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रिश्ते


सर्दियों की कुनकुनी धूप मुझे शुरू से ही बहुत पसंद है। रोज़ दोपहर को सोसाइटी के लॉन में बैठकर धूप सेंकना मेरा प्रिय शगल रहा है, बरसों से। कोई किताब पढ़ते हुए दोपहर गुजर जाती है। समीर के ऑफिस जाने के बाद मुझे कोई काम भी तो नहीं रहता। कोई आस औलाद भी नहीं, जिसकी फरमाइश पर सर्दी की कोई खास डिश बनाऊँ, या कि स्कूल से लौटने के इंतज़ार में पल गिनती जाऊं, उनकी यूनिफार्म चेंज करूँ, खाना खिलाकर होमवर्क करवाऊं... जिंदगी के ये खुशनुमा पल ईश्वर ने मेरी तकदीर की किताब में लिखे ही नहीं। सब तदबीरें फैल हो गयीं। अब खुदा को दोष देकर भी कुछ बदल नहीं जाता, तो बेहतर यही लगा कि खुद को ही बदल लिया जाए।

पहले पहल बुरा लगता था। ग्यारह से बारह के बीच हम सब सोसाइटी की महिलाएं लॉन में इकट्ठी हो जातीं थीं। मैथी और मटर जैसी सब्जियां सर्दियां काटने का बेहतर जरिया हैं। सबके पति ऑफिस के लिए निकलते और हम सब धूप में आ जुड़तीं। मूंगफली और खजूर खाते हुए हाथ चलते रहते और मिनटों में मटर के दाने और मैथी की पत्तियों का ढेर लग जाता। दो बजते बजते स्कूल बस और ऑटो रिक्शा के हॉर्न सुनाई देने लगते। सब अपने अपने बच्चों को लेकर घर चली जातीं और मैं अकेली घर की दीवारों से सिर खपाने से कुछ देर वहीं रुकना बेहतर समझती। कितनी देर अकेली बैठती, घर आकर निढाल पड़ जाती।

बारिश तो और भी मुश्किल से गुजरती, क्योंकि सब अपने घरों में कैद रहते। मैं दिनभर अकेली... सिलाई, बुनाई, कढ़ाई भी कितनी करती। टी वी भी अब बोर लगने लगा था। फोन पर कितनी देर बात करो किसी से... हर कोई मेरे जितना फुरसती भी तो नहीं था। गर्मियों की अलस भरी दोपहरी सोने में गुजर जाती। शाम को समीर और मैं रोज ही कहीं घूमने निकल जाते। कुछ दिन मायके चली जाती। माँ और भाभी का लाड़ और भतीजे भतीजियों की चुहल में समय जैसे पंख लगाकर उड़ जाता। भाई के बच्चों पर पैसा और दुलार जी खोल कर लुटाती। उन्हें भी मेरा इंतज़ार रहता था। जब मुझे पता चला कि भाभी को मुझसे नहीं मेरे पैसे से मतलब रहता है, उस दिन खूब रोयी थी... चटाक से टूटा था दिल.. माँ का स्नेह भी उसे जोड़ नहीं पाया था। आखिर पिताजी के देहांत के बाद वह घर माँ का नहीं भैया-भाभी का था। माँ से कितना कहा कि आप मेरे साथ चलकर रहो, किन्तु संस्कार और समाज की बेड़ियों में जकड़ी माँ उस घर की देहरी लांघ नहीं पायीं। बेटी का दुःख मंजूर था। बेटे का मोह और समाज में उसकी इज्जत कम होने का ख्याल बेटी को पराया कर गया।

एक दिन समीर ऑफिस से लौटते हुए दो किताबें लेकर आए। साथ में था स्थानीय लाइब्रेरी का सदस्यता फॉर्म... डूबते को तिनके का सहारा मिला... अब मैं और मेरी किताबें... घर पहुंच सेवा थी लाइब्रेरी की। एक दिन छोड़कर घर बैठे ही दो नई किताबें मिल जाती। अब मेरी जिंदगी कुछ आसान लगने लगी थी मुझे, जब सोसाइटी की सारी औरतें अपने बच्चों से सिर खपातीं, मैं किताबों में अपना सिर घुसाए रहती।

वक्त सरकता रहा और जिंदगी गुजरती रही। यूँ ही तमाम भी हो जाती, लेकिन परिवर्तन भी तो प्रकृति का ही नियम है। एकरसता से मैं भी उकताने लगी थी। अब किताबों में भी मन न लगता। जबरन लेकर बैठी रहती। यह सोसाइटी ऑफिस वालों की ही थी। सबको क्वार्टर्स मिले हुए थे। अब ऑफिस का ही सर्कल था तो बातों के सिरे भी घूम फिर कर एक ही बिंदु पर आ जाते। सास ननदों की बुराई भी कोई कितनी करेगा? ले देकर बच्चों की बातें, जिनमें मैं चाह कर भी शामिल न हो पाती।

इस एकरसता को तोड़ने एक नया परिवार आया था। मुकुल का ट्रांसफर समीर के ऑफिस में ही हुआ था। वह, उसकी पत्नी नीरू और एक प्यारी सी बेटी कश्मीरा.... बिल्कुल चब्बी चिक्स वाली गुड़िया... एकदम गोरी और गोल मटोल। जो उसे देखे, देखता ही रह जाए। खिलौने वाली गुड़िया का जीता जागता संस्करण थी वह। सोसाइटी में एक नया विषय मिला बात करने के लिए... सब कहते कि मुकुल और नीरू दोनों सांवली रंगत के, फिर कश्मीरा इतनी गोरी क्यों और कैसे?? लोगों को कयास लगाने की आदत होती है। जितने मुँह उससे दुगनी कहानियाँ तैरने लगी थीं कैंपस में। एक दिन वे लोग कहीं बाहर गए, तीन दिन बाद लौटे तब साथ में एक माँजी भी थीं। पता चला कि नीरू भी नौकरी करती है, उसका तबादला आदेश नहीं आया था तो छुट्टी ले रखी थी। अब यहीं जॉइन कर लिया है और बेटी को संभालने के लिए उसकी नानी आयीं हैं।

दोपहर में नानी भी नातिन के साथ महफ़िल में आ बैठतीं। कश्मीरा सबसे हिलमिल गयी थी और उसकी नानी भी। एक दिन रमा भाभी ने पूछ ही लिया कश्मीरा के गोरेपन का राज। पहले तो वे कुछ न बोलीं, लेकिन फिर धीरे धीरे कहना शुरू किया, तो परत दर परत राज खुलते गए.... कश्मीरा उनकी बड़ी बेटी समीरा की बेटी थी। समीरा बहुत गोरी थी, और मुकुल से शादी के बाद खुश भी थी। कश्मीरा को जन्म देते समय उसकी हालत इतनी बिगड़ी कि उसे बचाया नहीं जा सका था। तब नन्हीं बिटिया को देखकर उसकी मौसी नीरू ही आ गयी थी उसकी मम्मी और मुकुल की पत्नी बनकर... नीरू ने कश्मीरा और मुकुल दोनों को संभाल लिया। सारी बात जानकर रमा भाभी का मुँह छोटा सा हो गया... कहाँ तो वह नीरू के चरित्र को कमतर आँक रही थी और कहाँ असलियत पता चलने पर उसका चारित्रिक कद और बढ़ गया था। हवा में तैरते किस्से तो यहाँ तक पहुँचे ही थे कि मुकुल की तबादले की वजह शादी और बेटी से सम्बन्धित है। सुना था कि नीरू उसकी दूसरी पत्नी है। सब सोचते कि नीरू ने मुकुल को फंसा लिया था और उसकी पहली बीवी की जानकारी किसी को नहीं थी। सच जानकर चटखारे लेने को लालायित औरतों की जुबान पर ताला लग गया था। मुकुल और नीरा बेटी के साथ नये सिरे से जिंदगी शुरू करना चाहते थे, समीरा को भुलाना आसान नहीं था लेकिन उससे जुड़ी यादों से दूरी भी जरूरी थी, वरना जिंदगी मुश्किल होती दोनों के लिए और उसका असर कश्मीरा पर जरूर पड़ता। उसी के लिए तो नीरू, मुकुल की पत्नी बनी थी, तो यादों को चाशनी में लपेट कर तहों में छिपाना जरूरी था, वरना बातों की गर्मी से शक्कर कब फितरत बदल ले... मिठास छोड़कर कड़वाहट अख्तियार कर ले... ऊष्मा जब तक अहसासों की हो, तब तक ठीक, जब वह बातों में आ जाए तो मुश्किल होती है। समीर और नीरू यह बात अच्छी तरह से जानते थे और कश्मीरा को एक बेहतर परवरिश और परिवेश देने का भरपूर प्रयास कर रहे थे।

नानी के जाने के दिन नज़दीक थे। कश्मीरा के लिए आया रख ली थी। नीरू जब ऑफिस जाती तब कश्मीरा के रोने की आवाज़ मेरे घर तक आती थी। मैं बेचैन होने लगी थी। अब दोपहर में मेरी सारी इन्द्रियाँ नीरू के घर पर ही केंद्रित रहने लगीं। मैं महफ़िल में होकर भी नहीं होती। नानी की बात अलग थी, आया तो नौकर ही थी, क्या मजाल कि कश्मीरा को लेकर हमारे बीच में आ बैठे। कश्मीरा की उम्र इस बात को समझने लायक नहीं थी। वह मचलने लगती और महिलाएं बात करतीं कि नीरू को नौकरी छोड़ देनी चाहिए, बच्ची आया से नहीं सम्भलती है।

उस दिन कश्मीरा कुछ ज्यादा ही रो रही थी। मुझसे रहा नहीं गया। मैं उनके घर पहुँच गयी। घण्टी बजाने के साथ खिड़की से झाँका। फर्श पर बिछी चटाई पर ढेर सारे खिलौने बिखरे थे और कश्मीरा वहीं बैठी रो रही थी, आया सोफे पर पसरी मोबाइल पर बात कर रही थी। मुझे देख चौंक गयी। दरवाज़ा खुलते ही कश्मीरा मेरी और लपकी और गोद में आते ही चुप हो गयी।

शाम के समय मैं नीरू के घर गयी। मुकुल और उसने दिल से स्वागत किया। रेडियो चल रहा था। नीरू चाय बनाकर ले आयी। चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा भी आसान हो जाती है। कश्मीरा सो रही थी। रेडियो पर जगजीत सिंह की आवाज़ गूंज रही थी...
'सरे-आईना मेरा अक्स है, पसे-आईना कोई और है......' मैं सोचने लगी कि कश्मीरा की मम्मी समीरा है, और उसे नीरू में अपनी मम्मी दिख रही है। कुदरत का दस्तूर कितना निराला है.... तभी एंकर ने कहा...

'यहाँ किसी को भी कुछ हस्बे आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हमको तू न मिला'

अब मेरी सोच और दूर तक चली गयी... मेरे पास समय है और नीरू के पास बेटी है... मैंने धीरे धीरे भूमिका बांधकर कहना शुरू किया...
"देखिए! आप गलत मत समझिएगा, आज दिन में कश्मीरा का रोना सुनकर मैं यहाँ आयी थी...." सारी बात जानकर नीरू बोली कि मैं "मैं नौकरी छोड़ना चाहती हूँ, किन्तु मेरी पढ़ाई के लिए पापा ने लोन लिया था, उन्हें लगता था कि मेरे दबे हुए रंग की वजह से शादी में दिक्कत आयी तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हो पाऊँगी। उस लोन को मुझे ही चुकाना है, इसलिए मेरा नौकरी करना जरूरी है, मैं वह आर्थिक बोझ पापा या मुकुल पर नहीं डालना चाहती।" उसकी बात भी गलत नहीं थी।
मुकुल का कहना था कि.. "मैं नीरू का विश्वास कम नहीं करना चाहता, उसे कभी भी यह नहीं लगना चाहिए कि कश्मीरा की वजह से उसको अपनी जिंदगी में बार बार समझौता करना पड़ रहा है, शादी का निर्णय बहुत बड़ा था, एक तरह से समझौता ही, किन्तु हम दोनों एक दूसरे को दिल से अपना चुके हैं, तभी कश्मीरा को भी बेहतर जिन्दगी दे पाएंगे।"
मैं उन दोनों को देखकर सोच रही थी कि सच्चे अर्थों में जीवनसाथी होना यही तो है... तभी कश्मीरा आँखे मलती हुई उठ बैठी... और आकर मेरी गोद में बैठ गयी। उस एक पल में मानो सारी कायनात ही मेरे कदमों में सिमट आयी...
"यदि आप लोगों को एतराज न हो तो दिन में कश्मीरा को मेरे पास छोड़ जाया करिए... मुझे सिर्फ आपका विश्वास और प्यार चाहिए और कुछ नहीं.... " मेरी बात सुनकर वे दोनों भी खुश और निश्चिंत थे।

मैं धूप सेंकती हुई खयालों में खोयी थी कि तभी आवाज़ आयी... "ऑन्टी! रेडी हो न, चलिए हम लेट न हो जाएं...."
डॉ. कश्मीरा कार का गेट खोले खड़ी थी... उसके कॉन्वोकेशन के लिए जाना था हमें... उसका छोटा भाई कुणाल, मुकुल और नीरू के खुशी से दर्पित चेहरे देखकर समीर ने मुझे चिकोटी काटी.... "बिटिया को देखती ही रहोगी? अब चलो भी..."

डिग्री लेती हुई कश्मीरा को देखकर मैं सोच रही थी कि... "दिल के रिश्ते, खून के रिश्तों से भी गहरे होते हैं।"

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(08/12/2019)