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हाडी राणी

हुकम, अब तो पलंग छोड़ो | बाहर पधारो | सासुजी मेरे को कह रहे है तुमने मेरे बेटे को आलसी बना दिया | ये तो सूर्योदय पूर्व उठ कर काम पर लग जाने वाला था | अब बींदणी का पल्लू ही नहीं छोड़ता | बाहर आसमान में कोई दो पुरस सूरज चढ़ आया है | धूप सलूम्बर के रावले ( ठाकुर सा का घर ) को चूमने लगी है |

धूप को दीवारों से प्रेम होगा | हमें तो आपसे है आपको चूमेंगे | कहकर युवा ठाकुर सा मुस्करा दिए |

इशारा समझते ही उस सौन्दर्य की देवी ने भाग छूटने का प्रयास किया लेकिन उन बलिष्ठ भुजाओं से स्वयं को छुड़ा न सकी | पतिदेव ने आलिंगन में लेते हुए अपने ऊपर झुका लिया | उस नवयौवना के खुले केश उस वीर के चेहरे पर फ़ैल गए | केशों की महक ने उसे और अधीर कर दिया | अपनी प्रेयसी के ना ना करते हुए भी उसके कोमल रक्तिम कपोलों को चूम लिया | अचानक से महसूस हुआ देह में एक हृदय भी है, उसकी तीव्र गति से लगा कपोलों में रक्त संचरण बढ़ गया है और वे फूलते जा रहे है | जैसे धूप से हवेली की दीवारों पर उजाला फैला ठीक वैसे ही प्रियतम के चुम्बन से गालों ने ऊष्णता के साथ लाली की चादर ओढ़ ली |

लज्जा ने नयनों को पलकों में बंद किया और अस्फुट स्वर निकला अरे हुकम, ये क्या कर रहे है आप ? कक्ष का दरवाजा खुला पड़ा है | माँ सा जानते है मुझमें इतना सामर्थ्य नहीं कि आपको इस शयन कक्ष से बाहर निकाल सकूं, इसलिए वे पधारते होंगे | वैसे भी मैं तो माँ सा के कहने पर आई हूँ वर्ना नहा धोकर तैयार हो पूजा करने जा रही थी | पूजा पाठ के बीच में इस तरह चुम्बन लेना, अपने सीने से लगा लेना उचित नहीं हैं हुकम |

प्रेम से बड़ी पूजा क्या हो सकती है ? हम तो देवी की पूजा ही कर रहे है और आप निष्ठुर होकर प्रवचन दिए जा रही है |

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इस समय मेवाड़ पर भगवान एकलिंग जी के प्रतिनिधि के रूप में महाराणा राज सिंह सिसोदिया राज कर रहे थे | मेवाड़ का एक ठिकाना था यह सलूम्बर | यहाँ के सरदार राव रतन सिंह चुण्डावत की ये हवेली है | ठाकुर सा के विवाह को अभी पांच दिन ही हुए है | इन पाँच दिनों में उन्होंने कितने ही जीवन जी लिए | सदैव तलवार, तीर, भालों से क्रीड़ारत रहने वाले ठाकुर ने पहली बार इन पांच दिनों में सौन्दर्य, प्रेम, सुख, आनन्द, मोह, जीवन जैसे कितने ही नए शब्दों के अर्थ जाने और जिए |

किशोरावस्था से यौवन में कदम रखते समय प्रेम, प्रेमी, प्रेयसी जैसे शब्दों को जानने समझने की, अधखुली अँखियों से देखे गए सपनों को साकार करने की, किसी के प्रेम में फ़ना हो जाने की चाहत अवश्य थी परन्तु ऐसा कोई अवसर आता उससे पूर्व ही पिताजी के युद्ध में खेत ( बलिदान ) रहने से सारी जिम्मेदारी उनके पुत्र राव रतन सिंह चुण्डावत पर आ गई | यह काल युद्धों का काल था | एक युद्ध समाप्त होता तो दूसरा प्रारम्भ | ऐसे में सगाई के पश्चात भी अवसर नहीं मिला कि अपनी होने वाली अर्धांगिनी के बारे में कुछ सोचे | युद्धोपरांत रात्रि में दो घड़ी विश्राम के समय एकान्त में आँखें मूंद कर कभी कभी मिलने का, किशोरावस्था के उन सपनों को साकार करने का, प्रेयसी के अधरों को छू लेने का प्रयास अवश्य किया | अभी कोई युद्ध नहीं था तो महाराणा ने ही अपने प्रिय सेनापति राव रतन सिंह को विवाह हेतु भेज दिया था | साथ में यह भी कहा था कि अभी शान्ति है छः महीने तक आराम करना, दाम्पत्य सुख भोगना |

कई युद्धों में वीर रस का आनंद ले चुके, शत्रु के रक्त का स्वाद ले चुके वीर सेनापति राव रतन सिंह अब दाम्पत्य सुख का आनन्द ले रहे थे, अपनी प्रेयसी के अधरों का आस्वादन कर रहे थे | पांच दिन पूर्व ही तो हाडी रानी को ब्याह कर लाए थे | ठीक पाँच दिन पूर्व ही उनकी सुहागरात थी | जब पहली बार घूँघट उठाया तो वह वीर स्तब्ध रह गया ! ऐसा अप्रतीम सौन्दर्य ! जैसे किसी कलाकार द्वारा अपनी कल्पना से गढ़ी गई प्रतिमा हो ! सचमुच में ऐसा सौन्दर्य भी हो सकता है ? इस बात पर बहुत देर तक उन्हें विश्वास नहीं हुआ | कितनी ही देर अविश्वास लिए अपलक निहारते रहे ! जब वह प्रतिमा बोली हुकम क्या हुआ ? सब ठीक तो है ? तब चेतना आई तो उन्हें लगा जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो | अगले ही पल वह सौन्दर्यमयी प्रतिमा उनके आलिंगन में थी | लज्जा से रक्तवर्णी मुखमंडल की लाली और गहरा गई | शर्म-ओ-हया ने प्रियतम की समर्थ भुजाओं ने बचने को प्रेरित किया किन्तु इस प्रयास में श्यामवर्णी केश खुल गए | यौवन और अद्भुत कमनीयता की इस प्रतिमूर्ति के केश खुलते ही रावजी और अधीर हो गए | अगले ही पल वो उनके आगोश में थी | वे उसके अधरों का आस्वादन कर रहे थे, मेहंदी लगे हाथों को चूम रहे थे, मुल्तानी मिट्टी और चन्दन मिश्रित केशों की महक से उनकी श्वांस श्वांस सारोबार हो रही थी | उस प्रेमी युग्ल के अंग-अंग में रोमाँच भर रहा था, रोम रोम प्रेम की महक से महकने लगा, अधीर होती हर एक श्वाँस में जीवन का आनन्द समा रहा था |

अद्भुत यौवन, अप्रतीम सौन्दर्य, अनिर्वचनीय सुख से भर गया था उनका दाम्पत्य प्रेम | कक्ष के भीतर होते तो ऐसा लगता दीपक की लौ स्तब्ध होकर उन्हें ही देखती रहती, उसका फड़फड़ाना बंद हो जाता | छत पर जाते तो सम्पूर्ण व्योम मौन हो जाता | चाँद, सितारे, नक्षत्र सभी निर्निमेष भाव से उन्हें निहारते रहते, ऐसा प्रतीत होता जैसे युगों से ऐसा प्रेम न कभी देखा, न कभी सुना हो |

प्रेम की यह अजस्र धारा किसी सरिता की भान्ति बहे जा रही थी | बीती रात्रि के तीनों प्रहर भी जागते हुए, बतियाते हुए, आजीवन एक दूसरे के प्रति ऐसे ही प्रेम और समर्पण के वचन देते हुए बीती | चौथे प्रहर में आँखें थोड़ी सी मुंदी ही थी कि प्रभात ने दस्तक दे दी | पक्षियों की चहचाहट और हवेली में होने वाली हलचल से हाडी रानी समझ गई कि अब उन्हें उठ जाना चाहिए | वे उठ कर जाने को उद्यत हुई ही थी पायल की खनक ने चुण्डावत सरदार को सचेत कर दिया | मन केशों की उसी महक, अधरों के उसी स्वाद, देह की उसी कोमलता को पाने को लालायित हो उठा | वो धीरे से उन भुजाओं के आलिंगन से आजाद हो पाती उससे पूर्व वह घेरा और मजबूत हो गया | उस बन्धन से तब तक मुक्त नहीं हो पाई जब तक सासु माँ की आवाज सुनाई नहीं दी |

वस्त्र ठीक कर भागते हुए गई | सासु माँ को पाँव धोक ( चरण स्पर्श ) दे आशीर्वाद लिया | अपने नित्यकर्मों से निवृत हो, स्नान, श्रृंगार कर पूजा हेतु जाने लगी कि सासु माँ ने आदेश दे दिया बींदणी सा रतन को एक बार फिर से जगा दो | उसकी तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गई हो | कुछ क्षण ही सही उनके पास जाना कितना सुकूनदायक लगता है | हवा की भान्ति उड़ती हुई पहुँची | आई तो जगाने थी परन्तु यहाँ आते ही आलिंगन में कैद कर ली गई | मन तो उसका भी यही चाहता था आजीवन इस कैद में बैठी रहे, ये पल यहीं थम जाए, समय स्थिर हो जाए परन्तु वह जानती थी ऐसा होता नहीं है | अभी सासु माँ की फिर से आवाज़ आएगी तब लज्जा से दोहरी होते हुए उसे जाना होगा इससे बेहत्तर है मन मारकर पहले ही मुक्त हो जाए लेकिन आनेवाली रात्रि के लिए कितने ही वचन देने के उपरान्त भी प्रियतम ऐसा करने को राजी नहीं हुए | हाडी रानी की देह भुजाओं के बन्धन में थी परन्तु दृष्टि द्वार पर टकटकी लगाए थी कि सच में सासु माँ या कोई और आ नहीं जाए | द्वार सच में बंद नहीं था फिर भी वह खोला तो नहीं गया परन्तु किसी के द्वारा खटखटाया गया | अचानक से चुण्डावत सरदार ने हाथों के बन्धन ढीले किए, रानी मुक्त होकर, चेहरा दीवार की तरफ कर खड़ी हो गई | रतन सिंह ने पूछा कौन ? दासी बोली हुकम, शार्दुल सिंह जी पधारे है, बता रहे है कोई आवश्यक कार्य है इसी समय मिलना है |

शार्दुल सिंह, आवश्यक कार्य और उसका अन्तरंग कक्ष तक आना, चुण्डावत सरदार को समझते हुए देर नहीं लगी कि कोई विपत्ति आ पड़ी है | उन्होंने रानी को इशारा किया वे बाहर चली गई और उनके बाहर जाते ही शार्दुल सिंह ने भीतर प्रवेश किया |

शार्दुल सिंह ऐसा व्यक्ति था जिसके चेहरे पर हर समय मुस्कराहट, हँसी और मजाक रहता था परन्तु आज ललाट पर रेखाएँ खिंची थी, चेहरे पर विषाद फैला था, आँखों में भय तो नहीं पर चिन्ता और सूनापन था | बोलो शार्दुल सिंह क्या हुआ ? ऐसी क्या विपत्ति आ पड़ी कि आपको अन्तरंग कक्ष तक आना पड़ा ? मेवाड़ में सब सुख, शान्ति, कुशल-मंगल तो है ? सदैव हँसते रहने वाले चेहरे पर ये चिन्ता की लकीरें क्यों ?

हुकम क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ ? आपके विवाह को अभी पाँच दिन ही तो हुए है ?

मेरे विवाह को पाँच दिन ही तो हुए है क्या मतलब ? पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो ? जो भी है सही सही बता दो, छुपाने में क्या है ? छुपा कर तो हम रोग को बढ़ाते ही है, लाईलाज़ करते है, जानलेना होने का अवसर देते है | जो भी सत्य है, जो भी रहस्य है वह आज नहीं तो कल सभी के सामने आना ही है | इसलिए निर्भीक होकर, निश्चिन्त होकर बोलो वैसे भी हम तो सदैव मित्र की भान्ति रहे है |

हुकम बात ऐसी है कि आप तो जानते ही है कि औरंगज़ेब के पिता शाहजहाँ से महाराणा राज सिंह जी ने मेवाड़ के हड़प लिए गए क्षेत्र वापस छीन लिए थे | उसे मन मसोसकर बैठ जाना पड़ा परन्तु औरंगज़ेब तब से ही प्रयास में था कि किसी तरह मेवाड़ पर आक्रमण किया जाए | उसने रूपनगर की राजकुमारी चारुमती से विवाह की इच्छा प्रकट की थी परन्तु न तो राजकुमारी और न ही उनके परिजन इसके लिए राजी थे | राजकुमारी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर धरती क्षत्रिय विहीन हो गई है, मुझे ब्याह कर ले आने वाला कोई राजपूत नहीं बचा तो ऐसे में मैं उस विधर्मी से विवाह करने से की बजाय मर जाना पसन्द करुँगी | तब महाराणा राज सिंह ने उनसे विवाह कर लिया था | यह दूसरा कारण था उसकी नाराजगी का | तीसरा जब उसने जजिया कर लगाया तो महाराणा ने उसका विरोध किया और कहा कि मेवाड़ में कोई यह कर नहीं देगा | कर तो बहाना था असल में यह सीधा सा तरीका था निर्धन लोगों को उनकी मजबूरी के कारण इस्लाम स्वीकार करवाने का जो मेवाड़ को मंजूर नहीं था | मेवाड़ के साथ साथ अन्य राज्य जैसे मारवाड़ में वीर दुर्गादास, बुंदेलखंड में वीर छत्रसाल, दक्षिण में वीर शिवाजी, पंजाब में सिख गुरु गोविन्द सिंह जी आदि भी इसके विरोध में उतर आए | इसी से क्रोधित होकर उसने मेवाड़ पर आक्रमण की तैयारी कर ली | उसकी सेनाएँ आगे बढने लगी परन्तु आपके विवाह के कारण महाराणा ने यह समाचार आप तक नहीं पहुँचाया | महाराणा राज सिंह जी ने मुगलिया सेना को अरावली में प्रवेश से रोकने के लिए युवराज जय सिंह जी को भेजा तो अजमेर की और अपने पुत्र राजकुमार भीम सिंह जी को भेजा | महाराणा स्वयं वीर दुर्गादास और उनके मित्र औरंगज़ेब के पुत्र अकबर के साथ लौहा लेने को आगे बढ़ रहे थे थे परन्तु इस बीच समाचार मिल रहे है कि औरंगज़ेब को सहायता के लिए दिल्ली से सैन्य सहायता आ रही है | उसे रोकने के लिए हमें चलना होगा | मुझे झिझक हो रही है कि आपसे कैसे कहूँ ? उनकी संख्या बहुत अधिक बता रहे है और हम बहुत कम है |

शार्दुल सिंह इसमें झिझक किस बात की ? मातृभूमि के लिए जो चाहिए वह बलिदान हम देंगे, हमारे प्यारे मेवाड़ के लिए हम प्राण भी दें तो कम है, सौ वर्ष जीने से बेहत्तर है हम सौ पल ही जिएँ परन्तु आजाद धरा पर | निश्चिन्त होकर चलो और सैनिकों को आदेश दो अभी इसी वक़्त चलना है और केसरिया करना है | संख्या कितनी भी हो हम प्राणों की कीमत पर अगर एक एक दस को रोकेंगे तो वे आगे नहीं बढ़ पाएंगे | जय एकलिंग जी देव की |

शार्दुल सिंह जय एकलिंग जी के घोष के साथ बाहर निकला और चुण्डावत सरदार तैयार होने लगे | तलवार वगैराह तैयार करते देखा तो हाडी रानी भी समझ गई फिर भी पूछा तो बता दिया कि इसी समय युद्ध में जाना है और केसरिया करना है | आप चिन्ता मत करना | माँ का और पूरे परिवार का ध्यान रखना | भाग्य ने कोई चमत्कार किया तो हम मिलेंगे नहीं तो स्वर्ग में मैं आपका इंतजार करूँगा |

किसी के कहने से चिन्ता कब कम होती है ? क्या ये वही वीर है जिसने पिछले पांच दिनों से मुझे प्यार से सारोबार कर दिया ? एक एक पल ऐसा लगा जैसे सहस्त्रों जन्म जी लिए हो | क्या कोई इतना प्रेम भी कर सकता है ? और उसी प्रेम को यूँ इतनी निष्ठुरता से छोड़कर चल सकता है ? जैसे उस प्रेयसी को जानता ही नहीं हो ? दोनों के मध्य कोई सम्बन्ध ही नहीं हो | कोई कर्त्तव्य के प्रति ऐसा समर्पित भी हो सकता है ? कर्त्तव्य और प्रेम के मध्य किसी एक को चुनने की बात आए तो एक पल भी सोचे बिना, एक ही पथ पर बढ़ चले जैसे उसके जीवन में प्रेम का अस्तित्त्व ही नहीं था | रानी के विशाल नैत्र डबडबा कर भर आए, प्रेम प्रवाहित वह ऊष्ण जल संघनित होकर उस के वीर के सामने मोती बन उसे कमजोर न करे इसलिए घूँघट की ओट कर मुड़ गई यह कह कर कि मैं आरती का थाल सजा कर लाती हूँ |

हाडी रानी आरती का थाल लाने कक्ष से तो चली गई परन्तु वह नवविवाहिता कोमालान्गिनी चुण्डावत सरदार के हृदय और मस्तिष्क से बाहर नहीं निकल रही थी | मैं उसे किसके भरोसे छोड़े जा रहा हूँ ? इन पाँच दिनों में ही उसने कितना प्रेम किया है मुझे ? जैसे पूर्ण तृप्त हो गया होऊं मैं | जैसे वर्षों से शुष्क पड़ा काष्ठ नम हो कर हरा होने लगा हो | जैसे पत्थर में भी लचीलापन आ गया हो | इस तरह से मेरे जीवन को बदल देने वाली प्रेयसी के हाथों की मेहन्दी अभी सूखी भी नहीं, केशों से मुल्तानी मिट्टी और चन्दन की महक अभी वैसी ही है जैसी प्रथम दिवस को थी, चूड़े पर लगा कसूमल रंग अभी फीका भी नहीं पड़ा, पायल की खनक का स्वर अभी वैसा ही है जैसा पहले दिवस था, उसके रोम रोम से अभी तक चंवरी के धुँए की महक भी नहीं निकली, नवप्रस्फुटित पुष्प की पंखुड़ियों जैसे अधरों के आस्वादन पर उनकी मिठास आज भी वैसी है जैसी पहले दिवस थी, उस नवयौवना को मैं किसके भरोसे छोड़कर जा रहा हूँ ? दो क्षण भी उससे दूर होने की बात करने पर जो विशाल नेत्र सजल हो उठते है, जिनसे मोती बरसने लगते है, साँसों का वेग बढने लगता है वह मेरे बिना कैसे रह पाएगी ? कैसे विश्वास करूं कि मेरे युद्ध में खेत रहने पर ( बलिदान हो जाने पर ) इस अप्रतीम सौन्दर्य का सुनकर राजकुमारी चारुमती की तरह औरंगज़ेब या उसका कोई सेनापति इसे पाने को लालायित नहीं होगा ? तब कौन उसकी रक्षा करेगा ? और भी न जाने कितने प्रश्न थे जिनका जवाब किसी के पास नहीं था | पांच दिवस का हर एक दृश्य मस्तिष्क के पटल पर चल रहा था और उसके साथ पल प्रतिपल नया प्रश्न उभर कर आ रहा था जिनका या तो कोई उत्तर था नहीं या फिर कोई भयानक सम्भावना बिम्ब बनकर सामने खड़ी हो जाती थी |

हुकम, आप अभी तक तैयार नहीं हुए ?

हूँ ह...सामने देखा तो सोलह श्रृंगार किए हाडी रानी आरती का थाल लिए खड़ी है | चुण्डावत सरदार की दृष्टि कभी चूड़े पर, कभी माँग के सिन्दूर पर, कभी हथलेवा ( पाणिग्रहण संस्कार के समय ) में लगी हाथों की मेहन्दी पर, कभी गले में पहने तिमनिया ( सुहाग का स्वर्ण हार ) पर तो कभी पैरों के बिछियों और पायल पर जाकर ठहर जाती | मेरे न रहने पर ये सब उतर जाएंगे ? सौन्दर्य से भरी पूरी यह देह किसी भूतिया महल की तरह कैसी डरावनी लगने लगेगी ? नहीं नहीं...यह नवयौवना विधवा का शापित जीवन जीने के लिए नहीं है | मैं उसके साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकता | मुझे युद्ध में ही बलिदान होना था तो उसके साथ विवाह का अपराध नहीं करना चाहिए था | मेरा उसके प्रति भी तो कोई कर्त्तव्य है |

तभी भीतर से चेतना जाग्रत हुई उसने स्मरण करवाया कि तेरा मातृभूमि के प्रति भी तो कोई कर्त्तव्य है, ऐसी हजारों लाखों कन्याओं के प्रति भी तो कोई कर्त्तव्य है, उन सभी मेवाड़ वासियों के लिए जो सुख, चैन, शान्ति से जीना चाहते है परन्तु आततायी ने उनका सब कुछ छीन लिया है उन दुखियारों के प्रति भी तो कोई कर्त्तव्य है ? इस कर्त्तव्य और प्रेम के बीच अधरझूल में फँसे चुण्डावत सरदार को कुछ समझ नहीं आया तो वे सिर पकड़ कर बैठ गए |

हाडी रानी आरती का थाल सामने खिड़की में रखकर उनके निकट आई | प्रेम से आलिंगन में लेकर बोली स्वामी कोई दुविधा है ? प्रेम और कर्त्तव्य जैसे अस्फुट शब्द मुझे सुनाई दिए, कोई शंका है हुकम ?

चुण्डावत सरदार को लगा जैसे उसे ऐसा कायरतापूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिए था जो हाडी रानी ने देखा और समझा | नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं...कोई दुविधा नहीं, बस अभी निकलता हूँ मेरी तलवार ले आओ | कितने ही रण जीते है मैंने, जिसने पराजय शब्द सुना ही नहीं उसे दुविधा कैसी ?

सच कहा हुकम, आप माँ दुर्गा का नाम लेकर युद्ध में पधारो विजय निश्चित है | घर परिवार की चिन्ता मत कीजिए मैं सब सम्भाल लूंगी | पिताजी कहा करते थे जब प्रेम हमें आसक्त करता है और यह आसक्ति हमें सही गलत का भेद नहीं करने देती ऐसे में अपने कर्त्तव्य को स्मरण कर लो | उस राह चल पड़ो जिस राह कर्त्तव्य पूर्ण होता हो, वह प्रेम और आसक्ति को अलग कर देगा, प्रेम का अर्थ समझा देगा, जीवन का सार समझा देगा |

दो पंक्तियों में हाडी रानी ने शायद वह कह दिया था जो अनेकों को जीवन भर समझ नहीं आता | बड़े से बड़े ग्रन्थ समझा नहीं पाते | चुण्डावत सरदार उठे, तैयार होकर रानी से तलवार ली, माँ से आशीर्वाद लिया, रानी ने आरती उतारी, विजय तिलक किया, अक्षत लगाए, गुड़ खिलाया और वो निकल पड़े अपने कर्त्तव्य पथ पर, सब कुछ भूलकर, युद्ध क्षेत्र में शत्रु से लौहा लेने |

चुण्डावत सरदार तो घर से निकल गए | सब कुछ ठीक होगा बीनणी, माँ इतना ही कह पाई, गला रुंध गया तो तेजी से अपने कक्ष की और बढ़ गई |

हाडी रानी भी समझ चुकी थी, केसरिया का अर्थ वह भी जानती थी परन्तु यह भी जानती थी कि प्रेम कर्त्तव्य से बड़ा नहीं | उसके भाग्य में सुहाग का सुख इतना ही लिखा था | होनहार ने उसके ललाट पर पाँच दिन में ही हिलोरें लेते प्रेम का सागर सूख जाना लिखा होगा | आँखें डबडबा आई, कंठ सूख गया, पाँव लड़खड़ाने लगे, भरी दोपहरी में भी अँधेरा सा छाने लगा | पलंग पकड़ कर वहीं आँगन में बैठ गई | अदृष्टा भी कितना क्रूर है ? सपने तोड़ने ही हो तो बुनने का अवसर क्यों देता है ? जीवन में अँधेरा ही करना हो तो उजाला दिखाता ही क्यों है ? वैधव्य का दुःख ही देना था तो सुहाग के सुख से परिचित ही क्यों करवाया ? इन विचारों से बाहर निकल अचानक से वह गला खंगारने लगी, आँखों का जल सूखने लगा, देह में सामर्थ्य लौटने लगा, रानी ने याद किया कि मैंने वचन दिया था माँ को सम्भालूंगी, परिवार का ख्याल रखूंगी, क्षत्राणी होकर भाग्य के सामने यूँ पराजित हो जाऊँगी तब जिनके जीवन में अँधेरा है उनमें उजाला कौन भरेगा ?

उधर राह में चुण्डावत सरदार युद्ध क्षेत्र की तरफ आगे बढे जा रहे थे परन्तु उनका मन पीछे लौटता जा रहा था | बार बार घनी काली केशराशि से घिरा हाडी रानी का मुखमंडल, रक्तिम कपोल, सागर सी गहराई लिए बड़े बड़े नयन, आसमान की तरह उन्हें आश्रय देती पलकें, गुलाब की पंखुड़ियों से ओष्ठ सब कुछ ऐसे दृष्टिगोचर होने लगे जैसे आवाज़ दे रहे हो लौट आओ मेरे वीर ! मेरे प्रियतम ! मेरे प्राणेश्वर ! मैं कितने ही युगों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही थी और तुम तो निष्ठुर होकर चल दिए | इन चूड़ियों की खनक भी नहीं सुनी, पायल की झंकार भी नहीं सुनी, माँग के सिन्दूर को एक नज़र भर देखा तक नहीं, नयनों के पिघलते हुए काजल को भी अनदेखा कर दिया, बिछियों की मौन पुकार को अनसुना कर चल दिए तुम | मेरे हृदय पर पड़े हिमालय से विशाल पत्थर को एक बार भी मुड़कर नहीं देखा | जैसे मैं तुम्हारी कुछ भी नहीं लगती हूँ |

विचारों में खोए उस वीर ने अचानक से घोड़े की लगाम खींच ली | साथ में चल रहे विश्वासपात्र सैनिक को आदेश दिया अभी इसी समय हवेली जाओ | रावले में जाकर हाडी रानी से कहना मैंने कुछ सेनाणी ( स्मृति चिह्न ) मंगवाई है |

सैनिक बिजली सी फुर्ती से रावले में पहुँचा और हाडी रानी से आग्रह किया | हुकम, केसरिया करने निकले चुण्डावत सरदार ने आपकी सेनाणी ( निशानी ) मंगवाई है |

हाडी रानी समझ गई प्रेम में डूबे प्रियवर को आसक्ति कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर नहीं होने दे रही है | ऐसे विचलित और आधे मन से विजय ध्वजाएँ नहीं फहराई जाती | यह युद्ध क्षेत्र और प्रेम क्षेत्र के मध्य हिचकोले खाता हृदय कैसे मेवाड़ का मान सम्मान सुरक्षित रख पाएगा ? मेवाड़ धरा सुरक्षित रहे, आक्रान्ता के अत्याचारों से मुक्त रहे, आजाद रहे उसके लिए मुझे ही अपने प्रेम का बलिदान देना होगा | सिर्फ़ पाना ही तो प्रेम नहीं, सब कुछ अर्पित कर कर्त्तव्य के पथ पर आगे बढ़ जाना ही तो प्रेम का श्रेष्ठतम रूप हैं |

हाडी रानी ने स्वर्णथाल और रेशमी वस्त्र लाकर सैनिक को दिया | मैं सेनाणी दे रही हूँ | मेरी सेनाणी इस थाल में लेकर चुण्डावत सरदार को भेंट करना | इतना कहकर सोलह श्रृंगार किए हुए रानी कक्ष के भीतर गई और तलवार लेकर उसी निर्भीकता से बाहर आई | एक क्षण के लिए बिजली की तरह शमशीर कौंधी और हाडी रानी का शीश धड़ से अलग पड़ा था | थरथराता सैनिक सब कुछ समझ गया | उसने उस वीरांगना को साष्टांग प्रणाम किया | माँग में सिन्दूर सजाए शीश को स्वर्णथाल में सजाया, रेशमी वस्त्र से ढका और बढ़ चला युद्ध क्षेत्र की तरफ़ |

आगे जो हुआ वह हाडी रानी द्वारा लिखे गए इस स्वर्णिम इतिहास का एक हिस्सा बन गया | प्रेम के इस रूप को देखकर निर्भीक, आसक्ति विहीन, वीर सरदार चुण्डावत रणक्षेत्र को बढ़ चला | अपनी प्रेयसी से स्वर्ग में मिलने को आतुर वह भूखे शेर की भान्ति मुगलिया सेना पर टूट पड़ा | राव रतन सिंह चुण्डावत खेत ( बलिदान ) रहे | औरंगज़ेब को मुंहकी खानी पड़ी | मेवाड़ की विजय पताका वायु के वेग के साथ व्योम को छूने लगी |

ऐसा लग रहा था जैसे स्वर्ग में बैठे उन वीर और वीरांगना को सलामी दे रहा हो | लोगों में चर्चा का एक ही विषय था कि प्रेम के अनेक रूप है वह अनेक जगह प्रस्फुटित हुआ होगा | महलों में, झोंपड़ों में, गलियों में, रास्तों में कई जगह पनपा होगा परन्तु ऐसा विचित्र प्रेम न देखा न सुना | प्रेम के साथ कर्त्तव्य का बोध ही है जो उसे पूजनीय, वन्दनीय, आदरणीय बना देता है |

तभी भीगी पलकों और रुंधे गले से इस विचित्र प्रेम के लिए श्रद्धांजलि स्वरूप किसी कवि का स्वर गूंजा...

चूण्डावत मांगी सेनाणी,

सिर काट दे दिया क्षत्राणी |