Fanda yah hai ki books and stories free download online pdf in Hindi

फण्डा यह है कि

फण्डा यह है कि

सुषमा मुनीन्द्र

तीस वर्ष का समय बहुत होता है किसी युवा के स्नायुओं को ढीला और नजर को कमजोर कर बूढ़ा बना देने के लिये। इसीलिये अब खिलाड़ी की धसकती कमर में वह पुष्टता नहीं दिखाई देती जो मूर्तियों की साज—सज्जा करते हुये घण्टों खड़े रहने के लिये लाजिमी होती है। हॉं, ऊॅंगलियों में बहुत तराश बाकी है। लेकिन लोगों, खास कर यह जो नई पीढ़ी भरपूर युवा होकर भरपूर नयेपन के साथ ठीक सामने है, की आस्था को कुछ हो गया है। इन्हें मूर्तियों में — क्या तो कह गये वे चार युवक — इन्नोवेशन, वेरियेशन और डिफरेन्ट जैसा कुछ चाहिये। अर्थ बूझते खिलाड़ी को लगा समय—समय पर संग्राम यह जो कहता रहता है ‘बाबा तुम न मानो पर समय बहुत बदल गया है —। तो समय सचमुच बदल गया है। अपने काम की लिप्तता में खिलाड़ी बदलाव की टोह न ले पाया इसलिये उसे अनुमान नहीं है बदलाव धीरे—धीरे, सहज गति से अपनी वास्तविकता में हुआ है या आकस्मिक रूप से।

दंग है खिलाड़ी।

बाह्‌य जगत में हुये परिवर्तन ने परिदृश्य इतना बदल दिया है कि लगता नहीं यह वही नगरी है जहॉं वह तीस साल पहले बसने आया था। नयापन बहुत अधिक नया होकर चौगिर्द इस कार शुमार है कि पुरानापन उतना अधिक पुराना जान पड़ता है जितना पुराना है नहीं। और अन्तर्जगत में हुये बदलाव की क्या मिसाल दे ? नयापन, विविधता, डिफरेन्ट जैसे शब्दों को फण्डे का नाम देती युवा पीढ़ी के भीतर से होकर गुजरे परिवर्तन ने भावनात्मक रूप से ऐसा दिवालिया कर दिया है कि यह पढ़ी आस्था को मस्ती और मजाक समझती है।

खिलाड़ी खुद को साफ तौर पर छला हुआ पाता है।

उसके बाबा (पिता) से होकर उस तक पहॅुंचा परिवर्तन इतना बलवान नहीं था कि बाबा की धारणा को अपनी धारणा बनाने में वह तकलीफ या विद्रोह से गुजरता। बाबा की धारणा को उसने प्रतिरोध किये बिना पूरी रुचि से अपना लिया था लेकिन उससे होकर संग्राम तक पहॅुंचा परिवर्तन स्तब्धकारी है। संग्राम रुचि नहीं प्रतिरोध दिखता है —

‘‘बाबा, मैं तुम्हारी तरह मूर्तियॉं बनाऊॅंगा यदि तुम ऐसा सोचते हो तो यह अन्याय जैसी बात है। मुझे अच्छा जॉंब चाहिये। अधिक से अधिक डिग्रियॉं चाहिये। तुम्हारे धंधे में बरक्कत नहीं है।''

खिलाड़ी की बरौनियॉं झपक जाती हैं। उसने बाबा के व्यवसाय को हमारा धंधा कहा। संग्राम तुम्हारा धंधा कह कर खुद को अलग कर लेता है। तकनीकि शिक्षा ग्रहण करने वाली इस पीढ़ी को सचमुच किसी को सान्त्वना पहुॅंचाने जैसा ख्याल नहीं आता।

‘‘शौंग्राम, बरक्कत को लेकर तुम्हारे दादा कभी परेशान नहीं रहे। मैं भी। बरक्कत से अधिक उन्हें अपने हुनर का गौरव रहा। मुझे भी।''

‘‘अरे बाबा, बरक्कत न हो तो हुनर का असर खत्म हो जाता है।''

***

‘‘शौंग्राम, तुम्हारे दादा कहते थे हाथ पर भरोसा करने वाला मूर्तिकार बड़ा व्यवसायी कभी नहीं बन सकता। मेरा भी यही मानना है। इसीलिये मैं अपने काम को रोजगार कम, साधना ओैर उपासना बल्कि पुण्य मानता हॅूं। बरक्कत न सही बस इतना काम जरूर मिलता रहे कि हाथ खाली न रहे।''

‘‘काम कोई भी बुरा नहीं होता यदि प्रॉंफिट दे। तुम्हीं कहते हो मूर्तियॉं बनाना अब घाटे का सौदा हो गया है। कई बार तो लागत मूल्य पर मूर्तियॉ बेंचनी पड़ती हैं। बाबा, अब तुम्हारी कला के पारखी नहीं रहे।''

पारखी सचमुच नहीं रहे।

लेकिन मूर्तियों के चेहरों में सुख—दुःख के भाव भरते हुये खिलाड़ी इस कला से इतना जुड़ गया है कि उसे लगता है मूर्तियॉं नहीं बनायेगा तो पर्व पूरा नहीं होगा। न गणेश उत्सव न शारदेय नौरात्र। अब तो लगता है मृतिका (प्रतिमा बनाने के लिये तैयार की गई मिट्‌टी) ही उसकी पहचान है। मृतिका से अलग होकर व्यक्तित्व खो देगा। छुटपन से देखता रहा है बाबा ने भिन्न ऊॅंचाई के आधारभूत ढॉंचे तैयार कर रखे हैं। क्या—क्या गढ़ कर सूखने के लिये रखा है। चॅूंकि सम्पूर्ण उत्सव—आयोजन दुर्गा के निमित्त होता है, इसलिये दुर्गा की मूर्तियॉं खास ध्यान रख कर बनाते थे। काम्बीनेशन के लिये बनती हैं लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश,कार्तिकेय, असुरों की मूर्तियॉं। महिषासुर मर्दिनी का माला होता है भूलुण्ठित असुर की छाती पर। मूर्तियों के लिये सवारियॉं बनाई जाती हैं। शेर, उल्लू, हंस, चूहा मोर। असुर की सवारी भैंसा। तब उसे देवी—देवताओं की मूर्तियों से अधिक उनकी सवारियॉं पसंद थीं। चूहा बहुत लुभावना और मासूम लगता।

‘‘बाबा, मैं इस चूहे को खेलने के लिये ले लूॅंगा।''

बाबा सावधान करते ‘‘न छूना। टूट जायेगा। तुम्हारे लिये छोटा चूहा बना दॅूंगा।''

‘‘बाबा, मुझे चूहा बनाना सिखाओ''

‘‘सिखाऊॅंगा। यह हमारा पारिवारिक काम है।''

बाबा की कार्यशाला खिलाड़ी का क्रीड़ास्थल।

मिट्‌टी, मिट्‌टी में मिश्रित की जाने वाली सन की रस्सी (शेर के बाल), शंख, सिक्के, माचिस की तीलियॉं, मछली की हडि्‌डयॉं, मसूर दाल, रंग, पोषाक, जेवरात तमाम सामग्री अचरज जगाती थी। खिलाड़ी कार्यशाला में काफी वक्त बिताता। मॉं बॉंह पकड़ कर खींचने लगती —

‘‘खिलाड़ी बस्ता उठाओ। पढ़ते नहीं हो।''

बाबा हॅंसते ‘‘पढ़ेगा। थोड़ा काम सीखने दो। बचपन में लगन लग जाती है, फिर नहीं लगती।''

मॉं अरुचि का प्रदर्शन करती ‘‘यही पढ़ाई का है। अभी लगन नहीं लगेगी तो नहीं लगेगी।''

बाबा हॅंसते ‘‘लगन कहॉं लगेगी, खिलाड़ी पर छोड़ दो।''

बाबा पढ़ाई से अधिक मूर्तियॉं बनाने के लिये प्रेरित करते थे इसलिये खिलाड़ी के नायक थे। तपाक से कहता —

‘‘बाबा मैं तुम्हारे साथ काम सीखॅूंगा।''

बाबा हॅंस देते। वे कम बोलते थे। हॅंस कर अधिक अभिव्क्ति देते थे।

***

इसी तरह जब संग्राम छोटा और उसकी बहन सुब्रता बहुत छोटी थी तब दोनों को खिलाड़ी की कार्यशाला जादुई लगती थी। संग्राम पूॅंछता ‘‘बाबा, यह किरोसिन क्यों रखे हो ?''

‘‘मूर्ति बनाते समय मिट्‌टी को सुखाने के लिये इसकी जरूरत पड़ती है।''

‘‘बाबा, मेरे लिये छोटा भैंसा बना दो। इस बड़े भैंसे की तरह।''

खिलाड़ी ठीक अपने बाबा की तरह हॅंसता ‘‘बना दूॅंगा। और शुब्रोता तुम्हारे लिये ?''

सुब्रता को देवी पसंद थी ‘‘बाबा, मेरे लिये छोटी सी दुर्गा बना दो।''

खिलाड़ी की पत्नी बानी दोनों को घसीट ले जाती ‘‘बस्ता पकड़ो। खेल बहुत हुआ।''

खिलाड़ी प्रेरित करता ‘‘खेलने दो। खेल—खेल में कुछ सीख लेंगे।''

बानी जिद पकड़ लेती ‘‘नहीं। शौंग्राम पढ़ाई में कितना तेज है। पढ़ेगा।''

‘‘पढ़ेगा। अपना पारिवारिक काम भी सीखेगा। अपने काम के हम मालिक। मैं अपने बाबा की कितनी मदद करता था।''

‘‘क्योंकि तुमसे मैट्रिक से आगे पढ़ा न गया। कितनी बार फेल हुये। मूर्तियॉं न बनाते तो कौन सो ओहदा सम्भालते ?''

सुब्रता हैरान होती ‘‘बाबा, तुम फेल हो जाते थे ? मैं इतने अच्छे नम्बर लाती हॅूंं।''

अपने अतीत पर खिलाड़ी हॅंस देता ‘‘तीन बार फेल हुआ लेकिन मैट्रिक पूरा किया।''

मैट्रिक पूरा करने तक खिलाड़ी ने मिट्‌टी तैयार करना, एकसार कर ऐसा बनाना कि चाहे जैसे मोड़ लो, कटाव दे दो, सीख लिया। बाबा कहते ‘‘खिलाड़ी, माटी ही एक चीज है जो रौंदे जाने पर और सुंदर हो जाती है। जितना रौंदो उतनी मुलायम। उतनी लचीली। देखते—देखते ऐसी आकृति ले लेती है कि फिर उससे सुंदर कुछ नहीं होता।''

‘‘सचमुच बाबा। जब हम रंग भर कर मूर्तियों को तैयार कर लेते हैं कैसी जीवित लगने लगती हैं।''

खिलाड़ी बहुत एकाग्र होकर मूर्ति को आकार देता है। जैसे मूर्ति को अपने रक्त—मज्जा से जन्म दे रहा हो। उसकी तेज नजर जॉंच लेती है कहॉं कमी रह गई और सिद्ध ऊॅंगलियॉं तत्काल दुरुस्त कर देती हैं। मूर्ति बनाते हुये बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। मोटाई, लम्बाई का अनुपात ऐसा हो कि मूर्ति छरहरी, प्रलम्ब, संतुलित काया ग्रहण करे। गणेश के अलावा मूर्तियों के चेहरों के भाव सम्भालने में कठिनाई होती है। गणेशजी के मुख की भंगिमा नहीं बदलती। उनका एक ही मन मोहक रूप होता है। जबकि अन्य मूर्तियों के चेहरे में क्रोध, स्मिति, ममता, दया जैसे भाव भरने होते हैं। भाव से मेल खाती ऑंखें, ओंठ, कपोल की बनावट होती है। ऑंखों में कृपा हो, अधरों में दिव्य मुस्कान (मूर्तियॉं हॅंसती नहीं, मुस्कुराती हैं)। और जब मूर्ति अंतिम रूप से तैयार हो जाती है वह मुग्ध हो जाता है। उसकी तराश उत्कृष्ट है। बाबा की तरह।

फिर एक समय आया जब बाबा ने भॉंप पर कहा ‘‘खिलाड़ी अब हमारे धंधे में फायदा नहीं होता।''

‘‘फिर बाबा ?''

‘‘यहॉं कलकत्ते (अब कोलकाता) में बहुत मूर्तिकार हैं। बहुत बार होता है हमारी मूर्तियॉं नहीं बिकती। बाहरी प्रान्तों में मूर्तियॉं सप्लाई न हों तो हम बैठ जायें।''

‘‘फिर बाबा ?''

बाबा ने थोड़ी खोज—बीन कर रखी थी ‘‘दूसरे प्रान्तों में मेहनताना दूना है। ठेका पहले ही मिल जाता है। शायद वहॉं अच्छे मूर्तिकार नहीं होंगे। मैं बूढ़ा हुआ। अपना देस—गॉंव छोड़कर कहॉं जाऊॅं। कुछ लोग मध्यप्रदेश जा रहे हैं। तुम जाओ। काम न जमेगा तो लौट आना।''

बाबा की बात ब्रम्ह वाक्य।

खिलाड़ी जत्थे के साथ रेल गाड़ी में सवार हो मध्यप्रदेश के जिस छोटे नगर में उतरा वह विन्ध्य प्रदेश का औद्योगिक क्षेत्र है। तब दो सीमेन्ट फैक्टरी थीं आज छः हैं और नगर पालिका से नगर निगम बना यह शहर सीमेन्ट हब के लिये चिन्हित किया जाने लगा है। जत्थे के लोग परिवार लेकर नहीं आये थे। वह भी बानी और दो साल के संग्राम को बाबा के सुपुर्द छोड़ आया था। सुब्रता यहॉं पैदा हुई। जत्था सप्ताह भर रेल्वे स्टेशन में पड़ा रहा। सभी लोग पैदल चलते हुये दिन भर शहर घूमते और जानकारी एकत्र करते। खोज—बीन कर मुख्तियारगंज वाले काली बाड़ी मंदिर पहुॅंचे। नौकरी के लिये इस नगर में आ बसे बंगालियोंं से भेंट—मुलाकात की। पहल यहॉं दुर्गा पूजा को उत्सव जैसा व्यापक रूप नहीं मिला था। श्रद्धालु प्रमुखतः स्त्रियॉं चैत्र और शारदेय नौ रात्र पर देवी के मंदिरों में जल ढारतीं, पूजा—अर्चना करतीं और कन्याओं को भोजन कराती थीं। सार्वजनिक स्थलों में प्रतिमा स्थापना का चलन कदाचित बंगालियों ने शुरू किया। एक प्रान्त की संस्कृृति, कला, सोच इसी तरह दूसरे प्रान्त तक पहॅुंच कर स्थानीय स्वरूप ले लेती हैं। खिलाड़ी को याद है जब वह यहॉं बसने आया था गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से सम्पन्न नहीं होता था। महाराष्ट्रियन परिवार घरों में गणेश स्थापना करते थे। महाराष्ट्र की धूम देख अब यहॉं भी सार्वंजनिक स्थलों में गणेश स्थापना होती है। खिलाड़ी को पहली नजर में इस अनचीन्हीं जगह ने निराश किया था लेकिन बंगालियों ने उत्साह दिया और उपाय बताया —

‘‘रावणा टोला से लगे विशाल मैदान में कुछ स्थानीय और बाहरी शिल्पकार बसे हैं। मिट्‌टी के कलात्मक खिलौने, गमले, दीये और छोटी—मोटी मूर्तियॉं बनाते हैं। इनकी तराश अच्छी नहीं है इसलिये आर्डर देकर बाहर से मूर्तियॉं मॅंगवाई जाती हैं। तुम लोग कलकत्ते से आये हो। मेहनत करोगे तो काम जमा लोगे ————।''

खिलाड़ी ने जत्थे के साथ मैदान में जगह बना ली। तब न जमीन का मोल था न जमीन को लेकर लोग इतने जागरुक बल्कि प्रलोभी हुये थे। लोगों को कल्पना नहीं थी कोलगवॉं और कबाड़ी टोला जैसे शहर से सुदूर निर्जन क्षेत्र, जहॉं लारी—मोटर से पहॅुंचने के लिये टिकिट लेना पड़ता था, एक दिन शहर इन क्षेत्रों को अपनी गिरफ्त में ले लेगा और ये क्षेत्र पॉंश कालोनी की सुनियोजित बुनावट और गठन लेकर सिद्धार्थ नगर और कृष्ण नगर जैसे चमकीले नाम से जाने जायेंगे। खिलाड़ी नगर के विस्तार को देख कर अकबकाया रहता है। किस तरह फैलता—पसरता जाता है शहर। कैसे बढ़ जाती है लोगों की तादाद और कहॉं से इतना पैसा आ जाता है कि चाहे जिस कीमत पर लेकिन लोगों को पॉंश कालोनी में मकान चाहिये।

***

भाषायी समस्या और तमाम भिन्नताओं से ऊब कर जत्थे के कई लोग कोलकाता लौट गये लेकिन खिलाड़ी ने थोड़ी जमा—पॅूंजी, थोड़ा डेरा—सामान और पारम्परिक हुनर के साथ इस औद्योगिक नगरी को अपनी आबोहवा बना लिया। बानी और संग्राम को लेने गया तब बाबा पूॅंछने लगे —

‘‘खिलाड़ी, कैसा क्या है ?''

‘‘बाबा, वहॉं दुर्गा पूजा का जबर्दस्त माहौल बनता है। अच्छा काम मिलेगा लेकिन बोली—भाषा की समस्या है।''

बाबा का मुख चमकने लगा था ‘‘बोली—भाषा कोई समस्या नहीं होती। हुनर अपनी राह बना लेता है।''

बाबा ने ठीक कहा था बोली—भाषा समस्या नहीं होती।

संग्राम और सुब्रता ने मध्यप्रदेश का सब कुछ सीख लिया है। बोली—भाषा तो क्या वे टोन से भी बंगाली नहीं लगते।

हुनर की बात पर खिलाड़ी ने बाबा को आश्वस्त किया था ‘‘हॉं, बाबा, मुझे उम्मीद है, अच्छा काम मिलेगा।''

‘‘जगह कैसी है ?''

‘‘शान्त है।''

जगह शान्त है। आतंकी हमले हों, बाबरी मस्जिद ध्वंस, जम्मू—कश्मीर का मामला —— एहतियात के तौर पर रेड एलर्ट होता है लेकिन एक छोर पर आबाद नजीराबाद से लेकर अंतिम छोर वाले कुली नगर तक शान्ति कभी भंग नहीं होती।

खिलाड़ी आज हैरान होता है। कैसे उसने इस जगह को अपना कार्य क्षेत्र बनाया और किस तरह हिंदी और स्थानीय बघेली बोली को समझना—जानना सीखा। दुर्गा पूजा पर बानी कोलकाता जाना चाहती थी। खिलाड़ी ने रोक लिया —

‘‘अबकी बार यहॉं का धूम—धमाल देखो।''

जयकारे वाले दिन और चहल—पहल वाली नौ रातें। स्वर्ग धरती पर उतरा था। बिजली से जगर—मगर करता शहर, बाजार, बस्तियॉं, सड़कें, चौराहे, प्रतिष्ठान, सदन। विशाल पण्डालों में तेज प्रकाश, भव्य सजावट, धूप, लोबान, अगरबत्ती की सुगंधि, ढोल, मंजीरे की धुन के बीच बिराजी दुर्गा के विविध रूप।

बानी कौतुक के से भाव में थी ‘‘झॉंकिया ऐसी बढ़िया सजी हैं कि ऑंख नहीं ठहरती है।''

खिलाड़ी ने मूर्ति की ओर संकेत किया ‘‘मूर्ति को भी देखो। पण्डाल की जान हमारी मूर्तियॉं होती हैं।''

‘‘तुम्हारी मूर्ति ? तुमने गिनती की मूर्तियॉं बनाई, वह भी नहीं बिकीं। छोटी झॉंकियों वाले जरूर दो—चार खरीद ले गये।''

खिलाड़ी ने पहले साल कम मूर्तियॉं बनाई। उनमें कुछ बिना बिके पड़ी रहीं। लोग बाहर से मूर्तियॉं मॅंगाना श्रेयस्कर मानते थे। खिलाड़ी की तराश अच्छी थी या तकदीर। बेउली मोहल्ला में स्थापित उसकी बनाई मूर्ति को दशहरा उत्सव प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला। प्रतिभा के इस प्रमाण पर खिलाड़ी का मुख चमकने लगा था।

‘‘बानी अब हमारी मूर्तियों की मॉंग बढ़ेगी।''

खिलाड़ी की कला को निर्णायकों ने सराहा तो लोग भी आकृष्ट हुये। खिलाड़ी ने निर्माण बढ़़ा दिया। स्थानीय शिल्पकार गमले, दीये, खिलौने बनाते थे लेकिन बिक्री इतनी नहीं होती थी कि साल भर व्यस्तता बनी रहे। सीजन में खिलाड़ी उन्हें सहायक के तौर पर अपने साथ लगा लेता। स्वयं आधारभूत ढॉंचे तैयार करता। सहायकों से आवश्यकतानुसार काम लेता। लेकिन सहायकों में वह बात नहीं थी जो खिलाड़ी में थी। खिलाड़ी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती। कुछ लोग तैयार माल से मूर्ति पसंद करते। कुछ लोग ढॉंचा पसंद कर एडवांस दे जाते। मूर्ति की ऊॅंचाई और भव्यता के आधार पर मूल्य बनता है लेकिन लोग भाव—ताव कर निर्धारित मूल्य को कम करने के लिये अड़ जाते। खिलाड़ी उन्हें काम की बारीकियॉं समझाता —

‘‘बाबू, नोक—पलक तक सॅंवार कर बनानी पड़ती है। रंगों का मेल देखो। काम की तराश देखो।''

‘‘देखते हैं और इसीलिये तुम्हारे पास आते हैं। कीमत बहुत बताते हो।''

‘‘कीमत वाजिब है। सीजन तक इतनी मूर्तियॉं अकेले नहीं बना लेता हॅूं। कारीगर रखता हूॅं। उन्हें मेहनताना देता हॅूं।''

‘‘ठीक कहो, तो फाइनल करें।''

‘‘पण्डाल, लाइट, झॉंकी, देवी जागरण, आर्केस्ट्रा, भण्डारा में आप लोग इतना खर्च कर देते हो और मूर्ति का इतना मोल भाव। सारा ताम—झाम मूर्ति बिराजने के लिये होता है न। हम मूर्तिकारों को मेहनताना न मिले तो धंधा कैसे होगा बाबू ? दूसरा काम जानते नहीं।''

‘‘चलो, फाइनल बात करो।''

बहस के बाद सौदा पटता।

सौदेबाजी पर बानी विक्षुब्ध होती —

‘‘इसीलिये कहते हो शौंग्राम मूर्ति बनाना सीखे ? कोई सुख नहीं इस काम में।''

खिलाड़ी पर जुनून सवार ‘‘जो सुख है तुम न समझोगी।''

सुन कर संग्राम हीनता से भर जाता ‘‘बाबा, तुम्हारे काम में दम नहीं है। मुझे पढ़ना है। यह मेरा स्कूल का आखिरी साल है। मेरे दोस्त पढ़ाई की कितनी बातें करते हैं। मैं उनसे कहॅूं आगे नहीं पढॅूंगा, मूर्तियॉं बनाऊॅंगा ?''

खिलाड़ी ने समझ लिया है शिल्पी विरासत का वह अंतिम शिल्पकार है। एक दिन सुब्रता ब्याह कर चली जायेगी और संग्राम जॉंब लेकर किसी महानगर में बसेगा। खिलाड़ी शिथिल हो जाता है। लेकिन वक्त शांत बैठने नहीं देता। सीजन शुरू हो रहा है। भादौं और क्वॉंर खास हुल्लड़ वाले माह होते हैं। पहले गणेश उत्सव फिर पितृ पक्ष के ठीक बाद शारदेय नौरात्र। इसके बाद एक लम्बा विश्राम मिलेगा। गणेशजी की छोटी मूर्तियों की मॉंग अधिक है। इसलिये तादाद में बनाना पड़ता है। महाराष्ट्रियन परिवार घरों में स्थापना के लिये खरीद ले जाते हैं। बड़ी मूर्तियॉं पण्डालों में सजती हैं कुछ लोग गणेश के साथ शंकर और पार्वती की मूर्तियों की मॉंग करते हैं।

खिलाड़ी के लिये यह खुशी का मौका है।

उसकी सबसे विशाल गणेश प्रतिमा अच्छे दाम पर बिक गई। स्कूल से लौटी सुब्रता ने बताया ‘‘बाबा, वह बड़ी मूर्ति बस स्टैण्ड के बगल वाले मैदान में रखी गई है। मैंने स्कूल से आते समय देखा।''

‘‘मूर्ति कैसी लग रही थी ?''

‘‘बहुत सुंदर, लेकिन रात में देखने का अलग मजा है।

दादा (संग्राम) पढ़ने मुम्बई चला गया वरना मुझे झॉंकी दिखाने जरूर ले जाता था।''

‘‘शाम को तैयार रहना। दिखा लाऊॅंगा।''

सॉंयंकाल खिलाड़ी, बानी और सुब्रता को उत्सव दिखाने ले गया। खिलाड़ी को पण्डाल में बिराजी मूर्तियों की साज—सज्जा लुभाती है। बाहर से मॅगाई गई प्रतिमाओं की बारीकियॉं देखता—परखता है। अमल करता है अपनी मूर्तियों में क्या सुधार करे कि मूर्ति की गरिमा बढ़े। बस स्टैण्ड के मैदान वाले पण्डाल में बिराजी अपनी मूर्ति को देख कर उसे उत्कृष्ट मूर्तिकार होने का गौरव हुआ।

सुब्रता कहने लगी ‘‘है न बाबा हमारी मूर्ति ? पण्डाल से लेकर मूर्ति तक सब कुछ सफेद है। पण्डाल सजाने वालों ने बड़ा दिमाक लगाया है।''

सुब्रता की टिप्पणी पर खिलाड़ी, बानी की ओर देख कर मुस्कुराया ‘‘अच्छा, अच्छा। तुम कला को समझने लगी हो।''

लेकिन अर्जित उत्साह सगमनिया मोहल्ले की झॉंकी को देख कर चूर हो गया। मध्यम ऊॅंचाई के मसल का प्रदर्शन करते सिक्स पैक एब्स वाले गणेश गौरव के साथ खड़े हैं। बाजार रोज बदल कर नया हो रहा है और बाजार से मेल खाते गणेशजी। खिलाड़ी मूर्ति को आपाद मस्तक देखता रह गया। कैसा मसखरापन है। यह कौन शिल्पकार है जो देवी—देवताओं को बेहूदा बना रहा है ? लोगों की आस्था से खिलवाड़ कर रहा है ? और ये जमघट लगाये हुये लोग कितने कौतुक से गणेशजी को देख रहे हैं। तभी किसी किशोर ने कहा —

‘‘धॉंसू गणेशजी।''

सुनकर ठहाका लगा और ठहाके के बीच आवाज उभरी ‘‘मूर्तिकार ने एकदम अलग कल्पना की है।''

मसखरेपन को लोग कल्पना कह रहे हैं। खिलाड़ी का दिल टूट गया। जबकि टोकरे में भरा मुरमुरा—बॅूंदी प्रसाद रूप में वितरित करता युवक स्टाइल से बताने लगा —

‘‘हमारा आइडिया है। पैसे अधिक देने पड़े लेकिन मूर्तिकार ने ठीक वैसा बना दिया जैसा हम चाहते थे। सिक्स पैक एब्स एकदम लेटेस्ट है। लोग पसंद कर रहे हैं। बच्चे तो देखते रह जाते हैं।''

खिलाड़ी का हौसला जाता रहा।

‘‘बानी, घर चलो। बड़ा शोर है। मेरे सिर में दर्द हो गया।''

खिलाड़ी बिछौने पर सुस्त पड़ा रहा। सेल फोन पर संग्राम का चौथा कॉंल लेकिन नहीं सुना। तब सुब्रता ने कॉंल रिसीव किया। हैलो कहने से पहले संग्राम झल्लाकर कहने लगा —

‘‘बाबा, तब से लगा रहा हॅूं, तुम सुनते नहीं हो।''

‘‘दादा, बाबा के सिर में दर्द है।''

‘‘तबियत ठीक नहीं है क्या ?''

‘‘हम लोग झॉंकी देखने गये थे। एक झॉंकी में गणेशजी के सिक्स पैक एब्स हैं। वह देख कर बाबा को अच्छा नहीं लगा।''

‘‘बाबा को सेल दो। मैं बात करूॅंगा।''

खिलाड़ी की आवाज बहुत बदली हुई थी ‘‘गणेशजी को लोग फिल्मी बना रहे हैं। यह कैसा मसखरापन शौंग्राम ?''

‘‘बाबा इसे बिजनेस का फण्डा कहते हैं। लोग जैसी डिमाण्ड करेंगे, मूर्तिकार बनायेंगे।''

‘‘देवी—देवताओं का मजाक बनायेंगे ?''

‘‘बाबा अब मूर्तियॉं बनाना श्रद्धा, आस्था और तुम्हारी मॉंनू तो पुण्य का काम नहीं रहा। बिजनेस बन गया है। भगवान को अब हाईटेक बनना पड़ेगा। जो बाजार की नब्ज पकड़ना जानता है, वही बिजनेस कर पाता है, यह आजकल का फण्डा है।''

‘‘ऐसा होता तो बेटा मेरे हाथ खाली हो जाते।''

‘‘हो जायेंगे। अब लोग मिट्‌टी की नहीं फाइबर और प्लास्टर ऑंफ पेरिस की मूर्तियॉं पसंद करते हैं। सस्ती, सुंदर और वजन में हल्की होती हैं। बाबा तुम देखना नहीं चाहते लेेकिन सब कुछ बदल गया है। पान वाले अब पान कम गुटखा पाउच अधिक बेंचने लगे हैं। कोल्ड ड्रिंक ने गन्ने के रस और लस्सी की बिक्री घटा दी। घड़े कम बिकते हैं। फ्रीज है, वाटर कूलर है। लोग अब सुराही लेकर सफर नहीं करते। बोतल बंद पानी तमाम मिलता है। पत्तल—दोना बनाने वाले भूखों मर रहे हैं। प्लास्टिक और कागज के बर्तनों ने उनका काम छीन लिया है। श्रद्धा, आस्था, उपासना सब कुछ रेडीमेड हो गया है। और बाबा तुमने कभी विसर्जन के बाद का सीन देखा है ?''

खिलाड़ी ने एक—दो बार विजया दशमी का चल समारोह देखा है पर विसर्जन देखने नहीं गया। दशहरे के दिन शहर भर की मूर्तियॉं पण्डालों से उठा कर दशहरा मैदान ले जायी जाती हैं। रावण वध के बाद राम, लक्ष्मण, सीता की सवारी निकलती है। उनके पीछे ट्रक और ट्रैक्टर ट्रालियों में झॉंकियॉं होती हैं। जुलूस मुख्य पथ से होता हुआ शहर से आठ किलोमीटर दूर विसर्जन के लिये जब टमस नदी पहॅुंचता है, भिनसार होने लगता है। मूर्ति खरीदने वालोंं के लिये स्थापना की तरह विसर्जन भी एक उत्सव है पर खिलाड़ी अपनी मूर्तियों से जुड़ जाता है इसलिये विसर्जन दर्द देता है।

‘‘विसर्जन क्यों पूॅंछ रहे हो ?''

‘‘पिछले साल गणेश विसर्जन के बाद मैं समुद्र तट पर गया था। बाबा समुद्र तट एकदम खराब था। इतनी गंदगी थी। जहॉं—तहॉं मूर्तियों के टुकड़े, कपड़े क्या—क्या पड़ा था और लोग रौंद रहे थे। मूर्तियों को सुंदर बनाने के लिये अब यह जो डिस्टेम्पर, ऑंइल, पेंट, पोस्टर कलर, क्ले केमिकल का प्रयोग किया जाता है न पानी को इतना जहरीला बना दे रहे हैं कि विसर्जन के बाद हर साल कितनी मछलियॉं मर जाती हैं। बाबा, कभी टमस नदी जाकर विसर्जन देखना ———।''

विसर्जन दर्द देता है लेकिन विसर्जन के बाद की गति—स्थिति देखने खिलाड़ी टमस नदी गया। गंदा रेतीला तट। औंधी पड़ी एक मूर्ति का चेहरा पानी में डूबा था और शेष ढॉंचा उपेक्षित सा इस तरह पानी के बाहर था मानो विसर्जित करने की चेष्टा भर की गई है। खिलाड़ी विचलित हुआ। दुख की बात है, लोग विसर्जन तक ठीक से नहीं करते। मूर्ति से ध्यान अलग कर उसने देखा आस—पास की बस्ती से आये कुछ लोग नहा रहे हैं, कुछ साइकिलें धो रहे हैं। एक ओर समूह में खड़े चार—छः लोग शोक सूचक बातें कर रहे हैं। खिलाड़ी समूह में जाकर खड़ा हुआ —

‘‘कोई हादसा हो गया ?''

एक ने बताया ‘‘मूर्ति सिराते समय दो लड़के डूब कर मर गये। सत्रह—अठारह साल के रहे होंगे। लाश देख कलेजा मॅुंुह को आता था।''

खिलाड़ी का विचलन बढ़ गया ‘‘कैसे हो गया यह सब ?''

‘‘लड़के शराब पिये थे। मस्ती में पानी में उतरे और गहरे चले गये।''

विचलित हुआ खिलाड़ी—युवाओं के लिये यह आस्था का नहीं शराब पीने का मौका है।

‘‘इतने छोटे लड़के शराब पीते हैं ? यह उम्र न शराब पीने की है न मरने की।''

खिलाड़ी ने कहा तो समूह ने उसे अचरज से निहारा। यह कौन नाजानकार है, जिसे दुनिया की खबर नहीं है ? लोग खिलाड़ी को सुनाकर टिप्पणी देने लगे —

‘‘आप इस शहर में नये हो क्या ?' त्योहारों, उत्सव में जो कुछ बड़े शहरों में होता है यहॉं भी होने लगा है। लड़के—लड़कियॉं रात भर घर से बाहर रह कर मौज—मस्ती करने का मानो परमिट पा जाते हैं। गरबा ———— डांडिया क्या कहते हैं उसकी आड़ में लड़के—लड़कियॉं रात भर घर से गायब रहते हैं और होटलों में रूम बुक कर मौज—मस्ती करते हैं। न मॉं—बाप को फिक्र है न इन जवानों को शर्म—लिहाज।''

खिलाड़ी से कुछ कहते नहीं बना।

अन्य ने टिप्पणी दी ‘‘भक्ति के नाम पर मस्ती। पूरे शहर में फिल्मी तर्ज वाले भक्ति गीत रात भर इतने तेज वाल्यूम में बजते हैं कि आदमी सो नहीं पाता। देवी जागरण के नाम पर फूहड़ नाच—गाना होता है या गंदे डांस और फूहड़ चुटकुलों वाली आर्केस्ट्रा बुला ली जाती है। अब आस्था और भक्ति की बात न पूॅंछो।''

विचलित है खिलाड़ी।

सचमुच समय इतना बदल गया है कि सब कुछ बदल गया है। बाजार बदल गया है। लोग बदल गये हैं।

कला को परखने, त्योहारों पर आस्था रखने वाले लोग पुराने होकर पीछे कहीं छुपते हुये निष्क्रीय हो गये हैं। सक्रिय होकर उनके स्थान पर आ खड़े हुये नये लोग बाजार से संचालित हो रहे हैं। मूर्ति बनाना अब सचमुच घाटे का सौदा हो गया है। न लोग कला का मूल्य समझते हैं न सरकार कला को बचाये रखने में मदद करती है। कितने ही मूर्तिकार हैं जो सीजन के अलावा खाली बैठे रहते हैं। सीजन में इतनी कमाई नहीं हो पाती कि साल भर काम चले। विवश होकर लाइट डेकोरेशन जैसे दूसरे काम पकड़ लेते हैं।

खिलाड़ी को लगता है अब उसके हाथों में वह क्षमता नहीं बची जो मृतिका को आकृति में बदलती है। नोंक—पलक सॅंवारने का चाव अब अपने भीतर उत्पन्न न कर पायेगा।

खिलाड़ी माह भर सुस्त पड़ा रहा। लेकिन कला से जुड़ाव खत्म नहीं होता। मृतिका के बिना मोक्ष नहीं। बैठ जायेगा तो जी नहीं पायेगा। मूर्तियॉं नहीं बनायेगा तो पर्व पूरा नहीं होगा। विश्राम में शांति नहीं। पारखी न बचें पर वह कला को मरने नहीं देगा। हाथों को खाली रहने की आदत नहीं।

खिलाड़ी कार्यशाला में आ गया।

एक दिन चार युवक आये।

‘‘मूर्ति चाहिये।''

खिलाड़ी उन्हें तैयार ढॉंचे और पिछले सीजन में न बिक सकी मूर्तियॉं दिखाने लगा ‘‘कोई पसंद है ?''

लड़कों ने तैयार मूर्तियों में रुचि नहीं ली लेकिन एक ढॉंचे को पसंद किया ‘‘यह अच्छा है।''

‘‘फाइनल न ?''

‘‘हॉं।''

‘‘कुछ एडवांस दे दो। बाकी जब मूर्ति ले जाओ दे देना।'' खिलाड़ी ने अनुमानित मूल्य बता दिया।

‘‘कीमत बहुत बताते हो।''

‘‘बाबू, मिट्‌टी अब हजार रुपिया ट्राली मिलती है। रंग, भूसा हर चीज के दाम बढ़ गये हैं।''

‘‘मिट्‌टी की मूर्तियॉं मॅंहगी हो गयी हैं इसीलिये लोग फाइबर की मूर्तियॉं पसंद करने लगे हैं।''

‘‘मिट्‌टी की मूर्ति पवित्र होती है। विसर्जन के बाद मिट्‌टी, मिट्‌टी में मिल जाती है। और यह जो मूर्तियॉं आप लोग बता रहे हो इनके कारण पानी में रहने वाले जीव—जन्तु मरते हैं।''

लड़के आपस में इस तरह मुस्कुराये मानो कहना चाहते हों बुड्‌ढा बहुत जानकारी रखता है।

‘‘अंकल, ढॉंचा हमने पसंद कर लिया। हम आपके पास एक आइडिया लेकर आये हैं। वैसी मूर्ति बना दो तो आप जो कास्ट बता रहे हो, देंगे। हम लोग थोड़ा डिफरेन्ट चाहते हैं।'' कहते हुये लम्बे लड़के ने गोल लपेटा पोस्टर साइज चित्र खोल कर दिखाया।

सुंदर बाला का हाफ पोज चित्र। लेकिन खिलाड़ी अल्पज्ञ है।

‘‘यह कौन है ?''

दूसरा लड़का बोला ‘‘फिल्मी हीरोइन कैटरीना कैफ है। मूर्ति का चेहरा कैफ के चेहरे की तरह हो। हमारी झॉंकी की शहर में चर्चा होनी चाहिये।''

खिलाड़ी टेलीविजन कम देखता है। सिने तारिकाओं के नाम नहीं जानता। यह कौन कैफ है ? महिषासुर मर्दिनी इसके चेहरे वाली होगी ?

असहज हो गया ‘‘मूर्ति का चेहरा, देवी का चेहरा होता है।''

‘‘चेहरा देवी जैसा ही तो है। मूर्ति के चेहरे पर ठीक यही मुस्कान आनी चाहिये।''

‘‘आप लोग आस्था का मजाक बना रहे हो।''

‘‘यह एक प्रयोग होगा। हमें इन्नोवेशन चाहिये, वेरियेशन चाहिये। समथिंग डिफरेन्ट ——— चलो अंकल, आप जो कीमत मॉंगोगे, देंगे। डन।''

‘‘मैं इस चेहरे को देवी का स्वरूप नहीं दे सकता।''

‘‘पैसा बोलो।''

‘‘मैं अपना काम पैसे के लिये कम आस्था के लिये अधिक करता हॅूं।''

‘‘एडवांस बोलो अंकल। आपका काम बहुत अच्छा है, इसीलिये आपके पास आये हैं।''

खिलाड़ी के हाव—भाव में शर्मिन्दगी है। मानो कला को बचाते—बचाते अब इतना थक चला है कि नहीं बचा पायेगा।

‘‘सुनो बच्चों, तुम लोगों को न कला को बचाने की बेचैनी है, न देवी के रूप में आस्था है। दुर्गा पूजा के नाम पर तुम लोग रात भर घर से बाहर रह मौज—मस्ती करते हो। शराब पीकर विसर्जन करते हो। पलट कर नहीं देखते विसर्जन ठीक से हुआ कि नहीं। मिट्‌टी को मिट्‌टी में मिलने के लिये भरपूर पानी चाहिये ———।''

खिलाड़ी नहीं जानता लड़कों को नसीहत दे रहा है या दम तोड़ती कला का शून्य होता भविष्य देख रहा है।

लड़के असमंजस में। ऐसा क्या कह दिया जो शर्मिन्दगी जैसी बात हो गई। यही तो चाहते हैं ऐसी मूर्ति बने जो इस नगरी में अब तक नहीं बनी। इन्नोवेशन ——— वेरियेशन ——— समथिंग डिफरेंट ———।

‘‘अंकल, आप फण्डा समझो। अब वही चलता है जो डिफरेंट हो।''

‘‘जाओ बच्चो। मैं बाजार की नब्ज पकड़ कर बिजनेस नहीं करता।''

‘‘सुनो तो ————।''

‘‘जाओ।''

लड़के थोड़ी देर खड़े रहे फिर पोस्टर को गोल लपेट कर असमंजस लिये चले गये।

खिलाड़ी समीप पड़े ऊॅंचे स्टूल में बैठ गया। सभ्यतायें खत्म हुईं, साम्राज्य खत्म हुये। नये विकास सामने आये। अब वह दिन आने को है जब कला मर रही होगी, वह बचा नहीं पायेगा।

***

सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

एडवोकेट

लक्ष्मी मार्केट

रीवा रोड, सतना (म.प्र.)—485001