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वह लड़का

आज वह पन्द्रह वर्ष के बाद मुझसे मिलने आया था---हाथों में मिठाई का डिब्बा था।जैसे ही मैंने ड्राईंग रूम में प्रवेश किया, वह उठकर खड़ा हो गया, मेरे चरण स्पर्श करने लगा---मैंने रोकना चाहा, लेकिन वह नहीं रूका,पूछा-" मैडम जी कहाँ हैं!"

इतने में श्रीमतीजी भी आ गई, उसने उनके भी चरण स्पर्श किए और मिठाई का डिब्बा उन्हें थमा दिया।

पन्द्रह बरस में वह कितना बदल सा गया था।सिर के बाल ऊपर से गायब हो चले थे,छितरा से गए थे---चेहरे पर झुर्रियों के निशान उभर आए थे,माथे पर सलवटें दिखाई देने लगी थी, आँखों के नीचे गहरा कालापन भी आ गया था, शायद वक्त की ठोकरें कहीं न कहीं अपने निशान छोड़ती है और वही इंसान के चेहरे पर अपना बयान देती हों।बावजूद इन सबके उसकी आँखों में चमक अभी बाकी थी।

मुझे वह समय याद आ रहा था जब वह लड़का बाबूजी के पास काम मांगने आया था, तब भी तो बहुत दुबला पतला सा था,आँखें अंदर तक धँसी हुई थी।बाबूजी ने उसे गाँव के खेत पर ट्रैक्टर चलाने के काम पर रख लिया था, हालांकि उसने बारहवीं पास कर ली थी लेकिन दूसरा कोई काम न मिलने से आसपास के गाँवों में ट्रैक्टर ही चला रहा था किन्तु इतनी मजदूरी नहीं मिलती थी कि घर खर्च चल सके। बाबूजी वैसे भी बहुत दयालु थे,मैंने उनसे पूछा भी कि इस लड़के से ट्रैक्टर तो चलवा रहे हो,लेकिन उसके पास लायसेंस है भी या नहीं!बाबूजी ने उससे पूछा और फिर उसका लायसेंस बनवाने का आदेश भी मुझे थमा दिया।उस समय मेरी पोस्टिंग पास ही के शहर धार में थी।आरटीओ त्रिपाठी जी मेरे परिचित थे,उनको फोन कर उसका लायसेंस भी बनवा दिया।

वह परिवार में पूरी तरह से घुलमिल गया था।घर पर ही खाना खाता।उसके गाँव भी कम ही जाता था।हम लोग भी जब छुट्टियों में घर आते तो परिवार के सभी सदस्य फार्म हाउस पर जाते,वहीं दाल-बाटी और लड्डू की पार्टी होती।बाबूजी के पास छप्पन मॉडल विलीज जीप थी जो मिलिट्री के ऑक्शन में खरीदी थी।तब जीप भी वही चलाता था।

एक बार मैं अपने ऑफिस के कार्य से शासकीय वाहन से भोपाल जा रहा था, रास्ते में ही घर होने से माँ-बाबूजी से मिलने कुछ देर घर पर भी रूका।बाबूजी ने सरकारी गाड़ी देखी तो सीधा फरमान जारी कर दिया कि-" अरे दीपक,इस परसराम की भी सरकारी नौकरी लगवा दो,ड्राइवर या चपरासी जहाँ भी जगह हो!---सरकारी नौकरी होगी तो इसके परिवार की दरिद्रता दूर हो जाएगी।"

इसपर मैंने मजाक में कहा भी कि ऐसा ईमानदार लड़का फिर आपको कहाँ मिलेगा! उन्होंने बहुत ही गंभीरता के साथ कहा कि- " हम अपने स्वार्थ के लिए उसका भविष्य बनने से क्यों रोकें।हमें कोई दूसरा काम करने वाला भी मिल जाएगा।सरकारी नौकरी मिल जाएगी तो उसका और उसके परिवार का भविष्य तो सुरक्षित हो जाएगा।"तब परसराम की आँखों में बाबूजी का स्नेह देखकर आँसू आ गए थे।

मुझे याद है कि बाबूजी ने परसराम की जाति के बारे में कभी नहीं पूछा।वह बराबरी से खान-पान में परिवार के सदस्य के रूप में शामिल रहता था।एक बार की घटना का जिक्र छोटे भाई अनिल ने किया था।उसने बताया था कि एक बार परसराम के गाँव के ही बालू काका आ गए थे।जब उन्होंने परसराम को घर पर देखा और घर की रसोई से चाय-पानी लाते देखा तो उन्हें घोर आश्चर्य हुआ।उस समय तो वे कुछ नहीं बोले लेकिन बाद में बाबूजी से ही धीमे स्वर में पूछ बैठे कि-" बाबूजी, आपको मालूम है कि ये परसराम किस जाति-बिरादरी का है?"

बाबूजी ने हँसते हुए जवाब दिया था कि-"बालूजी,जात-पाँत पूछे नहीं कोई,हरि को भजे सो हरि को होय।"

तब भी बालू काका ने कहना चाहा-" बाबूजी, आप ठहरे बामण,पक्के पूजा-पाठी और ये परसिया तो बलई है।"

इसपर उन्होंने कहा था कि-" इससे क्या फर्क पड़ता है।अभी तो वह अपने यहाँ वाहन चालक का काम कर रहा है यानी सारथी की भूमिका निभा रहा है।और वैसे भी वह जितना साफ-सुथरा रहता है उतना तो हमारे कई पण्डित भी नहीं रहते होंगे।" बालू काका के चेहरे के हाव-भाव से लग रहा था कि उन्हें बात अच्छी नहीं लगी---उन्होंने इसके बाद कहा कुछ नहीं,हाँ,थोड़ा मुँह जरूर बनाया जिसे देखकर बाबूजी मुस्कुरा दिए थे।

बाबूजी को परसराम की जाति का पता चलने के बाद तो जैसे वे मेरे पीछे ही पड़ गए।एक दिन ऑफिस में ही फोन लगा दिया और बोले -" दीपक तुम्हें मालूम है कि परसराम किस जाति का है।" मैंने अंजान बनते हुए अनभिज्ञता जाहिर की और पूछा कि-" बाबूजी आप कब से यह जाति-पाँति की बात करने लगे हैं।" तब वे बोले -"अरे नहीं भाई,जाति-पाँति का मेरे लिए कोई महत्व नहीं है लेकिन परसराम के लिए सोच रहा हूँ, वह बलाई समाज से है।"

मैंने प्रश्न किया-"तब'!

इस पर वे कुछ उत्साहित होकर बोले - "अरे भाई,यह तो अच्छी बात है न!अब तुम्हें उसकी नौकरी लगवाने में कोई दिक्कत नहीं होगी, वह आरक्षित वर्ग से है।"

"लेकिन बाबूजी ,इन लोगों को भी नौकरी मिलना कहाँ आसान रह गया है।जिस तरह से ऊँची जातियों में भी सक्षम लोगों ने ही हर जगह वर्चस्व बना रखा है,वही स्थिति इन लोगों के गरीब तबके की है।आरक्षण का लाभ लेकर जो व्यक्ति ऊँची स्थिति में पहुँच जाता है, वह अपने कुनबे को ही फायदा पहुँचाने में जुट जाता है।साधारण व्यक्ति की तो वही स्थिति है।ठीक उसी तरह से जैसे गाँव में पण्डिताई करने वाले ब्राह्मणों की या फिर अपनी जमीन-जायदाद गँवा चुके राजपूतों की है।फिर भी बाबूजी मैं कोशिश करूंगा कि उसे कहीं डेली वैजेस पर रखवा दूं।"

इस बातचीत को काफी अरसा गुजर गया।बाबूजी ने दो-तीन बार मुझे टोका भी कि दीपक तुमने परसराम की नौकरी के लिए कुछ नहीं किया।मैं उन्हें आश्वस्त करता रहा।इस बीच अपने संभागीय कार्यालय में ड्रायवर का पद रिक्त होने और पद भरने की कार्यवाही शुरू होने की जानकारी मुझे मिली।संभागीय अधिकारी पाण्डेय जी भी पक्के पण्डित थे ,वे मेरी बात का हमेशा मान रखते थे।उन्होंने ही कहा कि- "दीपक ,कोई अच्छा और विश्वसनीय व्यक्ति बताओ,जो ड्रायवर का काम ईमानदारी से कर सके।"

मैंने उनसे कहा- "ड्रायवर तो परफेक्ट है।साथ ही ऐसा ईमानदार और विश्वसनीय व्यक्ति आपको नहीं मिलेगा।हाँ,आपसे एक रिक्वेस्ट जरूर है कि आप कोशिश करके, आपकी यहाँ पदस्थापना के रहते उसे नियमित भी करवा दीजिए,अन्यथा आपके स्थानांतरण के बाद कोई दूसरे अधिकारी उसे नौकरी से बाहर न कर दे।ऐसे में वह कहीं का नहीं रह पाएगा।और हाँ सर,एक बात यह भी स्पष्ट कर दूं कि वह आरक्षित वर्ग से है।"

"अरे ठीक है भाई,मैं भी जाति-पाँति का भेदभाव कहाँ रखता हूँ।अभी एक साल उसको डेली वैजेस पर रखेंगे, उसके बाद मुख्यालय से अनुमति लेकर नियमित भी कर देंगे,"उन्होंने आश्वासन भी दे दिया था।

जब उसकी नियुक्ति हो गई तो वह अपने परिजनों के साथ बाबूजी के पास पहुँचा, उन लोगों की खुशी का ठिकाना न था।बाबूजी ने भी उन सभी को मिठाई खिलाई और ढ़ेर सारा आशीर्वाद भी दिया था।

नौकरी लगने के बाद परसराम को छुट्टी कम ही मिलती थी---उसका आना-जाना भी कम हो गया था।एक साल बाद ही पाण्डेय जी का ट्रांसफर हो गया , लेकिन उनके स्थान पर जो अधिकारी आए,वे भी उनके अच्छे मित्रों में से थे।अतः परसराम को नौकरी पर निरंतर रखने और नियमित करने का आश्वासन अपनी रवानगी के पूर्व उन्होंने ले लिया था और मुझे फोन कर बता भी दिया था।परसराम को नियमित करने का प्रस्ताव मुख्यालय को भेज भी दिया गया था लेकिन लालफीताशाही के चलते दो-तीन वर्ष ऐसे ही निकल गए।जानकारी के नाम पर पत्र-व्यवहार चलता रहा और इस बीच शासन के आदेश जारी हो गए कि एक निश्चित अवधि के बाद नियुक्त दैनिक वेतन भोगियों को नौकरी से निकाला जाए।चूँकि परसराम की नियुक्ति स्वीकृत पद के विरुद्ध और सक्षम स्वीकृति के बाद ही हुई थी, इसलिए मैंने उसके नौकरी से निकाले जाने के डर को दूर करना चाहा लेकिन परसराम की चिंता बढ़ गई थी।वह तत्काल बाबूजी के पास पहुँचा।बाबूजी ने फोन लगाकर मुझे उसकी सहायता करने के लिए कहा।मैंने कोशिश भी की कि उसे नौकरी से नही निकाला जाए लेकिन अब जो नये संभागीय अधिकारी आ गए थे, वे किसी अपने आदमी को ड्रायवर के पद पर फिट करना चाहते थे, इसलिए किसी भी तरह की सहायता करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी।उधर मुख्यालय से भी राहत की कोई उम्मीद दिखाई नहीं दी।इस दौरान कई लोगों ने कोर्ट में रिट पिटीशन फाईल कर दी।

मेरे एक मित्र राकेश मंगल हाइकोर्ट में ही प्रेक्टिस करते थे, मैंने उनसे बात की और परसराम को उनसे मिलने भेज दिया।कोर्ट से स्टे तो मिल गया लेकिन परसराम को नौकरी में नियमित होने की संभावना खत्म होती दिखाई दी।कोर्ट के चक्कर से परेशान और अस्थिर भविष्य की सोच ने उसे शराबी बना दिया था।मुझे उसके बारे में जानकारी भी मिलती रहती थी कि उसने बहुत शराब पीना शुरू कर दिया है।

एक बार मुझसे मिलने वह भोपाल आ पहुँचा---तब मेरी पोस्टिंग भोपाल में ही थी।जब मिलने आया तो उसके मुँह से दुर्गंध का भभका सा आया,मैं समझ गया कि परसराम शराब पीकर आया है, मैं उसपर बहुत नाराज हुआ और कह दिया था कि आज के बाद इस तरह से मुझसे मिलने मत आना।वह शर्मिंदा हुआ या नहीं---पता नहीं लेकिन उसकी आँखें भर आई थीं---शायद वह कुछ कहना चाहता था किन्तु बगैर कुछ कहे वह बाहर निकल गया।बाद में मैंने बाबूजी को भी फोन कर उसके बारे में बता दिया था कि परसराम बहुत पीने लगा है।मुझसे जितना संभव था,मैंने मदद की और उम्मीद भी है कि कोर्ट से उसके पक्ष में ही फैसला होगा।बाबूजी तब तो कुछ नहीं बोले लेकिन बाद में मुझे मालूम पड़ा कि परसराम बाबूजी से मिलने गया था किन्तु उसके बाद से वह मुझसे मिलने नहीं आया।

अब बाबूजी भी नहीं रहे।मैं भी सेवानिवृत्ति के बाद अपने गृह नगर में ही रहने आ गया था तो अचानक इतने वर्षों के बाद परसराम को सामने पाकर अचंभा हुआ था।मैं कुछ कहता या पूछता, उसके पहले ही वह बोल उठा- "सर,बाबूजी और आपके आशीर्वाद से कोर्ट का फैसला मेरे पक्ष में ही हुआ और विभाग ने अब जाकर बड़ी जद्दोजेहद के बाद मुझे नियमित कर दिया है।मेरा परिवार बाबूजी और आपका बहुत ऋणी है और रहेगा।मैं अभी तक आपके सामने आने का साहस इसी कारण नहीं कर पाया था। उस दिन की गलती के बाद आपके सामने कैसे आता।बाबूजी से जरूर मिला था---उन्होंने मुझे डाँटा नहीं था बल्कि स्नेह के साथ समझाया था और मुझे शपथ दिलाई थी कि शराब से हमेशा के लिए तौबा कर लूंगा।मैंने उनसे किये गए वायदे के अनुरूप अपनी कसम को आज तक निभाया है।उसी का प्रतिफल है कि ईश्वर ने मेरी मदद की और मैं अपनी नौकरी पर नियमित हो गया हूँ।"

उसकी बात सुनकर मुझे आज फिर से उस भोले-भाले,सीधे-साधे लड़के की सूरत उसमें दिखाई देने लगी थी।