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गलीज़ ज़िंदगी

गलीज़ ज़िंदगी

"कमबख्त इस साल सरदी जान लेकर ही जाएगी।" ठण्ड के अहसास से अपनी गुदड़ी में लिपटा शिवा कुनमुनाया। उसकी नींद उचट गई। वह अलसाये क़दमों से उठा और झुग्गी के चरमराते दरवाजे को थोड़ा सा उड़क कर बाहर झांका। सब तरफ नीम अंधेरा और सन्नाटा पसरा हुआ था। कहीं से चिड़िया की चूं -चा तक नहीं हो रही थी। दरवाजा भेड़ कर वह अपनी गुदड़ी में लिपट कर फिर लेट गया।

"कितने बज गए होंगे? अभी तक चिड़ियाँ भी नहीं जगीं। शायद तीन बजे के आस -पास का समय होगा। आह ! कितनी लंबी जिन्दगी..कितनी लंबी रात।" कहते हुए करवट बदल कर उसने फिर लेटने का उपक्रम किया। नींद उससे कोसों दूर थी।

दूर कहीं से रामफल चौकीदार की सीटी बजने की और डंडा पटकने की आवाज उसे अपने करीब आती हुयी लगी। उसे कुछ राहत मिली। 'चलो अच्छा है कोई तो है जो मेरे साथ जगा हुआ है। उसी से टेम पूछ लेता हूँ।' सोचते हुए वह उठा और फिर झुग्गी का दरवाजा उघाड़ कर खड़ा हो गया। पूस की बर्फ सी रात। शीत लहर का एक झोंका उसे भीतर तक चीरता चला गया। ऊपर आकाश के आँचल में में भोर का तारा अब भी दिपदिपा रहा था।

"रामफल भय्या...कहाँ तक फेरी डाल आये?"

"अबे तू अभी से क्यों उठ गया ? काम न धाम, सोता क्यों नहीं चैन से....ऐं ?" बदन पर लबादे सा खाकी कोट और मफलर से आधे मुंह को ढके हुए वह वितृष्णा से बोला। भिखारी और वितृष्णा के भाव का अज़ीब साथ होता है। चोली -दामन का साथ। कभी -कभी दया का कोई उड़ता हुआ छींटा उन पर गिर जाता है किन्तु अक्सर...

"टेम बता देते भय्या कितना बजा होगा ?"

"साढ़े तीन बजा है। क्यों ठण्ड में मरने सड़क के चौराहे पर चला आता है? तेरी कौन सी सरकारी नौकरी है। अपना काम है, जब मर्जी तब उठ। चल जाकर सो जा। एक हम हैं...खबीस से...निसाचर..सस्याला ये भी कोई जिन्दगि हुयी..." एक गाली हवा में उछालता और अपना मफलर कसता हुआ वह आगे बढ़ गया। शिवा ने झट से किवाड़ ढका और वापस फिर लेट गया। 'अपना काम..हुह...उसके ऐसे भाग कहाँ कि अपना कोई इज़्ज़तदार काम कर सके, चैन से सो सके। पास में फूटी कौड़ी नहीं, अपना काम..' अपने आप से खीजा हुआ वह बुदबुदाया। उसके बाद नींद ने न आना था तो नहीं आयी। ' कितनी जिन्दगी कट गई। कितने दिन ऐसे और पाप काटेगा वह? जब से होश संभाला कभी चैन और सुख की रोटी नसीब नहीं हुयी...औघड़ बाबा भी नहीं पसीजे कभी। अब मेरे दिन कब पलटेंगे बाबा ?' आँखों की कोर से अप्रिय यादें बहने लगीं।

उसने जब होश संभाला अपने आप को चाचा के घर में चाकरी करते पाया। वहीं उसे मालूम पड़ा कि उसका नसेड़ी बाप उसकी बीमार माँ को छोड़ कर बहुत पहले कहीं अलोप हो गया था। फिर मालूम पड़ा कि किसी अन्य औरत के साथ घर बसा कर एक दूसरे को कूटते -चाटते उन दोनों ने कई औलादें पैदा कर लीं थीं। कुछ भुखमरी से मर गई और कुछ कीड़े -मकोड़े सी जिंदगी जीने के लिए ज़िंदा रही। उसके पांच वर्ष के होने तक माँ का शरीर भोजन और दवा के अभाव से ज़र्ज़र हो चुका था। एक दिन उसके बेऔलाद चाचा -चाची के पास उसे छोड़ कर उसने हाथ जोड़े थे। "भगबान के लिए इस नन्हे को अपनी औलाद समझ कर पाल लेना। मेरी आत्मा तुम दोनों को दुआ देगी लाला जी।" चाचा ताना देते हुए कई बार इस बात को दोहरा देता था। "खुद जब पेड़ से लटकी थी तो पहले तुझे जहर दे देती। मेरी जान को आफत डाल गई..." सच्चाई जो भी हो लेकिन इस तरह के रिश्ते में वह हलकान ही हुआ। दोनों चाचा -चाची बला के निर्दयी और पत्थर दिल। तभी शायद औघड़ बाबा ने उन्हें कोई औलाद नहीं दी।

"मुझ में से कभी एक पत्थर का सिल तक नहीं जन्मा। चूहे का बच्चा तक नहीं।" अवसाद से भरी चाची इस तरह का अनर्गल वार्तालाप करती रहती थी। बात -बेबात डांट, दुत्कार और मार खाने का आदी वह बचपन से ही हो गया था।

"अभी तक पसरा हुआ है ? ठकुराइन के यहाँ बर्तन धोने तेरा बाप जाएगा ?" कहती हुयी चाची उसे भोर में उठा कर काम से भेज देती थी। दस मिनट तक नंगे पैरों चलते हुए उसकी नींद खुलती थी। कोठी में सुबह हुयी भी नहीं होती थी। वह बंद दरवाजे पर बैठा फिर से ऊंघता हुआ दरवाजा खुलने का इन्तजार करने लगता था। घण्टी बजाये तो मार पड़े 'नींद खराब करता है' और न बजाये तो दुत्कार 'कब से बैठा है दरवाजे पर कामचोर, बताया क्यों नहीं ?' उसकी समझ में नहीं आता था आखिर उसे करना क्या था? उन्हें कैसे बताना था ?

खाना आधा पेट और काम जरुरत से ज्यादा। 'शिवा ये कर दे, वो किया कि नहीं ? बाजार से ये ले आ, जल्दी से वो काम कर आ आदि। उस दौरान कितने ही नामों से उसका नामकरण हुआ था। बताने वाले कहते हैं माँ ने शिव की आराधना से उसे पाया था इसलिए शिवा कहा। लेकिन समाज और रिश्तेदारों ने हरामखोर, कामचोर, हरामी, चोर, करमजले, अभागे और भी न जाने कितने संबोधनों से नवाज़ा। मासूम शिवा पूरे दिन दौड़ता, हलकान होता रहता था। इसी तरह भूख से बेहाल होते, दौड़ते, भागते, गिरते, मार खाते वह सात साल का हो गया। कितना भी त्रासद जीवन बिताया हो। जीवित रहे तो बड़े सभी हो जातें हैं।

"खुद लटक गई, इस हरामजादे को भी ले जाती। हम बेऔलाद थे तो क्या हुआ इस तरह बोझ की तरह परायी औलाद को छाती पर बैठाये रखो। नासपीटे तू..." कभी उसकी छोटी सी गलती पर चाची अपना माथा ठोकती।

"खाना देती नहीं है बस काम कराती रहती है। जल्लाद औरत...." उसे पता था रोज की तरह खाना मांगने पर सोटे, झाड़ू से खूब मार पड़ेगी। तब कहीं एक बासी रोटी कुत्ते की तरह उसके आगे डाल दी जाएगी। उस दिन भूख से बिलखते हिम्मत करके उसने दो रोटियां कटोरदान से निकाली और दूर जाते हुए जवाब दिया।

"हाय ! अब देखो हरामखोर को, अब यही सुनना बाकी था। ठहर तू आज तेरी हड्डियां न तोड़ दीं मैंने तो अपने बाप की जाई नहीं...पिद्दे भर का छोकरा, मुझे आँखें दिखायेगा.." गुस्से से उफनते हुए चाची ने चूल्हे से धधकती जली लकड़ी उठाई और ताड़का रूप धारण कर लिया। उसकी ज़ुबान लगातार लावा उगल रही थी। वह उसके पीछे दहाड़ती हुयी लपकी। 'उस दिन चाची साक्छात कालिका मैय्या लग रही थी, जमदूत सी। उस दिन मैं उस औरत के हाथ आ जाता न तो मेरी मौत पक्की थी।' एक दिन अपनी कहानी सुनाते हुए उसने लछमन से कहा था।

चाची के डर से लगाई गई उस दिन की दौड़ उसके लिए मैराथन साबित हुयी। दौड़ते, हांफते उसने एक बार गांव की सीमा पार की तो फिर पलट नहीं सका। न उसे गांव का रास्ता याद रहा और न ही नाम -पता।" फिर तो धूल, धक्कड़, फाके -मस्ती में दिन गुजरने लगे। तब सोचा था इतने बुरे भाग भी कब तक रहेंगे कभी तो दिन पलटेंगे। अच्छे -बुरे दिन सभी की जिन्दगी में आते हैं, मेरे भी आएंगे। पर भय्या लछमन गज्ज्ज्ब हुआ। मेरे दिन नहीं पलटे तो कभी नहीं पलटे। साला... भीख मांगते ही कट गई सारी जिन्दगी। रहा मैं कंगाल का कंगाल ही।"

"हाँ सिबा, करम के लेख से बढ़ कर कुछ नहीं। होगा वही जो यहाँ लिखा -धरा हो।" लछमन ने माथे पर तर्जनी फेरते हुए कहा। और अपने फटे कंबल में दुबक गया।

चालीस की उम्र हो चली थी। तन और मन से टूटे हुए व्यक्ति पर बुढापा जल्द काबिज़ हो जाता है। शिवा को सभी उसकी सफ़ेद दाढी और झुके कंधों की वजह से बाबा कहते थे। उसके शांत स्वभाव और मौन रहने की वजह से लोग उसके प्रति दयावान रहते थे। सुबह आठ बजे के आस -पास जब सबके स्कूल -ऑफिस जाने का वक्त होता वह रूखा -सूखा जो बन पड़ता बना -खा कर उस चौराहे पर करमा मोची के ठीये के पास बैठ जाता। अपना वही ऐलुमिनियम का मग सामने रख देता। जिसमें एक त्रिशूल हमेशा रखा रहता था।

"तू औघड़ शिव भोले की भक्ति कर शिवा तेरे सारे पाप कट जायेंगे। तेरे पास खूब धन -दौलत आ जाएगी तो दलिद्दर के दिन भी नहीं रहेंगे। तू चल मेरे साथ। हरि के द्वार।" यूँ ही भटकते हुए वर्षों पहले कभी किसी साधु ने उसे भक्ति की राह दिखाई थी। शिवा का ठौर न ठिकाना। वह उसके साथ हरिद्वार चला गया था। साधुओं के साथ कुछ माह रहा। सुबह -शाम भटकते, कीर्तन -भजन करते दिन बीत रहे थे। लेकिन अच्छे नहीं थे। कभी त्योहारों पर पकवान मिल जाते थे तो कभी दो दिन तक एक कौर भी नसीब नहीं होता था। यहीं पर कभी -कभार उसे औघड़ शिव के भांग -धतूरे का प्रसाद चखने को मिला। उसे चखने मात्र से कहाँ की भूख और कहाँ के कष्ट ? लगा सही कहा साधु ने। परमानंद हो गया। लेकिन नशा उतरते ही भूख से अंतड़ियां बिलबिलाने लगतीं। वहां से नशे की लत और छोटा सा त्रिशूल अपने साथ लिए वह चला आया। तब से वही चौराहा उसका ठिकाना रहा।

वह सुबह आ जाता और शाम अंधेरा होने से पहले झुग्गी में वापस बंद हो जाता। दिन भर की भीख बिना देखे झुग्गी में बने उस गड्ढे में उड़ेल देता, जिसके ऊपर उसने एक पत्थर रखकर अपनी गुदड़ी बिछा रखी थी। भोजन कभी मन किया तो कुछ खाया, वरना चिलम भरी। दम भर कर कुछ कश लगाए और हो गए परमानंद। पौ फटने पर रोज की तरह चौराहा उसका इन्तजार करता था। दिन फिसलते रहे। मौसम बदलते रहे।

"औघड़ तू भी मेरा भला नहीं कर सका। बेकार रही तेरी भक्ति। जिन्दगी भर न तो तन को नया कपड़ा दिया, न पेट भर खाना। न घर न घरवाली। देख तेरे भक्त की हालात। है कोई इसे सँभालने वाली? बनाकर दो रोटी देने वाली? तू भी मेरा भला नहीं कर सका। कैसा भोले ? कैसा भक्त ?" रात अक्सर नशे की हालत में बुदबुदाता वह लुढ़क कर सो जाता था। उसे अपनी ज़िंदगी बेकार लगने लगी। वही रोज का चौराहे तक का चक्कर। अवसाद से घिरता हुआ शिवा जीने की लालसा खोने लगा था। रोज उठना, भीख मांगना, सोना। उसे अपने जीवन से विरक्ति होने लगी थी।

"क्या जिन्दगी हुयी हमारी, सड़क के लावारिस कुत्ते जैसी। मर जायेंगे तो इन्ही कुत्तों की तरह सरकारी कूड़ा गाड़ी में कचरे की तरह लाद दिए जायेंगे। बदत्तर, गलीच जिन्दगी। हट सस्याला।" उस दिन चौराहे पर बैठे उसने कसैला सा मुंह बना कर कहा।

"अरे क्या हुआ शिवा ? क्यों बड़ -बड़ कर रहा है ? किसी ने कुछ कह -कहा दिया है क्या ?" करमा मोची जूता गांठता हुआ हंसा।

"क्यों रहीसी के सपने देखता है रे? अपने कपाल में कंगाली का पैबंद लगवा के लाये हैं हम। ऐसे ही तसल्ली रख। उसकी मरजी।" लछमन ने कराहते हुए आकाश की तरफ हाथ उठा कर कहा। कुछ देर बाद चुपचाप बैठा हुआ शिवा अचानक एक तरफ को लुढ़क गया। कोई बात न बीमारी। अचानक क्या हुआ? मोची की दूकान से होती हुयी हलचल चौराहे के आस -पास मंडराने लगी।

"अरे अभी तो भीख मिलने पर दुआ बुदबुदा रहा था। "

"आज सुबह से ही अपने आप को और अपने भाग्य को कोस रहा था।"

"अभी तो चाय पी रहा था। हाथ में सुरती मल रहा था।"

"बेचारा अपने फूटे भाग्य को कोसता हुआ पूरा हो गया। चलो उसे मुक्ति मिली अपने इस नरक से, गलीच जीवन से।" मोची ने दुखी होकर अपने आप को सांत्वना दी।

किसी ने पुलिस को खबर की। लाश को ठिकाने लगवा दो वरना यही पड़ी -पड़ी सड़ेगी। चौराहे पर पुलिस की गाड़ी का सायरन सुनते ही और लोग दौड़े- भागे आये। न जाने आतुर जनता मक्खियों के झुण्ड सी तुरंत कहाँ से आ जुटती हैं ? भीड़ को देख कर हवा में डंडा लहराते कुछ पुलिस वाले जिप्सी से नीचे उतरे। मैले कंबल में लिपटे भिखारी को देख कर एक घिनया हुआ बोला। "चलो हटो यहाँ से। क्या मज़मा लगा रखा है। कोई धन्ना सेठ का ज़नाज़ा नहीं निकलने वाला यहाँ। चलो काम करो अपना।" तुरत -फुरत इंतज़ाम किया। लावारिस लाश को घसीट कर शव गाड़ी में फेंकवाया और लाश के साथ ही वहां से रवाना हो गए। पुलिस वालों की ड्यूटी पूरी हो गई।

बाकी के तीन पुलिस वाले वहां से उसकी झुग्गी का मुवायना करने पहुंचे। झुग्गी का दरवाजा उड़कते ही बदबू का एक झोंका बाहर आया। एक घृणा से थूकते हुए बोला। "सस्याले, एक तो धरती पर बोझ, ऊपर से जगह घेर कर गंद और मचाये रखतें हैं। फेंकों इस सारी गंदगी को बाहर।" वे डंडे से उसके सामान को इधर -उधर करते बाहर फेंकने लगे। आस -पास अन्य झुग्गियों में रहने वाले बच्चे उसके सामान पर गिद्ध की तरह झपटे। कोई गुदड़ी पर, कोई टूटे ठीकरे - बर्तनों पर तो कोई उसके चीथड़ों पर। पुलिस वाला सबको घुड़कता जाता। बच्चे सहम कर कुछ कदम पीछे होते और फिर सामान पर झपटते। कंगाल की झुग्गी में दलिद्दर के अलावा मिलना ही क्या था। बाहर निकलते हुए एक पुलिस वाले को पत्थर दिखाई दिया। उत्सुकता वश वह हंस कर बोला। "हो सके है यहाँ इसने कोई खजाना दबा रखा हो, इसके नीचे।" उसकी बात पर सभी ने ठहाका लगाया। पत्थर खिसकाया तो उसके नीचे गड्ढा। गड्ढे में बोरी का टुकड़ा निकला हुआ दिखा। उसे खींचने पर सिक्कों की खनखनाहट सुनायी दी। सबने एक -दूसरे की तरफ कौतुहल से देखा।

"खेंच बाहर।"

"सर, बहुत भारी है।"

"अबे पत्थर भरे थे क्या बुढ्ढे ने इसमें ? जनाने नहीं, मर्दाने हाथ लगा कर खेंच।" हंसी -ठिठोली करते बोरी बाहर निकाली गई। पलटी गई। सभी के मुंह हैरत से खुले रह गए। ये क्या ? मुड़े -तुड़े, नए -पुराने नोट ही नोट, नोटों का पहाड़। रेज़गारी का खूब बड़ा ढेर।

बहरहाल बाद में उस रकम का चाहे जो भी हुआ हो किन्तु पुलिस ने अपनी ड्यूटी बखूबी पूरी की। दूसरे दिन लोगों ने देखा। अखबार में सुर्ख़ियों में खबर थी। 'औघड़ शिव के परम भक्त, शिवा भिखारी की झोपड़ी में से निकले चार लाख रूपये। चश्मदीद गवाहों के बयानों के आधार पर मालूम हुआ कि शिवा भिखारी अपनी दरिद्र सी ज़िंदगी को कोसते हुए परलोक सिधारा था।

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