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ओ मरियम !

ओ मरियम !

मनीषा कुलश्रेष्ठ

मां जा रहीं थीं, जिन बहुत सारी चीज़ों को विरासत में छोड़ कर, उनमें से एक गैरदुनियादार व्यक्ति होने के नाते, मेरे हाथ लगी थी केवल उनकी डायरी और लकड़ी के गोल मनकों की माला। मेरे पास उनके सुनाए ढेर सारे किस्से – ख़ज़ाने थे, जिन में से कुछ किस्से मैंने फिर बुने, कहानियों में. कुछ अनबुने स्मृति में ही उधड़ गए। ऐसा ही एक किस्सा उधड़ रहा था, मां जा रही थीं!

मेरी ड्यूटी थी उस रात आइ. सी. यू. के बाहर बैठने की। मैं ने उन्हें पतली दाल में एक टुकड़ा रोटी भिगो कर किसी तरह खिलाई। उनका मुंह पौंछ कर, एडल्ट डायपर बदलवा दिया. फिर जल्दबाज़ी को छिपाते हुए, आई सी यू में ही उनसे मैंने पूछ लिया, " ए म्मां, मम्मी वो उस मुसलमान औरत का नाम क्या था? ओह! तुमसे पहले भी दस बार पूछा है, हर बार भूल जाती हूं, जिसने अधेड़ उमर में शादी की थी...."

वे ऑक्सीजन मास्क के पीछे से मुसकुराईं! ज़रा सा हटा कर, फुसफुसाकर बोलीं - " “अ.… रु… अउ..… सआं.... क आां!"

"हां हां! अब्दुल सलाम की अम्मां! वही, वही। जो चुटीला और पाजेब दिखाने आई थी न, दादी को ब्याह में मिला! "

मां गरदन हिलाने लगीं। मुझे नर्स ने मरीज से बात न करने और बाहर जाने की आँख़ें तरेर कर हिदायत दी गई । हल्की ग्लानि हुई, पर भाई लोग तो आई. सी. यू. में विल और वकील ले आए थे, मैंने तो बस अपनी कहानी के लिए.......मैं झेंप गई, मां मुस्कुरा कर आंखें मींच कर लेट गईं, शायद मन ही मन अब्दुल सलाम की मां को याद करने लगी होंगी।

आगरा की बात है। उन्नीस सौ साठ के दिन, मां की नई - नई शादी हुई थी! अटपटे, अजनबी परिवार के नए - नए किस्से, वे खिलखिला कर सुनातीं मायके में. मसलन, घूंघट की वजह से एक साल तक मां का दादाजी के केवल पैर देख पाना और राजा मंडी स्टेशन पर सर पर से पल्लू हटा कर, पापा के साथ शाम की रूमानी सैर के समय हाथ में चाबी का गुच्छा घुमाते हुए पूछना - " ये दाढ़ी वाला बुढ़ऊ कौन था, जो कुछ पूछ रहा था आपसे ?"

"तुम्हारे ससुर!" पापा के कहते ही, मम्मी का अपने मुहावरे की फटी जमीन में धंस जाना।

या फिर पापा का दोपहर में मां के लिए जलेबी लाना और बड़े परिवार के सब लोगों से न बांटनी पड़ जाए, इस आशंका में पेड़ पर छिपा देना, कुत्ते को भनक पड़ते ही उसे ले भागना, अहाते में पापा का कुत्ते के पीछे भरी दुपहर दौड़ना!

मां का हंसना कि, " अब क्या कुत्ते के मुंह से छुड़ाकर खाएंगे?"

माँ को, न जाने क्यों वही किस्से , वही चमकीले दिन बाद तक याद रहे। बहुत सी चीज़ें वे भूल गईं। लेकिन अब्दुल सलाम की अम्मां का किस्सा तीन बार सुना था मैंने। मां ने तो एक ही तरह से उसे हर बार सुनाया था, पहली बार खूब हंसी आई, दूसरी बार लगा – मूरख स्त्री थी अब्दुल सलाम की अम्मां! तीसरी बार मन दुख से बुझ गया कि – ओह! हम औरतें!

अब्दुल सलाम की अम्मां लिखते तो मेरे हाथ भी गड़बड़ाएंगे, आपका चित्त भी अकुलाएगा। चलो मां के किस्सों के मनकों की जिम्मेदारी संभाली है तो उनकी तरह की बारीक विवरण, दुख पर हास्य का पुट! पूरा सीन खेंचा जाए।

मेरी दादी का घर मुस्लिम मोहल्ले में इकलौता घर था. ईंटों की दीवारों, प्लस के साईन जैसे ईंटों के झरोखे, दालान में भी ईंटे और छिड़काव के बाद मिट्टी की महक से महकता घर. जिसमें पापा के किस्से भी रहा करते थे, पहली बार मोटर, मैम और फिल्म देखने के, आज़ादी के पहले और बाद के। देश के आज़ाद होने पर एक क्लास का अतिरिक्त प्रमोशन मिलने के! साथ ही अनेकों दंगों के जिसमें उस मोहल्ले में दादाजी का घर बत्तीस दांतों में जीभ की तरह नहीं, बल्कि राजा मोरध्वज की पनाह में आए कबूतर की तरह खूब रहा। बगल की सड़क पर बाटा अंकल का तिमंजिला घर, साथ लगी हुई साईकिल की दुकान वाले अनवर चचा, सामने आइस फैक्टरी वाले हाजी बाबा, सड़क पार पूरा मोहल्ला जो दादा जी को अमीन साहब कहता था। गर्मियों की छुट्टियों में मिलने वाली रिहाना, गुलनाज़, अंजुम, निकहत जैसी सहेलियां! जो मेरी फ्रॉक्स, ट्यूनिक - स्लेक्स पर खुसफुस करतीं, और मैं उनके गरारों और झुमकियों पर ललचाती.

इसी घर के पिछवाड़े बहुत संकरी गली थी, जिसमें बड़े घरों के पखाने खुलते थे और कुछ सर्वहारा गरीबों की कुठरियां थीं, जिनमें टाट के परदे पड़े रहते थे। मैं बच्ची थी तब भी थे, (बाद में पाखाने पक्के हो गए, कुठरियां टूट कर दुकानें बन गईं। )

मां इसी शहर से इसी शहर में ब्याह कर, यहां इस घर में आईं तो, उन पुरानी तरह के पखानों से घबरा गईं, जाना न पड़े यह सोच कर उन्होंने पहले दिन खाना और पानी बहुत ही कम किया और अपनी नेचुरल कॉल्स को अगले दिन तक मुल्तवी कर दिया। एक बड़ी कॉलोनी में उनका मायका था (अब भी है!) जिसकी खासी ऊंची सीलिंग और लंबी डंडी वाले सीलिंग पंखों वाली कोठियां ब्रिटिशर्स स्थानीय लोगों को बेच गए थे! भला हो उस रिवाज का जिसमें मायके में फेरे के लिए एक दिन बाद ही बहू को भेजा जाता था।

खैर नवब्याहता मां लौटीं! उन पखानों में बैठने की आदत पड़ी, वहां उनके कान जो चीख भरी पुकार अकसर सुना करते थे , वह थी – “अब्दुल सलाम ! ए अब्दुल सलाम !”

“ हमाए अब्दुल सलाम को देखो चाची?”

“....तेरो अब्दुल सलाम कोई दीलीप कुमार है, जो बाए देखूँ...मैं?”

“अब्दुल सलाम चल सतुवा पी ले!”

“ अब्दुल सलाम, बाटेवारी बीबी जी ने कमीज़ें दीं हैं तेरे लिए। चल ये डबलरोटी को नास्ता कल्ले!”

मानो उस आवाज की मालकिन की दुनिया बस अब्दुल सलाम के इर्द – गिर्द ही थी।

मां कुछ पुरानी हुईं, चाची ब्याह कर आईं तो मां को सहेली मिल गईं। दोनों साथ छत पर जा बैठतीं। तभी उन दोनों ने देखा, अब्दुल सलाम की मां को. एक साँवली, मैली – कुचैली अधेड़, औसत कद की औरत. चुंधी आँखें, काले बालों की बेतरतीब चुटिया, रंग उड़ा, दूसरों से खूब पहन कर, घिसने के बाद मिला पीला-भूरा कुर्ता और लिथड़ती नीली शलवार. उसके पीछे आता दस – ग्यारह साल में ही कद पकड़ता, उतना ही काला सा कोई किशोर, ‘अब्दुल सलाम’ ढीली कमीज के नीचे पजामा पहने...बढ़े बेतरतीब बाल. वह हाथ में कुछ न कुछ खाता हुआ आता मिलता था. यूँ तो ‘अब्दुल सलाम’ की माँ का नाम न दादी जान पाई न माँ. ही कभी जान सकीं.

(मुझे उसे कुछ नाम देना है उसे. माँ के मुख से अभी वॉर्ड में जो जो अस्फुट नाम निकला था, ‘अं...रू...सा आं’(अब्दुल सलाम की मां), चलो हम उसे अरूसा ही कहेंगे. अरूसा यानि नई दुल्हन!)

हाँ तो जिधर को पखाने खुलते थे, उस गली में उस तरफ को घर था अरूसा का. कोई नहीं जानता वह, कब और कैसे आई. हाँ बहुत पहले लाईन से बनी चार कोठरियों में से जूतों की फैक्टरी में काम करने वाले एक मजदूर का जनाज़ा उठा था, उस रात उसी कोठरी से एक डकराहट गूँजी थी, एक बच्चा दुनिया में आने से हिचक रहा था कि उसकी नाल गले में फंस गई थी...अकेली माँ ने फिर भी उसे जना, सुबह आकर दाई ने नाल काटी. चालीस दिन बीतने पर एक काली, कुपोषित औरत टाट के परदे खोल धूप में आ गई थी, उसकी गोद में बच्चा था. औरत अरूसा थी, बच्चा – अब्दुलसलाम.

बस तभी टेरा गया था यह नाम पहली बार गली में. “अब्दुल सलाम, अले मेरे लाल!”

“अब्दुल सलाम हम ना ले रए गोदी, काम कौन करेगो?” ”अब्दुल सलाम, नेक तो थमो अभी दूध लाई, चाची के हयाँ से.” ”अब्दुल सलाम, देखा का कई हती हमनें अमीन साहब की बीबी जी दयालु हैं.” ”अब्दुल सलाम, कहाँ को चले...”

अब्दुल सलाम का नाम गली की धूप की तरह हो गया...जो तमाम गलाज़त के बावजूद वहीं बनी रहती दिन भर.

अब अरुसा मोहल्लों के सारे घरों की ज़रूरत बन गई थी, कहीं बर्तन धोती, कहीं दोनों वक्त खाना पकाने जाती. अमीन साहब यानि दादी के घर दोपहर फुरसत में आकर कपड़े धोकर जाती. साल बीते मेरे पिता, चाचा के ब्याह हुए. अब्दुल सलाम बारह साल का बड़ा लड़का हो गया. अपनी माँ का लाड़ला उतना ही, जितना बालपन में. माँ और चाची हँसती, जब अरूसा ‘अब्दुल सलाम, अब्दुल सलाम’ करती. कभी - कभी वह खीज जाता, कभी गली के आस-पास के लोग. कम बोलने वाल अब्दुल सलाम झेंपे हुए गुस्से से कहता “रेने दे अम्मी, खाँमखाँ में मत किया कर...ये लाड़ मनव्वल!”

‘अब्दुल सलाम! तुम बदमास हे रए हो, झट जवाब देने लगे हो, अगले साल तुम्हें इनके बच्चों की तरह पाठसाला भेजूँगी..तब जलेंगी ये अमीन साहब की बहुएँ... क्या – क्यूँ की जाने कैसी बोली बोलती हैं.”

एक दिन मेरी उदार दादी खास भरवां टिंडे की सब्जी सिखाने के लिए रसोई में बनी थीं, बहुएँ फुटकर काम करती...इधर – उधर. जब खाना निपट गया तो दालान में दोनों बहुँए दादी के पैर दबाने लगीं, तभी अरुसा प्रकट भईं.

“लाओ चाची कपड़े धो जाऊँ...आगे पता नहीं कौन धोने वारी मिले के ना मिले!”

“चौं री? तू अब कहाँ मर रई है जाके?” ”चाची, निकाह करने की सोच रही हूँ.”

“दारी, इस उमिर में?” ” तो...रांड बनी धरी रहूँ? उमिर? ऎसी क्या उमिर धरी मेरी? मुस्किल से बीस पर चार होऊँगी.”

हँसी छुपाने के बेजा प्रयास में साड़ी के पल्ले से मेरी चाची ने तो पूरा मुँह ढक लिया, पल्ले को मुँह में दबाते-दबाते माँ की तो हँसी निकल ही गई. लिहाज के मामले में कड़क दादी ने घूरा. दादी इस रोचक बातचीत की तह में जाते - जाते व्यवधान नहीं चाहतीं थीं.

“कौन मिल गया किस्मत का मारा?”

“ हैं, जाने कबसे... दो चार पैग़ाम चाची.”

“ हाँ री, चौं नईं, तू पूरी हूर जो ठैरी.”

“चाची, खुस्की तो उड़ाओ मति! कौन कुँवारों के पैगाम मिलेंगे मोए? मेरे जैसे ही रंडुवे सब, गरीब मजूर...बाल – बच्च्न वारे! “ कह कर अरूसा रोने लगी.

”तो काए गत बिगाड़ रई है री अपनी? कुएँ से निकल कर खाई? संभाल अपनी और अपनी औलाद की गत.” ”चाची, एक मरद हो तभी होती है औरत की गत और सोभा! सच कहूँ, तो मेरो निक़ाह तब भी कहाँ हुओ हतो? दूध के दांत उ न टूटे थे, भजा लायो वो दाईमार! याँ आके तो जानो कि महीना का होत है!”

“तो मर जाके...दारी!” दादी ने बहुओं के सामने उसकी खुल्ली बातों से कुढ़ कर करवट बदल ली, आंख के इशारे से बहुएँ उठ कर चल दीं, अपने कमरों में बन्द पर्दों के पीछे, चलते पंखों की घुर्र - घुर्र के पीछे की हँसी – किलकारी सुनते हुए वह असमंजस और कुढ़न में वहीं सर पकड़ कर बैठ गई. पसीने और आँसू एक होकर एक काले जिस्म से बहते रहे.

उसने अगले ही दिन से कपड़े धोने का काम छोड़ दिया हमारे यहाँ.

एक महीना बीता होगा कि अरुसा, फिर एक दोपहर नमुदार हुई. माँ और चाची अपने कमरों में थीं. उसकी आवाज़ सुन बाहर आ गईं, क्योंकि बहुत दिनों से कपड़े धो - धोकर, तंग आ गई थीं. उसे देख कर दोनों बहुऑं ने आँखों - आँखों में एक दूसरे को देखा, हल्का फिरोज़ी सुनहरी गोट – किनार लगा कुर्ता – शलवार पहने, बालों में और मुँह पर समान तौर पर तेल चुपड़ा हुआ, आँखों में काजल और, बालों में चुटीला रिबन गुंथा हुआ. सिर पर दुपट्टा डाल कर दादी के तख़त के पाए के पास बैठी थी, अब्दुल सलाम की अम्मां.

“बड़े दिनन पे आई अब्दुल सलाम की अम्मां, कहाँ थुकाय रही हती हमें?”

“का बात कत्त हो चाची, हमें तो अपने बाकि के और कुछ उधार पईसा चाईए थे, कछु हो हाथ में तो इज्जत रहत है. बाटेबारी बीबीजी ने हमें पाजेब दईं. कह रईं किस्मत की तेज हो अरूसा! वे बड़े खाते पीते घर के लोग हैं. सारी जिन्दगी के तोड़े हाड़ ठीक है जाएँगे. राज करियों...तीन बहुएँ हैं, एक पतोहू. जब वे जाएं तो लगे हाथ तुमऊ हज कर आईयों अगले साल. चाची तुमसे बिनती, अब्दुल सलाम को ध्यान रखियौं हाँ...” कह कर वह दुपट्टे से काजल मैले आँसू पौंछने लगी. दादी, आश्चर्यजनक तौर पर उस दिन कुछ नहीं बोलीं. दादी के इशारे पर अरूसा को पैसे और एक चाँदी का सिक्का भेंट दिए गए. वह चली गई. बरहना सिर घूमती, दिन रात दुखती कमर पकड़े, अब्दुल सलाम को टेरती, अब्दुल सलाम की अम्मां, उसी देर शाम निकाह पढ़वा कर अरूसा बन गई, यानि कि दुल्हन. कहते हैं, परदे वाले रिक्शे में शाम के झुटपुटे में बुर्राक़ कपड़ों में, नाक पर रुमाल रखे दो लोग आए थे, मालूम नहीं चल सका, कौन दूल्हा था और कौन काज़ी जी.

अब्दुल सलाम गली की मटमैली धूप था, अगले दिन भी चुपचाप वहीं बना रहा. लोग ‘च्च च्च’ करने लगे. दादी ने खूब गालियाँ दीं अरूसा को, परदे के पीछे, पढाई या तबियत का बहाना किए बहुओं को सुनाकर...जवानी में लगने वाली आग विशेष को केन्द्र बना कर.

अब्दुल सलाम को गली के अनाथ की तरह पालने को उत्सुक बहुत सारे घर थे, दुकानें थी. बचा – खुचा खाना और थोड़ा बहुत जेबखर्च मिल जाता. पहले ही बहुत कम बोलता था, अब वह लगभग गूँगा हो गया. लम्बा – सा, साँवला, गरदन झुकाए, अटपटे कपड़े पहने वह साईकिल की दुकान के कोनों में घुसा रहता, काम करता हुआ. देर रात घर में घुसता, सुबह जाकर राजामंडी स्टेशन वाले रेल्वे क्रॉसिंग पर खड़ा हो जाता...उसके आगे का आगरा उसने कभी न देखा था, न जाना था. न उसमें हिम्मत थी. वह दो ‘टोस’ चाय के साथ खाकर लौट आता.

हमारी गली शांत हो गई थी. मां आठ महीने की गर्भवती थीं और एन टाईम पर चाची मायके चली गईं थीं, अपने बीमार पिता की देखभाल को.

उधर उस दिन अरूसा ने फिर बुरक़ा पहना, रिक्शे में गठरी की तरह बैठ गई थी, सीटों पर काज़ी और रफ़ीक़ मियाँ बैठे थे. रफीक़ मियाँ के ईशारे पर काज़ी ने पांच रुपए का नोट अब्दुल सलाम की तरफ फेंक दिया था, वह बुरके की जाली से देखती रही, गली के मुहाने तक तो अब्दुल सलाम ने वह रुपया उठाया नहीं था, उसके दिल से हूक़ उठी. “खुस रहियो बेटा, अपने दो हाथन को भरोसा रखियों, बड़े हे गए तें अब अब्दुल सलाम वल्द.....?” ”नाम ही भुला गया याददास्त से, या याद नाय करना चाय रईं?”

कोई अतीत का प्रेत बोलता, उससे पहले उसका टेंटवा दबा दिया गया.

एक घने बसे अनजाने मुहल्ले में जाकर, टाट के बजाये मोटे चदरों से परदों के पीछे धकेल दी गई, अरूसा ! एक सन्नाटे भरा दालान! बड़ा सा बावर्चीखाना, गोल बैठक, चिकने पत्थर की सीढियाँ और...कच्चा आँगन और नल लगा पक्का हिस्सा, जहाँ बाहर नाली पर बिनाधुले बर्तन पड़े थे, बेशुमार. उसे लगा दावत हुई होगी. निक़ाह की खुशी में. बर्तन वाली नाली के बगल में एक कमरा था.

काज़ी के साथ ‘वे’ बने रहे, बैठक में. दालान की तरफ आकर फिर अरूसा की गठरी पर खुश्की से कर बोले, “ये रास्ता है, यहाँ कहाँ बैठ गईं?.” वह लड़खड़ा कर उठी, बुरके की आदत तो कभी पड़ी ही नहीं थी. उधर गली में खुले सर घूमती. कौन इज्जत थी वहाँ?

“वो कच्चे छोटे दालान के पार नल के पास जो कमरा है. सो जाओ जाकर. बत्ती जला लेना. मेजवाला पंखा रखा है चला लेना.”

कमरा क्या था, कुठरिया ही थी, वहाँ से जरा बड़ी. वहाँ जमीन पर सोते थे माँ - बेटे, यहाँ एक बड़ा तख़त था, आईना था, ताखें थीं. खिड़की थी, बदबू न थी. उसने बुरका उतारा, दालान के नल पर जाकर मुँह धोया. अपने नए गोटा लगे दुपट्टे से पौंछ लिया. उसने सर उठाया उपर दुमंजिला था, जहां कमरे ही कमरे और अंदर की तरफ गोल दालान में झांकते गलियारे थे. कुछ जवान सजी औरतें वहाँ से झाँक रहीं थीं, खुसफुस करती, हँसती!

तभी खाना लेकर एक दुबली, कुछ लंबी सांवली - सी लड़की आ गई, उसे देख अपना अब्दुल सलाम याद आ गया. लेकिन उसने आजके दिन दिल कच्चा करने से खुद को रोक लिया.

“लगता है, बड़ी दावत हुई हती?” वह बरतनों के ढेर की तरफ इशारा कर फुसफुसाई. ”कौनसी दावत अम्मां? जे तो रोज के बर्तन हैं. मैं तो दफ़ा हो रई हूँ कल से. मैंने तो हिसाब कर लिया इस घर की चाकरी से. बहु जी ने कहलवाई है, पहला दिन है, थक रई होओगी, खा - पी के सो रहो. कुंडी कस के लगा लो.”

रात होते ही बिजली चली गई, वह बड़बड़ाई - वहाँ हते तो ‘टाट’ हटा के गली में निकल जाते, यहाँ तो रफीक़ साहब की बेगम...पर्देदारी का रिश्ता. वह दम घुटाते हुई चुप पड़ी रही. किसी ख़ास सुबह के इंतजार में.

सुबह जब वह तखत पर सिमटी, पसीने में लथपथ, प्यास से खुश्क़ गला लिए पड़ी थी कि एक लियाक़त से भरी औरत आई. ”सलाम वालेकुम अम्मां! मैं इस खानदान की बड़ी बहू हूँ ज़ौहरा, आप बावर्चीखाने में तशरीफ़ लाएँ तो मैं सबसे आपका ताअर्रुफ़ करवा दूँ!” उससे तो सलाम का जवाब देते तक न बना, जबान तालू से चिपक गई. वह उठी. उसने नल पर कुल्ला किया, मुँह हाथ धोए...लाल चुटीला, पुंछरी बालों में ढीला हो जमीन पर लोट रहा था. गलियारे से झाँकती एक छोकरी - सी, चिल्लाई, ‘अम्मां वजू कर रही हैं क्या? नमाज़ का वक्त तो कब का निकल गया.” ”समीना! लिहाज़!” बहू ज़ौहरा ने छोकरी को डाँटा. वे सहम कर बोलीं, ‘बेटा, हमने तो बस हाथ उठा कर दुआ मांगी है, जिनगी से नमाज पढ़ने की फुरसत और अदब नाय मिला, झूठ काहे कहें.”

बावर्चीखाने में हर उमर के बच्चे रो - पीट रहे थे, हर कोई बस भूख से बेहाल. बहुएँ चाय बैठक और दालान में पहुँचा रही थीं. नाश्ते में क़ीमे के पराठों की तैयारी हो रही थी. प्याज़ – अदरक इफरात में कट रहा, आटा गूंथा जा रहा था. कौन और किसका ताअर्रुफ़? उसे मायूस देख, ज़ौहरा उसका झुर्री भरा, काला हाथ पकड़ कर, उसमें चाय का एक प्याला देकर बोली, देखा अम्मां ऎसे ही परेशान होते हैं. कोई हमें संभालने वाला नहीं. अब आप आ गई हैं ना, अपनी सुघराई से सब संभाल लीजिएगा. पहले आप चाय पिएँ, मुझे तो चाय पीने की फुर्सत नहीं मिलनी आज, इतने बरतन जो पड़े हैं. छोटियाँ सब की सब गैरज़िम्मेदार हैं, मुझे ही अब्बू साहब को नाश्ता करवाना है, फिर वो कारख़ाने निकलेंगे न! अभी आप एक हफ्ते, बस आराम करें, फिर अब्बू का नाश्ता और आप जानें. मुनिया मरी को इतना लालच दिया भाग ही गई सुबह-सुबह.

ज़ौहरा पीछे को देखती मरे मन से बर्तनों की तरफ बढ़ी. वह शर्मा कर, सजग हो लपकी, “ लाओ बहू, हम कर दें तुम बिनका नास्ता देखो.”

वह तीन घंटे बर्तन माँजती रही, बर्तनों में जादू की तरह इजाफ़ा होता रहा. वह उठ कर बावर्चीखाने में गई तो एक परांठा और मठा ढका रखा था. ज़ौहरा और बाकि बहुओं का कोई अता – पता न था. उसने नाश्ता अपने कमरे में ले जाकर किया और लेट गई. वह कुछ तसल्ली पा कर हालात का तज़्किरा करती तभी फिर अफ़रा – तफ़री शुरु हो गई. दूसरी बहू कमरे में हाजिर, “अम्मां मैं तस्नीम हूँ. कैसी हैं आप? नाश्ता हुआ आपका? मैं खाना बनाने जा ही रही थी, दोपहर का खाना बनाने की ड्यूटी मेरी होती है, क्या बना लूँ? चलिए, जाने दीजिए आप कल रात ही तो आई हैं, क्या तंग करूँ, सोच रही थी, सुबह कीमे के परांठे बने थे, अभी हरा साग बना लूँ. क्या कहती हैं अम्मां?”

उसके सामने पालक – चौलाई का गट्ठर पड़ा था. वह साग साफ करती रह गई. फिर खाना मिला.

यही चाय के समय हुआ – “अम्मां मैं मंझली महरुन्निसा. शाम की चाय के साथ, आपको नानखताई दूँ, यह मिठाई भी खाईये ना! अरे इस पानी को भी कमबख़्त अभी आना था, और कपड़े अब तक अब्बू के धुले नहीं...उई आज तो मैं गई. सासम्मा के रहते हमें कोई चिंता नहीं हुई. एक दम बगुले सा बुर्राक़ रखती थीं वे अब्बू को.”

“लाओ बहू...मैं धो दूँ, बिनके कपड़े.”

वह पूरी शाम कपड़े धोती रह गई, कपड़े केवल ‘बिनके’ नहीं, समूचे खानदान के थे. रात के खाने के समय ज़ौहरा के बड़े बेटे की बहू, यानि उसकी पतोहू समीना ने जरा लिहाज नहीं किया,” अम्मां, अब्बू के खाने में बड़े नखरे हैं, नाराज़ हो गए तो..थाल फेंकेंगे सर पर, सो आप रोटियाँ संभालिये, मीट और सब्जियाँ मैं पका चुकी हूँ. अम्मी के सर में दर्द है. वे तो सो गईं.

बर्तन धोने का दम न बचा था उसमें. जिससे निक़ाह होकर आई थी ‘अरूसा’, उसकी शक्ल तो धुंधलके में निक़ाह की शाम देखी थी, और भूल गई. कमर दर्द से बिस्तर पर लोट – पोट होती, वह सोचती रही पहला दिन है...बहुएँ भी हड़बड़ाई हुई हैं. वे भी लड़कों – बहुओं वाले हैं शरमाते होंगे.

एक हफ्ता इसी अफ़रा – तफ़री में निकल गया. कोई कच्चे आंगन के इस कमरे की तरफ झाँका तक नहीं, न दिन में न रात में. एक दिन वह जब सुबह के बर्तनों की तरफ गुस्से में झाँकी नहीं, तो ज़ौहरा घबरा कर आई, “ अम्मां ठीक तो हो? मायूसी? “ ” ज़ौहरा, आपके अब्बू....” ” ओह अम्मां...क्या बताऊँ, बहुत लगाव था अब्बू को हमारी पहली वाली सास से, एक साल भी कहाँ हुआ है न, सो सोग मनाते हैं...आएंगे, इनसे कहूँगी भेजेंगे. उनकी मायूसी देख कर ही तो काज़ी जी से, इन्होंने कहा था कि अब्बू की तन्हाई देख कर मन टूटता है, कोई हमारी अम्मां सी साँवली सलोनी, सुघड़ शरीक़े – हयात मिल जाए, जो अब्बू को पूरी तरह संभाल ले, उनकी पसंद जान ले. कल खुद इन्होंने बताया कि अब्बू बड़ी तारीफ़ कर रहे थे कि ‘अरूसा बेग़म ने, बहुत दुख झेले हैं, फिर भी हँसमुख है. कुछ दिन बीत जाएँ तो हम, इनके लड़के को लिवा लाएंगे, अभी बस बिरादरी का ख्याल किए हुए हूँ.”

उस दिन पल्लू सिर पर डाल, ‘अरूसा’ तयशुदा काम खूब उत्साह से करती रही, रात को मुस्कुराती रही अकेले में बिलकुल अकेली होकर भी. “मना लीजिए सोग, हमें कौन जल्दी है? आह, उस दिन तो मैं रिक्से पर बैठ पीरबाबा की मजार जाऊँगी, जिस रोज अब्दुल सलाम यहाँ आ जाएँगे.”

इस तरह एक महीना बीत गया. रफीक़ साहब का सोग खत्म न हुआ. ज़ौहरा, तस्नीम, महरुन्निसा और समीना के उससे मेहनत वाले काम कराने के प्यारे बहाने अब सीधे हुक्म की शक्ल में बदलने लगे.

एक रात जब बर्तन मांजकर वह उठी और हाथ- मुँह धो रही थी कि बत्ती गुल हो गई. रोज का मामला हो चला था. थक कर उस घुटनभरे कमरे में जाने की जगह वह दालान में चंपा के पेड़ के पास बैठ गई. उसने देखा कि गलियारों की बत्ती पांच मिनट में आ गई थी. वह समझ गई उसकी तरफ़ का खटका निकाल दिया जाता था. तभी ज़ौहरा की आवाज़ आई, “उस तरफ की बिजली क्यों गुल कर देते हैं आप?” ”ज़ौहरा, नया क्या है? नौकरों के कमरों की तरफ़ वाले हिस्से में तो हमेशा से ऎसा होता रहा है.”

“रिज़वान कमाल करते हैं आप,बेचारी औरत गफ़लत में आ गई, अपना बेटा छोड़ कर और...” ”हाँ, अब्बू कह रहे थे, बेटा बुलवा लो इसका, किसी को भेज कर. कल एक ट्रेनी मिस्तरी कारखाना छोड़ भाग गया है.” अरूसा ने उस रात कोठरी का दरवाज़ा न उड़का...खिड़की खोल दी...तारों को देखती रही....और भोर के तारे की...अज़ान की प्रतीक्षा में उसने आँखें लाल कर लीं.

मां बताती थीं कि उस रोज़ पंद्रह अगस्त और जन्माष्टमी पहली बार एक साथ आई थी. देर रात से मां को हल्के – हल्के दर्द उठ रहे थे...मेरा जन्म उनके लिए अज़ाब होने वाला था, क्योंकि मैंने तय कर रखा था शुरुआत से ही, कि हर काम उल्टा करूँगी....सब सर के बल आते हैं, मैं पैरों से आऊँगी. पापा भागे थे, राजामंडी कॉलोनी में डॉ. माटिल्डा के घर. वे माँ की हालत देख घबरा गईं थीं. दादी से बोलीं, “ माता जी, बच्चा ब्रीच है. यानि पैर नीचे...देर और बहुत तकलीफ़ का मामला है.” माँ को डॉक्टरनी ने रीढ़ में कमदर्द के प्रसव का इंजेक्शन लगा दिया था...और ग्लूकोज़ के साथ, डायलेशन का. माँ दर्द और राहत के झूलों में झूल रही थी. अधेड़ एंग्लो-इंडियन डॉक्टरनी हाथ में दास्ताने पहनते हुए, बुदबुदा रहीं थीं.

“ओ मरियम, जिसने गर्भ लिया बिना गुनाह के कर उनके लिए दुआ जिनके हाथ तेरे लिए उठें.”

अगली सुबह छ: बजे माँ जिस पुकार पर चिहुँक कर उठीं, उसने मेरी भी ( गर्भजल में हिलते – डुलते) नींद उड़ा दी और मैंने जल्दी – जल्दी पैर बढ़ा दिए थे.....बाहर को....

“ओ माँ!” माँ कराह उठीं .

”ओ मरियम!” डॉक्टर ग्लव्ज़ वाले हाथों में खून सने नन्हें पैर थामते बुदबुदाईं.

तभी गली में वही पुकार उठी, जो खो गई थी.

“ अब्दुल सलाम! अब्दुल सलाम? कहाँ हे रे बिटवा?”

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