Chand aur vo books and stories free download online pdf in Hindi

चाँद और वो

चाँद और वो

आज डिनर के समय मेरे बच्चों में प्रेम को लेकर बहस छिड़ी थी। मैं उनकी बातें बहुत गौर से सुन रहा था। उनकी बहस को सुन कर मैं मन ही मन सोंचने लगा 'यह आज की पीढ़ी कितनी बेबाकी से आपने ख़याल रखती है।' इसी बहस में अचानक मेरी बेटी ने मुझ से पूँछा।

"डैड क्या आप ने भी कभी प्यार किया है ?"

मैं हैरान रह गया। कुछ बोलता उस से पहले मेरा बेटा बोला।

"मॉम से हैं न डैड।"

मैं बस मुस्कुरा कर रह गया।

खाना खा कर मैं टेरेस पर आ गया। मोबाइल पर अपनी पसंदीदा गज़लें सुनने लगा। आकाश पर पूनम का चाँद खिला था। इस चाँद को देख कर मन में सोए कुछ एहसास जाग उठे। चाँद में मुझे किसी का चेहरा झांकता नज़र आया। वह जो मेरा पहला प्यार थी दिल की गहराईयों से निकल कर जैसे मेरे पास आकर बैठ गई। मुझे लगा कि अपने उसी शोख़ अंदाज़ में पूँछ रही हो "क्या सचमुच मुझे भूल गए ?"

मैं बी . ए . पास कर सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए दिल्ली आया था। पुरानी दिल्ली के एक कपड़ा व्यवसायी गेंदामल साहनी थे। अपने मकान के एक हिस्से में वह किराएदार रखते थे। उन्हीं के घर मुझे एक कमरा मिल गया था। दरअसल मेरा कमरा ऊपर था। जहाँ जाने के लिए सीढ़ियां गेंदामल जी के हिस्से में पड़ती थीं। एक दिन जब मैं सीढ़ियां चढ़ रहा था तब गेंदामल जी ने मुझे रोक लिया।

"अरे भाई किशोर… तुम तो बहुत होशियार हो। सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हो। ज़रा हमारी बिटिया नीलम को भी पढ़ा दिया करो। बी.ए. का दूसरा साल हैं। इकॉनामिक्स से थोड़ा घबराती है।"

मेरा मन पढ़ाने का बिल्कुल भी नहीं था। किंतु संकोचवश कुछ कह नहीं पाया। पर गेंदामल जी ने बिना किसी संकोच सब तय कर लिया कि मै रोज़ शाम नीलम को पढ़ाऊँगा। इसके लिए उनके घर में एक एकांत कमरे की व्वस्था भी हो गई। हाँ इसके लिए उन्होंने मुझे कुछ रकम देने का भी वादा किया। घर से दूर अकेले रहने वाले के लिए यह लालच काफी था।

पहले ही दिन मुझे एहसास हो गया कि नीलम का मन पढ़ाई में नहीं लगता है। जाते ही उसने मुझसे कह दिया।

"देखिये मुझे उतना ही पढ़ाइयेगा जिस से मेरे अच्छे नंबर आ जाएँ। सिर्फ इम्पोर्टेन्ट पार्ट्स।"

मैं रोज़ शाम उसे पढ़ाने जाने लगा। वह बहुत चंचल थी। ना पढ़ने के बहाने ढूढ़ती रहती थी। मैं जो पढ़ा रहा होता था उससे इतर किसी और ही विषय के बारे में बात करने लगती। कभी बिना बात हंसने लगती। मुझे उसकी इन हरकतों पर गुस्सा आता तो उसे डांट देता था। पर मेरी डांट का उस पर बहुत असर नहीं होता था। लेकिन समय बीतने के साथ मैंने महसूस किया कि मैं धीरे धीरे उसकी चंचलता को पसंद करने लगा हूँ। हाँ ऊपरी तौर पर पर मैं उसे डांटता अवश्य था। लेकिन उसका हंसना मेरे मन को प्रफुल्लित कर देता था।

नीलम बहुत सुंदर थी। औरत की खूबसूरती के बयान में कवी जो भी उपमाएं देते हैं वह सभी मुझे उस पर फिट मालूम पड़ती थीं। मैं उसके प्रति आकर्षण महसूस करने लगा था। आलम यह था कि उसे पढ़ा कर जब मैं अपने कमरे में आता तो उसका एहसास मेरे संग होता। पढाई से मेरा मन पूरी तरह उचट गया था। मैं पढ़ने बैठता तो किताब के खुले हुए पन्ने पर उसका चेहरा उभर आता था। उसकी हंसी मेरे कानों में गूंजने लगती। मैंने कई बार खुद को डांट लगाई।

"तुम क्या यहाँ इश्क करने आए हो। तुम अपने लक्ष्य से भटक रहे हो। इस सब से मन हटा कर पढ़ाई में लगाओ।"

मैं जितना अधिक अपना ध्यान नीलम से हटाने का प्रयास करता था उतना ही वह मेरे दिलो दिमाग पर कब्ज़ा करती जा रही थी। बहुत कोशिश करने के बाद भी जब मैं अपने दिल पर काबू नहीं कर सका तो मैंने स्वीकार कर लिया कि मैं नीलम को चाहने लगा हूँ।

मुझे लगता था की उस के दिल में भी वही है जो मेरे दिल में है। वह भी मुझसे प्यार करती है। उसका बात बात पर मेरी तारीफ़ करना, मुझ से खुल कर बातें करना। यह सब इसी तरफ इशारा कर रहे थे। बातों ही बातों में एक दो बार उसने मेरे हाथ पर अपना हाथ भी रख दिया था। यह सब मेरे यकीन को पक्का कर रहे थे। मैं उसके संग जीवन के स्वप्न देखने लगा।

वैसे मेरी और उसकी स्थिति में बहुत असमानताएं थीं। उसके पिता गेंदामल की अच्छी कमाई थी। अपने क्षेत्र के व्यापारियों में उनकी अच्छी धाक थी। नीलम उनकी इकलौती संतान थी। जबकी मेरे पिता एक सरकारी विभाग में क्लर्क थे। मेरे अलावा उनकी तीन और संतानें थीं। इसके अलावा मैं ब्राह्मण परिवार से था और नीलम पंजाबी खत्री थी।

मैंने तय कर लिया था कि एक बार उसके मुंह से सुन लूँ कि वह भी मुझे चाहती है तो फिर उसे पाने के लिए मैं सबसे भिड़ जाऊँगा। मैं उससे अपने दिल की बात करने का मौका तलाशने लगा। लेकिन तभी घर से बुलावा आ गया कि ज़रूरी काम है। कुछ दिनों के लिए आ जाओ। मैं अपने घर चला गया। चार दिन बाद जब मैं लौटा तो तय करके आया था कि पहली ही सूरत में नीलम से बात कर लूँगा।

शाम को जब मैं घर पहुँचा तो गेंदामल जी के नौकर भोला ने आकर कहा कि साहब ने बुलाया है। मैं गेंदामल जी से मिलने चला गया। मुझे देखते ही वह बोले।

"आओ किशोर बैठो। मिल आए अपने परिवार से।"

"जी..."

"भाई तुम नहीं थे तो हमारे घर में एक शुभ काम हो गया। हमने नीलम बिटिया की शादी पक्की कर दी। अभी सगाई हो गई है। शादी उसके इम्तिहान के बाद हो जाएगी। बाकी की पढ़ाई ससुराल से कर लेगी।"

मुझे लगा जैसे गेंदामल जी ने मेरे दिल में छुरा भोंक दिया हो। अपने दर्द के बीच मुझे नीलम का खयाल आया। ज़रूर यह सब उसकी मर्ज़ी के बिना हुआ होगा। मैं भीतर उदास बैठी नीलम की कल्पना करने लगा। जो इस रिश्ते से बिल्कुल भी खुश नहीं होगी। मन ही मन वह मेरी याद मे तड़प रही होगी। तभी गेंदामल जी ने आवाज़ लगाई।

"अरे भाई नीलम बाहर तो आओ।"

नीलम आकर अपने पिता के पास खड़ी हो गई। मैं उसके चेहरे पर दुख टटोलने लगा। लेकिन उसके चेहरे पर तो दुख की एक रेखा भी नहीं थी। वह तो बहुत खुश नज़र आ रही थी। 'तो क्या सारा मामला एकतरफा था'। यह सोंच कर इस बार पहले से कई गुना दर्द हुआ।

"ज़रा किशोर का मुंह भी मीठा कराओ।"

अपने पापा की बात सुनकर नीलम बोली।

"पापा मेरी सहेलियां बैठी हैं। मैं भोला के हाथ भिजवा देती हूँ।"

मेरे लिए वहाँ बैठे रहना कठिन हो गया था। पर एकदम से उठ जाना भी अभद्रता होती। भोला कुछ ही समय में मिठाई लेकर आ गया। मैंने एक टुकड़ा मुंह में डाल लिया। गेंदामल जी से इजाज़त लेकर मैं अपने कमरे में आ गया। चारपाई पर गिर कर मैं फूट फूट कर रोने लगा।

मैं अधिक दिन वहाँ नहीं रहा। जल्द ही मैंने वो मकान छोड़ दिया। कई दिन लगे मुझे खुद को संभालने में। इसके बाद मैंने अपने आप को आइ . ऐ एस . की तैयारी में झोंक दिया।

तभी मेरी पत्नी कॉफ़ी का मग लेकर मेरे पास आ गयी। मैं अपने ख्यालों से बाहर आ गया। वह मेरे पास ही बैठ गई। मैं अब चाँद की जगह उसके चेहरे की ओर देखने लगा। चुपचाप कॉफ़ी पीते हुए गज़ल सुनने लगा। कानों में मेहंदी हसन की आवाज़ गूँज रही थी

' अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें '

***