बुजुर्गों के फायदे
आर0 के0 लाल
मुझे निर्मल के साथ कहीं जाना था। जब उसके घर पहुंचा तो अंदर से तेज तेज लड़ने की आवाजें आ रहीं थी और निर्मल के माता पिता बाहर बैठक में मुंह लटकाए बैठे थे। मेरे पहुंचते ही आवाज तो बंद हो गई परंतु उनकी माता जी ने अपना दुखड़ा रोया- “बहु किसी ना किसी बात को लेकर हम दोनों परानी को खरी-खोटी सुनाती रहती है। कहती है हम दोनों वक्त की रोटी मुफ्त में तोड़ रहे हैं, ना काम ना धाम। निर्मल भी कुछ नहीं बोलता, इसी बात पर घर में कोहराम मचा है। मेरा काम भी उसे पसंद नहीं आता। समझ नहीं आता कि हम लोग कहां जाएं इस अवस्था में।”
मुझे उन पर बहुत तरस आया। निर्मल की पत्नी से पूछ लिया कि भाभीजी माजरा क्या है? उन्होंने मुझे समझाने का प्रयास किया कि दोनों बूढ़ा - बूढ़ी उनकी जान की आफत बन गए हैं । मैंने तो सोचा था की रिटायरमेंट के बाद बाबूजी मेरे बच्चों का ख्याल रखेंगे और मम्मी जी खाना- पीना तैयार कर देगी। परंतु दोनों बीमारी का ही बहाना बनाते हैं और सदैव अपना ही काम हमसे कराने की कोशिश करते रहते हैं । सासू जी जब देखो फ्रिज से कुछ न कुछ निकाल कर खाती रहती हैं ।आज मैंने कहा जल्दी बर्तन साफ कर दो, इन्हें जाना है तो उठी ही नहीं। बता दिया कि बुखार है । अब देखिए देर हो गयी ना ।” नान स्टॉप वे बोलती ही रहीं। निर्मल के चेहरे पर भी अपनी पत्नी से सहमत होने के भाव झलक रहे थे।
देर हो रही थी, इसलिए हम दोनों निकल लिए, परंतु रास्ते भर सोचता रहा - यह समस्या केवल निर्मल के घर की नहीं है और अनेकों घरों में विकराल रूप से देखने को मिलती है । मुझे याद आया कि हमारे पड़ोसी रमा भी अक्सर अपनी सास की हर बात में नुक्स निकालती रहती हैं । उस दिन तो हद हो गई जब उसके पति ने हलवा खाने की इच्छा व्यक्त कर दी। उन्होंने अपनी सास से हलवा बनाने के लिए कहा । उन्होंने काम शुरू किया परंतु किसी काम से एक मिनट के लिए उन्हें रसोई से बाहर जाना पड़ा। इसी बीच सूजी थोड़ी लाल हो गई। फिर क्या था। रमा रसोई में जाकर चिल्लाने लगी -” तुम सब खराब कर देती हो , सब कुछ उनकी गाढ़ी कमाई का है। जानबूझकर करती हो जिससे काम ना करना पड़े।” यह बात उनकी सासु को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने भी कुछ सुना दिया। फिर दोनों में घंटों बहस जारी रही और सूजी सही में जल गई। रमा के पति ने समझौता कराना चाहा पर रमा माफी मांगने को तैयार नहीं हुई । रमा के ससुर ने भी अपनी पत्नी की तरफदारी की । बहुत दिनों तक बातें नमक मिर्च की तरह जुड़ती गई । अभी कुछ दिन पहले उनके माता-पिता लंबी यात्रा पर चले गए हैं। शायद लौट कर भी ना आएं।
ऐसा नजारा तो मैंने अपनी बहन संगीता के यहां भी देखा है। संगीता का अपना संयुक्त परिवार है । उसके देवर और सास-ससुर साथ ही रहते हैं, साथ ही खाना बनता है, फिर भी सभी में आपसी तालमेल कुछ ज्यादा नहीं है। संगीता अपने सास-ससुर को चाय नाश्ते एवं दोनों समय खाने के लिए बुला लेती है । खाना खा कर वे दोनों अपने अपने कमरे में चले जाते हैं। किसी से कोई सरोकार नहीं । सास ससुर भी उससे कोई बात करने में संकोच करते हैं। सोचते हैं कहीं कोई डिस्टर्ब ना महसूस करें। मुझे लगा वहां ना तो संयुक्त परिवार का सुख है और ना ही अलग परिवार की स्वच्छंदता। सब कुछ एक होटल की भांति चल रहा है ।
बातों ही बातों में मैंने निर्मल को बताया कि अभी कुछ दिन पहले हमने एक समाचार पढ़ा कि किसी गांव में दो भाइयों में इसलिए मुकदमा चला कि दोनों अपने माता पिता को अपने साथ रखना चाहते थे । हलफनामे में दावा किया था कि माता पिता के अनुभव एवं उनके अभिभावक होने का तथा ज्ञान का फायदा उन्हें नहीं मिल पा रहा है जिस पर उनका अधिकार है । निर्मल ने भी हामी भरी कि ज्यादातर तो उसका उल्टा ही देखने को मिलता है। सकुचाते हुए वह बोला - “ हम सभी को कुछ ना कुछ प्रयास करना चाहिए और अपने बुजुर्गों का ख्याल रखते हुए उनका पूरा लाभ उठाना चाहिए।”फिर उसने मुझसे पूछा-” यार बताओ ! तुम्हारे यहां तो सब कुछ सही चल रहा है । वहां क्यों नहीं कोई लड़ाई होती इसका क्या राज है?
मैंने बताया कि ठीक इसी तरह की बात मेरे घर में भी हावी होने लगी थी जब मेरे पिताजी रिटायर हुए थे । कुछ दिन तो वे घूम टहल कर, पर्यटन कर अथवा रिश्तेदारों के यहां जाकर अपना समय काटते थे परंतु बाद में घर पर ही समय व्यतीत करने लगे। मेरी पत्नी को बहुत काम करना पड़ता था ।वह चिड़चिड़ाने लगीं थी। किसी ना किसी बहाने माता जी को, बाबूजी को कुछ ना कुछ ताने मार ही देती थी जिससे वे दुखी हो जाते थे।
बाबू जी ने सभी ऐशो आराम की वस्तुएं इकट्ठा की थी और सोचा था कि रिटायरमेंट के बाद आराम से इस का आनंद उठाएंगे। शुरू में तो सभी लोग उनका ख्याल रखते थे परंतु धीरे-धीरे परिवार के सभी लोग उनको इग्नोर करने लगे । उन्होंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन उन्हें बूढ़ा कह कर अलग कर दिया जाएगा जबकि वे सभी का कितना ख्याल रखते थे । मुझे पता चला कि वे अपने कई मित्रों के पास अपनी समस्या को लेकर गए थे, परंतु ज्यादातर लोगों ने कहा था “ क्या करेंगे साहब जमाना ही ऐसा हो गया है । जैसा है किसी तरह गुजारा कीजिए।”
काफी समय तक ऐसा ही चलता रहा मेरे घर में । फिर अचानक एक दिन मेरे पिताजी ने थोड़े पैसे लगाकर एक छोटी सी परचून कि दुकान खोल ली । पास के एक बेरोजगार लड़के को, जो नौकरी के लिए दर-दर भटक रहा था उसे भी अपने साथ लगा लिया था। भाग्य ने उनका साथ दिया और आज हमारे परिवार के कई लोग बाबूजी के मार्गदर्शन मैं अपना धंधा कर रहे हैं। घर में अब उनकी धाक है। उनका कहना है कि सभी रिटायर्ड लोग रिटायर होने पर कुछ ज्यादा ही कर सकते हैं क्योंकि उनके पास एक लंबा अनुभव होता है और थोड़ी बहुत पूंजी भी। फिर क्यों किसी का मोहताज होना। लोग घर में बैठे-बैठे तंग आ जाने पर अन्य लोगों को तंग करने लग जाते हैं।”
उन्होंने नियम बना दिया था कि रात का खाना सभी लोग साथ ही खाएंगे, दिन भर चाहे जहां रहें। खाते समय सभी अपनी समस्याओं पर चर्चा करते हैं। मनमुटाव होने पर तो बाबूजी समझौता कराने में पूरी मदद करते हैं। हम बातों को तो बर्दाश्त नहीं कर पाते परंतु हम लोगों ने बातों को इग्नोर करना सीख लिया है फल स्वरूप अपने पर नियंत्रण रखते हैं । हमारे यहां किसी पर कटाक्ष मारने की मानाही है। हमें समझ आ गई है कि मां बाप, बेटे बेटी छोटी-छोटी बात पर अलग होते रहते हैं। मां बाप भी ओल्ड होम चले जाते हैं तो बच्चों के ऊपर कोई बुजुर्ग नहीं रह जाता अगर थोड़ा सा अहम पर नियंत्रण रखा जाए तो इसकी नौबत ही ना आए क्योंकि हमें बुजुर्गों की जरूरत है। मुझे गर्व है कि मेरे यहां सुख शांति है।