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पलायन

पलायन:
फेसबुक पर किसी ने लिखा है, उत्तराखंड में जिला मुख्यालय से १६ किलोमीटर दूरी पर स्थित गाँव में केवल एक महिला रहती है। शाम होते ही वह घर में दुबक जाती है और गाँव में रात को गुलदाड़ घूमते हैं।गाँव के अन्य सभी लोग अन्य जगह बस गये हैं।सभी घर खाली हैं।उनके खेत बंजर हो चुके हैं, उनमें बड़ी-बड़ी घास उग आयी है। प्राकृतिक सौन्दर्य के अतिरिक्त सब सूना-सूना है। उस महिला की मन:स्थिति का पता लगाना कठिन है।कभी उसने इस गाँव को भरा पूरा देखा होगा।बरातें आती-जाती देखी होंगी। कैसे पंक्ति में बैठकर लोग समारोहों में खाना खाते थे।गाँव के लोग ही खाना परोसते थे।सब मिलजुल कर काम करते थे।सभी निमंत्रण मौखिक होते थे और दूर चिट्ठी जाती थी।आत्मीयता और भरोसा अधिक था।आवश्यकताएं सीमित थीं।वहीं दूसरी तरफ यदि किसी के बीच प्यार की सुगबुगाहट होती तो उन पर लोक गीत भी बन जाते थे।हालांकि, बहुत से पुराने लोकगीत प्रेम पर आधारित हैं। उस दौर में मन पसंद विवाह नहीं होते थे।
समय के साथ बदलाव होता है पर इतना खालीपन का आना एक विडम्बना ही है।
जीविका के लिये मनुष्य न चाहते हुये भी जन्मभूमि को छोड़ने को विवश हो जाता है।याद आते हैं लोकगीत जो उसी परिवेश को लेकर लिखे और गाये जाते थे।वे जाड़ों की रातें जब अंगीठी के चारों ओर बैठकर परिवार के लोग आग और प्यार की ऊष्मा साथ-साथ लिया करते थे।या बिस्तर के अन्दर घुसकर किस्से- कहानियों का आनन्द लिया करते थे। झोड़ों भरी रातें। पहाड़ों का कठिन जीवन।महिलाएं इसमें अहं भूमिका निभाती हैं। लेकिन जब हम उसे जी रहे होते हैं तो कठिन नहीं लगता है।खुशी और संतुष्टि के लिये हर जगह अवसर बन जाते हैं।आज से पचास-साठ साल पहले जब घड़ियां सबके पास नहीं थी तो भोर के तारे को देखकर सुबह होने का अनुमान लगाते थे।सुबह के आकाश को देखने का आनन्द कुछ और ही होता था, आज मोबाइल देखते हैं।आकाश में सूरज को देख समय को आँका करते थे।पहाड़ों की छाया से दिन के प्रहरों का अंदाज लगाते थे।आज उस महिला का मन गाँव को कुछ ऐसे वाच रहा होगा-
"कहो, कैसे घर बनायें?
वे पहाड़ों के घर
वे नगरों के घर
वे बस्ती के घर
वे मन के घर
वे शान्ति के घर
कहो, कहाँ घर बनायें?
कदमों में उलझे-उलझे घर
हाथों से सजे-सजाये घर
सपनों में आते सुनहरे घर
सूनसान होते घर
नींद से तरोताजे हुये घर।
दिन-रात किस्से सुनाते हुए घर
कहानियों में झूलते-चमकते घर
रोते-चीखते बने हुये घर
हँसते-खिलखिलाते मिले हुये घर।
दुनिया की बातें कहते घर
आसमान की ओर झांकते घर
प्यार की दौड़ में निकले घर
इतिहास के पन्ने रचते हुये घर
कहो, कैसे घर दिखायें?"
उसे अपने पड़ोस के अनगिनत रोमांचक चहल-पहल की घटनाएं याद आती हैं। जहाँ उसका मायका है, उत्तरायण त्योहार में बच्चे प्रणाम करने घर-घर जाते थे। और बड़े लोग उन्हें आशीर्वाद और गुड़ देते थे। मान्यता थी कि उस दिन सुबह चार बजे ठंडे पानी में नहाने से पुण्य मिलता है। गाँव में गूल से पानी आता था। बच्चे सुबह चार बच्चे अतिउत्साह में धारे पर नहाते थे। उत्तरायणी के मेले में सब सज-धज के जाते थे। कुछ लोग फल भी मेले में बेचते थे। गाँव में छोटे बच्चों को खेल-खेल में उछाल कर बोला जाता था-
लै कौव्वा लीज, सैंति पायि बै दीज( कौवा लेकर जा,और पाल-पोष कर दे जाना)। उत्तरैणी त्योहार को वहाँ घुघुतिया त्योहार भी बोलते हैं।त्योहार के दिन घुघुत नाम के पकवान बनाये जाते हैं,साथ में कुछ बड़े भी। त्योहार के दूसरे दिन सुबह बच्चे घुघुत थाली में रखकर, कौवे को संबोधित करते हैं-काले,काले,काले, और साथ में अपनी इच्छा उसे बताते हैं-
"लै कौवा घुघुत, मैंगैं दिजा सुनक मुकुट,
या लै कौव्वा बड़, मैंगैं दिजा सुनक घोड़।" अर्थात कौवा घुघुत और बड़ा ले ले और मुझे सोने का मुकुट और घोड़ा दे दे।
इस त्योहार के संदर्भ में कुमाऊं में अनेक लोक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार चन्द वंश के एक राजा को बहुत समय तक संतान नहीं हुयी। एकबार उन्होंने बाघनाथ जी की पूजा की और उसके बाद उन्हें पुत्र हुआ। लेकिन इसीबीच उनके मंत्री ने राज्य प्राप्त करने के लिए षडयंत्र किया और राजा के पुत्र का अपहरण कर मारना चाहा। तब कौवों ने मंत्री और उसके साथियों को देख लिया और उनको नोचकर बच्चे को उनसे छुड़ा लिया। पुत्र जिसे उसकी माँ प्यार से घुघुति कहती थी,उसके गले की माला को कौवा लेकर राजमहल पहुंचा। राजा समझ गया और वह अपनी सेना लेकर कौवे के पीछे-पीछे गया और उसे पेड़ के नीचे बच्चा मिल गया। मंत्री और उसके साथियों को उनके अपराध के लिए मृत्यु दण्ड दिया गया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है, ऐसा माना जाता है। बागेश्वर में इसी दिन मेला लगता हैऔर स्नान किया जाता है, जिसका महत्व प्रयाग के स्नान के बराबर माना जाता है। यहाँ बाघनाथ जी का मन्दिर है। मान्यता है कि शिवजी, बाघ(बाग) रूप में यहाँ प्रकट हुए थे। बागेश्वर का नाम इसी पर पड़ा है।
महिला के मायके के आसपास के दो प्राथमिक विद्यालय बन्द हो चुके हैं। घराट अब नहीं हैं।घराटों पर बसी आत्मीयता विलुप्त हो चुकी है। देश में अधिक जनसंख्या खटक रही है और यहाँ पलायन के कारण अकेलापन।
** महेश रौतेला