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क्रान्तिकारी - 3

क्रान्तिकारी

(3)

कितने ही दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. शांतनु बच्चा बाबू के घर के निरन्तर चक्कर लगाता रहा और 'भाग्यवती कॉलेज' में उसके तदर्थ नियुक्ति की अवधि वर्ष दर वर्ष बढ़ती रही. पांच वर्ष यों ही व्यतीत हो गये. इस मध्य राखी और शांतनु की मित्रता भी प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर होती रही. राखी अपने कार्यालय में तदर्थ से स्थायी हो गई थी और प्राध्यापकी पाने के लिए उसने पी-एच.डी. के लिए मेरठ विश्वविद्यालय से रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया था, लेकिन शांतनु अधर में लटका था. इसीलिए वह राखी के समक्ष कोई प्रस्ताव नहीं रख पा रहा था. लेकिन बाजपेयी के घर जाने, गप्पगोष्ठी करने का क्रम ज्यों का त्यों बना रहा. डॉ. बाजपेयी के घर आने वालों में एक और प्राध्यापक जुड़ गया था-- डॉ. सुधांशु.

सुधांशु दिल्ली विश्वविद्यालय के एक डिग्री कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था और विवाहित था. उसका अध्ययन गंभीर था--विशेषकर मार्क्सवादी साहित्य का. प्रायः उसके तर्कों के समक्ष शांतनु और बाजपेयी को चुप रह जाना पड़ता था. शांतनु उन दिनों राखी में एक परिवर्तन देखने लगा था----राखी सुधांशु के प्रति आकर्षित होने लगी थी और शांतनु के कहीं घूमने जाने के प्रस्ताव को अत्यन्त शिष्टता के साथ नकारने लगी थी. शांतनु तब और अधिक अपमानित-सा अनुभव करता जब उसके ही सामने राखी डॉ. सुधांशु के साथ कहीं जाने को तैयार हो जाती. लेकिन वह अभी भी राखी के प्रति अशान्वित था और बाजपेयी के घर जाने का सिलसिला ज्यों का त्यों बनाए हुए था.

और उन्हीं दिनों उसकी मुलाकात शैलजा से हुई थी डॉ.बाजपेयी के घर. शैलजा राखी की सहपाठिनी, लखनऊ में उसकी पड़ोसी और अच्छी मित्र थी. राखी ने ही उसे दिल्ली बुलाया था नौकरी के लिए और शैलजा घरवालों से विद्रोह कर दिल्ली आ गई थी.

शैलजा का गुलाबी सौंदर्य, झील-सी आंखें, सामान्य लम्बाई और सुगठित शरीर ने यकायक शांतनु को आकर्षित किया था. और राखी की उपेक्षा से त्रस्त शांतनु शैलजा की मित्रता का आकांक्षी हो उठा था. डॉ. बाजपेयी तो शैलजा की नौकरी के लिए प्रयत्न कर ही रहे थे, शांतनु भी उसे लेकर बच्चा बाबू से मिल आया था और बच्चा बाबू ने कुछ-न कुछ करने का आश्वासन भी दिया था.

बच्चा बाबू के कहने पर शांतनु 'हिन्दी की नयी कविता' पर एक आलोचनात्मक पुस्तक तैयार कर उन्हें पाण्डुलिपि सौंप आया था. यह पाण्डुलिपि भी बच्चा बाबू के नाम से शीघ्र ही प्रकाशित हो गई थी. लेकिन शांतनु को यह सौदा घाटे का न लगा था, क्योंकि उसके कुछ दिनों बाद ही वह 'भाग्यवती कॉलेज' में बच्चा बाबू की कृपा से स्थायी नियुक्ति पा गया था.

डॉ. बाजपेयी ने अपने ’रिसोर्सेज' का उपयोग कर शैलजा को आकाशवाणी में 'लीव वैकेन्सी' पर छः महीने के लिए नियुक्त करवा दिया था. शांतनु अपनी ओर से उसके लिए पृथक प्रयत्न कर ही रहा था. वह प्रायः शैलजा को आकाशवाणी से शाम दफ्तर से छूटने के बाद 'पिक अप' करता और दोनों कनॉट प्लेस के चक्कर लगाते हुए 'मॉडल टाउन' पहुंचते. राखी की मित्रता शुधांशु के साथ प्रगाढ़तर होती जा रही थी और शिक्षण-क्षेत्र में यह चर्चा होने लगी थी कि सुधांशु पत्नी को तलाक देकर राखी के साथ शादी करने का विचार कर रहा है.

और शांतनु शैलजा को अपना बनाने का विचार करने लगा था.

एक दिन कनॉट प्लेस में वोल्गा में बैठे हुए उसने शैलजा के समक्ष अपना प्रस्ताव रख ही दिया. शैलजा पहले से ही ऎसा सोच रही थी. उसने स्वीकृति दे दी. शान्तनु ने बाजपेयी से बात की,क्योंकि वही शैलजा के स्थनीय अभिभावक थे और बाजपेयी और उनकी पत्नी सावित्री ने इस पर प्रसन्नता ही नहीं व्यक्त की प्रत्युत 'कोर्ट मैरिज' की व्यवस्था भी उन्हीं ने ही की.

शादी के बाद शांतनु ने मॉडल टाउन छोड़ दिया. उसने ग्रीन पार्क में दो कमरे का फ्लैट किराये पर लिया. शादी के कुछ दिन बाद ही बच्चा बाबू की कृपा से शैलजा को होम मिनिस्ट्री में नियुक्ति मिल गयी थी. इसमें नारायण ने भी उसकी कुछ मदद की थी. लेकिन ग्रीन पार्क शिफ्ट कर लेने के बाद शांतनु नारायण से कम मिल पाता था. नारायण भी शादी कर गृहस्थी में खप गया था.

अब शांतनु का संपर्क-क्षेत्र और विस्तृत हो गया था. बच्चा बाबू के यहां भी उसने जाना कम कर दिया था-- साल में कभी एक बार.

शांतनु का सारा समय संस्था,पत्रिका, यूनियन या अन्य कामों में खर्च होने लगा था. शादी के दो-तीन वर्षों तक तो उन दोनों ने सायास बच्चा न होने देने का प्रयत्न किया, फिर दो-तीन साल चाहने पर भी बच्चा नहीं हुआ और अब जब होने वाला था तब शैलजा और शान्तनु उसके पालन-पोषण को लेकर चिन्तित थे.

शैलजा ने जब पत्र समाप्त किया तब तक शांतनु खर्राटे लेने लगा था.

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और एक दिन जब शैलजा दफ्तर से शाम को लौटी, सुजाता को कमरे से बाहर छत को जाने वाले जीने की सीढ़ियों पर बैठी पाया. सुखद आश्चर्य से उसने सुजाता को गले लगा लिया. उसे आशा तो थी कि सुजाता आ जायेगी, लेकिन यह नहीं कि पत्र लिखने के एक सप्ताह के अंदर ही उसके पत्र का उत्त्तर दिए बिना सुजाता साक्षात आ उपस्थित होगी.

वर्षों बाद वह मिली थी सुजाता से. सुजाता के चेहरे पर वही सलोनापन दिखा शैलजा को. घंटों वह सुजाता के सुख-दुख और अपने व्यवस्थित होने से लेकर शांतनु के स्वभाव की विशिष्टताओं का वर्णन करती रही. सुजाता ड्राइंग रूम की सजावट निरखती सब सुनती रही थी. कीमती सोफा, फर्श पर महंगी कार्पेट,. रंगीन टी.वी.,डाइनिंग टेबुल और दीवार पर लटकी मूल्यवान कलाकृतियां. एक ओर मार्क्स, लेनिन के साथ मैक्सिम गोर्की और लूशुन के चित्र टंगे थे. उनके बगल में शैलजा और शांतनु का सहचित्र भी लगा हुआ था सुनहरे फ्रेम में. शांतनु का दाहिना हाथ शैलजा के कंधे पर था और शैलजा मुसकरा रही थी. शांतनु मुग्ध भाव से शैलजा की ओर देख रहा था. दुसरी ओर प्रेमचंद और टैगोर लटक रहे थे. दीवार पर बने शेल्फ पर मोटी-मोटी किताबें शीशे से बाहर झांक रही थीं. एक कोने में कवर से ढका सितार रखा हुआ था.

"सितार का शौक बरकरार है अभी?" सुजाता ने बात का रुख मोड़ना चाहा.

"कभी-कभी दो-चार महीने में एक बार----- व्यस्तता इतनी है कि कुछ हो नहीं पाता----- दिल्ली की जिन्दगी----- बस कुछ मत पूछो------ तुम आ गई हो, स्वयं देखोगी."

सुजाता चुप रही.

"बाबा हैं कि एक क्षण के लिए घर के लिए समय नही देते और----."

सुजाता ने शैलजा की बात बीच में ही काट दी, "यह बाबा जी कौन हैं?"

ठठा पड़ी शैलजा, "अरे शांतनु को 'अग्रिम दास्ता' वाले बाबा जी कहते हैं----- तुम तो पहली बार मिलोगी न------ वह लगता ही है पूरा बाबा----- दिन भर काम में व्यस्त-कभी संस्था के लिए, कभी पत्रिका के लिए, कभी यूनियन के लिए तो कभी किसी व्यक्ति के लिए. न खाने की चिन्ता, न पहनने की. जो मिल गया खा-पहन लिया--- बड़ा प्यारा इंसान है."

"आप बहुत चाहती हैं उन्हें."

"ऑफ कोर्स-----है ही वह इस लायक. खाली हाथ दिल्ली आया था वह और तुम देख रही हो----- क्या नहीं है आज हमारे पास---अच्छा-खासा नाम है उसका शिक्षण-क्षेत्र के साथ-साथ साहित्य में---तुम खुद ही देख लेना."

सुजाता कुछ सोचने लगी थी. बोली नहीं.

शैलजा ही बोलती रही----संस्था, पत्रिका और शांतनु के बारे में. उसे यह भी याद नहीं रहा कि सुजाता इतना लम्बा सफर तय करके आयी है, उसे चाय-नाश्ता देना है. आखिर सुजाता को ही बोलना पड़ा, "शैल, बाथरूम किधर है---- फ्रेश होना चाहती हूं."

"अरे, मैं भी कितनी बोर हूं, तुझे बातों में लगा दिया---सामने ही बाथरूम है--तू फ्रेश हो-----मैं चाय बनाती हूं."

सुजाता उठने लगी तो उसने पूछा, "चाय बनाऊं या कॉफी?"

"चाय ही लूंगी."

सुजाता फ्रेश होकर लौटी तब तक शैलजा चाय बना चुकी थी. चाय पीते समय वह लखनऊ, घर और परिचितों के बारे में पूछती रही. कुछ रिश्तेदारों के बारे में भी. उसे सुनकर दुख हुआ कि उसके बड़े भाई के एक और बेटी पैदा हो गई थी इतने दिनों में और यह कि उसके शांतनु के साथ विवाह करने के बाद से मां प्रायः बीमार रहने लगी थीं. पिताजी तो जैसे तब थे, वैसे अब भी रहते हैं ---अलमस्त.

चाय पीकर उसने सुजाता को अन्दर वाला कमरा दिखा दिया, जहां वह स्वयं सोती थी. सुजाता अटैची उठाकर कमरे में चली गयी और कपड़े बदलने लगी. शैलजा किचन में चली गई.

कपड़े बदलकर सुजाता भी किचिन में चली गई और शैलजा के न-न करने के बावजूद हाथ बंटाने लगी. जब शैलजा ने कहा, "आज तुम आराम कर लो--- फिर तुम्हीं को संभालना होगा कुछ दिन यह सब", तब सुजाता बोली, "वह तो तुम्हें देखते ही मैं समझ गयी थी---फिर आज से ही क्यों नहीं!"

शैलजा समझने का प्रयत्न करती रही कि सुजाता ने व्यंग्य तो नहीं किया.

रात दस बजे के लगभग शांतनु आया. साथ में विश्वास भी था. सुजाता को देखकर शांतनु की आंखें चमत्कृत रह गयीं. वह उसे एकटक देखता रहा बहुत देर तक. सुजाता शर्मा गई.

विश्वास चाय पीकर चला गया तो शांतनु अंदर कमरे में आया. शैलजा और सुजाता एक ही बेड पर लेटी थीं. हड़बड़ाकर सुजाता उठ बैठी. शांतनु मुसकराने लगा, फिर बोला, "शैल, उठो, खाना खायेंगे---आओ, सुजाता----" और वह ड्राइंग रूम की ओर मुड़ गया.

शांतनु के इस प्रकार के संबोधन से सुजाता के गाल सुर्ख हो गये. उसे लगा जैसे शांतनु उसे यह एहसास कराना चाहते थे कि वह उसे आज से नहीं पहले से जानते हैं. उसे यह देखकर अटपटा लगा कि शांतनु ने पैंट के ऊपर खादी का कुर्ता पहन रखा है और वह भी स्लीव के पास दो जगह फट रहा था.

शैलजा के साथ खाने का सामान लेकर जब सुजाता डाइनिगं रूम में पहुंची, शांतनु डाइनिंग टेबुल पर डटा हुआ था. खाना खाते समय वह दिन-भर के अपने कार्यक्रमों की जानकारी देता रहा और अनेक बार सुजाता को लक्ष्य कर उसने अपनी बात कही. सुजाता लगभग पूरे समय चुप रही थी.

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सुजाता के आ जाने से शैलजा को राहत मिली थी. शांतनु भी निश्चिंत था,लेकिन उसे सुजाता के लिए जॉब की चिंता सताने लगी थी. शैलजा लगभग प्रतिदिन रात खाने के समय उसे इस बात की याद दिला देती थी. हर दिन उसका एक ही जवाब होता, "आज नहीं जा पाया ----- कल जरूर जाऊंगा बच्चा बाबू के पास. हेड से भी बात करूंगा....." एक दिन सुजाता की आंखों में झांकते हुए उसने पूछा, "क्यॊं सुजाता--फिलहाल किसी कॉलेज में एडहाक मिल जाए तो कोई आपत्ति तो नहीं?"

"आपत्ति कैसी.प्राइमरी की टीचरी मिलना वहां मुश्किल था और यहां---?" सुजाता बोली.

"दरअसल दिल्ली विश्वविद्यालय की यह विशेषता है कि यहां पहले एडहॉक ही रहना पड़ता है -- कभी कभी वर्षों और कभी-कभी जिन्दगी ही एडहॉक में कट जाती है कुछ लोगों की---यह निर्भर करता है कैण्डीडेट की एप्रोच पर----और बिना एप्रोच यहां कुछ होता नहीं-----यू.पी. वगैरह में रिश्वत चलती है तो यहां एप्रोच. और हिन्दी में तो स्थिति यह है कि यहां गुट बने हुए हैं--- मार्क्सवादी गुट और संघी गुट--- वर्षों से कोई संघी गुट का आदमी ही विभागाध्यक्ष होता आ रहा है------ अब भी एक ऎसा ही प्रचण्ड मूर्ख अध्यक्ष है, जो रीतिकाल के अतिरिक्त कुछ नहीं जानता----- वैसे वह मेरा विरोधी तो है, लेकिन डरता भी है कहीं अन्दर-ही अन्दर---जब भी मिल जाता है, खुद ही नमस्कार करता है--."

सुजाता शांतनु की बातें ध्यान से सुन रही थी. शांतनु को लगा वह उससे प्रभावित हो रही है. बोला, "तुम चिंता न करो----- मैं कुछ भी उठा न रखूंगा. दयाल सिंह में सांध्य के लिए एक एडहॉक और एक रेगुलर वैकेन्सी आने वाली है---तुम भी विज्ञापन पर नजर रखना ---- मैं भी और तुम भी शैलजा."

लगभग पन्द्रह दिन बाद शांतनु सुजाता को लेकर एक दिन बच्चा बाबू के पास गया. मिलकर बच्चा बाबू ने भी ऎसा प्रदर्शित किया जैसे वे भी उसे वर्षों से जानते हों. उन्होंने भी उसे आश्वस्त किया कि वे दयालसिंह के लिए पूरा प्रयत्न करेंगे, भले ही पी.एम. से फोन करवाना पड़े. और यदि वहां काम नहीं बना तो वे अन्यत्र कहीं देखेंगे--- लेकिन देखेंगे जरूर और सुजाता को अधिक दिन बेकार नहीं रहना पड़ेगा. बच्चा बाबू को जब शांतनु ने बताया कि सुजाता उन्हीं की जाति की है तब बच्चा बाबू की आंखें चमक उठीं थीं और सुजाता की पीठ पर हाथ फेरते हुए वे बोले थे, "बिलकुल चिन्ता मत करो, तुम्हारा काम जरूर होगा----सैंकड़ों ऎरे-गैरों को लगवा चुका हूं---- फिर तुम्हारे लिए क्यों न करूंगा." उसके बाद शांतनु की ओर मुड़कर उन्होंने पूछा था, "आजकल क्या लिखा जा रहा है, शांतनु?"

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