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टुकड़े टुकड़े इज्जत

टुकड़े टुकड़े इज्जत

सुनीता स्कूल आते जाते समय जब उस सुनसान पतली गली से अकेली निकलती तो उसको हमेशा डर लगता रहता, कई बार उसने अपना डर माँ के सामने कहा भी, माँ ने जब भी इस बात का जिक्र उसके पिताजी व दोनों भाइयों से किया तब उन सब का एक ही जवाब रहता, “सुनीता को बोलो अपनी पढ़ाई छोड़ कर घर बैठे, कोई जरूरत नहीं है पढ़ने की, पढ़ लिख कर क्या उसको नौकरी करनी है, एक दो साल बाद अच्छा सा लड़का ढूंढ कर उसकी शादी कर देंगे, फिर अपनी गृहस्थी संभालेगी।”

माँ ने जब पिता और दोनों भाइयों का आदेश सुनीता को सुनाया तो सुनीता फफककर रोने लगी और कहने लगी, “माँ मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है, मैं अभी शादी विवाह नहीं करना चाहती, इस बार जब स्कूल में अन्तर्स्कूल खेल प्रतियोगिताएं हुई थी तब मेरे कक्षा अध्यापक ने उस दौड़ प्रतियोगिता में मेरा नाम दे दिया, माँ मैं अपने गुरुजी और आपके आशीर्वाद से उस दौड़ प्रतियोगिता में सभी स्कूलों के बच्चों को पछाड़कर प्रथम आई हूँ। ”

माँ को सुनीता की यह बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई मगर फिर यह सोच कर चिंतित हो गयी कि अगर इसके खेल प्रतियोगीता में प्रथम आने की बात का इसके पिता व भाइयों को पता चल गया तो वे अगले ही दिन से इसको स्कूल नहीं जाने देंगे।

उस दिन काले बादलों ने पूरा आकाश ढक लिया था, ऐसा लगता था कि बस अभी बरसने लगेंगे, स्कूल की छुट्टी हुई तो सभी बच्चों ने बादल बरसने से पहले घर पहुँचने के लिए दौड़ लगा ली। सभी बच्चे अपने अपने घर के रास्ते में मुड़ते चले गए, सुनीता अकेली रह गयी। उस दिन वह सुनसान पतली गली और भी ज्यादा सुनसान लगने लगी, गली में हवा सांय सांय करके बह रही थी, बादलों के कारण अंधेरा भी हो गया था। सुनीता गली में घुसने से भी डर रही थी लेकिन यह भी डर था कि बादल बरसने लगे तो वह और उसको सारी किताबें भीग जाएंगी।

हिम्मत करके सुनीता गली में घुस गयी तभी गली के बीच में एक दरवाजा खुला, आम तौर पर गली के दरवाजे उस समय बंद ही रहते थे लेकिन उस दिन उस दरवाजे के खुलने से सुनीता को थोड़ी हिम्मत आई, लेकिन यह क्या? उस घर से एक व्यक्ति निकला और उसने अपने एक हाथ से सुनीता का मुंह दबा लिया और दूसरा हाथ उसकी कमर में डाल कर उसे अंदर खींच लिया।

दरवाजा बंद करते वक्त उसका हाथ सुनीता के मुंह से हटा तो सुनीता बोली, “अनवर चाचा तुम?” और शोर मचाने लगी। अनवर ने कस कर एक कपड़ा सुनीता के मुंह पर बांध दिया और उसे जबर्दस्ती अपने बिस्तर पर खींच कर ले गया।

घर में कोई नहीं था, अनवर अकेला था, घर के सभी सदस्य चार पाँच दिन के लिए बाहर गए थे।

अनवर के अंदर का शैतान पूरी तरह जाग गया था और उस शैतान अनवर ने उस छोटी बच्ची सुनीता को अपनी हवस का शिकार बना डाला। अपनी हवस में उसको यह भी पता नहीं चला कि सुनीता बुरी तरह लहूलुहान हो गयी है।

सुनीता घर नहीं पहुंची तो माँ को चिंता होने लगी, दौड़ कर स्कूल पहुंची चौकीदार ने बताया कि सब बच्चे समय से ही चले गए थे, माँ की चिंता और बढ़ गयी और उसको बुरे बुरे ख्याल आने लगे।

घर पहुँच कर सुनीता के पिता और भाइयों को बताया तो वे तीनों तो आग बबूला हो गए और माँ को ही दोष देने लगे, कहने लगे, “तू ने ही सिर चढ़ा रखा है उसे, कितनी बार समझाया कि उसकी पढ़ाई छुड़वाकर घर बैठा लो लेकिन यहाँ सुनता कौन है, अब न जाने कहाँ पर हमारी इज्जत के टुकड़े टुकड़े कर रही होगी।”

अनवर के इस तरह दुष्कर्म करने से सुनीता बेहोश हो गयी, लेकिन अनवर तो एक राक्षस बन चुका था, उसको उस छोटी बच्ची पर जरा भी दया नहीं आ रही थी बल्कि जैसे ही सुनीता को कुछ घंटे बाद होश आया तो अनवर ने उसको फिर अपनी मजबूत बाहों में जकड़ लिया और फिर से दुष्कर्म किया, इस तरह तीन दिन तक अनवर उस छोटी बच्ची से दुराचार करता रहा.....

इधर घर वाले गुस्से में तो थे लेकिन उसको ढूँढने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे लेकिन उनको सुनीता के बारे में कोई सुराग नहीं मिला....

तीन दिन तक अनवर का भयंकर दुराचार सहने के बाद सुनीता के अंदर जरा भी ताकत नहीं बची थी, लेकिन उसको जैसे ही मौका मिला वह अनवर के चंगुल से भाग निकली और सीधी अपने घर पहुंची।

माँ का तो तो रो रोकर बुरा हाल था, सुनीता को देखकर वह थोड़ा संभली कि सुनीता अपनी माँ की गोद में गिरकर बेहोश हो गयी, जब होश आया तो पिता व दोनों भाई उसको अपनी लाल आँखों से घूर रहे थे....

सुनीता को अपने पिता व भाइयों पर पूरा विश्वास था अतः सुनीता ने पूरी घटना विस्तार से उनको बता दी, वह सोच रही थी कि उसके पिता व भाई अनवर को अवश्य सजा देंगे।

पिता ने माँ को आदेश दिया, “सुनीता को लेकर अंदर जाओ।” माँ के साथ सुनीता अंदर चली गयी, उसकी हालत तो खराब थी ही अतः माँ ने उसको हल्दी वाला दूध दिया और खाना खिला कर सुला दिया।

रात में अचानक सुनीता की आँख खुली तो उसे अपने भाई और पिता की आवाजें सुनाई दीं....

पिता अपने दोनों बेटों से कह रहे थे, “बेटा यह समय कमजोर पड़ने का नहीं है, इस लड़की ने हमारी इज्जत के टुकड़े टुकड़े कर दिये हैं अब हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी इज्जत बचाने के लिए इसके टुकड़े टुकड़े कर दें, कौन जाने यह सच बोल रही है इस सबमें इसकी भी मर्जी थी, इससे पहले कि किसी को भी इस बात का पता चले हमे अपना काम खत्म करना होगा।”

“मुझे जिन भाइयों पर इतना गर्व था, जिस पिता को मैं सदैव अपना रक्षक समझती थी आज वे तीनों ही मेरे टुकड़े टुकड़े करने की योजना बना रहे हैं।” सुनीता यह सोच कर हतप्रभ रह गयी।

माँ कई दिन बाद आज गहरी नींद में थी, उसने माँ को जगाना भी उचित नहीं समझा क्योंकि उसे पता था कि पिता और भाइयों की ताकत के सामने माँ कुछ नहीं कर पाएगी।

सुनीता ने तो सोचा था कि उसके दोनों भाई और पिता मिलकर अनवर जैसे राक्षस को मृत्यु दंड देंगे लेकिन उसने शायद गलत सोचा था क्योंकि उनकी मर्दांगी तो सुनीता को मारने के लिए ही ज़ोर मार रही थी।

“वाह रे मर्दों, यह कैसा न्याय है, मेरे ऊपर ही भयंकर अत्याचार हुआ और मुझे ही मृत्यु दंड?? अनवर जैसे राक्षस तो इस समाज में इसी तरह खुले घूमेंगे और न जाने और कितनी सुनीताओं को बर्बाद करेंगे।”

तुरंत ही सुनीता ने निर्णय लिया और अपनी माँ के नाम एक पत्र लिख कर घर छोड़ कर निकल गयी एक अनजानी कठिन राह पर। पत्र में लिखा....

प्रिय माँ,

मैं जा रही हूँ, मैंने अपने कानों से सुना कि मेरे पिता व भाई मुझे ही मारने की योजना बना रहे हैं, मुझे पूरा विश्वास है कि इस बारे में वे आपकी भी नहीं सुनेंगे।

यह पुरुष प्रधान समाज है, सभी पुरुषों की मर्दानगी] सिर्फ महिलाओं पर ही आजमाई जाती है, मेरे मर्द पिता व भाई उस मर्द को सजा नहीं देना चाहते जिसने यह दरिंदगी की, अतः अब मेरा विश्वास उन पर से उठ गया है।

समझ लेना कि मैं मर गयी और मैं अपनी लाश साथ लेकर जा रही हूँ।

आपकी अभागिन बेटी

सुनीता

ट्रेन की सीट पर बैठ कर सो रही सुनीता को टी.टी. ने जगाया तो सुनीता चौंक कर उठी, टिकट तो उसके पास नहीं था और न ही पैसे थे अतः टी॰टी॰ ने उसको रेलवे पुलिस को सौंप दिया।

सुनीता बिल्कुल चुप थी, उसकी चुप्पी के पीछे क्या राज था यह जानने के लिए रेलवे पुलिस में तैनात हैड कांस्टेबल किरण ने सुनीता को प्यार से गले लगा कर उसके अंदर का दर्द जानना चाहा....

सुनीता फफक कर रोने लगी, किरण ने उसको जी भर कर रोने दिया, जब उसका मन थोड़ा हल्का हुआ तो सारी कहानी किरण को बताई...

किरण अकेली रहती थी और उसके कोई संतान भी नहीं थी अतः उसने सुनीता से पूछा, “बेटा, क्या तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो, मेरे साथ मेरे घर पर रह सकती हो?”

सुनीता का सब कुछ छूट चुका था, वह तो स्वयं को एक लाश समझ रही थी, उसने किरण की बात मान कर उसके साथ रहना स्वीकार कर लिया...

किरण ने कानूनी रूप से सुनीता को गोद ले लिया और सबसे पहले नया नाम दिया ‘विजया’ और किरण ने विजया को स्कूल के साथ साथ खेल प्रशिक्षण संस्थान में भी दाखिला दिला दिया।

विजया की प्रतिभा निखर कर सामने आई तो लोग देखकर दंग रह गए.....

विजया रोज नए रेकॉर्ड बनाती व पुराने तोड़ती और एक दिन वह एशियन खेलों में स्वर्ण पदक जीत गयी....

स्वर्ण पदक लेने के लिए विजया जब स्टेज पर खड़ी थी तो सभी टी॰ वी॰ चेनल उस कार्यक्रम को दिखा रहे थे तभी विजया को स्वर्ण पदक लेते उसके मां पिता और भाइयों ने भी देखा.....

टी॰ वी॰ पर वे लोग विजया को पहचान गए कि यह विजया उनकी सुनीता ही है.....

विजया की टी॰ वी॰ पर इतनी प्रशंसा चल रही थी कि उन घर वालों को भी उस पर गर्व हो रहा था जो एक दिन उसके टुकड़े टुकड़े कर देना चाहते थे.....

प्रधान मंत्री से मिलते समय विजया ने बस यही कहा, “लाखों कठिनाइयाँ पार करके हम लड़कियां यहाँ तक पहुँचती हैं, शायद लोगों की यह सोच बदल सके ऐसा कुछ प्रयास अगर सरकार की तरफ से हो तो मुझे अच्छा लगेगा।”

किसी तरह पता लगाकर विजया के घर वाले सुनीता को खोजने मोतीहारी पहुँच गए जहां वह अपनी माँ किरण के साथ रहती थी।

“बेटी हमे माफ कर दो हम से बड़ी भूल हो गयी हम तेरी योग्यता पहचान न सके, अब तू हमारे साथ घर वापस चल।” बड़े भाई के ये शब्द विजया को बुरी तरह घायल कर रहे थे.....

“”मैं विजया हूँ, मेरी माँ किरण है, आपकी सुनीता तो उसी दिन मर गयी थी जब आप लोगों ने अपनी झूठी शान के लिए एक बेटी के टुकड़े टुकड़े करने की योजना बना ली थी....

आप लोगों को आपकी झूठी शान और मिथ्या इज्जत मुबारक हो अब आप सब कृपा करके यहाँ से चले जाएँ और मुझे मेरी राह पर चलने दें क्योंकि मैं तो आने वाले ओलिम्पिक खेलों का स्वर्ण पदक जीत कर अपनी माँ किरण को समर्पित करूंगी, यही मेरा सपना भी है और उद्देश्य भी।”

विजया ने इस तरह सुनीता के रुड़ीवादी पिता और भाइयों को घर के बाहर से ही विदा कर दिया और दिखा दिया कि बेटी को अगर बचाओगे, बेटी को अगर पढ़ाओगे और बेटी को अगर आगे बढ्ने का मौका दोगे तो वह बेटों से बढ़ कर आपके नाम के साथ देश का नाम भी रोशन करेंगी, किसी दरिंदे की दरिंदगी भी उसको उसका उद्देश्य पूरा करने से रोक नहीं पाएगी।

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ