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क्रान्तिकारी - 2

क्रान्तिकारी

(2)

शांतनु भी उन लाखों दिल्लीवासियों में से एक था जो नौकरी की तलाश में इस महानगर में आते हैं. वैसे वह पटना के एक गांव में जन्मा और उसने पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की थी. एक भूमिपति भूमिहार के बेटे को नौकरी की आवश्यकता नहीं थी. पिता भी यही चाहते थे कि शांतनु पटना में रहकर कोई व्यापार करे. पूंजी की कमी थी नहीं और शांतनु भी पटना छोड़ना नहीं चाहता था. वहां की स्थानीय राजनीति में उसे रस मिलने लगा था और साहित्यिक गतिविधियों में भी वह सक्रिय होने लगा था. पटना और आस-पास के छोटे-बड़े साहित्यकार उसे जानने लगे थे. वह स्वयं किसी व्यापार में पूंजी लगाकर और सत्ता दल से संबद्ध होकर राजनीतिक विलासिता भोगना चाहता था. लेकिन उसका सोचा कहां हो सका था!.

मधूलिका से उसकी मित्रता उसकी योजनाओं के लिए राहु बन गई थी. हालांकि मधूलिका को लेकर उसकी नीयत साफ थी और जो कुछ भी मधु के साथ हुआ था वह उसके अनजाने में ही---- प्रेम की अन्तिम परिणति सर्वत्र-सदैव जिस रुप में होती है----- वही सब हो गया था. लोगों का यह आरोप असत्य था कि मधु जैसी सीधी-सादी गरीब बाप की बेटी को अपने धन-दौलत का सब्जबाग दिखाकर उसने उसका यौन-शोषण किया था. कितना घृणित आरोप था यह ---- यदि ऎसा ही होता तो वह मधु के समक्ष शादी का प्रास्ताव क्यों रखता! बस एक ही शर्त तो रखी थी उसने मधु से कि उसके पेट में बढ़ रही दोनों के प्रणय की परिणति से मधु पहले मुक्त हो ले, फिर वह उसके साथ शादी कर लेगा कोर्ट में.

सुनकर बिलखती हुई मधु बोली थी, "अपने ही रूप को नष्ट करना चाहते हो शांतनु----- मुझ पर यह तुम्हारा दूसरा जुल्म होगा. प्लीज ऎसा करने के लिए मत कहो, शांतनु----."

"तुम समझने की कोशिश करो मधु----- घरवाले यह सब स्वीकार न करेंगे----- वैसे ही पिता जी इस शादी को आसानी से नहीं मानेंगे----- और ऊपर से कोढ़ में खाज यह ---- मेरी मजबूरी समझने का प्रयास करो, मधु----." शिथिल स्वर में वह बोला था.

"नही, मैं ऎसा नहीं करूंगी----- हरगिज नहीं!"

"एक बार सोचो---- इस स्थिति में या किसी भी स्थिति में तुम्हारे साथ शादी करने का मतलब है पिता जी से कुछ भी पाने की आशा को त्यागना और तब अपने पैरों पर खड़ा होना ही एक विकल्प होगा ---- उस स्थिति में ---- दोनों के साथ तीसरे का बोझ----- जरा सोचो---- मधु, बच्चा तो हम व्यवस्थित होकर भी पा लेंगे...." उसने मधु को समझाना चाहा था.

लेकिन मधूलिका चीख उठी थी, "नहीं--- शांतनु!" पेट पर हाथ रखकर वह बोली थी, "मैं इसे नष्ट नहीं कर सकती, भले ही-----."

शांतनु चुप रहा था.

रात देर जब शांतनु होस्टल पहुंचा तब पता चला, पुलिस उसके कमरे के दो चक्कर लगा चुकी थी. क्यों? मधूलिका ने आत्महत्या कर ली थी! सीलिंग फैन से लटककर मरने के पूर्व एक पत्र छोड़ गई थी, जिसमें कहीं उसके नाम का भी उल्लेख था.

सुनकर शांतनु के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी थी. मित्रों ने सलाह दी कि उसे तुरन्त कहीं निकल जाना चाहिए. परीक्षाएं समाप्त हो ही चुकी थीं. शांतनु ने भी निकल जाना ही उचित समझा था. उसे नारायण राय की याद आ गई थी. जेब में इतने रुपये थे कि दिल्ली की यात्रा के अतिरिक्त वहां कुछ दिन रहा जा सकता था---- कम-से कम तब तक जब तक नारायण राय मिल न जाएं. नारायण दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था और शांतनु का मित्र था.

नारायण विश्वविद्यालय के पी.जी. होस्टल में रहता था.

और उसी रात शांतनु दिल्ली के लिए रवाना हो गया था.

दिल्ली में पी.जी. होस्टल पहुंचने में उसे अधिक परेशानी नहीं हुई. नारायण से उसने सब कुछ स्पष्ट बता दिया. सुनकर नारायण मुस्कराया, "ऎसे लोगों के लिए यह होस्टल निरापद जगह है गुरू---- पुलिस झांक नहीं सकती यहां."

आश्वस्त हुआ था शांतनु.

"यह वह स्थान है शांतनु जहां पार्षद तक लड़कियों के साथ बलात्कार कर जाते हैं---- और अखबार इस बात पर चीखते रहते हैं---- लेकिन प्रशासन और सत्ता खर्राटे लेते रहते हैं----- तुम इसे अभयारण्य समझो और जब तक मैं यहां हूं, ठाट से रहो."

"लेकिन कब तक यहां रहा जा सकता है---- आखिर तुम भी तो....."

"मैं अभी जा तो रहा नहीं ---- सेशन खत्म हो चुका है---- फिर भी ----- वैसे तुम्हें बताऊं 'होम मिनिस्ट्री ' में हिन्दी अनुवादक के पद पर मेरा चयन हो चुका है. अगर जल्दी ज्वाइन करने को मिल गया तो कहीं कमरा ले लूंगा, यदि समय लगा तो यहीं. एम.फिल. के लिए प्रयास करूंगा ---- इसलिए तुम रहने-खाने-पीने की चिंता से मुक्त रहो."

और शांतनु निश्चिन्त हो दिल्ली की हवा में अपने फेफड़ों को स्वस्थ करने लगा था.

सम्पर्क-सम्बन्ध बनने लगे थे शांतनु के भी. जे.एन.यू के चक्कर भी वह लगाने लगा था, क्योंकि वहां उसके प्रांत के छात्रों की संख्या पर्याप्त थी. और वहीं वह एक विशेष विचारधारा वाले युवकों-प्राध्यापकों के सम्पर्क में आया. कुछ महीने में ही शांतनु ने अपनी जड़ें जमा लीं और उसे अब कुछ ऎसे लोगों के सम्पर्क की तलाश थी जो किन्हीं महत्वपूर्ण पदों पर हों. घर उसने पिता को लिख दिया था कि वे उसकी चिंता न करें---- और विश्वविद्यालय से लेकर उसकी मार्क्सशीट भेज दें.

नारायण को 'होम मिनिस्ट्री' ने बुला लिया था. उसने वहां ज्वाइन कर लिया और मॉडल टाउन में एक बरसाती किराये पर लेकर वहां शिफ्ट कर गया. शांतनु भी उसके साथ था. शांतनु की पूरी जिम्मेदारी नारायण राय ने ओढ़ रखी थी. उसने जब भी पिता से पैसे मंगाने की बात चलायी, नारायण ने उसे डपट दिया---- जब कहीं लग जाना--- सूद ब्याज सहित दे देना. व्यर्थ में दिमाग को परेशान करने के बजाय कुछ और सोचो."

और शांतनु निश्चिंत हो गया था.

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चार महीने बीत गये. पटना से शांतनु की मार्क्सशीट और कुछ सामान आदि आ गये थे. वहां मधूलिका प्रकरण ठंडा करवा दिया था उसके पिता ने पुलिस से मिलकर. नारायण शांतनु के लिए काफी परेशान रहने लगा था. एक दिन उसने शांतनु से कहा, "शाम छः बजे 'आकाशवाणी बस स्टॉप’ पर मिल जाना--- बच्चा बाबू के यहां चलेंगे---- वैसे तो वे अपनी जातिवालों की आंख बन्द कर सहायता करते हैं---- चाहे वह कहीं का भी राजपूत क्यों न हो--- लेकिन यदि कोई बिहारी है तो वह चाहे जिस जाति का भी हो--- उसकी भी भरपूर मदद वे करते हैं-- अपने बिहार के ही तो हैं न वे भी."

जे.एन.यू. के छात्रों के साथ उठ-बैठकर शांतनु जिस विचारधारा से जुड़ चुका था उसमें जाति और प्रांतीयता की गुंजाइश न थी, लेकिन इतने दिनों में उसने यह भी अनुभव कर लिया था कि जब तक किसी तोप का सहारा वह न लेगा, बेकारी की जंग जीत न सकेगा.

वह छः बजे नारायण को आकाशवाणी के बस स्टॉप पर मिला. दोनों पंडारा रोड स्थित बच्चा बाबू के बंगले पर पहुंचे. ज्ञात हुआ, बच्चा बाबू रात आठ बजे तक आयेंगे. दोनों चहल-कदमी करते रहे. नारायण उसे बच्चा बाबू की विशेषताएं बताता रहा--- उनकी साहित्यिक अभिरुचि पर प्रकाश डालता रहा---- और यह समझाता रहा कि चूंकि शांतनु कविताओं के साथ-साथ आलोचनात्मक कार्य भी करता है---- बच्चा बाबू उससे मिलकर अत्यधिक प्रसन्न होंगें. साहित्य की सीढ़ी चढ़ शांतनु बच्चा बाबू के निकट पहुंच सकता है और बच्चा बाबू यदि चाहें तो उसे प्रधानमंत्री सेक्रेटेरियेट तक में कोई महत्वपूर्ण पद दिला सकते हैं---- किसी कॉलेज में लगवा सकते हैं---- या कहीं सम्पादक भी बनवा सकते हैं---- क्योंकि बच्चा बाबू पी.एम. के खास और विश्वसनीय अधिकारी हैं.

रात सवा आठ बजे बच्चा बाबू की गाड़ी बंगले में प्रविष्ट हुई. नारायण और शांतनु पहले ही पहुंच चुके थे. बच्चा बाबू के गाड़ी से उतरते ही नारायण ने लपककर उनके पैर छू लिए. शांतनु पर अब तक नारायण द्वारा वर्णित बच्चा बाबू छाये हुए थे. नारायण के हटते ही बिना कुछ सोचे शांतनु भी बच्चा बाबू के पैरों पर झुक गया.

"अधिक प्रतीक्षा तो नहीं करनी पड़ी, नारायण?" गंभीर स्वर में बच्चा बाबू आगे बढ़ते हुए बोले.

"नहीं, सर!" उनके पीछे घिसटते नारायण ने कहा. शांतनु भी साथ घिसट रहा था.

नारायण ने बच्चा बाबू से शांतनु का परिचय करवाया,कविता और आलोचना के क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उसे प्रस्तुत किया तो मधुर स्मिति के साथ बच्चा बाबू बोले, "तब तो शांतनु मेरे बड़े काम के हैं."

"बस सर, आप इस पर अपनी कृपादष्टि बनाए रखें---- मेरा अच्छा मित्र है." नारायण ने हाथ जोड़ दिए थे.

"चिंता न करो, नारायण----- बस मिलते-जुलते रहना---- तभी कुछ हो सकता है." बच्चा बाबू अभी भी मुस्करा रहे थे.

और उसके बाद बच्चा बाबू से शांतनु के मिलने का सिलसिला शुरू हो गया था.

एक दिन बच्चा बाबू ने उससे पूछ लिया कि उसे कौन-सी नौकरी अधिक पसन्द है. और शांतनु ने प्राध्यापकी को चुना था. सुनकर कुछ सोचते रहे थे बच्चा बाबू. फिर बोले थे, 'विश्वविद्यालय के हेड ऑफ डिपार्टमेंट से बात करूंगा. दस दिन बाद पता कर लेना."

दस दिन बाद जब शांतनु मिला, वे बोले, "तुम एक काम करो-----'मध्यप्रदेश की लोककथाएं' पर कर्य करके पन्द्रह-बीस दिन के अन्दर दे दो---- पाण्डुलिपि पर किसी का नाम मत डालना."

"सर, किस प्रकार ---?"

शांतनु की बात बीच में ही काट बच्चा बाबू बोले, "यही----मध्य प्रदेश' की जितनी भी लोककथाएं मिलें, उनको एक स्थान पर संकलित कर दो --- पाण्डुलिपि मुझे दे जाना. इस मध्य आशा है किसी कॉलेज में तुम्हे एडहॉक जगह मिल जाये."

शांतनु ने पन्द्रह दिन दिन-रात एक कर दिए. मध्यप्रदेश सूचना केन्द्र से लेकर कितने ही पुस्तकालयों के चक्कर लगाकर उसने लोककथाएं एकत्रित कीं और 'मध्यप्रदेश की लोककथाएं" पाण्डुलिपि एक दिन बच्चा बाबू को थमा दी. पाण्डुलिपि देख बच्चा बाबू उछल पड़े. बोले, "भाग्यवती डिग्री कॉलेज में अठारह तारीख को दो बजे तुम्हारे विषय के लेक्चरर पद के लिए साक्षात्कार है --- एक रेगुलर और दो एडहॉक पोस्टस हैं. तुम कल जाकर प्रिंसिपल को आवेदन-पत्र दे दो. प्रिंसिपल हैं वहां उदयवीर सिंह--- तुम्हारे लिए मेरी बात हो चुकी है और हेड ऑफ डिपार्टमेंट से भी बोल दिया है---- इण्टरव्यू के लिए तुम्हारा नाम 'इन्क्लूड हो जायेगा और हो भी जायेगा---- फिलहाल एडहॉक----बाद में रेगुलर के लिए देखा जायेगा."

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'मध्यप्रदेश की लोककथाएं' बच्चा बाबू के नाम से एक बड़े प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हो गयी थी और शांतनु 'भाग्यवती डिग्री कॉलेज' में एक साल के लिए तदर्थ नियुक्ति पा गया था और वहीं से उसके जीवन का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ था.

'भाग्यवती' में उसके विषय के जितने भी प्राध्यापक दिन और सांध्य में थे, उनमें से आधे उसकी विचारधारा के थे. उनके साथ-साथ उस विचारधारा के दूसरे कॉलेज के प्राध्यापकों से संपर्क करने का अवसर शांतनु को मिला. कुछ ही दिनों में संपर्क संबंधों में बदल गया. उनमें से ही एक थे 'रामजस कॉलेज' के डॉ. अश्विनी बाजपेयी. अच्छे गीतकार-आलोचक. शांतनु उन्हें पसंद करने लगा और दोनों में घनिष्ठता स्थापित होने में अधिक समय नहीं लगा. वह उनके घर आने-जाने लगा.

शांतनु ने नारायण के पास ही स्वयं भी एक बरसाती किराये पर ले ली, जहां प्रायः डॉ. बाजपेयी आ जाते और दोनों घंटों बातें किया करते. जिस दिन बाजपेयी न आते, शांतनु उनके घर चला जाता. डॉ. बाजपेयी मॉडल टाउन के फेज दो में रहते थे और शांतनु और नारायण फेज तीन में.

डॉ. बाजपेयी की पत्नी भी साहित्य में अभिरुचि रखती थीं और विचरधारा से कट्टर साम्यवादी थीं. वे भी उन दोनों की गप्प-गोष्ठी में शामिल रहतीं. कुछ दिनों बाद इस गोष्ठी में एक सदस्य की और बढ़ोत्तरी हुई थी. वह थी बाजपेयी की बहन राखी. डॉ. बाजपेयी ने उसके लिए हिन्दी की प्रोन्नति के लिए कार्यरत एक सरकारी संस्था में 'टेक्निकल असिस्टेंट पद के लिए वहां के निदेशक से बात की थी और आते ही राखी को वहां तदर्थ नियुक्ति मिल गई थी.

राखी ने प्रथम मिलन में ही शांतनु को अपनी ओर आकर्षित कर लिया. शांतनु उसके सौंदर्य का ही प्रशंसक न था, उसकी वक्तृता पर भी मुग्ध था. डॉ. बाजपेयी और उनकी पत्नी सावित्री उन दोनों को पर्याप्त अवसर भी देने लगे थे और उसका लाभ उठाकर राखी शांतनु के यहां तक जाने लगी थीं. कभी-कभी दोनों कनॉट प्लेस, लोधी गार्डन की ओर निकल जाते. उधर जाने का मन न होता तो इंडियागेट या प्रगति मैदान में ही बैठे रहते.

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