया गया। उसने फाइनेंस कमिश्नर मार्टिन गबिन्स को कैसरबाग के गुप्त शाही खजाने का पता बता दिया। त्वरित कार्यवाही करते हुए मेजर बैक्स ने फौज के साथ जाकर उस स्थान को घेर लिया। अंग्रेज़ों ने एक बेशकीमती खजाना लूट लिया।

29 जून को हेनरी को यह खबर मिली की विद्रोहियों की एक सेना लखनऊ से लगभग 6 मील दूर चिनहट नामक स्थान पर आकर रुकी है। उस समय हेनरी का स्वास्थ अच्था नहीं था। फिर भी 30 जून को सुबह के समय उसने 32 रेजिमेंट ऑफ फूट की तीन टुकड़ियों, 13 नेटिव इनफैंट्री की कुछ टुकड़ियों, सिक्खों की एक छोटी सेना तथा अन्य टुकड़ियों के साथ फैज़ाबाद मार्ग की तरफ कूच किया। उसकी धारणा थी कि वह कोई छोटी सी सेना होगी जिसे लखनऊ में प्रवेश करने से पूर्व ही रोक लिया जाएगा।

किंतु हेनरी की यह धारणा गलत थी। इस्माइलगंज के पास जैसे ही वह कुकरैल पुल पर चढ़े अचानक आम के पेंड़ के पीछे छिपे सिपाहियों ने उन पर हमला कर दिया। यह विद्रोहियों की एक बड़ी सेना थी। इस सेना में अंग्रेज़ी सेना के बागी सिपाही, कुछ ज़मींदार तथा अन्य लोग थे। इस सेना का नेत्रत्व बरकत अहमद कर रहा था। बरकत अंग्रेज़ी सेना में सिपाही रह चुका था। उसे युद्ध कौशल का अच्छा ज्ञान था। सभी विद्रोही अंग्रज़ों के दांत खट्टे करने के लिए कमर कसे हुए थे।

यह हिंदुओं और मुसलमानों का एक बड़ा जनसमूह था। सभी अंग्रेज़ों से अपनी मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए एकजुट थे। मुहम्मदी तथा महावीर की पताकाएं फहरा रही थीं। 'या अली' और 'जय बजरंग बली' के उद्घोष से वातावरण आंदोलित था। अंग्रेज़ों को अपनी एकता दिखाने के लिए नारे लग रहे थे।

"एक पिता की दुई संतान।

एक हिंदू एक मुसलमान।"

अचानक इस हमले से अंग्रेज़ बुरी तरह घिर गए थे। दिन चढ़ने के साथ साथ जून की धूप ने कहर ढाना शुरू कर दिया। तादाद का सही अनुमान ना होने के कारण अंग्रेज़ी सेना सही तैयारी के साथ नहीं आई थी। सैनिक भूख और प्यास से त्रस्त थे। गर्म हवाओं ने भी कई सिपाहियों को बेदम कर दिया था। अंग्रेज़ी सेना के पांव बुरी तरह उखड़ चुके थे। अंग्रेज़ों के कई सिपाही मारे गए। अंग्रेज़ी सेना के कई सिपाही टूट कर बागियों के साथ मिल गए। यह एक बहुत बुरी हार थी। ऐसे में हेनरी को लगा कि वापस लौटना ही समझदारी का काम है। वह अपनी सेना के साथ पीछे हटने लगा।

अंग्रेज़ी सेना के कुछ सिपाही कुकरैल के पुल के एक छोर पर डट कर विद्रोही सेना का मुकाबला करने लगे। इसने हेनरी को बाकी बची फौज के साथ वापस लौटने का मौका प्रदान किया।

चिनहट के इस युद्ध में भारतीय विद्रोहियों ने अदम्य साहस दिखाया। धर्म व जाति के भेद को मिटा कर सबने एकजुट होकर अंग्रेज़ी सेना से लोहा लिया। कई वीरों ने इसमें अपनी शहादत दी। इस युद्ध ने यह साबित कर दिया कि यदि भारतीय एकजुट हो जाएं तो अंग्रज़ों को इस मुल्क से बाहर कर सकते हैं।

हेनरी वापस लौट कर रेज़िडेंसी की सुरक्षा में जुट गई। क्योंकी विद्रोही सेना अब लखनऊ में प्रवेश कर रही थी। अब अंग्रेज़ी सेना के कई और सिपाही और आमजन भी उनके साथ शामिल हो गए। वह सब रेज़िडेंसी का घेराव करने के लिए आगे बढ़ने लगे।

आगे बढ़ते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी सेना को खदेड़ना शुरू किया। अंग्रेज़ भागकर रेज़िडेंसी में छुप गए। विद्रोही सेना ने रेज़िडेंसी को चारों तरफ से घेर लिया। उसके आसपास की इमारतों पर कब्ज़ा कर वह रेज़िडेंसी पर गोलियां बरसाने लगे।

इसी तरह मच्छी भवन के किले को भी बागी सैनिकों ने घेर लिया। यहाँ भी अंग्रेज़ों व विद्रोहियों के बीच लड़ाई हुई। मच्छी भवन में बहुत सा गोला बारूद, असलहा एवं कई अंग्रेज़ औरतें और बच्चे थे।

हेनरी ने गुप्त रूप से वहाँ मौजूद कर्नल पामर को संदेश भिजवाया कि वह आधी रात के बाद चुपचाप वहाँ मौजूद लोगों, खजाने तथा अन्य आवश्यक सामान के साथ रेज़िडेंसी चला आए। आते हुए वहाँ मौजूद गोला बारूद को आग लगा दे। कर्नल पामर ने सबको सुरक्षित निकाल कर वहाँ आग लगा दी। मच्छी भवन जल कर नष्ट हो गया। धमाके का लाभ उठा कर अंग्रेज़ निकल गए।

अगले दिन 1 जुलाई को अहमदुल्लाह के नेतृत्व में रेज़िडेंसी पर तोपों से हमला हुआ। तोप के एक गोले से हेनरी बुरी तरह घायल हो गया। 4 जुलाई को उसकी मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पहले तक हेनरी अपने लोगों की रक्षा के विषय में ही सोंचते रहे।

इधर बागी सेना सही नेत्रत्व ना मिलने के कारण उद्दंड हो गई। उन्होंने लूटपाट शुरू कर दी। उन्हें सही राह दिखाने वाला कोई नहीं था। उस समय यदि कोई नेत्रत्व देता तो उनके उत्साह और जोश का प्रयोग कर अंग्रेज़ों को सदा के लिए अवध से बाहर कर देता। किंतु ना तो मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर उन्हें सही दिशा देने की स्थिति में थे और ना ही अवध में कोई और। वाजिद अली शाह की पत्नी बेगम हजरत महल ने भी अपनी तरफ से कोशिशें की लेकिन सफल ना हो सकीं। यही कारण रहा कि चिनहट में मिली इतनी बड़ी जीत भी सही परिणाम नहीं ला सकी। कुछ ही महीनों में अंग्रेज़ों ने रेज़िडेंसी की घेराबंदी को तोड़ दिया।

चिनहट में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ा गया युद्ध एक निर्णायक युद्ध था। 19 वीं सदी में अंग्रेज़ किसी से हारे नहीं थे। उन्होंने वॉटरलू के युद्ध में नेपोलियन को भी शिकस्त दी थी। इस युद्ध में अजेय समझी जाने वाली अंग्रेज़ी सेना को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी। चिनहट की लड़ाई 1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ी गई प्रमुख लड़ाइयों में सबसे महत्वपूर्ण है। इसके बाद ही सैनिकों ने लखनऊ में प्रवेश कर रेज़िडेंसी को घेर लिया।

अंग्रेज़ों ने स्वयं को मिली शर्मनाक हार को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारतीय विद्रोहियों के साहस और बलिदान को नकारने का यह एक बहुत ओछा प्रयास था। यही कारण है कि इतिहास में चिनहट की लड़ाई का कोई विस्तृत ब्यौरा नहीं मिलता है।

चिनहट के युद्ध में अंग्रेज़ों को हिंदू और मुसलमानों की एकता और उसकी शक्ति का अनुमान हो गया था। अतः इसके बाद उन्होंने इस एकता तोड़ने के प्रयास किए। दोनों समुदाय उनकी चाल में फंस गए। आपसी मनमुटाव के कारण उनकी शक्ति भी बंट कर क्षीण हो गई। अंग्रेज़ों ने इसका पूरा लाभ उठाया।

कई ऐसे वीर योद्धाओं ने चिनहट के युद्ध में अपने प्राणों का बलिदान दिया जिनके बारे में आज कोई जानता भी नहीं है। चिनहट के युद्ध में जान की बाज़ी लगाने वाले केवल वर्चस्व की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। वह तो अपनी अस्मिता, अपनी विरासत की रक्षा और सबसे ऊपर अपनी मातृभूमि की गरिमा की लड़ाई लड़ रहे थे।

आज जब हम एक स्वतंत्र राष्ट्र हैं तब हमारा यह कर्तव्य है कि इतिहास में कहीं खो गए ऐसे वीर योद्धाओं को याद कर उनके प्रति अपना आभार प्रकट करें।

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