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सात कंकड़

सात कंकड़

कैलाश बनवासी

भरी दोपहरी थी.

चुनाव कार्य में लगी बस हम चार लोगों को हमारे मतदान-केंद्र वाले गाँव के चौक में उतारकर चली गयी—भरभराती, अपने पीछे धुल का गहरा गुबार छोडती हुई.

अब हम पिछले चार घंटे के सफ़र के दौरान कपड़ों में जम आई धूल-गर्द झाड़ रहे थे. शहर से अब हम 72 किलोमीटर दूर इस गाँव में हैं.

हम सबमें सबसे ज्यादा सफाई पसंद –जो उसके शर्ट-पेंट की क्रीज़ और कलर से जाहिर था- क्लर्क नायक बड़बड़ाया , यार, यह तो यार वाकई देहात है!

मुझे आसपास एक दुकान या पानठेला भी नहीं दिखा. जो थे, वे बंद पड़े थे. बस्ती आगे थी. मैंने इसमें जोड़ा, ”देहात?नहीं, ये तो साला देहातों में देहात है! कोई पानठेला भी नहीं दिखाई पड़ता. ऐसा लगता है यार, सरकार ने बहुत मुश्किल से इसे खोजा होगा और कहा होगा, भेजो इन सालों को!”

“अच्छा... , ’’ शर्मा अपना बड़ा रौबदार गोरा चेहरा रूमाल से साफ़ कर रहा था, ” तो आपने क्या समझा था श्रीमान कि सरकार आपको पिकनिक पे भेज रही है ?”

हमारे साथ का सिपाही रामनारायण सरकार को गरियाने लगा.

शर्मा ने कुछ सोचते हुए कहा, ”मुझे तो इसमें उसी स्साले नीच तहसीलदार का हाथ लगता है! कुछ दिन पहले मेरी उससे जमके कहा-सुनी हो गयी थी. मेरा एक काम कई रोज से अटका के रखा था. नहीं माना तो मैंने भी तैश में जो जी में आया, बक दिया था. साला मैं भी बीस साल से डिपार्टमेंट में हूँ, घास नहीं छिल रहा हूँ!उखाड़ ले तेरे को जो उखाड़ना है!”

हम गाँव के धूल-धक्कड़ से भरे चौरस्ते पर एक बरगद के नीचे खड़े थे. तभी मोटे सूत की नीली कमीज और मटमैली धोती पहने गाँव का कोटवार आ गया- राम-राम साहब! राम-राम..

कोटवार बूढ़ा था, और दुबला-पतला. उसकी सफ़ेद झबरीली मूंछें उसके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आकर्षण था. उसके साथ एक किशोर छोकरा भी था. हमारा सामान उठाने. मतदान-केंद्र तक ले जाने.

”स्साले, अभी तक कहाँ था? साहब लोग यहाँ कब से खड़े हैं!” उसे देखते ही सबसे पहले सिपाही रामनारायण भड़का. वह इसलिए कि गाँवों के कोटवार पुलिस विभाग के ही अधीन आते हैं. यहाँ सिपाही उसका बॉस हो गया था, अपने से ही

कोटवार एकदम गिडगिडाया, ‘’साहब, इस्कूल में बूथ की तैयारी में लगे रहे, इसी से थोडा लेट हो गया. ’’

“चल, उठा ये सब सामान!” सिपाही ने हुक्म दिया.

कोटवार और उसके साथ आये लड़के ने बिना एक पल गंवाए चुनाव पेटी और चुनाव के दुसरे सामान के साथ हमारे भी पेटी बक्से उठा लिए.

हम जानते हैं, चुनाव कार्य के दौरान कोटवार हमारा अघोषित नौकर है. हमारा हर हुक्म बजा लेने वाला. हम उसके पीछे-पीछे चल पड़े. तभी मैंने उसके पैर देखे... घुटने के नीचे दुबले और काले पैर, धुल से गंदे और बेडौल, जो जगह-जगह इस गाँव के सूखे से फटी धरती की तरह ही थे-कटे-फटे. वह नंगे पैर यहाँ के मुरम वाले कच्चे, ऊबड़-खाबड़ रस्ते पर बेधड़क चल रहा था, जबकि हम जूते-चप्पलों से लैस होने के बावजूद फूंक-फूंक कर कदम रख रहे थे.

सिपाही ने फिर रोष से पूछा, स्कूल और कितना दूर है ?

“बस साहेब, थोडा ही दूर है... ”

सिपाही मेरी बगल में चल रहा था, मेरे कान में फुसफुसाया, इन सालों को ऐसेइ चमकाकर रखना पड़ता है. वर्ना इनकी भी चर्बी चढ़ जाती है.

चलते-चलते शर्मा, जो हमारी बूथ का हमारी बूथ के प्रिसैडिंग आफिसर है,, बोला, “ कोटवार मेरा ये सूटकेस पकड़ ले. ” कोटवार को उसकी बात माननी ही थी. मैं अपने आजू-बाजू बल्कि चारों तरफ फैले खेतों को देख रहा था. दूर तक यही उजड़े, सूखे खेत थे, दुपहरी की तेज चमकीली घाम में झुलसते हुए, और पूरे वातावरण में एक अजीब-सा सूखा और कड़ा सन्नाटा बुनते हुए. हरियाली का नाम नहीं-सिवा मेड़ों पर जहाँ –तहाँ बबूल के पतले काले पेड़ों के. मुझे तुरंत उन ख़बरों की याद आई... प्रदेश के कई जिलों में भीषण सूखा... इस बीच सरकार की तरह-तरह की घोषणाएं... मैं हँस पड़ा..... घोषणाएं. आश्वासन... इनमे कभी कमी नहीं आती.

इधर हमारे प्रिसैडिंग आफिसर-जो तहसील में रीडर पद पर है, के दोनों हाथ खाली थे और इसका उपयोग वे इस समय अपनी खैनी मलने में कर रहे थे. देखकर सिंचाई ऑफ़िस के बाबु नायक के भीतर इर्ष्या जागी, और वो भी मौके का फायदा उठाने से पीछे नहीं रहना चाहता था. बोला, अरे कोटवार, सुनो यार, इस बैग को भी उठाले.

कोटवार ने किसी तरह अपने दायें हाथ में उसका बैग उठाया, ‘बहुत भारी है साहब... ’

‘’अरे यार, क्या बताऊं! ये साली औरत जात होती ही बेवकूफ है! जन्मजात बेवकूफ !बीवी को लाख कहा. भाई इतना सामान मत रखो!अरे, मैं कोई महीने भर के लिए जा रहा हूँ? लेकिन वो मानती ही नहीं!’ नायक बड़बड़ाया. अब जाकर कहीं उसके जी को चैन आया. कि एक को जो सुविधा मिल रही है तो भला उसे क्यों नहीं? उसने कोटवार को धन्यवाद कहा. और मुक्त होकर अपने सर के बचे-खुचे बालों में उँगलियों की कंघी फिरते गीत गाने लगा, ‘खिलते हैं गुल यहाँ... ’

मैं इस चुनावी-टीम का तीसरे नंबर का कर्मचारी हूँ. सबसे जूनियर भी. मुझे बमुश्किल दो ही साल हुए हैं स्कूल में शिक्षक नियुक्त हुए. उन दोनों को यों फ्री देखकर मुझे जलन तो हुई, लेकिन कोटवार या लड़के के पास कोई गुंजाईश नहीं दिखी. लेकिन ये देखकर सहसा मुझे अपना छोटा-सा सूटकेस बहुत भारी लगने लगा था.

सड़क से कोई एक किलोमीटर दूर, खेतों के बीच में स्कूल था-तीन पुराने जर्जर कमरों का भवन. हमारा मतदान केंद्र. खपरैल वाला, जिसकी दीवारों के पलस्तर ना जाने कब से उधडे हुए थे. और जगह-जगह से क्रेक हो गए थे. इन्हीं दरकी दीवारों में कभी-काल किसी देहाती, अनगढ़ कलाकार के बने कुछ महापुरुषों के चित्र थे. सामने बरामदे में जहाँ एक ओर महात्मा गाँधी हँस रहे थे, तो दूसरी ओर फौजी ड्रेस में सुभाषचंद्र बोस. एक दीवाल पर महाराणा प्रताप थे, जिनका भाला दीवाल के दरक जाने से टेढ़ा हो चुका था, इसके बावजूद उनमें बहुत जोश नजर आ रहा था.

पानी के लिए बगल में कुआँ था. रस्सी लगी छोटी बाल्टी वहीं राखी थी.

स्कूल की हालत गाँव की दशा बता रही थी. मैं इन जैसे स्कूलों में पढनेवाले बच्चों की कल्पना करने लगा, कैसा बनेगा उनका भविष्य ? जहां ले-दे के एक-दो मास्टर हैं, उनके पास भी पढ़ाने के अलावा शासन की दसियों तरह जिम्मेदारियां हैं. आये दिन अख़बारों में ऐसी ख़बरें छपती ही रहती हैं. अब आगे जो भारत बनना है, सो इसीसे बनना है.

नयी जगह में आदमी को सबसे पहली चिंता अपनी सुविधाओं की होती है. और खासकर ऐसी जगह में तो समस्या और भी विकत हो जाती है जहां ढंग के होटल तो क्या, एक पानठेला भी ना हो.

चुनाव कार्य में हम कहीं भी जाते हैं तो सबसे पहले इसी समस्या का हल ढूंढते हैं. भोजन. वैसे नायक बाबू के लिए सबसे बड़ी समस्या सुबह-सवेरे लोटा पकड़कर मैदान जाना है, जो उसे बड़ा जंगली लगता है. लेकिन मजबूरी क्या न कराये!

अभी हमारे लिए हर स्तर की लोकल जानकारी का इकलौता स्रोत कोटवार है. जिससे हम पूछ रहे हैं, यहाँ की आबादी कितनी होगी कोटवार?

मुश्किल से एक हजार होगा साहब.

मुझे मतदाता सूची में दी गयी वोटरों की संख्या याद थी. मैंने बताया, वोटरों की संख्या तो सात सौ बाईस है. फिर भी ज्यादा लोग नहीं दिख रहे कोटवार?

‘’कहाँ से दिखेंगे साहब. ज्यादातर अकाल के मारे कमाने-खाने दुसरे देस चले गए है. कहाँ से दिखेंगे ? खुद मेरा बेटा पंजाब में है अभी. ’’ फिर कुछ सोचता-सा धीमे स्वर में बोला, ‘’अब किसी जतन से पेट पोसना है साहब’’

अच्छा तभी! मैंने कहा.

इस पर शर्मा तुनककर बोला, ’’अरे अच्छा है ना यार!लोग भाग गए हैं तो अपना झंझट कम रहेगा. अपना काम जल्दी ख़तम हो जायेगा!’’ और हंसने लगा.

बात आई खाने की. कैसे किया जाये. नायक को सबसे ज्यादा चिंता इसी बात की थी वो शुगर का मरीज है. खाना-पीना समय पर मिलना चाहिए नहीं तो चक्कर आने लगते हैं. इसीलिए वह बार-बार मुझसे कह रहा था, वर्मा जी, पता करो यहाँ कोई होटल-बासा है क्या. !

नायक के बार-बार दोहराने से शर्मा चिढ गया, इतना परेशान क्यों होते हो यार? कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा. और कुछ नहीं तो कन्द-मूल खाके गुजारा कर लेंगे. ऐसे हाय-तौबा मचाने से समस्या हल थोड़े न हो जाएगी! उसने कोटवार से पूछा, है इधर कोई होटल-वोटल?

होटल... कोटवार के चेहरे से लगा, जैसे उसके गाँव के लिए यह कोई बहुत भरी-भरकम शब्द है. बोला, एक छोटा-सा च-पानी की दुकान थी साहब. पर वो भी दुसरे गाँव चला गया है. एक और है साहब... पर उसको एक माई लोगन (यानी महिला) चलाती है. पर... ’’ आगे कहते-कहते रुक गया कोटवार.

“पर क्या?”

“साहब वो छोटी जात की है... पता नहीं आप लोग पसंद करोगे के नहीं.. ” बुदबुदाया कोटवार

“ क्या ??” शर्मा ऐसे चीखा मानो देह पर जलता अंगार गिर पड़ा हो, ”अरे, उसे छोडो. कोई दूसरा बताओ!”

“दूसरा कहाँ से बताएं साहब. इहाँ तो पूरा बस्ती उन्ही लोगों का है. दीगर जात वाले कम हैं इहाँ. आस-पास के गाँव का भी यही हाल है. आप चाहे तो और पता कर लो. ”

अब... ?

समस्या गंभीर थी. हम लोगों को आज मिला के तीन दिन यहाँ रहना है. तीन दिन. सामान्य तौर पर गाँवों में कुछ न कुछ जुगाड़ हो जाता है. यहाँ जुगाड़ मिला भी है तो...

नायक का चेहरा अभी से उतर गया था.

और इधर शर्मा का गुस्सा एकदम उबाल खा गया. वह सर्कार की दइया–मइया एक करने में भिड़ गया, साले, हमको भंगी बनाके छोड़ेंगे! अब हम अब इनके हाथ का खाना खाएं?हमीं सरकार को जीतकर भेजते हैं और वो ही इन हरामजादों के साथ है! ये हरामखोर हमारे अफसर बनें और हम इनकी जी-हुजूरी करें? इनको बढ़ावा देने का मतलब ये तो नहीं कि हम इनका जूठा खाएं? हर जगे!... हर जगे सरकार इनको बढ़ावा दे रही है! इनके लौंडे ठाठ से फटफटिया चला रहे हैं और हमारे मारे-मारे घूम रहे हैं.

मन हुआ. समझाऊँ, शर्माजी, जैसा आप सोचते हैं सच वैसा और उतना ही नहीं है. समय बहुत बदल चुका है. छोडो ये जात-पात!समाज को नई नजर से देखो. लेकिन इस बौराए बेताल से भला कौन उलझे? ससुरा बाम्हन तप रहा है इस बखत. किसी की सुनेगा नहीं. फिर तीन दिन अभी हम लोगों को साथ रहके, मिल-जुलके काम करना है. कौन बेकार में सिर फुटौव्वल मोल ले?

“तब क्या हम लोगो को भूखा ही रहना होगा?” सिपाही रामनारायण गरजा.

कोटवार बेचारा भला क्या जवाब देता. चुपचाप शर्मिंदा सा ताकता रहा.

अचानक नायक ने कोटवार से पूछा, “तुम कौन सी जात के हो?. ”

“हम अहीर हैं साहब. ”

“पक्का??”

“साहब लोगन से झूठ थोड़ी कहेंगे, साहब. ”

“तुम्हारी घरवाली है?”

“ है ना साहब. ”

“तो तुम्ही हमारे लिए खाना बनवाओ. अपने घर में ! फिर शर्मा से मुखातिब हुआ, ”... क्यों शर्माजी, ठीक रहेगा? ”

शर्माजी ने सर हिला के हामी भरी. आखिर कुछ न कुछ रास्ता तो निकलना पड़ेगा.

पर कोटवार चुप. उसकी हिचकिचाहट उसके माथे की लकीरें बता रही थी.

नायक ने उसकी नब्ज पकड़ी, “अरे पैसे-वैसे की चिंता मत करो कोटवार. तुम अपनी डोकरी से हमारे लिए बढ़िया खाना बनवाओ और टाइम से पहुंचा दिया करना. बस्स!”

लेकिन उसकी मीठी बोली के बावजूद कोटवार चुप रहा. माथे की लकीरें वैसी ही रहीं.

“ और क्या?” सिपाही ने भी अब उसे प्यार से समझाया, ” ठीक ही तो है. तुमको इस बहाने कुछ पैसा भी मिल जायेगा. अरे हम लोग कोई फ़ोकट में खानेवाले हैं क्या?”

शर्मा ने समझाया, “जो-जो लगता है, सब ले आ. आख़िरी में जितना होगा, सब मिलके दे देंगे. फिर कुछ रूककर बोला, “क्यों कोटवार, तुमको हमारे ऊपर भरोसा नहीं है क्या?”

कोटवार बोल पड़ा, ”नहीं नहीं मालिक. पर घर में अभी बहुते तंगी चल रही है साहब. कुछ अडवांस मिल जाता तो... ?”

मैंने कहा, अरे, इसमें कौनसी बड़ी बात है! मैंने पर्स से सौ रूपये निकलकर उसको देते हुए कहा, ” जो-जो लगता है, अपना मिलकर ले आओ. बाकि का हिसाब हम लोग आखिर में कर देंगे. तू उसके लिए बेफिक्र रहो. ”

उसने चुपचाप नोट ले लिया. किन्तु चेहरे पर फिर भी एक अविश्वास बना ही रहा. यह गाँवों को शहरों से कदम-कदम पर बरसों से मिलते छल, धोखे से उपजा अविश्वास है, पत्थर की लकीर बन चुका. इतनी आसानी से जाएगा नहीं.

नायक खुश हो गया. फिर से चहका, “खाना, बढ़िया बनवाना कोटवार. और अभी तीन दिन अपनी डोकरी से झगडा मत करना... नहीं तो हमारा खाना खराब हो जाएगा... ”

कोटवार उसके मजाक पर जरा-सा मुस्करा दिया इस बार.

आमतौर पर हम सरकारी कर्मचारियों के लिए ऐसी ‘आउटिंग’ एक पिकनिक का मजा देती है. रोज के ढर्रे से हटकर कुछ अलग-सा, नया-सा फील करते हैं. और इसका पूरा मजा लेना चाहते हैं. इसीलिए शाम को गाँव से दूर इस स्कूल में मुझे अकेला छोड़कर मेरे बाकी के तीन चुनावी साथी गाँव की तरफ हवाखोरी के लिए निकल गए. कोटवार भी हमारे भोजन का सौदा-सुलुफ़, साग-भाजी लेने कुछ देर के लिए गाँव या पास के गाँव चला गया था. और ढलती शाम तक लौट आया. हम लोगों का काम-काज कल शुरू होगा--चुनाव की तैयारी, बूथ की तैयारी, ढेर सारे कागज-पतरों में जरूरी इन्द्राज करना, लिफाफों को सील-मोहर लगाके रेडी करके रखना... ये सब कल दोपहर में किया जायेगा. इसीलिए आज ये बिल्कुल निश्चिन्त भाव से घूम रहे हैं, तफरीह का मजा लेते हुए.

और मैं उस बियावान में निपट अकेला. स्कूल-प्रांगण में एक कुर्सी डाल के बैठ गया हूँ. शाम का ढलता सूरज देखते हुए—मेरा एक मनपसंद काम. और, हमेशा की तरह, शहर की तुलना में गाँव में दिन का ढलना, सूरज का डूबना कितना अलग होता है!और मन को एक अलग ही शांति दे जाता है. गहराती शाम के साथ-साथ आकाश और प्रकृति के पल-पल बदलते हुए रंग...

शायद आप ठीक ही सोच रहे होंगे कि गाँव में अकेला बैठा ये बन्दा, तेइस साल का नौजवान लड़का अभी अपनी जेब से, आज सबके लिए हवा-पानी के जैसे बेहद जरूरी हो चुका उपकरण - मोबाइल फोन- निकालेगा और अपनी किसी गर्लफ्रेंड से, या नहीं तो अपने किसी दोस्त से जो बतियाना शुरू कर देगा कि... या, ऐसे उजाड़ और अकाल-ग्रस्त गाँव में अपनी ‘सेल्फी’ लेकर ‘वाट्स-अप’ में नया स्टेटस डालेगा, या ‘फेसबुक’ में अपना नया प्रोफाइल चित्र अपलोड करेगा... आप ठीक ही सोच रहें हैं, लेकिन ये कोई बीस-पचीस साल पुरानी बात है जब देश में इसके बारे में कोई जानता भी नहीं था. लैंड-लाइन फोन ही होते थे. चुनाव बैलेट-पेपर से होते थे, इ. वि. एम. यानी ‘इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन’ की चर्चा होती थी, पर देश में कहीं भी लागू नहीं हुआ था. आज का समय होता तो मैं निश्चित-सौ प्रतिशत- यही सब करते बैठा होता. लेकिन वह उस ज़माने की बात है इसलिए मैं चुपचाप इधर-उधर, पेड़-पक्षियों को देखता बैठा हुआ था. स्कूल के पीछे एक शिरीष पेड़ है, जिस पर अपने बसेरे में लौटे परिंदों का शोर बढ़ गया है. और तो और, यह इतना पिछड़ा गाँव है कि यहाँ-पोलिंग-बूथ तक में बिजली की भी व्यवस्था नहीं है. इसलिये सांझ गहरा जाने के बाद जब कोटवार आया तो अपने साथ जलता हुआ कंदिल लेता आया. अजीब बात ये थी कि लोकसभा चुनाव को लेकर इस इलाके मे किसी तरह की कोई अतिरिक्त सरगर्मी नहीं दीख रही थी. और नहीं तो ऐसे मौके पर कुछ न कुछ सहज जिज्ञासु बड़े-बूढ़े या बच्चे आ टपकते हैं और हम शहरी लोगों को लगभग किसी और ग्रह के प्राणी की तरह तकते रहते हैं. पर यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं. गाँव का एक भी आदमी इधर झाँकने तक नहीं आया. शायद आबादी कम होने के कारण या अधिकाँश लोगों के पलायन कर जाने के कारण या फिर लोक सभा का क्षेत्र बहुत बड़ा होने के कारण उम्मीदवारों की कोई ज्यादा दिलचस्पी यहाँ नहीं.

बहरहाल, कोटवार ने बताया, खाना आठ-साढ़े आठ बजे तक तैयार हो जाएगा. और वो भोजन ले आएगा.

कोटवार ने मटके में कुएँ का ताजा जल भर दिया. फिर स्कूल बरामदे में एक पिल्हर से टिक कर बैठ गया और उसने अपनी बीड़ी सुलगा ली.

उससे जो बातचीत हुई, उसीसे मैं जान पाया, कि इधर अकाल का यह लगातार तीसरा बरस है, जिसने किसानों की कमर तोड़ दी है. बाकी जो सरकारी काम-काज होता है, वो हो रहा है, कभी विधायक आ जाते हैं, कभी बि. डी. ओ., कभी ये ‘फारम’ भरा रहें हैं तो कभी वो. और सबके पास किसिम-किसिम के वादे, बातें, बीमा, फसल का मुआवजा, या राहत कार्य... तो पर भी आधा गौण कमाने-खाने के लिए निकल चुका है. ये तो परसों के दिन वोटिंग में आप लोग देख ही लेंगे. चार आना या छः आना वोटिंग हो गया तो बहुत है.

कोटवार चुप हो गया था. लालटेन की मंद पीली रोशनी में मुझे कोटवार का बूढा झुर्रिदार चेहरा और ज्यादा बूढा लग रहा था- किसी एकदम पके फल-सा नरम, पिलपिला और कमजोर, थका और , दुःख से भरा.

फिर पता नहीं हम दोनों के बीच कितनी देर तक ख़ामोशी छायी रही. बहुत गहरी ख़ामोशी. कि वहाँ केवल झींगुरों की आवाजें गूँज रही थीं. काफी देर बाद हम अचानक चौंक गए थे. आपस में किसी बात पर ठट्ठा करते हुए वे लौटे थे, बिलकुल मुक्त भाव से, जिसमें किसी तरह की कोई चिंता या परेशानी नहीं.

सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ था की आदमी की हँसी भी कभी-कभी ऐसी डरावनी और जंगली जानवरों-सी हिंस्र हो सकती है! उन तीनों के साथ एक चौथा व्यक्ति भी था-पैंतीस-चालीस बरस का एक मंझोले कदवाला. पता चला, वो गाँव का पटवारी है. बूथ का रख-रखाव, जरूरी चीजों की इंतजामी, पोलिंग-पार्टी की सुविधाओं का ख्याल रखने की जिम्मेदारी सरकारी तौर पर उसी का है. पटवारी अपनी बातचीत में और हर समस्या का हल निकल लेनेवाला और लगे हाथ खुद की तारीफ़ करने वाला देहाती चलता-पुर्जा लगता था-- सही-गलत, किसी भी तरीके से काम निकाल लेने का हूनर जाननेवाला. गुटका भरे मुँह से उसने आज पेट्रोमेक्स का इंतजाम ना कर पाने की हमसे औपचारिक माफ़ी मांगी और बोला कि कल हो जाएगा, एकदम हो जाएगा, कि दुनिया भले कल इधर से उधर हो जाए, ये पटेल पटवारी की जबान है, जो कह दिया, सो करेगा भी! आज किसी तरह इस लालटेन से कम चला लीजिये.

इस बीच मैंने पाया कि पटवारी पटेल की मेरे ग्रुप के तीनों महानुभावों से गहरी दोस्ती हो गई है, और ये रह-रह कर आपस में द्विअर्थी अश्लील हँसी-मजाक करने लगे है. मैं उनकी ऐसी अंतरंगता का राज समझ नहीं प् रहा था. हाँ यह जरूर जान गया था की पटवारी शर्मा को पहले से जानता है, शायद एक ही विभाग-राजस्व- के कर्मचारी होने के कारण.

और जब पटवारी लौटने लगा, तो ये तीनों ही कुछ दूर तक उसे छोड़ने गए थे. और वहीँ अन्धेरे में इनके बीच कुछ खुसुर-पुसुर करने लगे थे- बहुत रहस्यमयी ढंग से. मैं कुछ समझा. और कुछ नहीं समझा. फिर लगता है, जितना समझा, ठीक ही समझा !

पटवारी उनको महुए की दो बोतल देके गया था.

कोटवार जब खाना लेने अपने घर गया, तो ये एक कमरे में बैठ गए. और नशा चढ़ गया.

खाना आया तो खाना खाने के बाद कोटवार से कह दिया--जाओ, आज का तुम्हारा काम हो गया. अपने घर में आराम करो. कोटवार जूठे बर्तन धोने के बाद लौट गया.

गर्मी के दिन थे. दुसरे इन लोगों ने पी रक्खी थी, जिसकी बदबू से मुझे नींद नहीं आती है, इसलिए मैंने उनसे पहले ही कह दिया कि मैं यहीं बरामदे में ही सोऊंगा. और बरामदे के पूरबी छोर पर मैंने अपना बिस्तर बिछाया और लेट गया. जबकि ये अभी गप्प मारने स्कूल गेट से कुछ आगे ही चले गए.

रात के साढ़े दस बज चुके थे. नयी जगह होने के कारण मुझे नींद नहीं आ रही थी. इस बीच सन्नाटा और गहरा चुका था और आसपास केवल झींगुरों की आवाजें तीक्ष्ण होकर गूँज रही थीं. कि सहसा गौण के कुत्तों के भौंकने की आवाजें कुछ पल के लिए अचानक तेज हो गयी थी, पता नहीं क्यों. लेकिन यह मुझे तब समझ आया जब पटवारी अपने साथ इनका ‘आईटम’ लेकर आया था. और जल्दी से छोड़ कर चला गया. वह बीसेक बरस की लड़की थी. हलकी चांदनी में इतना ही देख पाया की दुबली-पतली और सांवली है. इस अकल्पनीय ‘धमाके’ से मेरी नींद कोसों दूर भाग चुकी थी. पर मैं चुपचाप लेटा ही रहा, दम साधे, अजीब उत्तेजना में! लड़की ने साडी के पल्लू से अपना मुँह ढांक रखा था, इसलिए उसकी चेहरा देख पाना मुमकिन नहीं हुआ. उसे ये तेजी से उसी कमरे में ले गए कमरे में ले गए जहां थोड़ी देर पहले इन्होने दारू पी थी. भीतर कुछ फैसले के बाद नायक और शर्मा बाहर रह गए और सिपाही अन्दर. ये दोनों अपनी बारी का इंतजार करते बहुत बेचैनी से यहाँ-वहाँ टहल रहे थे. इस ‘अवैध’ काम ने माहौल में अजीब सी सनसनी, और कुछ भय भी भर दिया था, और एक गाढ़ा रोमांच... चोरी करने जैसा कुछ.

शायद इसके बाद शर्मा का नंबर था, इसलिए वह अत्यधिक उत्तेजना में था. वे लोग मुझसे बिलकुल बेखबर थे. मैं अपनी पतली चादर की आड़ से देख रहा था. शर्मा जाने क्यों बार-बार आँगन में जाता, झुककर अंधरे में कुछ ढूँढने की कोशिश करता, फिर लौट आता, जैसे उसे भी इस बात का पूरा भरोसा नहीं हो कि जो वो करने जा रहा है, एकदम सही है.. सौ प्रतिशत सही.

“क्या है?क्या कर रहे हो?”नायक ने भरसक दबी आवाज में पूछा.

शर्मा मुस्कुराया, आधे विश्वास आधे अविश्वास से, “तुम नहीं समझोगे.

“अरे क्या नहीं समझूंगा?” नायक इस बार तेज झुंझला पड़ा. कि ऐन काम के समय साला ये क्या ड्रामा है?. उसे ऐसा भी लगा कि शर्मा उससे कुछ छिपा रहा है... कोई राज की बात.

“ देख, मेरी मुठी में सात ककड़ हैं... ”

तो? नायक अब भी कुछ नहीं समझा.

शर्मा इस बार ज्यादा आत्मविश्वास से भरकर मुस्कराया है, जैसे एक खिलाड़ी किसी अनाड़ी पर हंसता है... उसके चेहरे पर. एक शातिर अर्थपूर्ण मुस्कान चमक रही है, -- “ये एक फार्मूला है... ”

“कैसा फार्मूला?” उसने जल्दी से पूछा.

“ मालूम है, इसे साथ रखने पर जात की छूत नहीं लगती... ”

“क्या?” नायक को जैसे विश्वास नहीं हुआ.

“ हाँ, लड़की की जात की छूत इससे अपने को नहीं लगती... जानते तो हो उसकी जात.. !”.

“ पर ये फार्मूला कौन बताया तुमको?”

“छुटपन में हम ऐसेइ करते थे... जब कोई लड़की छोटी जात वाली होती थी. ”

नायक पहले तो धीमे से हंसा, गोया कोई पागलपन की बात है. फिर गंभीर होकर ना जाने क्या सोचा, कि वो भी आँगन में कंकड़ बीनने चल दिया...

***