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वृद्ध जन आश्रम

वृद्ध जन आश्रम

वृद्धाश्रम में नेहा ने जैसे ही प्रवेश किया तो सभी के चेहरे खिल गए। प्रत्येक रविवार नेहा गुरु तेग बहादुर अस्पताल के सामने दिल्ली सरकार द्वारा बनाए और सरकार द्वारा ही संचालित वृद्धाश्रम में वे सभी वस्तुएं लेकर जाती थी जो वहाँ रह रहे सभी वृद्ध जनों ने पहले रविवार नेहा को बताई थी।

सब को उनकी आवशयकता का सामान देकर, खेलने के लिए बड़े हाल में बुला लिया और तरह तरह के खेल खिलाने लगी। रामेश्वर को पैर में चोट लगी थी अतः वह नहीं आया तो नेहा बाद में स्वयं उनके पास गयी और वहीं बैठ कर शतरंज खेलने लगी। नेहा जानती थी कि शतरंज रामेश्वर काका का सबसे प्रिय खेल है और वह कभी भी काका को हरा नहीं सकती लेकिन फिर भी न जाने क्यों रामेशवर नेहा से शतरंज में हर बार हार जाते और फिर बड़े भोलेपन से बोलते, “लो बिटिया, मैं आज फिर हार गया।” इतना कहकर रामेश्वर बड़े ज़ोर से हँसते, नेहा समझ जाती कि काका के इस ठहाके के पीछे कोई कहानी अवश्य होगी जिसे काका बताना नहीं चाहते।

शतरंज खेलते समय दोनों आपस में बातें भी करते रहते लेकिन अपने बारे में न तो नेहा ही कुछ बताती और न ही रामेश्वर अपने जोरदार ठहाके के पीछे छिपी कहानी के बारे में बताता, ऐसा नहीं कि वे एक दूसरे से इस बारे में पूछते नहीं थे, पूछते तो थे लेकिन दोनों ही बात को टाल जाते।

नेहा खूबसूरत, जवान एवं उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की सुधीर से शादी करके अमेरिका चली गयी, वहीं पर उसने एक संस्थान में कम्प्युटर साइन्स पढ़ाना शुरू कर दिया, सुधीर चिकित्सक था तो उसने पहले से ही अपना चिकित्सा का व्यवसाय भली भांति जमा रखा था। नेहा के मामा ने ही यह रिश्ता सुझाया था, सबको लड़का पसंद आ गया और शादी हो गयी। नेहा विदेश जाना नहीं चाहती थी, वह चाहती थी बूढ़े माँ बाप के नजदीक ही रहूँ, सबके ज़ोर डालने पर ही नेहा राजी हुई थी।

नेहा करीब करीब रोज ही घर पर भईया भाभी और मम्मी पापा से विडियो कॉल करके बात कर लेती थी लेकिन कुछ दिन बाद भईया भाभी ने मम्मी पापा से बात करवाना बंद कर दिया जब भी नेहा पूछती तो कोई न कोई बहाना करके टाल देते। एक दिन नेहा की मामा से बात हुई तो मामा ने नेहा को उसके पिता जी का फोन नंबर दे दिया। नेहा ने फोन मिला कर पिताजी से बात की तो उन्होने कुछ भी नहीं बताया और सब कुछ सामान्य सा लगा लेकिन जैसे ही नेहा की बात मम्मी से हुई तो मम्मी ज़ोर ज़ोर से रोने लगी, रोते रोते बस यही कह पायी, “बेटा, तेरे भईया भाभी ने तो हमे यहाँ वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है तभी बीच में ही बाबूजी ने फोन ले लिया और कहा, “बेटा, तू चिंता मत कर, यहाँ सब कुछ ठीक है, हम भी ठीक हैं, हम यहाँ भी आराम से रह रहे हैं।” और इतना कहते ही पापा भी रोने लगे। नेहा सब समझ गयी और उसने अमेरिका से भारत वापस आने का निर्णय ले लिया।

नेहा अमेरिका छोड़ कर वापस आने ही वाली थी कि तभी नेहा को पता चला कि मम्मी अब इस दुनिया में नहीं रही, बेटे बहू के द्वारा हर दिन के दुर्व्यवहार, दुत्कार और वृद्धाश्रम छोड़ आने का सदमा बेचारी सह नहीं पायी और इस संसार को छोड़ कर चली गयी। माँ की मृत्यु की सूचना पाकर नेहा तुरंत ही अमेरिका से भारत के लिए निकल पड़ी लेकिन तब तक पत्नी के गम में दुखी पिता भी संसार छोड़ कर चले गए। दोनों का अटूट प्रेम आखिरी समय तक भी अटूट ही रहा और एक साथ ही इस संसार से विदा होकर चले गए।

नेहा के अमेरिका जाने से पहले पापा ने कहा था, “बेटा! अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, मेरे पास संपत्ति के नाम पर सिर्फ यह घर है, मैं चाहता हूँ कि मैं इस घर को तुम दोनों के नाम करवा दूँ।” तब नेहा ने कहा था, “नहीं पिताजी, मुझे घर में से कुछ नहीं चाहिए, आप पूरा घर भईया को ही दे देना,” और जैसे ही पिताजी ने घर बेटे के नाम करवाया वैसे ही बेटे बहू ने बूढ़े बुढ़िया को घर से निकाल कर वृद्धाश्रम में भेज दिया।

उस दिन नेहा बोलती रही और रामेश्वर सुनता रहा, बोलते बोलते नेहा की आँखों में आँसू थे उसका गला भर आया था अपनी भरभराती आवाज में नेहा बोली, “अंकल मैं तो अपने माँ बाप के आखिरी दर्शन भी न कर सकी, मुझे अपने अमेरिका जाने का बड़ा अफसोस हुआ और अब मैं अपने ही देश में आकर बस गयी, सुधीर भी मेरे साथ यहीं आ गए हैं और उन्होने भी यहाँ पर अपना क्लीनिक बना लिया, मैं आई आई एम में पढ़ाती हूँ, शनिवार रविवार छुट्टी रहती है अतः शनिवार को घर के सारे काम निबटा लेती हूँ और फिर रविवार को निकल पड़ती हूँ अपने माँ बाप की आत्मा तलाशने, शायद आप में से किसी में मिल जाए या फिर आप सब में ही मिल जाए।

रामेश्वर ने उसके सिर पर हाथ रख कर पूछा, “क्या यह हाथ तुम्हारे पिता का नहीं?” तभी नेहा ने आंखे पोंछ कर और हल्की सी मुस्कान के साथ बोला, “हाँ अंकल, बिलकुल मेरे पिता का ही हाथ हैं यह, लेकिन आप मुझे बताएँगे कि आप किस मजबूरी में यहाँ रह रहे हैं?”

“बेटा मैं सरकारी नौकरी करता था, सरकारी मकान में ही पूरा जीवन कट गया, कभी मकान बनाने की सोची ही नहीं थी, और ना ही जरूरत महसूस हुई जब रिटायर हुआ तो मकान की जरूरत पड़ी क्योंकि सरकारी मकान छोड़न था, उस समय महंगाई काफी बड़ गयी थी और जो पैसा मुझे सेवा निवृति के समय मिला उसमे सिर्फ एक फ़्लैट वो भी दो कमरों वाला ले पाया शायद पहले से योजन बनाकर चलता और कहीं बुक करवा देता तो शायद बड़ा मकान मिल जाता।

एक ही बेटा है, उसकी शादी हुई, बच्चे भी जल्दी हो गए, भगवान की पूरी कृपा थी हमारे परिवार पर, सब ठीक ही चल रहा था, समय गुजर रहा था, बच्चे बड़े हो रहे थे, परिवार बढ़ रहा था लेकिन घर तो उतना ही बड़ा था उसमे तो कोई फेर बदल नहीं हो सकी, बेटे की जिम्मेदारियाँ भी उसकी कमाई से बड़ी थी।

बेटे ने प्रेम विवाह किया, दोनों में आपस में बहुत प्रेम था, जवान थे, मन में इच्छायें भी जागृत होती ही हैं। मुझे पता नहीं लेकिन मैंने उनकी बातों से यही अनुमान लगाया, बच्चों के सोने के बाद शायद वे दोनों प्रेमालाप में स्लंग्न थे तभी उनका बेटा जग गया, जिसका उन दोनों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे दोनों आत्मग्लानि से भर गए। दो कमरों के फ्लैट में से एक कमरा हमारे पास था तो दूसरे में बेटा बहू व बच्चे सब सोते थे।

उसी दिन मुझे महसूस हुआ कि बच्चों को दो कमरे चाहिए और मैं घर से यह कह कर निकला कि किसी काम से बाहर जा रहा हूं। मैंने आस पास के सभी वृद्धाश्रम देखे, मुझे इस वृद्धाश्रम का वातावरण सुखद लगा, अपना और पत्नी का नाम यहाँ पर लिखवा दिया। शुरू शुरू में पत्नी ने बहुत आनाकानी की लेकिन जब मैंने समझाया कि यहाँ पर सब हम उम्र है और हम सब दिन रात आपस में बात कर सकते हैं, अगर कोई तकलीफ होगी तो हम वापस आ जाएंगे। मेरे समझाने पर पत्नी मान गयी लेकिन बच्चे हमे छोडने को तैयार नहीं थे। मैंने समझाया कि बेटा देखो दूरी ही कितनी है जब भी मन चाहा आते जाते रहेंगे, हम भी और तुम भी। बेटे ने कई सुझाव दिये जैसे बच्चे आप लोगों के कमरे में रह लेंगे लेकिन मैंने सोचा कि इस तरह से भी उनका विकास रुक जाएगा।

बेटे ने पास ही में घर किराए पर लेने की भी सलाह दी तब भी मैंने यही कहा, “बेटा किराए के मकान में हम दोनों अकेले ही पड़े रहेंगे, जबकि सभी सुविधाओं से युक्त इस वृद्धाश्रम में हमे बहुत से लोगों का साथ भी मिलेगा, खेलने का सामान है, टी॰वी॰ है यहाँ पर, अखबार व पत्रिकाएँ भी होती हैं और चिकित्सक भी जांच करने आते रहते हैं, अब बताओ क्या ये सब सुविधाएं हमे किराए के मकान मिलती? मेरी इस तरह की दलीलें सुनकर बेटा चुप हो गया और हम यहाँ आ गए। पिछले महीने ही तुम्हारी आंटी लाइलाज बीमारी से गुजर गयी थी, बेटे बहू ने आखिरी समय में घर ले जाकर अपनी माँ की खूब सेवा की, डॉक्टर ने भी यही सलाह दी कि अब तो इन्हे घर ले जाओ और जितनी हो सके सेवा करना, बस यही इनका इलाज़ है।

सुबह सुबह नाश्ता मिल जाता है, दोपहर में खाना भरपेट खा लेते हैं, शाम को भी चाय नाश्ता और रात में खाना खाकर फिर सो जाना। रविवार में तुम आ जाती हो, खेलना बातें करना, अब तुम्ही बताओ क्या दुख है मुझे यहाँ पर?” मुझे तो इसमे कोई बुराई नहीं लगती, ना तो यहाँ रहने में और ना ही ऐसे आश्रमों के होने में, मेरी पेंशन का एक हिस्सा मैं यहाँ समर्पित कर देता हूँ। अपने खर्चे के लिए कुछ पैसे रख कर बाकी सब बच्चों को दे देता हूँ, आज भी उनका है और बाद में भी उनका ही होगा, लेकिन मैं मानता हूँ कि पैसा अगर जरूरत के समय पर काम आ जाए तो उसकी असली कीमत होती है। हम अभी भी एक दूसरे को सहयोग करते हैं, जब भी बच्चों को मेरी जरूरत होती है तब मैं उसके साथ होता हूँ और इसी तरह वो भी मेरे साथ मेरे पास आते हैं। नजदीक होने के कारण बच्चे भी बीच बीच में आते रहते हैं, पोता पोती के साथ खेल कर मेरा भी मन लग जाता है।”

रामेश्वर बोलते जा रहे थे और नेहा उनके चेहरे को एकटक देखे जा रही थी एवं सोच रही थी, “कितनी बड़ी सोच है रामेश्वर काका की, वास्तव में दुख का कारण ही हमारा सिर्फ हमारे बारे में सोचना है, जब हम अपने साथ साथ अपने बच्चों के सुख के बारे में भी सोचने लगते हैं तो बृद्धाश्रम भी हमें वानप्रस्थ आश्रम लगने लगते हैं।” और वास्तव में ये हैं भी वानप्रस्थ आश्रम ही।

रामेश्वर बोला, “बेटा नेहा, आज तुम थोड़ी देर और रुकना, मेरे बेटा बहू, पोता पोती आ रहे हैं, बहू का फोन आया था उसने यहाँ के सभी वृद्ध जनों के लिए खीर बनाई है, बस वही लेकर आते ही होंगे, वह जब भी कुछ विशेष भोजन बनाती है, तब यहाँ अवश्य लेकर आती है और थोड़ा थोड़ा ही सही मगर सबको खिलाती है।”

रामेश्वर और नेहा बातें कर ही रहे थे कि तब तक वो सब आ गए, बच्चे दादा को देखकर बड़े खुश हुए, बहू और बेटा सभी वृद्ध जनो में खीर बांटने लगे, नेहा ने भी आगे बढ़ कर उनका हाथ बंटाया, खीर बड़ी स्वादिष्ट बनी थी, नेहा ने भी थोड़ी सी खाई।

आज नेहा वृद्धजन आश्रम का सही मतलब समझ गयी थी और सोच रही थी कि परिवार बढ्ने पर घर छोटा पड़ जाए तो रामेश्वर काका की तरह खुशी ढूंढ लेनी चाहिए शायद यही कारण रहा होगा कि हमारे पूर्वजों ने शास्त्रों में वानप्रस्थ आश्रम की व्याख्या की है।

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